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बांग्लादेश हिंसा: अल्पसंख्यकों के लिए असहनीय जगह में तब्दील होता भारतीय उपमहाद्वीप

अतीत की उथल-पुथल से सबक सीखने के बजाय, बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत में विभाजन की पूनरावृति देखी जा रही है।
Bangladesh Violence

भारतीय उपमहाद्वीप में धार्मिक असहिष्णुता के बढ़ते ज्वार ने एक बार फिर से धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक दीवार को तोड़ दिया है। इस बार पिछले हफ्ते, बांग्लादेश की अल्पसंख्यक हिंदू आबादी की बारी थी, जो बांग्लादेश के लगभग 22 जिलों में नफरत के भंवर में फंस गई थी, तब-जब वे दुर्गा पूजा मना रहे थे। वहां के मंदिरों को उजाड़ दिया गया, तोड़फोड़ की गई या उन्हे नष्ट कर दिया गया, हिंदुओं की दुकानों और घरों को जला दिया गया, जिससे पांच लोगों की मौत हो गई। चार दिन बाद, मुस्लिम लुटेरी भीड़ ने हिंदुओं पर फिर से हमला किया।

उपमहाद्वीप धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए एक असहनीय स्थान बन गया है- बांग्लादेश में हिंदू, बौद्ध और ईसाई, पाकिस्तान में हिंदू और ईसाई और भारत में मुस्लिम और ईसाई इस घिनौने हिंसक भीड़ के शिकार हो रहे हैं। सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को बांग्लादेश और पाकिस्तान में दक्षिणपंथी धार्मिक समूहों द्वारा या, जैसा कि भारत में, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा राक्षसी रूप से लक्षित किया जाता है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा भारत में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को बढ़ावा देती है और ऐसा ही पाकिस्तान और बांग्लादेश में हो रहा है। 

जैसा कि विख्यात बांग्लादेशी अर्थशास्त्री, देबप्रिया भट्टाचार्य ने मुझे बताया कि, “हिंसा के मौजूदा दौर को विवेकपूर्ण या आकस्मिक घटनाओं के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह इस बात का परिणाम है कि कैसे राजनीतिक दलों ने बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण किया है। हमारा अनुभव भारतीय अनुभव के समानांतर है।उन्होंने कहा कि दक्षिणपंथी धार्मिक ताकतों के उदय ने न केवल उपमहाद्वीप को जकड़ लिया है, बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका से लेकर फिलीपींस तक असहिष्णुता का एक भयानक दौर चल रहा है।

राणा दासगुप्ता, जो बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के एक छात्र संगठन, हिंदू-बौद्ध-ईसाई एकता परिषद के महासचिव हैं, ने मुझे बताया कि भारतीय राजनीतिक वर्ग ने, बांग्लादेशी वर्ग की तरह, चुनावी लामबंदी के लिए धर्म का इस्तेमाल किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदू कार्ड खेलते हैं। जवाब में, प्रियंका गांधी से लेकर ममता बनर्जी तक, जो मुख्य विपक्षी नेता हैं, हिंदुओं के दरबार में मंदिरों का दौरा कर रहे हैं।

समुदायों को राजनीतिक रूप से लामबंद करने के लिए धार्मिक कार्ड का इस्तेमाल दशकों से विभाजन की ओर ले जा रहा है। 1945 से 1947 तक चली भीषण हिंसा ने शत्रुता और कटुता की याद को ताज़ा कर दिया है जिसका इस्तेमाल वर्षों से वर्तमान में जहर घोलने के लिए किया जा रहा है। और यद्यपि 1971 में बांग्लादेश का जन्म राष्ट्रवाद का आधार बनने वाली धर्म की अंतर्निहित सीमाओं का एक वसीयतनामा था, इस शानदार विफलता ने दक्षिणपंथी समूहों को हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र-राज्य बनाने की कोशिश करने से नहीं रोका था या नहीं रोक पाया था। 

उदाहरण के लिए, बांग्लादेश ने 1972 में एक धर्मनिरपेक्ष संविधान को अपनाया था। संविधान के अनुच्छेद 12 में कहा गया है कि, "धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को सभी रूपों में सांप्रदायिकता के उन्मूलन के द्वारा ही हासिल किया जाएगा।" इसने राष्ट्र को किसी भी धर्म का पक्ष लेने और धार्मिक आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करने से रोकने का दिशा निर्देश दिया था। 

हालांकि, 1975 में, राष्ट्रपति-तानाशाह जियाउर रहमान के तहत, संविधान से धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को हटाने के लिए अनुच्छेद 12 में संशोधन किया गया था। संशोधन में निम्नलिखित शब्द शामिल किए गए: "सर्वशक्तिमान अल्लाह में पूर्ण विश्वास और वही विश्वास सभी कार्यों का आधार होगा।" 1988 में, एक और तानाशाह मुहम्मद इरशाद ने संविधान अनुच्छेद 2ए में संसोधन पेश किया, जिसने इस्लाम को राष्ट्र का धर्म घोषित किया था।

1997 में, "अल्लाह के नाम पर, परोपकारी, दयालु" जो अरबी समकक्ष है जो अल्पसंख्यकों, उदारवादियों और वामपंथियों के लिए आतंक बन गया था, संविधान की प्रस्तावना की शुरुआती पंक्ति बन गया था। 

2010 में, बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने रहमान के 1977 के संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया था, और अनुच्छेद 12 को, धर्मनिरपेक्षता की गारंटी के साथ, बहाल कर दिया गया था। लेकिन राष्ट्र के धर्म के रूप में इस्लाम और "अल्लाह के नाम पर ..." शब्द बने रहे, जो धर्मनिरपेक्षता के बारे में बांग्लादेश के भ्रम को दर्शाता है। या, यह कहा जा सकता है, प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने सोचा कि यह 1972 की घड़ी को वापस न ले आए और इस डर से कि इस्लामवादियों की दशकों में ताकत काफी बढ़ी है इसलिए इसे छूना ठीक नहीं होगा।

बांग्लादेश के स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के बारे में, दासगुप्ता कहते हैं कि, “1975 में, बांग्लादेश पाकिस्तान के ही एक संस्करण में बदल गया था। जिन लोगों ने मुक्ति बलों के उत्पीड़न में पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था [यानी, जिन्होंने बांग्लादेश बनाने के लिए लड़ाई लड़ी थी] उनका पुनर्वास किया गया। उसी समय से देश साम्प्रदायिकता के नरक-कुंड में गिरने  लगा था।

बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता के विचार को बढ़ावा देने वाली हसीना ने 1996, 2008, 2014 और 2018 में चुनाव जीते। फिर भी, उन्हें इस्लामवादियों पर लगाम लगाने में मुश्किल आई। किसी के लिए भी, उनकी राजनीति में, इस्लाम को राज्य का धर्म घोषित करने वाले संविधान से औचित्य मिलता है। इस प्रकार वास्तव में इस्लामी राज्य स्थापित करने के प्रयासों को दार्शनिक रूप से दोष नहीं दिया जा सकता है। इस्लामवादियों का बढ़ता प्रभाव बताता है कि प्रशासन धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए हसीना के स्पष्ट निर्देशों की क्यों उपेक्षा करता है या कार्यवाही क्यों धीमा पड़ जाती है, जैसा कि इस महीने बांग्लादेश में स्पष्ट रूप से देखा गया है।

वास्तव में दक्षिणपंथी धार्मिक समूहों की बढ़ती ताक़त, धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं को चुनावी लाभ कमाने के लिए उनके साथ समझौता करने के लिए प्रेरित करता है। शिक्षाविद और नागरिक समाज कार्यकर्ता मेसबाह कमाल ने मुझसे कहा कि शेख हसीना ने बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी-जमात-ए-इस्लामी गठबंधन के लिए एक प्रतिपक्ष बनाने के लिए हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम को लुभाने की कोशिश की है। हिफ़ाज़त-ए-इस्लामी एक ऐसा इस्लामी समूह है जो मानता है कि महिलाओं को केवल चौथी कक्षा तक पढ़ाया जाना चाहिए। कमाल कहते हैं कि समूह को लगता है कि, शिक्षा के इस स्तर की उन्हें जरूरत है, क्योंकि उन्हें केवल घरेलू जिम्मेदारियों को निभाना है।

हिफ़ाज़त के प्रभाव में 2017 में स्कूली पाठ्यपुस्तकों में बदलाव किए गए थे। कुछ उदाहरण बता रहे हैं कि: कक्षा VI की पाठ्यपुस्तकों से, रवींद्रनाथ टैगोर की कविता "बांग्लादेशर हृदय" को हटा दिया गया था, जैसा कि सत्येन सेन की कहानी "लाल गोरुता" को हटा दिया गया था। जैसा कि आठवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक से महाकाव्य रामायण का संक्षिप्त संस्करण था, उसे हटा दिया गया था। सेंसर ने नज़रुल इस्लाम और सुनील गंगोपाध्याय पर भी कुल्हाड़ी मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। (पाठ्यपुस्तकों से हटाने की सूची मौजूद यहाँ है।)

मोदी के भारत ने भी, बच्चों को हिंदुत्व की विचारधारा में डुबोने के लिए स्कूली पाठ्यपुस्तकों को बदलने के लिए एक उल्लेखनीय जुनून का प्रदर्शन किया है। भाजपा ने हिंदू शिकायतों की एक लंबी सूची को वैध बनाने के लिए इतिहास को फिर से लिखने की भी कोशिश की है।

इसी तरह, जैसा कि कमाल बताते हैं, "बांग्लादेश के जन्म का इतिहास [गलत तरीके से] 1905 के बंगाल विभाजन और मुस्लिम लीग के उदय के साथ शुरू होता है।" पूर्वी पाकिस्तान (या बांग्लादेश) के लिए यह इतिहास का एक सरलीकरण है, यहाँ तक कि मिथ्याकरण भी है, वह पश्चिमी पाकिस्तान से इसलिए अलग हो गया क्योंकि इस्लाम उर्दू-बंगाली विभाजन को पाटने में विफल रहा था।

जैसा कि उपमहाद्वीप में धार्मिक बहुसंख्यकवाद व्यापक है, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमलों का हवाला देकर भारत में मुसलमानों और ईसाइयों के उत्पीड़न को सही ठहराने के लिए हिंदू दक्षिणपंथ हमेशा उक्त का सहारा लेता रहा है। यह बांग्लादेश में बातचीत का विषय है। भट्टाचार्य ने कहा, “यह तर्क कि भारत में हिंदू, मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं, बांग्लादेश में हिंदुओं को निशाना बनाने का औचित्य नहीं हो सकता है। यह एक मिथक है कि हम सद्भाव वाला उपमहाद्वीप हैं।" उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यक अधिकार इस बात से नहीं आते हैं कि उनके साथ कहीं और कैसे व्यवहार किया जाता है। बल्कि, ये अधिकार उस देश के संविधान से आते हैं जिससे वे संबंधित हैं।

यह बताता है कि, यह भी सच है कि भारत में होने वाली घटनाएं बांग्लादेश की राजनीति को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, नागरिकता संशोधन अधिनियम पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की बयानबाजी ने कई बांग्लादेशियों को प्रभावित किया है, जैसा कि अनुच्छेद 370 को हटाना, कश्मीर में जारी हिंसा और इस साल असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की कोरी बयानबाजी थी।

इस बात का बहुत अच्छी तरह से तर्क दिया जा सकता है कि बांग्लादेश ने भारत को राजनीति में धार्मिक कार्ड की शक्ति दिखाई है। जैसा कि दासगुप्ता ने कहा, "भारतीय राजनेताओं ने देखा कि कैसे बांग्लादेश ने संविधान से धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत को आसानी से हटा दिया और इसलिए, हमारे नेताओं ने भी वैसी ही समान रणनीति अपनाने का फैसला किया।" लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी भारत को हिंदू बनाने के लिए 1947 से प्रयास कर रहे हैं।

यहां फ़र्क सिर्फ इतना है कि उन्हें अपनी सफलताओं को हासिल करने में काफी समय लगा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारत के संस्थापकों ने एक मजबूत लोकतंत्र का निर्माण किया था - जिसके लिए वे अपने वैचारिक मतभेदों के बावजूद प्रतिबद्ध थे।

कमोबेश यही बात यूनाइटेड अवामी नेशनल पार्टी के अस्सी-वर्षीय अध्यक्ष पंकज भट्टाचार्य ने मुझसे कही, “हमें पूरा विश्वास है कि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएँ सांप्रदायिक ताकतों पर काबू पाने के लिए पर्याप्त रूप से लचीली हैं। लेकिन बांग्लादेश की लोकतांत्रिक संस्थाएं जीवंत नहीं हैं।" यह आंशिक रूप से इसलिए है क्योंकि राष्ट्र-निर्माण के शुरुआती वर्षों में वहां की संस्थाओं ने सैन्य-इस्लामी गठबंधन से बार-बार मार खाई है। 

ऐसा लगता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में हम 1947 के विभाजन से पहले के माहौल को पुनर्जीवित करने की आत्मघाती इच्छा से आगे निकल गए हैं। वास्तव में, जहां तक सांप्रदायिक वायरस के भौगोलिक प्रसार की बात है, हम, विशेष रूप से उपमहाद्वीप में अल्पसंख्यक, पहले से ही विभाजन की भयवाह तस्वीर का एहसास कर रहे हैं।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Bangladesh Violence: Indian Subcontinent is a Hard Place for Minorities

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