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आओ परशुराम परशुराम खेलें

सवाल उठता है कि उत्तर भारत की राजनीति को बदल देने वाले आंबेडकर और लोहिया के आंदोलन के दावेदार आज क्यों परशुराम की मूर्ति लगाने की होड़ कर रहे हैं।
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कभी डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था, `` जब उन्हें रामायण की रचना करनी हुई तो उन्होंने वाल्मीकि को बुलाया। जब उन्हें महाभारत की रचना करनी हुई तो उन्होंने व्यास को बुलाया और जब उन्हें संविधान लिखवाना हुआ तो उन्होंने मुझे बुलाया। ’’ उनके कथन का तात्पर्य यह था कि ब्राह्मण भले ही प्रतिभाशाली और विद्वान बनें लेकिन उनके लिए विद्वता का असली काम तो शूद्रों और अतिशूद्रों ने किया है। लेकिन ऐसा कहते समय डॉ. भीमराव आंबेडकर को शायद ही यह एहसास रहा हो कि संविधान जैसे आधुनिक और देश को एकता के सूत्र में बांधने वाले क्रांतिकारी ग्रंथ की रचना वे कर रहे हैं उस पर एक दिन वाल्मीकि का रामायण और व्यास का पुराण हावी हो जाएगा और वह संविधान की आत्मा से खिलवाड़ करेगा। उसी के साथ वे स्मृतियां भी संविधान पर चढ़ बैठेंगी जिन्हें डॉ. आंबेडकर ने जाति विभेद की जड़ माना था।

लेकिन वह सब हो रहा है जिसे रोकने के लिए आंबेडकर ने संविधान में समता के मूल्य और मौलिक अधिकारों के साथ नीति निदेशक तत्वों का समावेश किया था और स्वयं `जाति भेद का समूल नाश जैसा घोषणा पत्र प्रस्तुत किया था। विडंबना देखिए कि स्वयं डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1956 में बाबा साहेब के निधन से पहले मिलने का बहुत प्रयास किया था और उनके साथ एक पार्टी भी गठित करना चाहते थे। लेकिन उन दोनों के मिलने का संयोग नहीं बन सका और बाबा साहेब का निधन हो गया। बाबा साहेब को श्रद्धांजलि देते हुए डॉ. लोहिया ने लिखा था,``  वे महात्मा गांधी के बाद भारत के सबसे बड़े व्यक्ति थे। उनके होते हुए यह यकीन होता था कि भारत से जाति प्रथा एक दिन चली जाएगी।’’ लेकिन आज डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ. लोहिया की विरासत का दावा करने वाली बसपा और सपा जैसी पार्टियां भगवान परशुराम की ऊंची से ऊंची मूर्तियां लगाने की होड़ मचाने वाले दावे कर रही हैं। बिना इस बात पर विचार किए कि आखिर परशुराम किन गुणों के प्रतीक पौराणिक पात्र हैं और उनसे कौन सा संदेश निकलता है। क्या वह संदेश डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ. लोहिया के आदर्शों से कहीं मेल खाता है।

बहुजन दर्शन के प्रवर्तक महात्मा ज्योतिबा फुले ने परशुराम के चरित्र का जिक्र करते हुए लिखा है, `` ब्राह्मण अत्याचारियों में सबसे निर्दयी, क्रूर और निर्मम अत्याचारी परशुराम था। इसका साक्ष्य खुद ब्राह्मणों के धर्मग्रंथ प्रस्तुत करते हैं। (स्कंद पुराण का सह्याद्रिखंड, शिवपुराण, मार्कण्डेय पुराण, देवी पुराण) परशुराम ने जिन क्षत्रियों का नाश किया वे पश्चिमोत्तर भारत के शासक थे। वे शूद्र अतिशूद्र थे। परशुराम ने क्षत्रियों की औरतों और बच्चो को भी क्रूरता पूर्वक मौत के घाट उतारा। उन्होंने गर्भवती महिलाओं के नवजात बच्चों को भी मारा।’’ सह्याद्रि खंड में जिस परशुराम का वर्णन है वे कोंकण क्षेत्र के निवासी हैं। इसी क्षेत्र से चितपावन ब्राह्मणों का उद्गम है। संयोग से स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, विनायक दामोदर सावरकर और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक और उसके नेतृत्व का बड़ा हिस्सा चितपावन ब्राह्मणों से ही संबद्ध रहा है।

आधुनिक भारत में फुले, पेरियार, नारायण गुरु, अयंकली, डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया तक फैले जाति तोड़ो आंदोलन का प्रभाव इतना जबरदस्त रहा है कि उसके तीखे विमर्श स्वाधीनता संग्राम जैसे प्रचंड आंदोलन की आभा को भी फीका कर देते हैं। इन विमर्शों के प्रभाव और डॉ. आंबेडकर से हुए टकराव के चलते स्वयं महात्मा गांधी जैसे विराट व्यक्तित्व वाले नेता ने भी वर्णाश्रम व्यवस्था में अपने विश्वास को बदला। जो गांधी पहले चातुर्वर्णों में विश्वास करते थे वे बाद में एक वर्ण में विश्वास करने लगे और सिर्फ उसी विवाह में जाते थे जिसमें अंतरजातीय संबंध कायम होते थे। जाति तोड़ते हुए नई राजनीति विकसित करने का वही आंदोलन अस्सी के दशक में तब और सशक्त हुआ जब कांशीराम ने पूना समझौते को खारिज करते हुए पूरे उत्तर भारत में सवर्णों की राजनीति को गंभीर चुनौती दी। वह चुनौती तब और ताकतवर हो चली जब 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं। बहुजन समाज के आंदोलन और मंडल आयोग की सिफारिशों ने उत्तर भारत की सवर्ण राजनीति और उसके पूरे विमर्श को झकझोर कर रख दिया।

लेकिन सवाल उठता है कि उत्तर भारत की राजनीति को बदल देने वाले आंबेडकर और लोहिया के आंदोलन के दावेदार आज क्यों परशुराम की मूर्ति लगाने की होड़ कर रहे हैं। डॉ. लोहिया तो कहा करते थे कि सवर्णों को पिछड़ों और दलितों की उन्नति के लिए खाद बनना पड़ेगा। इसीलिए एक बार जब चौधरी चरण सिंह ने जनेश्वर मिश्र को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा और उस बीच रामनरेश यादव का नाम सामने आया तो वे पीछे हट गए। उन्होंने कहा कि हमारे नेता यानी डॉ. लोहिया ने हमें यही प्रशिक्षण दिया है। दूसरी ओर भारत के जातिभेद के लिए डॉ. आंबेडकर समाज के व्यवहार और राजनीति से ज्यादा धर्मग्रंथों को दोष देते थे। उनका कहना था, `` हिंदू जातिभेद को इसलिए नहीं मानते कि वे क्रूर हैं या उन्होंने मस्तिष्क में कुछ गलत विचार रखे हैं। वे जातिभेद के इसलिए पाबंद हैं क्योंकि उनके लिए धर्म प्राणों से भी प्यारा है। जातिभेद को मानने में लोगों की भूल नहीं है। भूल उन धर्मग्रंथों की है जिन्होंने यह भावना उत्पन्न की है। जिस शत्रु से आपको लड़ना है वह जाति भेद रखने वाले लोग नहीं धर्मशास्त्र है जो उन्हें वर्णभेद का धर्मोपदेश देता है। ’’  

आंबेडकर ने ब्राह्मण को बौद्धिक श्रेणी माने जाने पर टिप्पणी करते हुए कहा था, `` खेद की बात है कि भारत में बौद्धिक श्रेणी सिर्फ ब्राह्मण जाति का दूसरा नाम है। बल्कि दोनों एक ही चीज हैं। बौद्धिक श्रेणी का अस्तित्व ही एक जाति से बंधा है। वह बौद्धिक श्रेणी ब्राह्मण जाति के हितों और आकांक्षाओं में भाग लेती है और अपने को देश के हितों का नहीं अपनी इस जाति के हितों का रक्षक मानती है। .....जो मनुष्य पोप बनता है उसे क्रांतिकारी बनने की इच्छा नहीं रहती। ...वैसे तो सभी जाति भेद के दास हैं लेकिन सबका दुख एक जैसा नहीं है।’’

ब्राह्मणों के इस संकुचित दायरे के बावजूद वह पूरे समाज को प्रभावित करता है और उसकी संरचना को अपने विचारों के अनुरूप आयाम देता है। उत्तर प्रदेश में उसकी सशक्त उपस्थिति के कारण ही उसे कांशीराम ने ब्राह्मणवाद का पालना कहा था। आज कांशीराम के आंदोलन के कमजोर पड़ने और मिशन के खत्म हो जाने के बाद उनकी एकमात्र उत्तराधिकारी होने का दावा करने वाली मायावती के पास मूर्तियां लगवाने और उसके अनुसार लोगों के स्वाभिमान की राजनीति करने के अलावा समाज परिवर्तन का कोई कार्यक्रम नहीं है। धन और सत्ता की राजनीति को केंद्र में रखकर चलने के बाद समाज परिवर्तन या क्रांति का उद्देश्य खो जाता है। यही कारण है कि न तो सपा में और न ही बसपा में कार्यकर्ताओं को विचारों का प्रशिक्षण दिया जाता है और यह बताया जाता है कि आंबेडकर और लोहिया क्या चाहते थे और उसके लिए क्या कार्यक्रम बनाते थे।

दूसरी ओर विचार और नैतिकता से दूरी रखने वाली युवा पीढ़ी को न तो धर्मशास्त्र से पैदा होने वाली गुलामी का एहसास है और न ही उन्हें समाज के किसी तबके के लिए खाद बनने की भावना का अनुमान है। इस पूरी प्रक्रिया में विचार और त्याग विहीन होते जा रहे और सिर्फ सत्ता में भागीदारी की लालसा लिए हुए सवर्ण युवाओं का ही दोष नहीं है। दोष उन दलित और पिछड़े युवाओं का भी है जो सिर्फ आरक्षण को केंद्र में रखकर चलते हैं और पूरे स्वाधीनता संग्राम को सवर्णों का आंदोलन मानते हुए खारिज करते हैं और अपनी राजनीति से कोई आदर्श कायम नहीं करते। आजाद भारत की राजनीति को सामाजिक न्याय और राजनीतिक आजादी के जिस मेल मिलाप यानी गांधी और आंबेडकर के समन्वय की जरूरत थी उसे शैक्षणिक रूप से किया ही नहीं गया। हमने लोगों को संविधान पढ़ाने से ज्यादा धर्मग्रंथ पढ़ाने पर जोर दिया और इतिहास पर अविश्वास और मिथक पर विश्वास करना सिखाया। इस बीच हिंदुत्व के आंदोलन ने उन तमाम मूल्यों पर अविश्वास पैदा किया जो संविधान ने गढ़ने का प्रयास किया था। विभेद मिटाने की बजाय अस्मिता की राजनीति लोकतंत्र का आधार बनती गई और फिर धर्म के पुनरुत्थान ने उदारता के मूल्य ताक पर रख दिए।

एक बात और ध्यान देने की है जो गांधी ने आंबेडकर के साथ पूना समझौते के समय कही थी। उनका कहना था कि अगर हम आरक्षण पर बहुत ज्यादा ध्यान देंगे तो समाज सुधार की प्रक्रिया कमजोर हो जाएगी या उपेक्षित हो जाएगी। अगर आंबेडकरवादी कांशीराम पूना समझौते से चमचा युग पैदा होते देखते हैं तो उसी के साथ समाज सुधारों को ठहरते हुए भी देखा जा सकता है। अब भी समय है कि राजनीतिक दल परशुराम की मूर्तियों की होड़ का निरर्थक प्रयास छोड़कर उन परिवर्तनकारी और लोकतांत्रिक प्रयासों को हाथ में लें जिनसे एक अच्छा लोकतांत्रिक समाज निर्मित होता है। संभव है कि भाजपा की योगी सरकार से नाराज कुछ ब्राह्मण परशुराम के नाम पर एकजुट हो जाएं और सपा-बसपा को ज्यादा सीटें दिला दें। लेकिन इससे राजनीति उन्हीं के पाले में जाएगी जहां से उसे निकाला जाना जरूरी है। इसलिए यह ब्राह्मणों को तय करना है कि उन्हें फरसा भांजते और लोगों का वध करते हिंसक परशुराम जैसे मिथकीय नायक चाहिए या लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना करने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉ. आंबेडकर और लोहिया जैसे लोकतांत्रिक और ऐतिहासिक पुरुष। क्योंकि बार बार भगवानों की प्रतिमाओं की राजनीति हमें अवतारवाद की ओर ले जाती है जो लोकतांत्रिक समाज को लाभ पहुंचाने की बजाय नुकसान ही करता है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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