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अरुंधति भट्टाचार्य और रिलायंस : सवाल नैतिकता का है

अरुंधति लोकपाल सर्च कमेटी में रहते हुए अचानक रिलायंस इंडस्ट्री की स्वतंत्र निदेशक बन जाती हैं तो अपनी योग्यता के उस पैमाने को तोड़ती नजर आती हैं जिसे पद की गरिमा या नैतिकता कहा जाता है।
arundhati bhattacharya अरुंधति भट्टाचार्य
Image Courtesy : Times Now

आज लगता है कि पूरी दुनिया एक तरह के बिजनेस मॉडल पर चलती है। हर जगह खरीद-बिक्री का संबंध चलता है, यानी पहले आप अपनी योग्यताओं को एक तरह के माल में ढालिए, उसके बाद जीवन भर खुद को खरीद-बिक्री के संबंध में स्थापित कर दुनिया की हर संस्था को बिजनेस में बदलते रहिये। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की पूर्व चेयरमैन अरुंधति भट्टाचार्य को सितम्बर महीने में लोकपाल सर्च कमेटी का सदस्य बनाया गया और अब रिलायंस इंडस्ट्रीज ने उन्हें अपनी कंपनी के निदेशक बोर्ड में स्वतंत्र निदेशक के तौर पर नियुक्त कर दिया है। यह दोनों स्थितियां सीधे तौर पर भ्रष्टाचार को तो नहीं दिखातीं लेकिन इस तरफ ज़रूर इशारा करती हैं कि हमारी शीर्षस्थ संस्थायें सरकारी और निजी संस्थाओं के साथ एक तरह के बिजनेस मॉडल के अंतर्गत काम करती हैं।

ज़रा इस तरह से सोचकर देखिए कि अरुंधति स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया (एसबीआई) में 1977 में बतौर प्रोबेशनरी ऑफिसर (पीओ) शामिल हुई थीं और 2013 में इस बैंक का नेतृत्व करने वाली वह पहली महिला बनीं। अरुंधति चार साल तक एसबीआई की प्रमुख रहीं। स्टेट बैंक में अपने 40 साल के कार्यकाल के दौरान भट्टाचार्य कई अहम पदों पर रहीं और बैंक की प्रमुख बनने से पहले वह विदेशी मुद्रा, ट्रेजरी, रीटेल बैंकिंग, एचआर और इंवेस्टमेंट बैंकिंग विभागों की प्रमुख रहीं। भारत के सरकारी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक में नीचे से लेकर ऊपर तक की गयी इतनी लम्बी यात्रा काबीले-तारीफ है। इस लिहाज से लोकपाल जैसी संस्था के लिए सदस्य चुनाव के लिए सर्च कमेटी का हिस्सा बनाया जाए, यह बात भी जमती है, लेकिन लोकपाल सर्च कमेटी का हिस्सा रहते हुए रिलायंस इंडस्ट्रीज जैसे देश की सबसे बड़े निजी कम्पनी का स्वतंत्र डायरेक्टर बन जाया जाए तो पूरी जीवन यात्रा संदेह के घेरे में आ जाती है।

दरअसल सरकारी क्षेत्र का बैंकर होने के नाते लोगों की जमा पूंजी का सही जगह पर निवेश किया जाए यह बैंकर की ही जिम्मेदारी होती है, हो सकता है कि बैंकर ने इस जिम्मेदारी को सही तरह से निभाया हो, लेकिन इस तरह के फैसलों से ये भी आशंका होने लगती है कि बैंकर ने शायद अपने दायित्व को सही से न निभाया हो, किसी एक निजी कम्पनी के साथ खास लगाव दिखाया हो! जैसे कि आर्थिक बाजार में यह खबर घूम रही है कि एसबीआई का चेयरमैन रहते हुए अरुंधति भट्टाचार्य ने एसबीआई बैंकिंग के डिजिटल प्लेटफार्म और रिलायंस जियो के बीच समझौता करवाया। इस समझौते के तहत माई जियो एप डाउनलोड करने पर एसबीआई बैंक का उपभोक्ता एसबीआई की सारी सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकता है। इस समझौते से यह संदेह लगाया जा रहा है कि अरुंधति भट्टाचार्य ने एसबीआई का खुद का डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म बनाने के बजाय रिलायंस जियो के साथ एसबीआई का डिजिटल प्लेटफोर्म बनवाया, जिसका मकसद यह था कि रिलायंस जियो एसबीआई के उपभोक्ताओं के जरिये भारत के दूर-दराज इलाके तक पहुंच पाए। रिलायंस इंडस्ट्री को पहुंचाए गये इसी फायदे की वजह से इस समय बहुत सारे लोग दबी जुबान में  कह रहे हैं इसी वजह से अरुंधति भट्टाचार्य को रिलायंस इंडस्ट्री का स्वतंत्र निदेशक बनाया जा रहा है। 

इसके साथ अरुंधति भट्टाचार्य के चेयरमैन रहते हुए अडानी समूह को ऑस्ट्रलिया में कोयला खनन के लिए दिए गये लोन का मामला भी उन्हें संदेह के घेरे में खड़े करता है। इस मामले को जानने से पहले यह ध्यान में रखना चाहिए कि अडानी समूह और प्रधानमंत्री मोदी की नजदीकियां जगजाहिर हैं। संदेह यह है कि अडानी समूह ने ऑस्ट्रलिया से मंगाए जाने वाले कोयले की कीमत में हेर-फेर किया और अपनी खाताबही में हानि दिखाकर कोयला खनन के लिए बैंकों से लोन लिया। अडानी समूह द्वारा अपनाए गये इस हथकंडे की जाँच करते हुए डिपार्टमेंट ऑफ़ रेवेन्यू इंटेलिजेंस ने जब अरुंधती से पूछा कि आप उन डॉक्यूमेंट को मुहैया करवाइए जिसके आधार पर आपने अडानी समूह को लोन दिया तो अरुंधति ने यह कहकर डॉक्यूमेंट देने से मना कर दिया कि यह बैंक और कस्टमर के बीच का कॉन्फिडेंशियल मामला है, हम डॉक्यूमेंट मुहैया नहीं करा सकते। अरुंधति के इस तर्क पर आर्थिक मामलों को जानकार परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते है कि जब सारे बैंक डिपार्टमेंट ऑफ़ रेवन्यू की छानबीन में सहयोग कर रहे थे, तब अरुंधती का मना करना समझ में नहीं आता। इसके अलावा यह भी सन्देह पैदा होता है कि सरकारी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक का पूर्व चेयरमैन रहने के बाद रिलायंस इंडस्ट्री जैसे देश के सबसे बड़े कंपनी का अचानक से स्वंतंत्र निदेशक इसलिए बनाया गया है क्योंकि चेयरमैन रहते हुए अरुंधती भट्टाचार्य ने रिलायंस के फायदे के लिए काम किया होगा।

इन सारे संदेहों के जवाब में कहने वाले कह सकते हैं कि अरुंधति भट्टाचार्य के जीवन बेहद साफ-सुथरा रहा है और उसमें कहीं भी स्पष्ट तौर पर भ्रष्टाचार नहीं मिलता है। अरुंधति भट्टाचार्य ने अपनी योग्यता की वजह से यह मुकाम हासिल किया है। यह बात प्रत्यक्ष तौर पर तब तक सही भी लगती है जब तक वह एसबीआई की चेयरमैन रहती हैं और इस संस्था से रिटायर होने के बाद एमिनेंट व्यक्ति के तौर पर लोकपाल सर्च कमेटी का हिस्सा बनती हैं, लेकिन जैसे ही लोकपाल सर्च कमेटी में रहते हुए अचानक से रिलायंस इंडस्ट्री की स्वतंत्र निदेशक बना दी जाती हैं तो अपनी योग्यता के उस पैमाने को तोड़ती नजर आती हैं जिसे पद की नैतिक जरूरत कहा जाता है। जिसे तोड़ते ही उनका जीवन क्रोनि कैप्टिलिज़्म का उदहारण बन जाता है, कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट का मसला बन जाता है, लेन-देन के सहारे आगे बढ़ने की यात्रा बन जाता है। चूँकि यह मसला भारत की शीर्षस्थ संस्था यानी लोकपाल के सदस्य और भारत की सबसे बड़ी व्यावसायिक कम्पनी रिलायंस इंडस्ट्री से जुड़ता है तो ऐसा लगता है कि हमारी दुनिया नैतिकता और नियम-कानून की बजाय एक तरह के बिजनेस मॉडल पर चलती है।

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