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ब्लड ग्रुप बदलना जल्द एक वास्तविकता बन सकता है

एक नए शोध में पाया गया है कि गट कीटाणु (gut microbes) दो एंजाइमों का उत्पादन करते हैं जो सामान्य प्रकार 'ए' को अधिक सार्वभौमिक रूप में परिवर्तित कर सकता है। इससे रक्त-आधान (blood transfusions) में क्रांति आ सकती है।
Blood Group
प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो साभार: The Telegraph

विशेष प्रकार का ब्लड ग्रुप नहीं होता है जिसका रोगी को चढ़ाने की आवश्यकता होती है। किसी भी रोगी को किसी भी प्रकार का खून नहीं चढ़ाया जा सकता है। एक सफल रक्त-आधान के लिए डोनर और रोगी दोनों को समान ग्रुप का होना ज़रुरी है। लेकिन‘ओ’ ब्लड ग्रुप वाले लोग यूनिवर्सल डोनर (सार्वभौमिक दाता) होते हैं जिसका मतलब है कि इन लोगों के खून को किसी अन्य ब्लड ग्रुप के व्यक्ति को दिया जा सकता है। यदि किसी भी तरह से एक ब्लड ग्रुप को यूनिवर्सल डोनर के रूप में परिवर्तित किया जाता है तो क्या यह ख़ून के संकट को हल करने की दिशा में योगदान नहीं होगा जबकि इसकी बेहद आवश्यकता है? पिछले कुछ दशकों में वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों की बदौलत यह प्रक्रिया जो कभी असंभव कार्य प्रतीत होता था वह संभव हो सकता है।

10 जून को नेचर माइक्रोबायोलॉजी में प्रकाशित हालिया शोध में ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने बताया है कि मनुष्यों में गट माइक्रोब्स (कीटाणु) पर उनके शोध से पता चला है कि ये गट माइक्रोब्स दो एंजाइमों का उत्पादन करते हैं जो कॉमन टाइप ए को अधिक सार्वभौमिक रूप में परिवर्तित कर सकते हैं। यदि ये प्रक्रिया अच्छी तरह से सफल हो जाती है तो यह रक्त दान और रक्त-आधान में क्रांति ला सकती है।

मैरीलैंड के बेथेस्डा में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ्स क्लिनिकल सेंटर के एक रक्त-आधान विशेषज्ञ हार्वे क्लेन कहते हैं, "यह अपने आप में पहला है और अगर ये तथ्य दोहराए जाते हैं तो निश्चित ही काफी बेहतर होगा।" क्लेन इस अध्ययन में शामिल नहीं थे।

ब्लड ग्रुप कैसे निर्धारित होते हैं?

लाल रक्त कोशिकाओं की सतहों पर शर्करा अणुओं की उपस्थिति के अनुसार ब्लड ग्रुप निर्धारित किए जाते हैं। ब्ल़ड ग्रुप 'ए' वाले व्यक्ति में लाल रक्त कोशिका की सतह पर एक विशेष शर्करा की परत होती है जिसे एंटीजन 'ए' कहा जाता है और इसी तरह की क्रिया अन्य ब्लड ग्रुप वाले व्यक्ति के साथ होती है। 'ओ' ग्रुप के रक्त में लाल रक्त कोशिकाओं की सतहों पर न तो एंटीजन 'ए' होता है और न ही एंटीजन 'बी'। 'ए’ टाइप ब्लड में इन एंटीजन की कमी यह सुनिश्चित करती है कि इसे किसी अन्य ब्लड ग्रुप वाले व्यक्ति को दिया जा सकता है और यह 'ओ' ब्लड ग्रुप को सार्वभौमिक बनाता है, विशेष रूप से आपातकालीन स्थिति में ये महत्वपूर्ण होता है जहां डॉक्टरों और नर्सों को ये निर्धारित करने के लिए कुछ भी समय नहीं होता है कि रोगी का ब्लड ग्रुप क्या है जिसे तत्काल रक्त देने की आवश्यकता होती है।

दुर्लभ पदार्थ के रूप में रक्त

डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार विश्व के ब्लड डोनेशन का लगभग 42% उच्च आय वाले देशों में एकत्र किया जाता है जिनकी आबादी दुनिया का केवल 16% है। इससे आपातकाल में ब्लड की कमी की तस्वीर साफ हो जाती है। उदाहरण के लिए 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रत्येक वर्ष 30 लाख यूनिट ब्लड की कमी होती है। इसके अलावा भारत में अभी भी अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है खासकर दूर दराज के गांवों में। इसलिए जब कोई आपात स्थिति में हो और उसे तत्काल ब्लड की आवश्यकता हो और परिवार के सदस्यों या दोस्तों में कोई उचित डोनर न हो तो उन्हें कोई ब्लड नहीं मिल पाएगा। ऐसे में ये नवीनतम शोध बेहद महत्वपूर्ण है जिससे उनके ब्लड की कमी दूर होने की संभावना होगी।

शोध

वैज्ञानिकों ने दूसरे सबसे कॉमन ब्लड को बदलने की कोशिश की जो टाइप ए (या ब्लड ग्रुप ए) है। ये कोशिश वैज्ञानिकों ने इसके एंटीजन को हटाकर की थी। परिणामस्वरूप इस ब्लड ग्रुप को सार्वभौमिक 'ओ' ब्लड ग्रुप में परिवर्तित किया गया था। लेकिन उन्हें ज़्यादा सफलता नहीं मिली क्योंकि 'ए' एंटीजन को हटाने के लिए ज्ञात एंजाइम कम खर्च में उनके कार्य को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं थे।

वे पिछले 4 वर्षों से इन एंजाइमों के सुधार के लिए प्रयास कर रहे थे। इस बार उन्होंने मानव गट बैक्टीरिया पर शोध केंद्रित करने का फैसला किया। ये गट बैक्टीरिया जिनका उन्होंने अध्ययन किया वे शर्करा-प्रोटीन कॉम्बोस खाते हैं जिसे म्यूसिन कहते हैं। ये म्यूसिन गट को पंक्तिबद्ध करता है जहां ये कीटाणु रहते हैं। म्यूसिन शर्करा लाल रक्त कोशिकाओं में किसी प्रकार टाइप परिभाषित करने के समान होता है।

इस अध्ययन टीम ने मानव मल के नमूनों से कीटाणुओं के डीएनए को अलग किया और उन जीनों की पहचान की जो इन म्यूसिन को हजम करने में इन एंजाइमों को सक्षम बनाते हैं। इसके बाद उन्होंने 'ए' एंटीजन को हटाने के लिए एंजाइम की क्षमता का अध्ययन किया।

सबसे पहले उन्होंने कोई पर्याप्त परिणाम नहीं पाया। लेकिन दो परिणामी एंजाइमों का एक बार परीक्षण करने पर उन्होंने एंटीजन 'ए' को मानव रक्त से निकालने में अपनी सफलता को देखा। ये एंजाइम मूल रूप से फ्लेवोनिफ्रेक्टर प्लौटी नामक गट बैक्टीरिया से निकलते हैं। इन एंजाइमों की छोटी मात्रा को 'ए' ब्लड ग्रुप के एक इकाई में मिलाने पर नुकसान पहुंचाने वाला एंटीजन 'ए' निकल गया।

फिर भी इस खोज की पुष्टि के लिए अगले शोध का अभी भी इंतजार है। हालांकि दुनिया भर में रक्त विशेषज्ञों द्वारा इन शोधों को उल्लेखनीय माना जा रहा है।

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