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एंकर अर्णब गोस्वामी और एक्टिविस्ट स्टैन स्वामी की गिफ़्तारियों की कहानी

अर्णब गोस्वामी की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ केंद्र सरकार, राजनेताओं और आम लोगों ने विरोध दर्ज किए, जबकि यूएपीए के तहत गिरफ़्तार एक्टिविस्ट स्टैन स्वामी की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ बमुश्किल कोई विरोध नज़र आया।
स्टैन स्वामी

अर्णब गोस्वामी की गिरफ़्तारी के खिलाफ केंद्र सरकार, राजनेताओं और आम लोगों ने अपना विरोध दर्ज़ किया, जबकि खूंखार यूएपीए के तहत गिरफ़्तार एक्टिविस्ट स्टेन स्वामी के मामले में कोई खास विरोध देखने को नहीं मिलता है। यूएपीए जैसा "आतंकवाद विरोधी कानून" सरकारों के लिए मानवाधिकारों की रक्षा करने वाले, पत्रकारों और प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार करने का एक सुविधाजनक हथियार बन गया है और स्वामी को आदिवासियों की रक्षा में आवाज़ उठाने और उनके विस्थापन और उनकी भूमि छिनने, उनकी टूटी हुई आशाओं और आकांक्षाओं को संबोधित करने के संघर्ष करने तथा जाति और धर्म से परे एक्टिविज़्म करने के गुनाह में कैद किया गया है। रेवती शिवा कुमार कहती हैं कि संसद के माध्यम से जिन कानूनों और नीतियों को बिना किसी परामर्श के पारित किया गया है, उनके खिलाफ जनसमुदाय को विशाल, सामूहिक विरोध और आक्रोश की पैदा करने की जरूरत है।

स्टार एंकर अर्णब गोस्वामी की 4 नवंबर, 2020 को मुंबई में उनके घर से की गई गिरफ़्तारी और उनकी जमानत प्रक्रिया पर कई जगहों पर राजनीतिक संघर्स और विरोध को पैदा किया है। लेकिन दुख की बात ये है कि राष्ट्र यह नहीं जानना चाहता है कि 84 वर्षीय स्टेन स्वामी अभी भी यानि 5 नवंबर, 2020 तक जेल में कैद थे और फिर उनकी न्यायिक हिरासत बढ़ा दी गई थी।

यद्द्पि गोस्वामी के तथाकथित "उत्पीड़न" के खिलाफ पूरे देश में सहानुभूति लहर उठी। लेकिन वयोवृद्ध एक्टिविस्ट और पार्किंसंस रोग से ग्रसित स्वामी की पानी पीने के लिए स्ट्रा उपलब्ध कराने की साधारण सी गुजारिश को राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने ठुकरा दिया और सुनवाई नहीं होने दी और उसे 20 दिनों के लिए स्थगित करा दिया गया। 8 अक्टूबर को रांची स्थित आवास से  उनकी गिरफ़्तारी की गई जिसके विवरण काफी चिंताजनक हैं। रात में ही ऐसा क्यों किया गया? एक सज्जन जो ईशा मसीह के पुजारी हैं उनसे डरने की क्या बात थी? स्वामी को 24 अक्टूबर तक न्यायिक हिरासत में क्यों रखा गया और उनका रिमांड दो सप्ताह के लिए क्यों बढ़ा दिया गया? ऐसे कौनसे कारण हैं जो उन्हे “आतंकवाद” विरोधी या उससे संबंधित आरोपों में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत 16 वें बंदी के रूप उठा लिया है?

अर्णब गोस्वामी को अन्वय नाइक की मौत के मामले में गिरफ़्तार किया गया था जिनहोने 2018 में आत्महत्या कर ली थी और और भारतीय दंड संहिता की धारा 306 और 34 के तहत उन पर मुकदमा दर्ज़ किया गया है। बावजूद इसके उनकी गिरफ़्तारी को "प्रेस स्वतंत्रता" और "राजनीतिक प्रतिशोध" की कार्यवाही बता कर कई विरोध दर्ज़ किए गए। जबकि, यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किए गए एक अनुभवी आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता, स्टेन स्वामी के बारे में न तो कोई कारण स्पष्ट थे और न ही उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत थे, भले ही उनके खिलाफ चार्जशीट 10,000 पृष्ठों की दाखिल की गई हो।

तथ्य और कल्पना 
स्टेन स्वामी की नजरबंदी के कौनसे कारण थे? उन्हे 1 जनवरी, 2018 को महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में "भीड़ को उकसाने और हिंसा" फैलाने के एक कथित पुराने रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए फिर से गैरकानूनी गतिविधियों फैलाने की रोकथाम के लिए गिरफ़्तार किया गया प्रतीत होता है।

तथ्य: ईशा मसीह के पुजारी कभी भीमा-कोरेगांव या उस त्योहार में शिरकत करने गए ही नहीं,  जो रांची से 1,800 किमी की दूरी पर है। फिर वे दंगा कैसे भड़का सकते थे, जबकि वे किसी दूसरे राज्य में इतनी दूर रहते हो?

दूसरा आरोप: उनके माओवादियों से संबंध थे।

तथ्य: माओवाद के आरोप में कई आदिवासियों और मूलवासियों की गिरफ़्तारी को चुनौती देने के अलावा स्टेन स्वामी का माओवाद से कोई संबंध नहीं था। आरोप-पत्र में दावा किया गया है कि कथित तौर पर "साजिश" से संबंधित "ईमेल, कॉल रिकॉर्ड, लेखन, भाषण और उनके अतीत के आचरण" और बहुत सारे "दस्तावेज़ों" के डिजिटल साक्ष्य के माध्यम से उनके लिंक माओवादियों से जुडते हैं। स्वामी ने उन सभी का खंडन किया और सभी सबूतों को गढ़े गए सबूत बताया है।

तीसरे, आरोप में कहा गया कि उन्होंने कई आदिवासियों का धर्म परिवर्तन किया है।

तथ्य: एक कार्यकर्ता होने के नाते, स्वामी भूमि अधिकारों के लिए आदिवासियों का समर्थन करने में काफी रुचि रखते थे, न कि उनका धर्म परिवर्तन करने में। इसके अलावा, अगर वे वास्तव में माओवादी होते तो वे नास्तिक होते, इसलिए "धर्म परिवर्तन" का आरोप अपने आप में विरोधाभासी है। 

यूएपीए के संकटपूर्ण पहलुओं की मई 2020 में संयुक्त राष्ट्र की विशेष प्रक्रिया मेंडेट  धारकों ने आलोचना की थी, जिन्होंने अपनी चिंताओं को रेखांकित करते हुए एक सार्वजनिक सूचना जारी की थी और अधिकारियों से अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों को निभाने के साथ अधिनियम में संशोधन करने का आह्वान किया था। यह कानून अहिंसक विरोध या नीतियों और संस्थानों की आलोचना को राष्ट्र-विरोधी या "आतंकवादी" गतिविधि के रूप में दर्शाता है।

उनके खिलाफ साक्ष्य काफी हल्के प्रतीत होते हैं, लेकिन उन्हें 26 नवंबर तक यानि अगली सुनवाई तक अदालत में इसे चुनौती देने का अधिकार नहीं दिया गया है। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने दर्ज किया कि अक्टूबर 2018 में, पुलिस ने स्पष्ट रूप से बॉम्बे उच्च न्यायालय को बताया था कि फादर स्टेन "केवल एक संदिग्ध व्यक्ति हैं न कि एक आरोपी"। फिर भी, उनसे बगैचा में पांच दिनों तक 15 घंटे पूछताछ की गई और फिर भी एनआईए चुप रही। 14 अप्रैल को, एनआईए ने उन पर और अन्य कार्यकर्ताओं पर "पूरी तरह से गढ़े हुए सबूतों और गैर-मौजूद साजिश के तहत" आरोप गढ़े।

यूएपीए, एक सहूलियत भरा हथियार 
कथित तौर पर देखा जाए तो यूएपीए जो एक "आतंकवाद विरोधी कानून", मानवाधिकार की रक्षा में काम कर रहे कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार करने के लिए सरकारों का सुविधाजनक हथियार है। हालांकि पहली बार इसे 1967 में एक नीति के रूप में शामिल किया गया था, लेकिन आज इसकी पकड़ को इतना फैला दिया गया है कि इसके तहत किसी को भी लगभग 180 दिनों तक बंद या नज़रबंद रखा जा सकता है। यूएपीए अंतरराष्ट्रीय कानून के साथ-साथ अन्य मानकों को भी कम करता है, जो जांच और जमानत प्रावधानों की प्रक्रिया को धीमा करता है, और यह सुनिश्चित करता है कि बंदियों को मुकदमा चलने के पहले ही अधिक समय तक जेल में बंद रखा जा सके। 2016 से 2018 के बीच यूएपीए के तहत लगभग 3,005 मामले दर्ज किए गए और 3,974 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है। 

यूएपीए के संकटपूर्ण पहलुओं की मई 2020 में संयुक्त राष्ट्र की विशेष प्रक्रिया मेंडेट  धारकों ने आलोचना की थी, जिन्होंने अपनी चिंताओं को रेखांकित करते हुए एक सार्वजनिक सूचना की और अधिकारियों से अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों को निभाने के साथ अधिनियम में संशोधन करने का आह्वान किया था। यह कानून अहिंसक विरोध या नीतियों और संस्थानों की आलोचना को राष्ट्र-विरोधी या "आतंकवादी" गतिविधि के रूप में दर्शाता है। हालांकि प्रगतिशील, उदार व्यक्तियों और संस्थानों ने यूएपीए के तहत बंदियों का समर्थन किया है, यद्द्पि यह विरोध जनता के समक्ष नज़र नहीं आता है क्योंकि यह उनके लिए ग्लैमरस नहीं है, जो अर्णब गोस्वामी की गिरफ़्तारी पर आंसू बहाना पसंद करते हैं।

हालांकि, एल्गर परिषद वाले आरोपों से स्टेन स्वामी को पकड़ने का असली कारण संभवतः सरकार या व्यवस्था विरोधी मुद्दों से ध्यान हटाना था, जिससे वह जूझ रहे थे। वे तीन दशकों से झारखंड में भूमि, वन और श्रम अधिकारों से संबंधित मुद्दों पर आदिवासी समुदायों के बीच काम कर रहे थे और उन्होंने संविधान की पांचवीं अनुसूची को लागू नहीं करने पर सवाल उठाए थे, जिसने आदिवासी सलाहकार परिषद की स्थापना को अनिवार्य बनाया था। 

उन्होंने कई सरकारी कानूनों और नीतियों का विरोध किया था, यहां तक कि विचारधीन कैदियों की रिहाई के लिए जनहित याचिका दायर करने और मुकदमे और जांच की प्रक्रिया में विलंब तथा शीघ्र सुनवाई के लिए न्यायिक आयोग की नियुक्ति की माग की। उन्होंने छोटे और बड़े उद्योगों के लिए सामुदायिक भूमि से "भूमि बैंक" बनाने का भी विरोध किया था। स्वामी ने अपनी गिरफ़्तारी से पहले जारी एक वीडियो में कहा था कि, “मेरा काम ही वह कारण है जिसके लिए हूकूमत मुझे रास्ते से हटाना चाहती है।"

ऐसा क्या है जिसका स्टेन स्वामी प्रतिनिधित्व करते है?

इसलिए, स्वामी की गिरफ़्तारी केवल किसी एक व्यक्ति को गिरफ़्तार करने के बारे में नहीं है। बल्कि वह इस बारे में है कि वे किसका प्रतिनिधित्व करते है- वे सरकार और उसकी विचारधारा के लिए खतरा है। उन्होंने इसे बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किया:"... जो मेरे साथ हो रहा है वह अकेले मेरे मामले में कुछ अनोखा नहीं है, यह पूरे देश में होने वाली एक व्यापक प्रक्रिया है"। उन्होंने कहा कि एक तरह से, वे इस प्रक्रिया का हिस्सा बनने के लिए "खुश" हैं, ताकि वे इस तमाशे के मूक दर्शक न बने रहे, बल्कि वे भी खेल का हिस्सा बने रहे। "जो कुछ भी हो मैं कीमत चुकाने के लिए तैयार हूँ," ये उनके द्वारा कहे बहादुराना शब्द थे।

इस प्रकार स्वामी एक्टिविज़्म, आदिवासियों की आवाज़, और उनके संघर्षों और जाति और धर्म से परे विस्थापन और भूमि अलगाव से संबंधित उनकी टूटी आशाओं और आकांक्षाओं को संबोधित करने के संघर्ष के प्रतीक है। उनके जैसे लोगों को चुप कराने के लिए, यूएपीए को लोकतंत्र के सामंतवाद के रूप में इस्तेमाल किया गया है। यह नकारात्मक ऊर्जाओं को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिए था, न कि इसके विपरीत। इस कानून का इस्तेमाल दूसरों के खिलाफ भी अंधाधुंध किया गया है जैसे कि गौतम नवलखा, दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर; हनी बाबू, गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बडे, ज्योति जगताप, सागर गोरखे और रमेश गाइचोर, भीमा कोरेगांव शौर्य दिवस प्रेरणा अभियान समूह के कार्यकर्ता आदि के खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल किए हैं। और जिन लोगों का उल्लेख नहीं किया गया था, उनमें मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज भी शामिल हैं, जिन्हें अगस्त 2018 में पुणे पुलिस ने वर्नोन गोंसाल्वेस और अरुण फरेरा के साथ जेल में डाल दिया था।

इसलिए, जबकि अर्णब गोस्वामी की गिरफ़्तारी को उनके अधिकारों और विशेषाधिकारों का उल्लंघन माना गया, लेकिन वयोवृद्ध स्वामी और अन्य निर्दोष कैदियों की गिरफ़्तारी को कानून के दुरुपयोग से परे बताया गया है। कोई शक नहीं कि यूएपीए क्रूर है। इसके बाद की प्रक्रिया, भले ही सबूत हो न हो, लेकिन सजा निश्चित है।

बिना सलाह के संसद में पारित किए गए कानूनों और नीतियों के खिलाफ एक विशाल, सामूहिक विरोध और आक्रोश की जरूरत है। क्या उस देश में ऐसा संभव है जहां अत्यधिक ध्रुवीकृत देश में इस सब के विपरीत हो रहा है, जब केंद्र सरकार के साथ-साथ, राजनेता अर्णब की रिहाई के लिए चिल्ला रहे है?

(रेवती शिवा कुमार बैंगलोर की स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

यह लेख मुख्यत: The Leaflet में प्रकाशित हो चुका है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

A Tale of Two Arrests: Anchor Arnab Goswami & Activist Stan Swamy

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