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भारत
राजनीति
बंगाल चुनाव: वाम दलों के ख़िलाफ़ टीएमसी की हिंसा ने किस तरह बीजेपी के लिए दरवाज़े खोले
वाम समर्थकों के ख़िलाफ़ टीएमसी के एक दशक से चल रहे लम्बे हिंसक अभियान ने भाजपा का मुक़ाबला करने में सक्षम इकलौती ताक़त को कमज़ोर कर दिया, लेकिन अब वामपंथी फिर से लड़ाई में उतर गए हैं।
सुबोध वर्मा
22 Mar 2021
बंगाल चुनाव

बुद्धिजीवियों और मीडिया की तरफ़ से बहुप्रचारित अवधारणा तो यही रही है कि 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में वामपंथियों को चुनावी तौर पर हार मिली थी, और इसके बाद फिर उनकी वापसी नहीं हो पायी, लगातार नीचे ही जा रहे हैं।

यह अवधारणा दरअसल उस आतंक के एक दशक के लंबे शासनकाल पर आँख मूँद लेती है, जिसे तृणमूल कांग्रेस ने वामपंथियों के ख़िलाफ़ छेड़ रखा है। इस आतंक में शामिल है-कार्यकर्ताओं की हत्या, गांवों से सैकड़ों लोगों का विस्थापन, बलात्कार और हमले के ज़रिये आतंकित किया जाना, ग़रीब परिवारों से पैसे की वसूली, अपनी भूमि से बरगादरों (बंटाईदार), छोटे भूमि के मालिकों का बेदखल किया जाना, फ़सलों की कटाई से रोका जाना, छात्रों के यूनियनों और सहकारी समितियों पर हमले और ऐसे ही दूसरी तरह की ज़्यादतियां।

जैसा कि नीचे दी गयी तालिका में दिखाया गया है, इस अर्ध-फ़ासीवादी हमले को लेकर ज्यादातर वे लोग मूकदर्शक बने रहे, जिन्हें लगता रहा है कि यह लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है। ये हमले बेहद व्यापक असर वाले थे, और इसे बेख़ौफ़ स्तर पर इस क़दर अंजाम दिया गया कि इसे दुरुस्त करने में वामपंथी ताक़तों को कुछ समय लग गया।

कार्यकर्ताओं को अक्सर फ़ांसी पर लटकाकर या कुल्हाड़ी से काटकर बर्बरता के साथ मारा गया, ऐसे कार्यकर्ताओं की संख्या 225 थी, इसके अलावा जैसा कि रिपोर्टों से पता चलता है कि इन वर्षों में कम से कम 2, 351 महिलायें, जिनमें से कुछ किशोर थीं, उन पर यौन हमले और शारीरिक हमले किये गये। ऐसे वाकयों की तादाद बहुत ज़्यादा होने की संभावना है, क्योंकि कई महिलाएं अपनी जान के डर से अपनी पहचान सामने नहीं आने देना चाहतीं।

इस तरह के हमले को लेकर किसी को भी कुछ देर के लिए यह उम्मीद हो सकती है कि जो ग़ुंडई चल रही थी, उस पर क़ानून ने अपना काम किया होगा। लेकिन, किसी को भी उसकी संपत्ति (दुकानों / घरों) के नुकसान के लिए मुआवज़ा नहीं दिया गया, हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के कार्यकर्ताओं द्वारा किये गये सर्वेक्षणों से एक मोटे अनुमान के मुताबिक़ इस नरसंहार के दौरान 8.67 करोड़ रुपये से ज़्यादा की संपत्ति नष्ट की गयी। किसी ने भी उन ग़रीब परिवारों की दुर्दशा की कल्पना नहीं की होगी कि उनसे टीएमसी समर्थकों ने सालों से तक़रीबन 3.59 करोड़ रुपये ऐंठे होंगे, जिन्हें भुगतान नहीं करने पर गंभीर नतीजे भुगतने की धमकी दी जाती रही।

अक्सर महीनों तक 65, 000 से ज़्योदा लोगों को अपने घरों से भागना पड़ा और कहीं और जाकर छुपना पड़ा। ये लोग और उनके परिवार कैसे बच पाये, उसकी सुध उन सिद्धांत बघारने वालों ने भी नहीं ली, जिन्होंने वामपंथी कार्यकर्ताओं को लेकर कहते रहे हैं कि उन्होंने अपना “बोरिया बिस्तर समेट लिया है।”। 20, 000 से ज़्यादा परिवारों को तो कभी-कभी सालों तक उन बहुत सारे गांवों और इलाक़ों को भी छोड़ना पड़ा, जहां वे रह रहे थे। एक लाख से ज़्यादा वाम समर्थकों ने इसके ख़िलाफ़ आपराधिक मुकदमे दायर किये थे, जिनके लिए उन्हें पुलिसकर्मियों और उन अपराधियों की तरफ़ से बहुत परेशान किया गया, जो उन परिवारों को आतंकित कर रहे थे।

इस हमले का मक़सद राजनीतिक तबाही था। यह वाम समर्थकों (जिनमें ज़्यादातर CPI (M) थे) को निशाना बनाने और अखबारों के बोर्ड((सार्वजनिक स्थानों पर रखे जाने वाले अख़बार, ताकि लोग वामपंथ से जुड़े दैनिक समाचार पत्रों, ख़ासकर गणशक्ति को पढ़ सकें) को नष्ट करने, वामपंथी दलों और उनसे जुड़े संगठनों के दफ़्तरों में लूटमार और तोड़फोड़ करने और टीएमसी द्वारा उनपर कब्ज़ा जमाने; वामपंथी संगठनों की अगुवाई वाले छात्र संगठनों और सहकारी समितियों को निशाने पर रखकर किये गये हमले और पंचायतों और अन्य संस्थाओं के लिए निर्वाचित वाम से जुड़े लोगों पर हमले जैसी कार्रवाइयों से भी स्पष्ट है। असल में इस आतंक के शासन का ऐसा वर्चस्व रहा कि स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान हज़ारों गांवों में टीएमसी उम्मीदवारों को छोड़कर किसी को भी अपना नामांकन दाखिल करने की अनुमति नहीं थी।

भाजपा का स्वागत

वाम मोर्चे के 34 सालों के शासन के दौरान भारतीय जनता पार्टी और उसका मातृ संगठन-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तमाम कोशिशों के बावजूद बंगाल में अपनी ज़्यादा बढ़त नहीं बना सके। ऐसा होने के पीछे के दो कारण थे: पहला, प्रत्येक गांव और इलाक़े में उन वामपंथी संगठनों की मज़बूत मौजूदगी, जो सतर्कता के साथ धार्मिक भावना के भड़काये जाने या सांप्रदायिक घृणा फैलाये जाने के ख़िलाफ़ थे; और दूसरा, क्योंकि सतर्क राज्य सरकार ने किसी भी तरह की सांप्रदायिकता के जहर को फ़ैलाये जाने या हिंसा शुरू किये जाने पर अंकुश लगाने को लेकर तत्काल हस्तक्षेप करने में कभी संकोच नहीं किया था। बंगाल में वामपंथियों की तरफ़ से निभायी गयी इस अनुकरणीय भूमिका को उन टिप्पणीकारों ने भी अवसरवादी होकर भुला दिया है, जो आज वामपंथियों पर पर्याप्त काम नहीं करने का दोष मढ़ हैं।

टीएमसी के आतंक के शासनकाल के दौरान वामपंथियों को भारी नुकसान पहुंचाए जाने और बंगाल के बड़े हिस्से में इसकी लामबंदी को क्षति पहुंचाने के बाद ही भाजपा और आरएसएस का प्रसार इस क़दर होने लगा कि ये लोगों की नज़र में आ गये। यह टीएमसी की तरफ़ से तैयार किया गया वही मैदान था, जिस पर भाजपा / आरएसएस ने ज़हर के बीज का अपना वह ब्रांड बो दिया था, जिसकी फ़सल बाद में काटी जानी थी। इस प्रक्रिया में भाजपा ने कुछ हद तक अपनी पकड़ मज़बूती बनायी, लेकिन यह उन लोगों की तरफ़ से कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर लगाया गया अनुमान है, जो चिंता जताने और दांत पीसने के अलावे कुछ कर नहीं रहे हैं। आख़िरकार, 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 294 सदस्यीय सदन में महज़ 3 सीटें ही तो जीत पायी थी।

उसके बाद ही बीजेपी / आरएसएस के इकट्ठे किये गये संसाधन बंगाल में पानी की तरह बहाये जाने लगे, क्योंकि उन्हें एहसास हो गया कि टीएमसी सरकार कई मोर्चों पर अपनी नाकामी के चलते धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता खो रही है, और ख़ासकर टीएमसी के हमलों से हुए नुकसान की वजह से अब तक चुनौती देते वामपंथी पूरी तरह उसे चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजों से भाजपा को काफ़ी ताक़त मिली और उसने विधानसभा में भी जीत को लेकर सोचना शुरू कर दिया। इस पर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है कि इससे पहले हुए वामपंथियों पर होने वाले तमाम हमले टीएमसी प्रेरित हमले थे।

इसका मतलब यह नहीं है कि खेलने के लिए कोई दूसरे कारक नहीं थे। टीएमसी की तरफ़ से की जा रही सांप्रदायिक और पहचान की राजनीति, बीजेपी की ओर से हो रही उसकी पूरक राजनीति, बीजेपी / आरएसएस की तरफ़ से किये जा रहे भारी मात्रा में पैसों का इस्तेमाल, टीएमसी सरकार का भ्रष्टाचार, ये कुछ ऐसे कारक थे, जिन्होंने भी बंगाल में इस बदल रहे राजनीतिक समीकरण में योगदान दिया है। लेकिन, वामपंथ के मज़बूत गढ़ को तोड़ने के लिए जिस तरह से टीएमसी ने वामपंथियों पर हमले कराये, टीएमसी की उस भूमिका को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है, और इसलिए इसे यहां इस पर ग़ौर करने की ज़रूरत है।

बदलते हालात

पिछले कुछ सालों में एक और ऐसा बदलाव हुआ है, जिस पर टिप्पणीकारों और मीडिया बड़ी बेदिली से देखते रहे हैं। यह बदलाव दरअस्ल वामपंथियों का वह कायाकल्प है, जिसने लोगों के मुद्दों पर अहम और व्यापक संघर्षों की एक श्रृंखला के ज़रिये अपनी संगठनात्मक ताक़त और प्रभाव को कड़ी मेहनत से बढ़ाया है। इनमें कामगारों, किसानों, खाद्य सुरक्षा, बेरोज़गारी, महिलाओं की सुरक्षा, शिक्षा से जुड़ी समस्याएं आदि के मुद्दे शामिल हैं।

ग्रामीण बंगाल में किसानों और कृषि श्रमिकों के संगठन उपज की बेहतर क़ीमतों और बेहतर मज़दूरी को लेकर होने वाले संघर्ष में सबसे आगे आये हैं। बहुत सारे उद्योगों में श्रमिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करते रहे हैं। आम लोगों से जुड़े इन तमाम बुनियादी मुद्दों को लेकर केंद्रीय स्तर पर बीजेपी और राज्य स्तर पर टीएमसी की मिलीभगत को इन संघर्षों के ज़रिये उजागर किया जाता रहा है, और इसने लोगों को प्रभावित भी किया है।

कार्यकर्ताओं और नेताओं की एक नयी पीढ़ी अब आगे बढ़कर कमान संभाल रही है, और टीएमसी और बीजेपी के सांप्रदायिक और पहचान-आधारित राजनीतिक पैंतरेबाज़ी का विरोध पूरे बंगाल में एक नयी करवट ले रहा है। यह विधानसभा चुनाव तो उन कई मिल के पत्थरों को पार करने का एक शुरुआती क़दम भर है। लेकिन, वर्ग आधारित राजनीति का फिर से उभरना, और विभाजनकारी राजनीति के उस गंदे ब्रांड की अस्वीकृति, जिसे टीएमसी और भाजपा सामने ला रहे हैं, बंगाल के लिए ये सब एक स्वागत योग्य संकेत है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bengal Elections: How TMC Violence Against Left Opened Doors for BJP

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