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2019 में विज्ञान: मानव इतिहास, ईबोला का इलाज और क्वांटम कंप्यूटिंग

2019 में विज्ञान की दुनिया में कुछ अहम खोजें हुईं।
Year 2019 in Science History
Image Courtesy: Smithsonian Magazine

ज्ञान के विकास में सबसे ज़्यादा उस चीज़ की अहमियत होनी चाहिए, जिससे इंसानियत को मदद मिले। ऐसी खोजें जिनमें नए आयाम खोलने का माद्दा है, जो अतीत और भविष्य की हमारी समझ को बेहतर करती हैं। 2019 में विज्ञान की दुनिया में भी ऐसी ही कुछ खोज हुईं। 

जेनेटिक्स के ज़रिये इंसान

इस साल मानव इतिहास के बारे में जेनेटिक रिसर्च के ज़रिये बहुत कुछ पता लगाया गया। 2019 में जीवाश्म और दूसरी चीजों से मिले प्राचीन डीएनए के आधार पर इंसानी अतीत के बारे में कुछ बड़े खुलासे हुए।

1. ऐसी ही एक खोज में ''आधुनिक इंसान'' की उत्पत्ति से संबंधित स्रोत के दावे किए गए। इसके मुताबिक़ आधुनिक इंसान सबसे पहले अफ़्रीका के दक्षिणी हिस्से में नज़र आया। यह एक आर्द्रभूमि है, जहां आजकल बोत्सवाना, नामीबिया और ज़िम्बाब्वे जैसे देश हैं। यहां दो लाख साल पहले आधुनिक इंसान की उत्पत्ति हुई। बाद में इंसान यहां से निकल गए। यह अध्ययन कैसे किया गया? रिसर्चर ने 200 ऐसे लोगों का ब्लड सैंपल इकट्ठा किया, जिनके डीएनए के बारे में आसानी से पता नहीं चलता है। इनमें नामीबिया और दक्षिण अफ़्रीका के चरवाहे और भोजन इकट्ठा करने वाले शिकारी शामिल थे। रिसर्चर ने माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (mtDNA) का अध्ययन किया, यह डीएनए सिर्फ़ माताओं से बच्चों को मिलता है। इस डीएनए का परीक्षण 1000 दूसरे अफ़्रीकी लोगों से किया गया, जिनमें ज़्यादातर दक्षिण अफ़्रीकी थे। रिसर्चर ने पाया कि खोयसान बोलने वाले लोगों का mtDNA (L0) फ़िलहाल जीवित लोगों में सबसे पुराना है। अध्ययन में खुलासा हुआ कि इस L0 की उत्पत्ति दो लाख साल पहले हुई।  

2. इस क्षेत्र में एक और अहम खोज हुई। खोज में पता चला कि आज के इंसान होमो सेपिएन्स के सबसे क़रीबी रिश्तेदार होमो इरेक्टस आख़िरी बार इंडोनेशिया के जावा आईलैंड पर मौजूद थे। वैज्ञानिकों के मुताबिक़ यह स्पेशीज़ सोलो नदी के किनारे नगांडोंग नाम की जगह पर पाई जाती थी। हड्डियों के एक जमावड़े से मिले जीवाश्म की डेटिंग से इस बारे में पता चला। यहां होमो इरेक्टस की खोपड़ियां और पैर की हड्डियां मिली थीं। वैज्ञानिकों का मानना है कि क़रीब बीस लाख साल पहले होमो इरेक्टस अफ़्रीका से प्रवास कर एशिया पहुंचे और चार लाख साल पहले इनका नाश हो गया। लेकिन नई खोज से पता चला है कि नगांडोंग के पास यह स्पेशीज़ 1,08,000 साल से 1,17,000 साल पहले तक रहती थी।

3. रहस्यमयी प्राचीन मानव प्रजाति डेनिसोवन्स के बारे में हमारी जानकारी सिर्फ़ इतनी है कि वे साइबेरिया के अलताई पहाड़ों की डेनिसोवा गुफाओं में रहते थे। क्योंकि इस प्राचीन प्रजाति के जीवाश्म केवल डेनिसोवा की गुफाओं में पाए गए हैं। लेकिन ''नेचर'' में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट के मुताबिक़, डेनिसोवन इंसानों से संबंधित एक जबड़ा तिब्बत के पठार में पाया गया है। इससे कई दिलचस्प जानकारियां सामने आई हैं। यह जीवाश्म क़रीब एक लाख साठ हज़ार साल पुराना है। जीवाश्म में मिला जबड़ा मज़बूत और इसके दांत ज़रूरत से ज्यादा बड़े हैं, जो सबसे प्राचीन निएंडरथल की तरह नज़र आते हैं। लेकिन इनके प्रोटीन एनालिसिस से पता चला है कि ये साइबेरियाई डेनिसोवियन्स के क़रीब हैं।

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क्वांटम कम्प्यूटिंग और सुप्रीमेसी:

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कंप्यूटर वैज्ञानिक लगातार कंप्यूटिंग की गति बढ़ाए जाने की कोशिश कर रहे हैं, जो मौजूदा क्षमता से कहीं ज़्यादा होगी। अब अगली पीढ़ी की कंप्यूटिंग के लिए क्वांटम मैकेनिक्स के सिद्धांतों का उपयोग किया जा रहा है। इन कोशिशों में कुछ सफलता भी मिली है। लेकिन गूगल द्वारा क्वांटम सुप्रीमेसी हासिल करने के दावे पर विवाद खड़ा हो गया।

गूगल के 53 बिट क्यूबिट कंप्यूटर सायकामोर ने एक ऐसी समस्या को सिर्फ 200 सेकंड में हल कर दिया, जिसे करने में आम कंप्यूटर को क़रीब दस हज़ार साल लगते। दरअसल यह इस दिशा में पहला क़दम है। इससे हमें पता चलता है कि एक क्वांटम कंप्यूटर भी फंक्शनल कंप्यूटेशन कर सकता है और कुछ ख़ास तरह की समस्याओं को पारंपरिक कंप्यूटरों से कई गुना तेज़ी से हल करने में सक्षम है।

लेकिन दूसरी तरफ़ आईबीएम ने गूगल के दावों को ख़ारिज कर दिया और दावा किया कि सायकामोर के ज़रिये कुछ भी अतिरिक्त हासिल नहीं किया गया है। यह टकराव क्वांटम कंप्यूटिंग में व्यावसायिक हितों को काफ़ी हद तक सामने रखता है।

प्रकृति, पर्यावरण और अमेज़न के जंगल

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मानव जनित मौसम परिवर्तन अब ख़तरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। मौसम विज्ञानी पहले ही बता चुके हैं कि कैसे यह ''क्रिटिकल स्टेट'' वैश्विक मौसम में अपरिवर्तनीय बदलाव लाएगी और इंसानियत के लिए आपदाएं पैदा करेगी। 2019 में भी दुनिया ने तूफान, बाढ़ और जंगली आग के चलते भयानक नुकसान झेला। मौसम परिवर्तन से पैदा हो रहीं खतरनाक पर्यावरणीय परिघटनाओं से इतर, अब प्रकृति ख़ुद संकटग्रस्त स्थिति में आ चुकी है। इसका कारण सिर्फ़ इंसान द्वारा किया गया पर्यावरण का नुकसान है।

''इंटरगवर्मेंटल साइंस पोलिसी प्लेटफॉर्म'' द्वारा जैव-विविधता और इकोसिस्टम सर्विस (IPBES) पर दी गई ग्लोबल रिपोर्ट में क़रीब 15,000 साइंटिफ़िक पेपर्स का परीक्षण किया गया है। साथ ही जैवविविधता में होने वाले बदलावों पर दूसरे स्रोतों का भी अध्ययन है। इसमें जैवविविधता की उन क्षमताओं का भी परीक्षण है जिनके ज़रिये यह भोजन, साफ़ पानी और हवा प्रदान करती है।

रिपोर्ट के मुताबिक़, जानवरों और पेड़-पौधों की क़रीब आठ लाख जानी-पहचानी प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। इसमें 40 फ़ीसदी एमफीबियन स्पेशीज़ (ज़मीन और पानी, दोनों में रहने में सक्षम) और एक तिहाई जलीय स्तनधारियों की प्रजातियां हैं।

अगस्त में अमेज़न के रेनफॉरेस्ट में अभूतपूर्व आग लगी। यह दुनिया की सबसे बड़ी आग थी। आग इतनी भयावह थी कि आसपास के शहरों पर काले धुएं के बादल छा गए। रिपोर्टों के मुताबिक़, ब्राज़ील के नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च (INPE) ने इस साल 72,000 आग की घटनाएं दर्ज कीं। यह पिछले साल से 80 फ़ीसदी ज़्यादा हैं। इससे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि इनमें से 9000 घटनाएं पिछले एक हफ़्ते में ही हुई हैं।

अमेज़न की आग के पीछे मुख्य वजह बोलसोनारो के नेतृत्व वाली सरकारी नीतियां रहीं, जिनकी वजह से बड़े पैमाने पर ब्राज़ील में जंगलों को काटा गया। अब जंगलों के भीतरी हिस्सों समेत एक बड़े भाग को व्यापार उद्यम लगाने के लिए खोल दिया गया है।

ईबोला के इलाज की ओर एक नया क़दम

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अतीत में ईबोला के इलाज के लिए कोई दवा मौजूद नहीं थी। लेकिन कांगों में हुए चार में से दो प्रयोगों में मरीज़ की जान बचाने में कामयाबी मिली है। इस नई पद्धति में मौजूदा और नई दवाईयों के एक मिश्रण का उपयोग किया जाता है। इसे PALM ट्रायल का नाम दिया गया। इस नई पद्धति में मोनोक्लोनाल एंटीबॉडीज़ और एंटीवायरल एजेंसीज़ का भी उपयोग होता है।

मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ का निर्माण प्रतिरोधी कोशिकाओं से होता है, जो एक ख़ास क़िस्म की ''पेरेंट सेल'' का क्लोन होती हैं। यह एंटीबॉडीज़ कुछ खास कोशिकाओं या प्रोटीन के साथ जुड़ती हैं। इसका उद्देश्य मरीज़ के प्रतिरोधी तंत्र को ईबोला सेल पर हमले के लिए प्रेरित करना होता है।

किलोग्राम को दोबारा तय किया गया

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वज़न मापने की ईकाई ''किलोग्राम'' को फ्रांस में एक धातु के टुकड़े से परिभाषित किया गया था। धातु के इस टुकड़े को इंटरनेशनल प्रोटोटाइप किलोग्राम या बिग K नाम से जाना जाता है। यह प्लेटीनियम-इरिडीयम मिश्रधातु से बना होता है, जिसका वजन एक किलो है। यह मिश्रधातु फ्रांस के ''ब्यूरो ऑफ़ वेट्स एंड मीजर्स'' में 1889 से रखी हुई है। इस IPK की दुनिया भर में कई प्रतियां हैं। इनका इस्तेमाल दुनियाभर में वजन के एक मानक पैमाने के लिए होता है।

लेकिन अब किलोग्राम की परिभाषा पहले जैसी नहीं है। इस साल इंटरनेशनल मीट्रॉलॉजी डे पर एक शताब्दी से उपयोग किए जा रहे किलोग्राम को इस्तेमाल करने का तरीक़ा बदल गया है। किलोग्राम को अब ''प्लांक कंस्टेंट (Planck Constant)'' से परिभाषित किया जाएगा, जो कभी बदलता नहीं है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Year 2019 in Science: History of Humans, Ebola Treatment and Quantum Computing

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