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बंगाल में हार से ली भाजपा ने सीख: भारत को और सांप्रदायिक बनाने की ज़रूरत

भाजपा हिंदुत्व की धार को तेज़ करने की कोशिश करेगी, ताकि धर्म, जाति, और वर्ग से परे इसके ख़िलाफ़ एकजुटता नहीं उभर पाये।
बंगाल में हार से ली भाजपा ने सीख: भारत को और सांप्रदायिक बनाने की ज़रूरत

रविवार, 2 मई के दिन साफ़ हो गया कि भारतीय जनता पार्टी का पश्चिम बंगाल के क़िले को फतह करने की मंशा पर पानी फिर गया है। पार्टी के राज्यसभा सांसद, राकेश सिन्हा ने ट्वीट किया, "जाग उठने की गुहार: चुनावी राजनीति में अल्पसंख्यक वीटो हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के लिए विनाशकारी होगा।” सिन्हा ने यह नहीं बताया कि वह जिस "अल्पसंख्यक" की तरफ़ इशारा कर रहे हैं, वह चुनावी या धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक हैं। उन्होंने "वीटो" शब्द को भी परिभाषित नहीं किया। थका देने और चिंता पैदा करते कई महीनों में पश्चिम बंगाल को सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकृत करने के भाजपा के ठोस प्रयासों को देखते हुए “धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र” को लेकर उनकी चिंता में विडंबना की अनुगूंज थी।

सिन्हा ने जल्द ही अपने पिछले ट्वीट की बातों को आगे बढ़ाते हुए दूसरा ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने लिखा, "समस्या पूजा के स्वरूप या किसी धर्म विशेष के अनुयायियों के साथ नहीं है, बल्कि जब लोग किसी धार्मिक समुदाय के तौर पर मतदान करते हैं, तो इससे लोकतंत्र के मूल सिद्धांत का लोप हो जाता है। क्या ऐसा भारतीय लोकतंत्र में नहीं हो रहा है? ”

सामने आ गयी मंशा

सिन्हा असल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के पीछे मुसलमानों की उच्च स्तर की कथित लामबंदी को पश्चिम बंगाल की लड़ाई में भाजपा की नाकामी के लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे।

सिन्हा को इस बात की संभावना से भी इन्कार है कि भाजपा के हलचल मचा देने वाले चुनाव प्रचार अभियान ने पश्चिम बंगाल के उन हिंदुओं को भी उनके भविष्य को लेकर डरा दिया हो, जो इस बात से साफ़ हो जाता है कि जहां 2019 के राष्ट्रीय चुनाव में पार्टी को 40.25% वोट मिला था, वहीं हालिया पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में यह प्रतिशत फ़िसलकर 38.1% तक आ गया। वह इस संभावना पर भी विचार नहीं कर पाते कि वाम और कांग्रेस पार्टी के मतदाता, जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों ही हैं, वे ममता के पाले में सिर्फ़ इसलिए चले गये क्योंकि उन्हें लगा कि उनकी पार्टी पश्चिम बंगाल में भाजपा को सत्ता से बाहर रख सकती है।

सिन्हा के ट्वीट से पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा की उस ध्रुवीकरण की राजनीति को फिर से शुरू करने की संभावना नहीं है, जो उसकी चुनावी रणनीति का लोकप्रिय शब्दावली है, जिसका अनुसरण वह हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए सत्ता पर काबिज होने के लिए करती है। भाजपा जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक सहयोगी राजनीतिक पार्टी है, वह ब्रह्मांड को उस चश्मे से देखता रहेगा, जिसमें मुसलमानों की छवि ऐसे राक्षसों या खलनायक की बना दी गयी है, जो लम्बे समय से भारत को कमज़ोर करने का काम करते रहे हैं।

भाजपा के हिंदू-मुसलमान समीकरण के आह्वान की प्रवृत्ति पश्चिम बंगाल में चुनाव के बाद होने वाली हिंसा की निंदा के बाद साफ़ तौर पर सामने आ गयी है। मिसाल के तौर पर भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव, कैलाश विजयवर्गीय ने दो नौजवानों का किसी महिला के साथ निर्मम पिटाई करता हुआ एक वीडियो के साथ निम्न पंक्ति ट्वीट की: “टीएमसी के मुसलमान ग़ुंडे नंदिग्राम के केंदामारी गांव में भाजपा महिला कार्यकर्ता की पिटाई कर रहे हैं।” यह वास्तव में एक अजीब-ओ-ग़रीब बात है कि विजयवर्गीय को आख़िर कैसे पता चला कि हमला कर रहे नौजवान मुसलमान हैं, क्योंकि ऐसा करते हुए उनकी धार्मिक पहचान किसी लिहाज़ से सामने नहीं आ रही थी।

पश्चिम बंगाल में हिंसा धार्मिक समुदायों के बीच नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच होती है। चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद से कथित तौर पर 11 लोग मारे गये-जिनमें पांच भाजपा के कार्यकर्ता थे, चार तृणमूल के कार्यकर्ता थे, और एक-एक भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उस इंडियन सेक्यूलर पार्टी के कार्यकर्ता थे, जिसे मुस्लिम धर्मगुरू अब्बास सिद्दीक़ी ने विधानसभा चुनाव से कुछ ही महीने पहले बनायी थी।

टेलीग्राफ़ अख़बार की रिपोर्ट में बताया गया है कि तृणमूल के कथित ग़ुंडों ने "बर्दवान, बीरभूम और बांकुरा में सीपीएम के कई घरों में तोड़फोड़ की।" तृणमूल के प्रति निष्ठा रखने वाले एक गिरोह ने उसी जमालपुर में सीपीएम कार्यकर्ता की हत्या कर दी, जहां बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने तृणमूल के दो कार्यकर्ताओं-सहजान शेख़ और बिभास बाग़ को मार दिया। सभी राजनीतिक दलों ने पश्चिम बंगाल में हिंसा की निंदा की है, हालांकि उन्हें सांप्रदायिक प्रकृति की हिंसा के रूप में सामने नहीं रखना चाहिए था।

सिर्फ़ भाजपा ने ही पश्चिम बंगाल में मुसलमानों को उस रक्तपात में फांसने की कोशिश की है। पार्टी हर चुनाव से पहले एक नयी भाषा में लिखा गया अपना वही पुराना राग अलापती रहती है कि पश्चिम बंगाल में रह रहे बांग्लादेशी मुसलमान वहां के हिंदुओं और भारत की सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं। बीजेपी के नेताओं ने 2021 के अपने चुनावी अभियान को इस धारणा पर तैयार किया था कि पश्चिम बंगाल के 27% मुसलमान तृणमूल और वाम-कांग्रेस-आईएसएफ गठबंधन को समर्थन देने वालों में विभाजित होंगे, और यह कि हिंदुओं की लामबंदी एक उग्रवादी हिंदुत्व के आधार पर बनी हुई है और इस तरह, भाजपा के पास सत्ता में आने के लिए पर्याप्त वोट-शेयर है।

हिंदुत्व के नेताओं की ये धारणायें बहुत हद तक धरी की धरी रह गयीं, ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि अच्छी-ख़ासी संख्या वाले अलग-अलग विचारधाराओं से जुड़े मतदाताओं ने यह तय कर लिया कि उनका प्राथमिक लक्ष्य भाजपा को सत्ता से बाहर रखना होगा। 2020 में दिल्ली में भी इसी तरह की एक ऐसी एकजुटता देखी गयी थी, जिसमें अलग-अलग कई विचारधारा वाले मतदाता, जो आम आदमी पार्टी के आलोचक थे, उन्होंने भी पार्टी के साथ हो लिया था। उन्होंने ठीक ही समझा था कि राजधानी में सिर्फ़ आम आदमी पार्टी ही भाजपा को हरा सकती है।

भाजपा इस तरह के एक लोकप्रिय लामबंदी को पारंपरिक रूप से अपने ख़िलाफ़ सामने आने को स्वीकार कर पाने से कतरा रही है, क्योंकि ऐसा करने से उसे हिंदुत्व की सीमाओं को भी स्वीकार करना होगा। यही वजह है कि सिन्हा ने पश्चिम बंगाल में अपनी हार को लेकर बड़ी सामाजिक लामबंदी के बजाय "अल्पसंख्यक वीटो" की बात कही है। विजयवर्गीय भी इसी वजह से पश्चिम बंगाल में होने वाली हिंसा का चित्रण ऐसे कर रहे हैं, जैसे कि उस हिंसा को मुसलमानों ने ही भड़काया हो।

पश्चिम बंगाल के चुनाव का नतीजा भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति की सीमाओं को रेखांकित करता है, इसके बावजूद भाजपा अपनी चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करने पर तैयार नहीं होगी। असल में भाजपा केंद्र और राज्य, दोनों में अपनी सरकारों के कुशासन से पैदा होने वाली बदहाली से अपना दामन बचाने के लिए हिंदू-मुस्लिम दरार को चौड़ा करने की कोशिश करेगी।

कोविड-19 की घातक दूसरी लहर के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की लापरवाही को ज़िम्मेदार ठहराया गया है, जिनके बारे में माना जाता है कि चरमरायी हुई स्वास्थ्य प्रणाली के दो-चार होते भारतीयों की पीड़ा पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाय उन्होंने पश्चिम बंगाल की जीत को अहमियत दी। चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था के जल्द ही दुरुस्त होने की संभावना नहीं है, इसलिए रोज़गार के अवसर और आय में भी कमी आयेगी। इस सबके ऊपर, राजनीतिक रूप से भारत के सबसे अहम सूबा, उत्तर प्रदेश के आघात ने यह साबित कर दिया है कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ दूरदर्शिता के बजाय लोगों को झांसे में रखकर और डरा-धमकाकर राज कर रहे हैं।

अगले साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव होना है। इसके हालिया पंचायत चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए सुकून देने वाले नहीं रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान, जो मुख्य रूप से जाट समुदाय से आते हैं और जो भाजपा के मुख्य आधारों में से एक रहे हैं, वे अब भाजपा से छिटक रहे हैं। किसान आंदोलन भी जाटों और मुसलमानों के बीच की फूट को पाटने का वादा कर रहा है।

इन सभी कारणों से भाजपा सिर्फ़ उस हिंदुत्व की धार को तेज़ करने की कोशिश करेगी, ताकि धर्म, जाति, और वर्ग से परे इसके ख़िलाफ़ एकजुटता नहीं उभर पाये। ऐसे में हैरानी नहीं कि भाजपा ने चुनाव के बाद की हिंसा को सांप्रदायिक बताने में जल्दीबाज़ी दिखायी है। पश्चिम बंगाल के नतीजे घोषित होने के अड़तालीस घंटे बाद भाजपा को अपनी हार से जो सबक मिला है, वह यह है कि उसने अभी तक वहां जो कुछ भी किया है, उसे और ज़्यादा करना चाहिए, यानी भारत को आगे और भी सांप्रदायिक बनाना और लोगों के बीच विभाजन पैदा करना।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Lesson BJP has Drawn from Bengal Defeat: Communalise India Even More

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