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सोशल डिस्टेन्सिंग तो जानते ही हैं, थोड़ा हर्ड इम्युनिटी को भी समझिये!

मोटे तौर पर वायरस से बचने के दो तरीके हैं। या तो वैक्सीन बना लिया जाए या शरीर की इम्युनिटी पॉवर यानी प्रतिरक्षा प्रणाली इतनी मजबूत हो कि वायरस का कुछ असर ही न हो। और अगर यही प्रतिरक्षा प्रणाली सामूहिक तौर पर विकसित हो जाए तो...
कोरोना वायरस
Image courtesy: MSN

कोरोना वायरस की लड़ाई के लिए जैसे आप सोशल डिस्टेन्सिंग (Social distancing) का नाम सुन रहे हैं, वैसे ही एक कांसेप्ट हर्ड इम्युनिटी (Herd immunity) का भी है। जितनी चर्चा सोशल डिस्टेन्सिंग की हुई है, उतनी चर्चा हर्ड इम्युनिटी की नहीं हुई है। तो थोड़ा इसे भी समझने की कोशिश करते हैं। हर्ड इम्युनिटी के बारे में समझने से पहले खुद से कुछ सवाल पूछिए-

क्या सोशल डिस्टेन्सिंग अपनाने से वायरस से पूरी तरह बच निकला जाएगा। यानी क्या एक दूसरे से अलग रहकर वायरस से बचा जा सकता है। तो इसका जवाब है बिल्कुल बचा जा सकता है। यही तरीका अपनाया भी जा रहा है। लेकिन क्या एक दूसरे से अलग रहना, समाज को पूरी तरह अलग-थलग कर देना संभव है तो इसका जवाब है बिल्कुल नहीं। शायद असंभव। क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए निष्कर्ष यह निकलता है कि सोशल डिस्टेन्सिंग अपनाकर हम केवल वायरस को कुछ समय के लिए टाल रहे हैं। उससे बच नहीं रहे हैं।  

अगर बहुत ध्यान से सोचे तो सोशल डिस्टेन्सिंग नागरिकों द्वारा सरकारों की मदद के लिए अपनायी गई कार्रवाई है। ताकि सरकार टेस्टिंग करे, कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग करे और संक्रिमत व्यक्ति को आइसोलेट यानी अलग-थलग किया जा सके। अभी तक इस काम की हक़ीक़त यह है कि प्रति दस लाख आबादी में केवल 93 सैम्पल टेस्ट किये जा रहे हैं। यहाँ यह भी समझ लीजिये कि 93 सैंपल और 93 लोग अलग अलग बाते हैं। क्योंकि हो सकता है कि एक ही व्यक्ति के टेस्ट के लिए तीन-चार बार सैंपल लिया गया हो। यानी एक से अधिक बार सैंपल लिया गया हो। कहने का मतलब यह भी है कि 21 दिनों के लॉकडाउन का सही तरह से इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इसके लिए केवल सरकार ही जिम्मेदारी नहीं है बल्कि हम सबकी राजनीतिक चेतना भी जिम्मेदार है, जिसमे स्वास्थ्य कोई मुद्दा ही नहीं बन पाता।    

ऐसे में क्या होगा? क्या 21 दिनों बाद संक्रमण खत्म हो जाएगा। संक्रमण न अभी खत्म है, न 21 दिनों के लॉकडाउन के बाद खत्म होगा। अभी सामाजिक गतिशीलता कम है, इसलिए संक्रमण का फैलाव कम है। जैसे-जैसे सामाजिक गतिशीलता बढ़ती चली जाएगी, संक्रमण का फैलाव तेज होने लगेगा।

एक लाइन में कहा जाए तो जब तक इलाज नहीं, तब तक इससे बचना मुमकिन नहीं है। इसे बहुत दिनों तक टाला नहीं जा सकता है। क्योंकि हम सबकी जिंदगियां एक दूसरे से अलगाव पर नहीं, एक दूसरे से लगाव पर निर्भर हैं।

इन सारी बातों को अपने दिमाग में रखने के साथ हर्ड इम्युनिटी को समझते हैं। मोटे तौर पर वायरस से बचने के दो तरीके हैं। या तो वैक्सीन बना लिया जाए या शरीर की इम्युनिटी पॉवर यानी प्रतिरक्षा प्रणाली इतनी मजबूत हो कि वायरस का कुछ असर ही न हो। अगर असर हो भी तो शरीर आसानी से उसे सहन कर ले। तो यही तरीका जहां पर वैक्सीन की ज़रूरत नहीं पड़ती, बड़ी संख्या में लोगों के अंदर वायरस से लड़ने की क्षमता डेवलप हो जाती है, इसे ही हर्ड इम्युनिटी यानी सामूहिक प्रतिरक्षा कहते हैं।

जब वायरस बिल्कुल नया होता है तब शरीर को वायरस के जेनेटिक इन्फॉमेशन से डील करने की समझ नहीं होती है। इसलिए इम्युनिटी डेवलप यानी प्रतिरक्षा विकसित करना बहुत मुश्किल होता है। कोरोना वायरस के केस में यही हो रहा है। नौजवान तो इम्युनिटी डेवलप कर पा रहे हैं लेकिन बूढ़े लोगों में यह डेवलप नहीं हो पा रही है। इसलिए कोरोना वायरस से मारे गए लोगों की संख्या में बूढ़े लोगों की संख्या अधिक है। साथ में उनकी संख्या अधिक है, जिनका इम्युनिटी लेवल कुछ बीमारियों की वजह से कमज़ोर है।  

भारत के महशूर Epidemiologist यानी महामारी विशेषज्ञ डॉक्टर जयप्रकाश मुलयली कहते हैं कि साल 2009 में यह H1N1 इन्फ्ल्युंजा आया था। इसका प्रकोप दो तीन महीने रहा, उसके बाद गायब हो गया। क्योंकि हम में से बहुत सारे लोगों ने इसके खिलाफ अपनी इम्युनिटी डेवलप कर ली थी। कोरोनावायरस के मामले में यह भी एक उम्मीद है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि हमें नहीं पता कि कितने लोगों को संक्रमित करने के बाद इसके खिलाफ इम्युनिटी डेवलप होगी।

एक स्थिति यह हो सकती है कि भारत के 50-60 प्रतिशत लोगों में कोरोना वायरस का संक्रमण हो जाए। इसका सही डाटा मिले कि कितने लोगों की मौत हुई है, कितने क्रिटिकल अवस्था में है तो यह अनुमान लगाने में आसानी होगी कि क्या हर्ड इम्युनिटी को अपनाया जा सकता है। जब आंकड़ें अनुकूल होंगे तभी यह फैसला लिया जा सकेगा कि क्या ऐसा किया जा सकता है कि बूढ़े लोगों को अलग-थलग रखा जाए, क्या भारत की तकरीबन 12.5 फीसदी बूढी आबादी को सेल्फ आइसोलेशन में रखा जाए और नौजवान आबादी को कुछ सावधानियों के साथ रोज़ाना के काम में उतार दिया जाए। यह आबादी इम्युनिटी लेवल हासिल कर ले। उसके बाद मामले अपने आप कम होने लगेंगे।

एक सच्चाई यह भी है कि भारत की कुल आबादी तकरीबन 130 करोड़ है। अगर हम 4500 रुपये की दर से सबका टेस्ट कर भी लें, तो इसका मतलब यह नहीं कि हम सबको अलग रख पाएंगे। संक्रमण फ़ैलना तय है। वायरस फैलते रहते हैं। लेकिन जैसे-जैसे लोगों में इम्युनिटी लेवल डेवलप होती है। इनका फैलाव कम होता जाता है। एक बिंदु पर आकर यह रुक जाते हैं। कोरोना वायरस एक नया वायरस है। हमें नहीं पता है कि यह किस बिंदु पर जाकर रुकेगा। किस बिंदु पर जाकर इस वायरस के खिलाफ एक प्रोटेक्टिव लाइन बन जाएगी। हर वायरस में यह अलग-अलग होती है। इसलिए खसरे के वायरस बचने के लिए तकरीबन 90 फीसदी लोगों को वैक्सीनेशन की जरूरत है लेकिन इन्फ्ल्युंजा में केवल 40 फीसदी लोगों को वैक्सीनेशन देने से काम चल जाता है।  

डॉक्टर की बातों से यही समझ आता है कि भारत में एक छत के नीचे पांच-पांच लोगों का परिवार रहता है। ये लोग ज्यादा से ज्यादा फिजिकल डिस्टेंस अपना सकते हैं, सोशल डिस्टेंस नहीं।

इस बीमारी की वजह से छुआछूत का चलन भी चल पड़ा है। डॉक्टरों तक को नहीं बख्शा जा रहा है तो जरा उनके बारे में सोचिये जो पहले से जातीय भेदभाव का शिकार हैं।

यह बात सही है कि सोशल डिस्टेन्सिंग कोरोना वायरस को टालने का काम कर रहा है। लेकिन हर्ड इम्युनिटी डेवलप नहीं हुई, इलाज नहीं हुआ, तब क्या होगा?  

सोशल डिस्टेन्सिंग और हर्ड इम्युनिटी में से किसी एक का भी चुनाव बहुत मुश्किल है। लेकिन सोशल डिस्टेन्सिंग के साथ हर्ड इम्युनिटी की भी जानकरी हो तो एक देश और व्यक्ति के तौर पर फैसले लेने में विल्कपों की संख्या तो बढ़ ही जाती है।  

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