Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

मेडल नहीं, ‘सेंगोल’ बहाओ लड़कियों!

बृजभूषण शरण सिंह ने देश के वर्तमान ही नहीं, भविष्य के साथ भी गुनाह किया है। आने वाले सालों में मां-बाप अपनी लड़कियों को इस क्षेत्र में भेजने से कतरायेंगे।
wrestlers protest
फ़ोटो साभार: PTI

30 मई को आंदोलनरत पहलवानों की एक पाती ने देश के संवेदनशील लोगों को हिलाकर रख दिया था। यौन हिंसा के खिलाफ लड़ रही पहलवान लड़कियों ने अपने इमोशनल पत्र में लिखा था, कि आज शाम वे अपना मेडल गंगा में बहाने जा रही हैं। यह भी लिखा कि जान से प्यारे मेडल्स को बहाने के बाद क्योंकि जीवन का कोई औचित्य नहीं रह जायेगा, इसलिए वे इंडिया गेट पर आमरण अनशन पर बैठ जायेंगी। आश्चर्य की बात है कि यौन हिंसा के आरोपी बृजभूषण सिंह को गोद में लिये बैठी मोदी सरकार ने इस पत्र के खलबली मचा देने के बाद भी मुंह नहीं खोला और मेडल गंगा में बहाने से रोकने का कोई प्रयास भी नहीं किया, हरिद्वार पुलिस को यह आदेश दे दिया गया कि वे उन्हें रोकने का कोई प्रयास न करें। उल्टे भाजपा समर्थक लोग पहलवानों को ट्रोल करते हुए सोशल मीडिया पर लिखते रहे कि ‘मेडल ही नहीं, जीत के बाद इनाम में मिला पैसा और सुविधायें भी लौटा देना चाहिए।’ यह सब बेहद शर्मनाक और अपमानजनक था। इतना कि पहलवानों के कुछ समर्थक भी आहत होकर कहने लगे कि उन्हें मेडल बहा देना चाहिए और सबकुछ वापस कर देना चाहिए।

ऐसी अफरा-तफरी की स्थिति में देश के कुछ नागरिक और जनसंगठन सक्रिय हुए। उन्होंने पहलवानों से ऐसा कदम उठाने से रोकने की न सिर्फ लिखित अपील की, बल्कि रोकने के लिए कई लोग हर की पैड़ी पहुंच भी गये। भारतीय कुश्ती संघ में यौन हिंसा के खिलाफ मुंह खोलने वाले पहलवान जब हाथ में मेडल लिए हरिद्वार की हर की पैड़ी पहुंचे, तो लोगों के साथ मीडिया का हुजूम भी साथ पहुंच गया।

मीडिया का वह हिस्सा भी, जिसे अभी तक पहलवानों के आंदोलन से कोई मतलब नहीं था और जिनको 28 मई को इन पर होने वाले दमन की बजाय भारतीय संसद का हिन्दूकरण दिखाने में अधिक रूचि रही। इस गोदी मीडिया को एक ऐसा इमोशनल दृश्य मिलने वाला था, जिसे देखने के लिए लोग घरों में अपने फोन और टीवी से चिपके बैठे थे। ऐसा दृश्य जिससे मीडिया घरानों, चैनलों की दृश्यता, ‘लाइकिंग’ और ‘शेयरिंग’ में कई-कई गुना अधिक इजाफा होने वाला था। अफसोस कि दर्शकों के कौतुहल को ऊंचाई तक पहुंचा देने के बाद वहां उन्हें वह दृश्य नहीं मिल सका। मेडल प्रवाहित करने में अपना अंत देखने वाले वाले पहलवानों को नरेश टिकैत ने पांच दिन का समय लेकर ऐन मौके पर रोक लिया। नरेश टिकैत आगे क्या करने वाले हैं, इस आन्दोलन में क्या भूमिका निभाने वाले हैं, इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से एक बार फिर यह साफ हो गया कि यह सरकार किस हद तक देश के सम्मान विरोधी, असंवेदनशील, महिलाविरोधी, कानूनविरोधी और सामंती है। इस सरकार ने अपने लिए ऐसी ही जनता भी तैयार कर ली है, जिसे लड़कियों के मेडल प्रवाहित कर आमरण अनशन पर बैठने से कोई फर्क नहीं पड़ता, उल्टे उन्हें यह सामंती वाक्य कहने का सुख मिलता है, ‘‘लड़का बनने चलीं थी.....,पहलवान बन गयी तो क्या, मेडल जीत लिया तो क्या, रहोगी तो लड़की ही।’’

लड़कियों! अपने मेडल नहीं, इस पितृसत्तात्मक दंभ को बहाओ

इस पितृसत्तात्मक देश में लड़कियों का पहलवान बनना कितना मुश्किल रहा होगा ये समझना बहुत मुश्किल नहीं है। ये मेडल उन्हें किसी सरकारी जोड़-तोड़ या सरकारी रहम से नहीं, बल्कि जी तोड़ मेहनत और उससे भी अधिक सदियों पुरानी एक पितृसत्तात्मक दीवार को गिराने से मिला है। कुश्ती और पहलवानी पूरी तरह पुरुषों के लिए आरक्षित क्षेत्र रहा है, क्योंकि यह खेल लड़कियों के लिए निर्धारित ड्रेस कोड में नहीं खेला जा सकता और लड़कियों के लिए बनाये गये ड्रेस कोड को तोड़ना इस समाज से लड़ना है। इस खेल में प्रवेश के लिए लड़की और उसके घर वालों को शारीरिक ही नहीं, कई-कई मानसिक वर्जनाओं को तोड़ना होता है। लड़कियां इन वर्जनाओं को तोड़ आगे बढ़ भी जायें, तो औरत को सिर्फ ‘भोगने वाला एक शरीर’ मानने वाले पुरुष उन्हें अपने लिए ‘उपलब्ध’ मान लेते हैं। खुद कुश्ती संघ का अध्यक्ष और भाजपा का सांसद बृजभूषण भी ऐसा ही पुरुष निकला।

इन लड़कियों ने इतनी सारी विपरीत परिस्थितियों से लड़कर यह मेडल हासिल किया है। उनका मेडल लड़कों की तरह मात्र उनकी ‘जीत’ का पुरस्कार नहीं, पितृसत्ता की एक दीवार ढहाने का भी पुरस्कार है। यह इसका ऐलान है कि ‘हर वो काम औरत कर सकती है, जो पुरुष कर सकता है’। यह इस क्षेत्र में आने वाली लड़कियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। इसे बहाना इस प्रेरणा को बहाना है।

बृजभूषण सिंह ने देश के वर्तमान ही नहीं, भविष्य के साथ भी गुनाह किया है। आने वाले सालों में मां-बाप अपनी लड़कियों को इस क्षेत्र में भेजने से कतरायेंगे। खेल में पहले भी लड़कियां कम थी, इस सरकारी बेहयाई से उनकी संख्या और भी घटेगी।

लड़कियों! मेडल के रूप में अपने इस जुझारू इतिहास को नहीं, लड़कियों के लिए बनाये गये पितृसत्तात्मक बाड़े और पूर्वागृहों को गंगा में बहाना।

कुछ लोगों ने मेडल बहा देने की अपील इसलिए भी की, क्योंकि मशहूर बॉक्सर मोहम्मद अली ने भी अपना मेडल ओहायो नदी में ‘फेंक दिया था’। काले नस्ल का होने के कारण एक रेस्टोरेंट में एक गोरे वेटर ने उन्हें खाना सर्व करने से इंकार कर दिया था। इस अपमान के लिए उन्होंने जो किया, वो उनके हिसाब से सही था। सर्वश्रेष्ठ मेडल भी उन्हें सामान्य गोरे नागरिक जितना सम्मान नहीं दिला सका, यानी जिस समाज में गोरा या काला होना ही किसी की प्रतिष्ठा का मानदण्ड हो, वहां मेडल को ‘फेंक देना’ (पवित्र नदी में बहा देना नहीं) प्रतिरोध का अच्छा तरीका है। लड़कियों! ऐसी कोई स्थिति आये तो तुम भी बहाने की बजाय अपना मेडल फेंक देना सत्ता के मुंह पर। लेकिन खिलाड़ियों की जमात हर समय में, हर देश में, हर मुद्दे पर, हर लड़ाई एक ही तरह से लड़ें ये ज़रूरी नहीं। यहां तो सरकार इस ताक में बैठी है कि लड़कियों को खेल के मैदानों से, स्कूल-कॉलेजों से, उच्च संस्थानों से, संसद-विधान सभाओं से वापस रसोइयों में और मर्दों के बिस्तरों पर भेज दिया जाय। इसी विचार के कारण एक यौन हिंसक का इतना खुला बचाव किया जा रहा है। ये इस देश की लड़कियों पर होने वाली हिंसा के खिलाफ मनुवादी सरकार से लड़ाई है, जहां लड़कियों के सामने लड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। मेडल बहाना प्रतीक रूप में भी यहां फिट नहीं बैठता।

लड़कियों! महिला विरोधी मनुस्मृति के विचार को बहाओ, मेडल मत बहाओ

इस सरकार का जनवाद में विश्वास ही नहीं है, इस देश के संविधान में भी नहीं और इस देश के संवैधानिक कानूनों में भी नहीं। क्या ये अजीब नहीं है कि भाजपा का सांसद, सरकार का हिस्सा बृजभूषण पॉक्सो कानून में फेर-बदल के लिए साधु-संन्यासियों का जमावड़ा कर रहा है और साधु-सन्यासी उसके पक्ष में बोल रहे हैं। अब यह छिपा नहीं है कि इस सरकार का विश्वास मनुवादी संविधान में है। यह सरकार लगातार इस ओर बढ़ रही है। 28 मई को ‘सेंगोल समारोह’ के माध्यम से मोदी सरकार ने मनुवादी सामंती राजतंत्र की अप्रत्यक्ष लेकिन बाकायदा घोषणा भी कर दी है। उस दिन संसद किसी सामंती राजा का दरबार ही लग रहा था, जिसमें ब्राह्मण-पुरोहित राजा के इर्द-गिर्द मौजूद रहते थे और राजा को राजकाज के सुझाव दिया करते थे। 28 मई को संसद वैसे ही सामंती राज दरबार में बदल गया था, जिसमें औरतों की कोई जगह नहीं होती। नंग-धड़ंग साधु उस दिन संसद के अन्दर और औरतें इस संसद भवन के बाहर थीं, जो इस हिंसक, असंवैधानिक राजदरबार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं। दिन भर चले ‘राजशाही’ के कार्यक्रम के तुरन्त बाद इन लड़कियों को सड़कों पर घसीटकर राजतांत्रिक सत्ता व्यवस्था में उनकी जगह बताई गई थी।

लड़कियों! तुम्हें इस सामंती, हिन्दूवादी-ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक राजदरबार को उसकी जगह बतानी है।

लेकिन याद रखना, जैसे ही तुम इस ऐतिहासिक काम को करने आगे आओगी, हरिद्वार में मेडल बहाने के लिए लुहकारता मीडिया गायब हो जायेगा और तुम्हें माओवादी, नक्सलवादी, उग्रवादी आतंकवादी जैसे विशेषणों से नवाजने लगेगा। घबराना मत, यह वैसा समय है, जब ये विशेषण तुम्हारे गले में लटका एक और मेडल होगा। वह मेडल जो भविष्य की लड़कियों को कहेगा कि तुम सिर्फ खिलाड़ी नहीं जालिमों के खिलाफ लड़ने वालों के खेमे में उपस्थित थी। देखो लेख लिखते हुए ही तुम्हारी जीत की एक खबर आ गयी- अयोध्या में 5 जून को बृजभूषण की रैली कैंसिल हो गयी। यह इस लड़ाई का दबाव है लड़कियों।

मेडल नहीं, मनु की सत्ता के इस सेंगोल को बहाओ लड़कियों!

 (लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता और “दस्तक नये समय की” पत्रिका की संपादक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest