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आडवाणी जी मुझे आपसे सहानुभूति है लेकिन आपके ब्लॉग का हेडिंग ग़लत है!

आडवाणी जी, मोदी जी की तुलना में आपसे तमाम सहानुभूति होने के बाद भी मुझे आपके इस शीर्षक पर आपत्ति है। आप वही हैं जिनके उग्र अभियान ने इस देश को हिन्दू-मुसलमान में बांट दिया। आप वही हैं जिनकी रथयात्रा ने इस देश को दंगों की आग में झोंक दिया। अगर आपके या आपकी पार्टी के लिए नेशन फर्स्ट यानी देश या राष्ट्र प्रथम होता तो आप कभी देश को धर्म और संप्रदाय के आधार पर न बांटते।
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बीजेपी में मार्गदर्शक से केवल दर्शक बने वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पहले दौर के चुनाव से चंद दिन पहले ब्लॉग लिखकर अपनी चुप्पी तोड़ी है। उन्होंने अपना ये ब्लॉग भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के स्थापना दिवस 6 अप्रैल से दो दिन पहले लिखा है। इसका हेडिंग (शीर्षक) दिया है- ‘NATION FIRST, PARTY NEXT, SELF LAST’ यानी देश प्रथम, फिर पार्टी और अंत में स्वयं।

आडवाणी जी, मोदी जी की तुलना में आपसे तमाम सहानुभूति होने के बाद भी मुझे आपके इस शीर्षक पर आपत्ति है। आप वही हैं जिनके उग्र अभियान ने इस देश को हिन्दू-मुसलमान में बांट दिया। आप वही हैं जिनकी रथयात्रा ने इस देश को दंगों की आग में झोंक दिया। अगर आपके या आपकी पार्टी के लिए नेशन फर्स्ट यानी देश या राष्ट्र प्रथम होता तो आप कभी देश को धर्म और संप्रदाय के आधार पर न बांटते। देश का मतलब होता है देश के लोग। अगर आप देश के लोगों से प्यार करते तो कभी भी कट्टर हिन्दुत्व का चेहरा न बनते। हालांकि फिर भी मैं आपको अटल बिहारी वाजपेयी से इस आधार पर बेहतर मानता हूँ कि आप खुले तौर पर सामने थे, वाजपेयी की तरह उदारता का मुखौटा नहीं लगाए थे। आज भी मैं आपको नरेंद्र मोदी के बरअक्स इसलिए तवज्जो दे रहा हूँ कि आपके ही कंधे पर चढ़कर मोदी जी ने ये ‘ऊंचाई’ या जगह पाई है और आज आपको ही हाशिये पर डाल दिया। हालांकि गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी को बचाने वाले भी आप ही थे और आपके साथ शायद यही सुलूक होना तय था लेकिन फिर भी आज मुझे आपसे सहानुभूति होती है। मैं आपके ऊपर बात भी इसलिए कर रहा हूँ ताकि उन लोगों को सबक मिल सके जो आज भी इस धोखे में हैं कि बीजेपी या नरेंद्र मोदी देश के लिए कोई बड़ा काम कर रहे हैं। ऐसे लोग जान लें कि पार्टी का सबसे वरिष्ठ नेता ही पार्टी और उसकी आज की कार्यप्रणाली पर क्या और क्यों सवाल उठा रहा है। और साथ ही ये भी जान लें कि इस शीर्ष पुरुष’ जिसे कभी बीजेपी ‘छोटा पटेल’ या ‘लौह पुरुष’ कहती थी उनकी आज क्या दशा हो गई है। बीजेपी समर्थक नई पीढ़ी ये भी जान ले कि अटल-आडवाणी की जोड़ी की बदौलत ही बीजेपी 2 से 282 सीट वाली पार्टी बनी।    

आगे बात करने से पहले लाल कृष्ण आडवणी ने अपने ब्लॉग में आख़िर क्या लिखा है ये आपको बता दूँ।

4 अप्रैल की तारीख़ में अपने एल.के. आडवाणी ब्लॉग में आडवाणी पांच सौ से ज़्यादा शब्दों में अंग्रेज़ी में NATION FIRST, PARTY NEXT, SELF LAST (देश प्रथम, फिर पार्टी और अंत में स्वयं) शीर्षक से लिखे इस ब्लॉग में लिखते हैं-

“6 अप्रैल को बीजेपी अपना स्थापना दिवस मनाएगी। ये बीजेपी में हम सभी के लिए एक महत्वपूर्ण मौक़ा है, अपने पीछे देखने का, आगे देखने का और अपने भीतर झांकने का। बीजेपी के संस्थापकों में से एक के रूप में, मैं मानता हूँ कि ये मेरा कर्तव्य है कि मैं भारत के लोगों के साथ अपने विचार (REFLECTIONS) साझा करूँ, और विशेषकर मेरी पार्टी के लाखों कार्यकर्ताओं के साथ। इन दोनों के सम्मान और स्नेह का मैं ऋणी हूँ।”

इसके बाद आडवाणी ने गुजरात की गांधीनगर लोकसभा सीट के लोगों के प्रति आभार जताया। इस सीट से आडवाणी 1991 के बाद से लगातार 6 बार सांसद चुने गए हैं।

इसके बाद आडवाणी लिखते हैं,“मातृभूमि की सेवा करना तब से मेरा जुनून और मिशन रहा है, जब 14 साल की उम्र में मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा था।”

इस पर आपको ऐतराज़ हो सकता है क्योंकि ऐसा ही दावा नरेंद्र मोदी जी करते हैं। लेकिन आज आडवाणी इशारों-इशारों में उन्हीं नरेंद्र मोदी की आलोचना कर रहे हैं, जो उनके हिसाब से पार्टी को उस जगह ले गए हैं जो पार्टी के सिद्धांतों और आदर्शों के विपरीत है।    

फिर आडवाणी लिखते हैं, “मेरे जीवन का मार्गदर्शक सिद्धांत 'देश प्रथम, फिर पार्टी और अंत में स्वयं’ रहा है। और हालात कैसे भी रहे हों, मैंने इन सिद्धांतों का पालन करने की कोशिश की है और आगे भी करता रहूंगा।”

हमारा कड़ा ऐतराज़ इन्हीं पंक्तियों या भ्रम पर है। क्योंकि देश को प्यार करने वाला, देश को सबसे पहले मानने वाला व्यक्ति अपनी पार्टी (पहले जनसंघ और फिर बीजेपी) और संगठन (आरएसएस) की मनुवादी लाइन को देश से आगे कैसे रख सकता है। वो मुनवादी लाइन जो देश में ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था की समर्थक हो। वह वर्णव्यवस्था जिसमें ब्राह्मण को सर्वोच्च और दलित-आदिवासी को सबसे नीचे क्रम में रख दिया गया हो। जो स्त्री-पुरुष की बराबरी में विश्वास नहीं करती। जो हिन्दू-मुस्लिम के भेद को बढ़ाती है।

क्योंकि आडवाणी ख़ुद ही अपने ब्लॉग में आगे लिखते हैं, “भारतीय लोकतंत्र का सार अभिव्यक्ति का सम्मान और इसकी विभिन्नता है। अपनी स्थापना के बाद से ही भाजपा ने उन्हें कभी शत्रु या दुश्मन नहीं माना जो राजनीतिक रूप से हमारे विचारों से असहमत हों, बल्कि हमने उन्हें अपना सलाहकार माना है। इसी तरह, भारतीय राष्ट्रवाद की हमारी अवधारणा में, हमने कभी भी उन्हें, 'राष्ट्र विरोधी' नहीं कहा, जो राजनीतिक रूप से हमसे असहमत थे। पार्टी निजी और राजनीतिक स्तर पर प्रत्येक नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर प्रतिबद्ध है।”

जब बीजेपी या आरएसएस का ये सिद्धांत है तो फिर आडवाणी जी व्यावहारिक राजनीति में लगातार कौन से सिद्धांत या आदर्श स्थापित कर रहे थे। या फिर यही असल में बीजेपी और आरएसएस की असल राजनीति है जिसे वो देश के नाम पर पेश करते हैं।  

वे लिखते हैं, “संक्षेप में, सत्य, राष्ट्र निष्ठा और लोकतंत्र (पार्टी के बाहर और भीतर दोनों जगह) ने मेरी पार्टी के संघर्ष के विकास को निर्देशित किया। इन सभी मूल्यों से मिलकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और सु-राज (good governance) बनता है, जिन पर मेरी पार्टी हमेशा से बनी रही है। आपातकाल के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक संघर्ष भी इन्हीं मूल्यों को बनाए रखने के लिए था।

ये मेरी ईमानदार इच्छा है कि हम सभी को सामूहिक रूप से भारत की लोकतांत्रिक शिक्षा को मज़बूत करने का प्रयास करना चाहिए। सच है कि चुनाव, लोकतंत्र का त्योहार है, लेकिन वे भारतीय लोकतंत्र के सभी हितधारकों - राजनीतिक दलों, मास मीडिया, चुनाव प्रक्रिया से जुड़े अधिकारियों और सबसे बढ़कर मतदाताओं के लिए ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण का एक अवसर है।”

सभी को शुभकामनाएँ देते हुए आडवाणी ने अपना ब्लॉग समाप्त किया है। मैं उनकी इस बात से सहमत हूँ कि सभी के लिए ये मौक़ा “ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण का एक अवसर है।” लेकिन आडवाणी जी के लिए ये अवसर बहुत देर में या मुश्किल से आता है। इससे पहले भी उन्होंने ऐसा ही आत्मनिरीक्षण 2014 चुनाव से पहले 2013 में किया था जब नरेंद्र मोदी को भाजपा चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बना दिया गया था। इसके विरोध में आडवाणी ने पार्टी के तीन प्रमुख पदों राष्ट्रीय कार्यकारिणी, संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति से इस्तीफ़ा दे दिया था और उस समय के पार्टी अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह को भेजे त्यागपत्र में अपनी नाराज़गी खुलकर ज़ाहिर की थी। 10 जून 2013 को राजनाथ सिंह को अंग्रेज़ी में भेजे अपने त्यागपत्र में कहा था- “मैंने पूरी ज़िंदगी जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के लिए काम करने में गर्व और संतुष्टि हासिल की है। कुछ समय से मैं अपने आपको पार्टी के मौजूदा काम करने के तरीक़े और दिशा-दशा के साथ जोड़ नहीं पा रहा हूँ। मुझे नहीं लगता कि यह वही आदर्शवादी पार्टी है जिसे डॉक्टर मुखर्जी, पंडित दीनदयाल जी और वाजपेयी जी ने बनाया था और जिस पार्टी का एकमात्र मक़सद राष्ट्र और राष्ट्र के लोग थे।

आज हमारे ज़्यादातर नेता अब सिर्फ़ अपने निजी हितों को लेकर चिंतित हैं। इसलिए मैंने पार्टी के तीन अहम पदों राष्ट्रीय कार्यकारिणी, संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति से इस्तीफ़ा देने का फ़ैसला किया है। इस पत्र को मेरा इस्तीफ़ा माना जाए।”

अब 2013 के 6 साल बाद आडवाणी जी को फिर याद आया है कि पार्टी डॉक्टर मुखर्जी, पंडित दीनदयाल की पार्टी नहीं रही। जब आडवाणी जी को उसी समय ये एहसास हो गया था कि “हमारे ज़्यादातर नेता अब सिर्फ़ अपने निजी हितों को लेकर चिंतित हैं।” तो फिर वे इतने दिन पार्टी में बने क्यों रहे और बने रहे तो चुप्पी क्यों साधे रखी। इस बार जब उनकी गांधीनगर संसदीय सीट से पार्टी अध्यक्ष अमित शाह चुनाव लड़ने जा रहे हैं तो एक बार फिर आडवाणी को पार्टी के आदर्श याद आए हैं। ख़ैर उस समय यानी 2014 में पार्टी ने मान मनौव्वल कर उन्हें मना लिया, उस समय भी उनकी बहुत ज़्यादा ज़रूरत तो नहीं थी लेकिन फिर भी रणनीतिक हिसाब से पार्टी ने कुछ नफ़ा-नुकसान सोचा था लेकिन इस बार तो वो गुंजाइश भी ख़त्म हो गई है। अब पार्टी पूरी तरह मोदी और शाह की पार्टी हो गई है। अटल-आडवाणी उनके लिए अब बीते दिनों की कहानी हो चुके हैं। अब शायद उन्हें कोई मनाने नहीं जाएगा। इसी तरह उनके ही सहयोगी मुरली मनोहर जोशी कुछ आहत हैं। क्योंकि 2014 में उनका बनारस से टिकट काटकर उन्हें कानपुर लोकसभा लड़ने भेज दिया गया और इस बार तो कानपुर से भी उन्हें टिकट नहीं दिया जा रहा है। यानी वे भी मार्गदर्शक से अब केवल दर्शक की भूमिका में आ गए हैं। हालांकि ये स्थिति पूरे 5 साल रही लेकिन उन्होंने भी कुछ बोलना-मुँह खोलना मुनासिब न समझा। अब जब उनका टिकट कट गया है तो वे कानपुर के मतदाताओं के नाम खुला पत्र पूछकर राय ले रहे हैं। काश! इन नेताओं ने पहले भी कभी जनता का मन टटोला होता तो वे जानते कि भारत के आम लोग आपस में बँटवारा नहीं चाहते। ये नेता समझते कि भारत की जनता को वास्तव में मंदिर नहीं रोज़ी-रोटी, शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य की ज़रूरत है। लेकिन मंडल के जवाब में या सच कहें कि अपनी सत्ता के लिए कमंडल लाकर इन नेताओं ने पूरे देश को तहस-नहस कर दिया।

लेकिन फिर भी तमाम असहमतियों और आलोचनाओं के बावजूद आडवाणी जी ने झूठ को ही सही लेकिन सच्ची बातें बोल दी हैं। (इसमें आप ‘बीजेपी ऐसी थी’ वाक्यों को निकालकर/डीलिट कर सिर्फ़ इतना पढ़ें कि बीजेपी वास्तव में कैसी है। पढ़ें और समझें।)

अब जब पार्टी का शीर्ष पुरुष (बीजेपी और आरएसएस की शब्दावली) ऐसा बोल और सोच रहा है कि पार्टी अपनी लाइन से हट गई है तो बीजेपी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भी इस पर सोचना चाहिए, मंथन करना चाहिए। शायद अभी कई और नेताओं की ‘अंतर-आत्मा’ (अगर वो होती हो) जागे और वे भी कुछ ‘अच्छी’ बातें देश के सामने रखें। अभी एक महिला नेता शायना एन.सी ने महिलाओं के बहाने ही लेकिन पार्टी की सोच पर चोट की है। उन्होंने कहा है कि वे निराश हैं कि उनकी पार्टी सहित अधिकतर राजनीतिक दलों ने लोकसभा चुनाव में महिलाओं को ज़्यादा प्रतिनिधित्व नहीं दिया है। इस मामले में उन्होंने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी और ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजेडी प्रमुख नवीन पटनायक की तारीफ़ की है। ममता ने पश्चिम बंगाल में महिलाओं को क़रीब 33 फ़ीसद और नवीन पटनायक की पार्टी ने क़रीब 41 फ़ीसद टिकट महिलाओं को दिए हैं। ओडिशा में लोकसभा के साथ विधानसभा के भी चुनाव हो रहे हैं।

इनके अलावा केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी भी परोक्ष रूप से काफ़ी समय से मोदी जी के काम और काम की शैली पर सवाल उठा रहे हैं। लेकिन सवाल फिर वही है कि आडवाणी, गडकरी या शायना एन सी की बीजेपी में कोई सुनेगा! क्योंकि नरेंद्र मोदी ने तो अपनी आलोचनाओं को भी अपने हक़ में बदलने की कला सीख ली है। आडवाणी के ब्लॉग के जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर कह दिया है कि उन्होंने अपने ब्लॉग में बीजेपी का सार बताया है। मोदी ने ट्वीट किया, “आडवाणी जी ने भाजपा के मूलतत्व को सच्चे रूप में प्रस्तुत किया है। सबसे ध्यान योग्य वह मार्गदर्शक मंत्र है जिससे भाजपा चलती है, ‘देश प्रथम, फिर पार्टी और अंत में स्वयं’। भाजपा कार्यकर्ता होने पर गर्व है और इस बात का भी गर्व है कि एलके आडवाणी जैसी महान शख़्सियतों ने इसे मज़बूती दी है।"

अब मोदी जी ने भी आडवाणी जी का ही मंत्र दोहरा कर कह दिया है कि यही तो वे कहना चाहते थे। “यही तो...बिल्कुल सही पकड़े हैं…”

तो कुल मिलाकर बात वही है कि न आडवाणी देश प्रथम का मतलब समझे और न मोदी जी समझ रहे हैं। लेकिन हम और आप समझ लें तो बेहतर होगा। इस पूरी बहस या ‘आत्मनिरीक्षण’ की अच्छी बात यही है कि पार्टी की वास्तविकता एक बार फिर लोगों के सामने आ रही है और चुनाव की इस बेला में शायद वे समझें कि ‘देश प्रथम’ बीजेपी का मार्गदर्शक मंत्र नहीं बल्कि एक नारा है। एक जुमला है, जिसे लोगों को भ्रमित करने, बरगलाने के लिए चुनाव में बार-बार दोहराया जाता है, जबकि इसकी हक़ीक़त ‘विदेशों से काला धन वापस लाने’, ‘खातों में 15 लाख आने’ और ‘दो करोड़ रोज़गार हर साल’ देने वाले जुमलों से ज़्यादा कुछ भी नहीं।

https://ssl.gstatic.com/ui/v1/icons/mail/images/cleardot.gif(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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