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कृषि और किसानों का गला घोंटने की तैयारी

हैरान-परेशान कर देने वाले ये नए बिल तब स्पष्ट हो जाते हैं जब आपको पता चल रहा है कि वे बिल किसानों की मदद करने के लिए नहीं हैं, बल्कि निजी खिलाड़ियों यानी धन्नासेठों को ठेके पर खेती में पैसा लगाने के लिए हैं।
कृषि बिल और किसान

केंद्र सरकार के नए कृषि विधेयक, जिन्होने बाजार, खेती और व्यापार को नियंत्रित करने वाले मौजूदा नियमों को समाप्त करते हुए, कृषि क्षेत्रों में कॉर्पोरेट अधिग्रहण और उसके हस्तक्षेप को बढ़ाने के लिए कृषि क्षेत्र को पूरी तरह से खोल दिया हैं। पहले से ही यानी हरित क्रांति के बाद से ही कृषि में सभी कुछ का निजीकरण हो चुका है। बीज, खाद, पानी, बिजली यानी सभी चीजें ऐसी हैं जिन्हे किसान खरीदने के लिए पैसे का भुगतान करता है और अब जमीन जिस पर सरकार ने आंखे गडाई हुई थी उसे भी कानून के जरिए बड़े पैमाने पर अनुबंध खेती की तरफ धकेलने का काम किया जा रहा है। वे दिन गए जब किसान बीज को बचाने और उनका पुन: उपयोग करने या फसलों की उन्नत किस्मों का चयन कर खेती का विकास करते थे। अब हाईब्रीड बीज और निजी कंपनियां यह सुनिश्चित करती हैं कि किसान को बीज के रूप में मूल रूप से किसी चीज में निवेश करना होगा।

बिल पारित होने से पहले जारी किए गए अध्यादेशों की जगह लेने वाले ये तीन विधेयक, आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020, किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, 2020 और मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता बिल, में कुछ व्याकुल कर देने वाले प्रावधान हैं, खासकर जब किसान को लाभ पहुंचाने की बात आती है। लेकिन बिल को पढ़ते हैं तो आप ये महसूस करने लगते हैं कि ये वास्तव में किसान के पक्ष में नहीं है तो बात स्पष्ट हो जाती है।

किसानों को सशक्त बनाने और स्टॉकिंग, बिक्री और बाजारों की बेड़ी तोड़ने के नाम पर, ये नए कानून मुख्य रूप से सरकारी हस्तक्षेप को खत्म कर सब कुछ निजी खिलाड़ियों की थाली में सौंप देते हैं। सरकारों ने कई दशकों पहले ही कृषि के प्रति अपनी जिम्मेदारी से नाता तोड़ लिया था और ये नए बिल तो किसान एवं कृषि के खिलाफ तख्तापलट हैं।

स्पष्ट रूप से, ये केवल किसान नहीं हैं जो इन कानूनों से नाराज है, जबकि इनका उद्देश्य  सुधार करना बताया आया था, लेकिन जिस तरह से इन्हे पारित किया गया वह लोकतंत्र की संस्था के भी खिलाफ है। सबको पता है कि राज्यसभा में सत्तारूढ़ दल के पास बहुमत नहीं है, और दूसरे कृषि विधेयक को पारित करते समय हुए हंगामे का श्रेय कोई भी क़ानून मानने वाला देश नहीं लेगा। फिर भी, हमें सुनाया जा रहा कि इससे किसान को सबसे अधिक लाभ होगा क्योंकि पिछले 70 वर्षों में उनके लिए कुछ भी नहीं किया गया है। याद रखें, यह वही देश है जिसने कभी ‘जय जवान जय किसान का नारा दिया था!

भंडारण, निरीक्षण, दौरा करने की अनुमति, जांच या स्टॉक लेने की अनुमति के बारे में आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत पहले के नियमों को हटा दिया गया है और उपज की जमाखोरी (खेद, भंडारण) या बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। और कहा जा रहा है कि यह किसानों की आय बढ़ाने वाला है। मेरे अनुमान से यह कदम सरकार ने तब महसूस किया होगा जब उन्हे एहसास हुआ होगा कि किसान जिनके पास विशाल गोदाम हैं जहां वे बड़ी संख्या में अपनी असहनीय उपज का स्टॉक करते हैं और सही कीमत (इंटरनेट पर, निश्चित रूप से पता करने बाद) की प्रतीक्षा करते हैं और फिर एक मोटी रकम के बदले बिक्री करते हैं ताकि मुनाफा बढ़े।

आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक को पारित करते हुए, केंद्रीय उपभोक्ता, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मामले के राज्य मंत्री रावसाहेब दानवे ने कहा कि भंडारण सुविधाओं की कमी के कारण कृषि उपज के रखरखाव पर बढ़ते खर्च को रोकने के लिए इस संशोधन की जरूरत है। यह सरकार की तरफ से उस गलती को मानना है कि सरकार ने इन वर्षों में किसानों के लिए भंडारण बढ़ाने की जहमत नहीं उठाई, यहां तक कि इसके खुद के गोदामों में बमुश्किल स्टॉक की पूरी खरीद हो पाती है।

उदाहरण के लिए, विदर्भ में किसान सालों से कपास को स्टॉक करने के लिए गोदामों की मांग कर रहे हैं, ताकि वे कीमतें बढने पर अपनी उपज बेच सकें, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। अब स्टॉक की कोई सीमा नहीं है, असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, और कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) को दरकिनार करके, किसानों से उन खरीदारों को खोजने की उम्मीद की जा रही है जो उन्हे अच्छी कीमत की पेशकश कर सके। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि, "बाकी सब इंतज़ार कर सकते हैं लेकिन कृषि नहीं"। आजादी के बाद से, किसान इंतजार कर रहे हैं और अब उनका धैर्य गहरी नियतिवाद में जम गया है, जैसा कि 1995 के बाद से राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा दर्ज किए आंकड़ों के मुताबिक देश में 3,00,000 से अधिक किसान आत्महत्याओं कर चुके है।

सरकार ने अनुबंध खेती की अनुमति किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन और फार्म सेवा अधिनियम समझौते के तहत दे दी है। इसका अर्थ है कि "एक किसान और एक  प्रायोजक को या किसी भी तीसरे पक्ष की तरफ से किसान या प्रायोजक के बीच एक लिखित समझौता होगा, जो किसी भी पूर्वनिर्धारित गुणवत्ता के हिसाब से कृषि उपज के उत्पादन या पोषण से पहले होता है, जिसमें प्रायोजक किसान से उस खेती को खरीदने के लिए सहमत होगा जिसका उत्पादन किसान करेगा और कृषि सेवाएं प्रदान करेगा। हालांकि, इसमें शिकायतों के निवारण की भी व्यवस्था है, लेकिन ये प्रावधान चिंतारहित हैं जिससे कि किसानों को धोखा या भूमि को ज़ब्त होने से बचाया जा सके।

एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (ASHA) जैसे किसान संगठनों का मानना है कि एग्रीबिजनेस के लिए एक विकल्प प्रदान करने के अलावा, इन विधानों में बहुत कम प्रगतिशीलता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि नए प्रावधानों ने देश भर के किसान समुदाय के सामूहिक सौदेबाजी को बढ़ाया है, कुछ अपवादों को छोडकर जब समय-समय पर सरकार के घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर भी किसान अपनी उपज नहीं बेच पाते हैं।

जैसा कि इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट रिसर्च (IGIDR) से सुधा नारायणन ने आशा (ASHA) द्वारा आयोजित एक वेबिनार में बताया कि केवल खेल के नियमों को बदलना पर्याप्त नहीं है। किसानों को राजसत्ता से समर्थन की पहले से अधिक जरूरत है और अब नए कानूनों ने तो पहले से मौजूद असमान प्रावधानों को लगता है पंचर कर दिया है जिसमें वे और अधिक तबाह हो जाएंगे।

क्या आपको एमएस स्वामीनाथन आयोग की पांच-खंड की मोटी रिपोर्ट याद है? उस रपट पर तब तक धूल जमी रही जब तक कि एनडीए सरकार ने निर्णय नहीं ले लिया कि वे उत्पादन की लागत से 50 प्रतिशत के मुनाफे की सिफारिशों के अनुसार एमएसपी में वृद्धि करेगी। लेकिन इस सरकार ने जो घोषणा की है, वह स्वामीनाथन रिपोर्ट की सिफारिश नहीं है, उस एमएसपी का कोई मतलब नहीं है जब तक कि सरकार किसान की उपज की खरीद नहीं करती है। उदाहरण के लिए, कपास की एमएसपी 4,755 से 5,405 रुपए (लघु और मध्यम प्रधान के लिए) प्रति क्विंटल है और 4,50 से 6,750 रुपए दीर्घ और अतिरिक्त-दीर्घ स्टेपल (2019-20 सीज़न के लिए) हो सकती है, लेकिन कितने किसानों को वास्तव में वह राशि मिल रही है या मिली है?

बाजार की कीमतें अक्सर एमएसपी से नीचे होती हैं, और सुनिश्चित खरीद के अभाव में, किसान अक्सर स्थानीय व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर हो जाता है जो उन्हें अग्रिम भुगतान करते हैं। इस साल विदर्भ में, कोविड-19 ने मूल्य को नीचे धकेल दिया और किसानों ने कपास को एमएसपी से कम पर बेच दिया। विदर्भ के यवतमाल के पास बोथबोधन गांव के पूर्व सरपंच अनूप चव्हाण के अनुसार, “कृषि कानून किसानों के लिए नहीं हैं- वे व्यापारियों और निजी खिलाड़ियों की मदद करेंगे जिनके पास अनुबंध खेती में निवेश करने के लिए पैसा है। गरीब किसान की मदद करने के बजाय, सरकार अमीरों की तरफ है, ”उन्होंने कहा। चव्हाण ने कहा कि किसानों ने इस साल अपना कपास 4,200 रुपये प्रति क्विंटल में बेचा क्योंकि कीमतें लुढ़की हुई थी जबकि एमएसपी 5000 रुपए से अधिक घोषित थीं।

किसानों को लग सकता है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग (अनुबंध खेती) से फसलों की उन्नत किस्मों को विकसित करने में मदद मिल सकती है, लेकिन यह बाजार को उल्टा कर देगा, क्योंकि उन लोगों की उपज का उत्पादन नहीं होगा, जिनके पास महंगे और विदेशी बीज नहीं होंगे, उन्होंने कहा। कई किसान कृषि विपणन उत्पादन केंद्रों के माध्यम से उपज बेचते हैं (भले ही, जैसा कि महाराष्ट्र में है कि आप बाहर भी’बेच सकते हैं) क्योंकि उनके पास किसानों के प्रतिनिधियों का एक नेटवर्क है, जिन्हें वे जानते हैं। हालांकि हर जगह ऐसी आदर्श स्थिति नहीं हो सकती है, कम से कम वहाँ एक फेमवर्क रूपरेखा तो है। चव्हाण ने कहा कि अब एपीएमसी निज़ाम के कमजोर होने से किसानों को व्यापारियों की दया पर निर्भर होना पड़ेगा।

इस बीच, मंगलवार को जारी एक बयान में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) ने सरकार द्वारा घोषित नई एमएसपी दरों की आलोचना की है और कहा है कि यह केवल 2.6 प्रतिशत की वृद्धि है और बढ़ती आजीविका की जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत कम है।" अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) ने कहा कि गेहूं के लिए एमएसपी 1925 रुपए प्रति क्विंटल थी, जबकि बाजार मूल्य 1400 रुपए प्रति क्विंटल है।

यह सरकार की अपनी रिपोर्ट से ही स्पष्ट हो जाता है कि कई फसलों के मामले में एमएसपी की कीमतें नीचे हैं। कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) द्वारा "खरीफ फसलों के लिए मूल्य नीति: विपणन सीजन 2020-21" के अनुसार, धान के मामले में कीमतें एमएसपी से नीचे हैं, और यहां तक कि अरहर और अन्य फसलें की एमएसपी भी कम हैं। "प्रमुख कपास उत्पादक राज्यों में, महाराष्ट्र, गुजरात और तेलंगाना में, 2019- 20 में खरीफ विपणन सीजन के दौरान बाजार की कीमतें एमएसपी से नीचे रहीं है।"

साथ ही, 12 प्रतिशत से भी कम धान उत्पादकों को खरीद प्रक्रिया (भंडारण) से लाभ मिलता है। सीएसीपी ने कहा कि किसानों, विशेष रूप से सीमांत और छोटे किसानों द्वारा सामना की जाने वाली बाधाओं में से एक, गांवों के पास खरीद केंद्रों की अनुपलब्धता है और किसान निजी व्यापारियों को कम कीमतों पर संकटपूर्ण बिक्री करने के लिए मजबूर हैं।

इसने यह भी कहा कि कृषि विपणन प्रणाली में सुधार लाने और प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संस्थान (पीएम-एएएसएचए) के तहत किसानों को पारिश्रमिक मूल्य सुनिश्चित करने के लिए योजनाओं की प्रगति, "संतोषजनकता से बहुत दूर है," और इसके लिए 1400 करोड़ रुपए का बजट आवंटन 2018-19 के दौरान गैर-इस्तेमाल के रह गया था।

इस भयंकर महामारी के दौरान किसान को मदद करने के उद्देश्य से कृषि क्षेत्र में निजी खिलाड़ियों से भारी निवेश करने की अपेक्षा करना, न केवल जल्दबाजी है, बल्कि सरकार की ओर से जवाबदेही की कमी का होना भी है। यह एक ऐसा समय है, जब किसान को संकट से लड़ने में अकेला छोड़ने के बजाय उसके साथ खड़ा होना जरूरी था लेकिन सरकार ने किसान और कृषि दोनों का साथ छोड़ दिया।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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