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भारत: क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन आंदोलन के 50 वर्ष

भारत के ट्रेड यूनियन आंदोलन की क्रांतिकारी धारा का प्रतिनिधित्व सीटू करती है जिसका गठन 50 साल पहले किया गया था।
भारत: क्रांतिकारी ट्रेड युनियन आंदोलन के 50 वर्ष
सांकेतिक तस्वीर।

28-30 मई, 1970 को, 1759 ट्रेड यूनियनों का प्रतिनिधित्व करने वाले 18 राज्यों के ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता एक अखिल भारतीय सम्मेलन में कोलकाता में इकट्ठे हुए थे। माहौल जोश से भरा था, वे लोग आज भी याद करते हैं जिन्होंने इस सम्मेलन में भाग लिया था। देश के कोने कोने में औद्योगिक हड़ताल हो रही थी और मज़दूरों और पुलिस के बीच बार-बार झड़पें बदस्तूर जारी रहती थीं या गुंडों के दस्ते मज़दूरों  पर टूट रहे थे। ट्रेड यूनियनों के भीतर भी तनाव था - उन लोगों के बीच जो वर्ग संघर्षों के साथ लड़ाई को आगे बढ़ना चाहते थे और जो संयम और अपसी सहयोग से आगे बढ़ना चाहते थे, वे जिन्हें सुलह और सरकारी मध्यस्थता की उम्मीद थी। इन उम्मीदों और तनावों को कोकाटा के रणजी स्टेडियम में हुई सभा ने ऊर्जा दी, इस अवसर के लिए इस जगह का नाम लेनिन नगर दिया गया था।

सम्मेलन ने सभी प्रतिनिधियों की सहमती से बड़ी ही सफ़लतापूर्वक एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया जिसके तहत - मौजूदा ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एआईटीयूसी) को छोड़कर सेन्टर ऑफ़ इंडियन ट्रेड युनियन  (सीआईटीयू) नामक एक अलग संगठन का गठन किया। इस आशय का प्रस्ताव तालियों की गड़गड़ाहट के साथ पारित किया गया था। इससे पहले, इस निर्णय पर पहुँचने के लिए गतिविधियों और घटनाओं पर एक रिपोर्ट, जाने-माने ट्रेड यूनियन नेता पी. राममूर्ति ने पेश की और इस रपट को अंग्रेज़ी, हिंदी, बंगाली, उर्दू, तमिल और मलयालम में भी उपलब्ध कराया गया था। रपट का मुख्य संदेश: ट्रेड यूनियनों में वर्ग सहयोगी प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ लड़ना था क्योंकि क्रांतिकारी वर्गों के सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था, कि वे वर्ग संघर्ष के आधार काम करने के लिए एक नए रास्ते को चुनें।

सम्मेलन के समापन के बाद, 31 मई 1970 को, ब्रिगेड परेड ग्राउंड में विशाल और उत्साही रैली आयोजित की गई, जिसमें कथित तौर पर 10 लाख लोगों ने भाग लिया था। ज्योति बसु, ई. बालनंदन, राममूर्ति और सीटू के नवनिर्वाचित अध्यक्ष बीटी राणादिव सहित ट्रेड यूनियन नेताओं की एक भरी पूरी आकाशगंगा वक्ताओं के रुप में मज़दूरों के बीच मौजूद थी।

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स्थापना सम्मेलन में रैली का दृश्य, 31 मई 1970, कोलकाता। इनसेट : बीटी रनदिवे 
क्रेडिट: द वर्किंग क्लास (सीटू की मासिक पत्रिका)

50 साल की विरासत

अपने गठन के बाद से बीती आधी सदी में भारत के बिखरे हुए ट्रेड यूनियन आंदोलन की इस क्रांतिकारी धारा ने कैसे काम किया? कोलकाता में पहले सम्मेलन के समय, इसकी सदस्यता सिर्फ़ 8 लाख से कुछ अधिक थी। वर्तमान में, यह 60 लाख से भी अधिक है। इसमें दो तिहाई असंगठित क्षेत्र के श्रमिक शामिल हैं, यह उद्योगपतियों और मीडिया के उस झूठे प्रचार के विपरीत है जिसमें वे कहते हैं कि ट्रेड यूनियन केवल संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए काम करती हैं। इसके अलावा, सीटू में लगभग एक तिहाई महिला सद्स्य हैं।

सीटू ने एक ईमानदार और क्रांतिकारी संघर्षों को चलाने वाली ट्रेड यूनियन की प्रतिष्ठा हासिल कर ली है। इसके गठन के ठीक बाद से, 1970 के दशक में पश्चिम बंगाल की कांग्रेस राज्य सरकार द्वारा भीषण अर्ध-फ़ासीवादी आतंकी हमलों का सामना करने के बावजूद, सीटू 1974 की बहादुराना रेलवे हड़ताल में सक्रिय रूप से शामिल हुई जो 20 दिनों तक चली थी। रेलवे में कर्मचारियों के बीच काम करने वाली अलग-अलग ट्रेड यूनियनें थीं और इसलिए, रेलवेमैन संघर्ष (एनसीसीआरएस) के लिए एक राष्ट्रीय समन्वय समिति का गठन किया गया था, जिसका सीटू एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया था। केवल कांग्रेस ही थी जिसने इंटक के नेतृत्व को इस संयुक्त समिति के बाहर रखा। सीटू ने एकजुटता, क़ानूनी सहायता और पीड़ित श्रमिकों के लिए राहत और सहायता के सभी उपाय और गतिविधियों का आयोजन किया।

इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार द्वारा घोषित आपातकाल (1975-77) के दौरान, सीटू ने दमन के ख़िलाफ़ और अपने कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ लड़ाई को जारी रखा। इसने मज़दूरों के अधिकारों पर खुले हमले के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी, जिसमें हड़ताल और अन्य विरोध प्रदर्शन पर रोक शामिल थी, बोनस भुगतान पर प्रतिबंध लगाया, वेतन नहीं दिया गया और आक्रामक उद्योगपतियों ने श्रमिकों की छँटनी की। इन गतिविधियों के साथ, सीटू ने स्वयं को उन विभिन्न सहयोगी यूनियनों के मुक़ाबले स्पष्ट रूप से अपने को स्थापित किया, जिन्होंने मज़दूर वर्ग पर हमलों के इस गंभीर दौर में अपने सिर रेत में गाड़ दिए थे।

आपातकाल हटाए जाने के बाद और लोकतंत्र को बहाल करने की प्रक्रिया नई सरकार के तहत शुरू हुई। सीटू उस वक़्त भी संघर्षों में सबसे आगे आया, जब उसने 1978 में एक नए मज़दुर विरोधी बेरहम इंडस्ट्रियल रिलेशंस बिल से लड़ने के लिए अन्य ट्रेड यूनियनों को लेकर एक संयुक्त मंच बनाने की पहल की। देश भर में विरोध प्रदर्शन का पैमाना यह था कि मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी सरकार को इसे वापस लेना पड़ा।

1982 में, सीटू ने फिर से सभी ट्रेड यूनियनों का एक संयुक्त मंच बनाने की पहल की और 19 जनवरी को श्रमिकों की पहली अखिल भारतीय हड़ताल का सफ़लतापूर्वक आयोजन किया गया था। इस हड़ताल के माध्यम से मज़दूर वर्ग ने देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों और कृषि श्रमिकों की सक्रिय भागीदारी की मांग उठाई। इस तरह की हड़ताल के दौरान नाराज़ मज़दूरों के विरोध प्रदर्शन हुए और सरकार द्वारा उन पर दमनकारी प्रतिक्रिया की गई थी। उस दिन देश के विभिन्न हिस्सों में पुलिस की गोलीबारी से कृषि श्रमिकों सहित दस श्रमिकों की मौत हो गई थी।
इन बड़े पैमाने पर अखिल भारतीय गतिविधियों के अलावा, सीटू ने कोयला, बंदरगाह और गोदी, इस्पात, वृक्षारोपण जैसे विभिन्न क्षेत्रों में संघों का नेतृत्व किया, बेहतर मज़दूरी और बेहतर कामकाजी परिस्थितियों के लिए हड़ताल और संघर्ष किया।

1990 के दशक की शुरुआत से, जब देश पर आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण लागू किया गया था, सीटू ने विभिन्न ट्रेड यूनियन संगठनों को एकजुट करने और क्रांतिकारी संघर्षों का रास्ता अपनाने में अग्रणी भूमिका निभाई है। संयुक्त ट्रेड यूनियन आंदोलन के नेतृत्व में कुल मिलाकर 18 देशव्यापी आम हड़तालें हुईं हैं, नवीनतम हड़ताल 8-9 जनवरी 2019 को ऐतिहासिक रही जिसमें लगभग 20 करोड़ श्रमिकों ने भाग लिया और जिसे आम लोगों का व्यापक समर्थन मिला।

मज़दूर वर्ग के आंदोलन का सबसे विकसित वर्ग 

न केवल वर्ग संघर्ष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण, बल्कि सीटू की पूर्व-प्रतिष्ठित स्थिति भी सामने आई क्योंकि यह आम तौर पर घरेलू स्तर पर और साथ ही साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रहे विकास का सबसे अच्छा, सबसे सावधानीपूर्वक और विस्तृत विश्लेषण/समालोचना प्रदान करता था। उदाहरण के लिए, सीटू ट्रेड यूनियन आंदोलन और मोदी सरकार के श्रम क़ानूनों और उनके प्रस्तावित सुधारों का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है, जो पूरी तरह से उन्हें कमज़ोर करने और उन्हें मालिकों के अनुकूल बनाने के प्रयास के अलावा कुछ नहीं है। इसी तरह, क्षेत्रीय नीतियों पर - फ़ार्मास्युटिकल या टेलीकॉम या स्टील एंड बैंकिंग एंड इंश्योरेंस आदि पर - सीटू के पास अपने संघर्षों के लिए ट्रेड यूनियन आंदोलन को लैस करने उनका विश्लेषण करने और उसे प्रदान करने के लिए आवश्यक सामग्री है।

संघर्ष में नई धाराओं को खींचा 

संघर्षों पर ज़ोर देने के अलावा, सीटू के काम की विशिष्ट विशेषताओं में से एक कामगारों के नए वर्गों को आकर्षित करने की क्षमता का भी है जो या तो उनसे संबद्ध नहीं थे या हाल के दशकों में उभरे हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण तथाकथित स्कीम वर्कर्स, यानी सरकार की विभिन्न योजनाओं में काम करने वालों के बीच सीटू के प्रभाव का अभूतपूर्व विस्तार है। भारत में अनुमानित एक करोड़ ऐसे श्रमिक हैं, जिनमें से ज्यादातर माहिलाएँ, जो संविदात्मक हैं, जिन्हें बहुत कम वेतन मिलता हैं, उन्हें नियमित श्रमिक के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है और फिर भी वे स्वास्थ्य सेवाओं, बाल देखभाल, शिक्षा, आदि जैसी आवश्यक सेवाओं में काम करने के लिए समर्पित हैं और सीटू ने उन्हे अपने संघों के माध्यम से जोड़ा है। आंगनवाड़ी श्रमिकों और सहायकों, और मिड डे मील वर्कर्स, और आशा कार्यकर्ताओं की यूनियनों के साथ मिलकर, सीटू ने इन नए प्रकार के लाखों कार्यकर्ताओं को संघर्षों में संगठित किया और उनका नेतृत्व किया है और कई वर्षों से महत्वपूर्ण जीत हासिल की जा रही है।

वेतन बिलों को कम करने के लिए और श्रमिकों को दास बनाने के लिए मालिकों की रणनीति उन्हे ठेकेदारी मज़दूर के रूप में काम करवाना है, सीटू ने देश भर में ठेके के कर्मचारियों को संगठन में शामिल करने और इस्पात, परिवहन, निर्माण, वृक्षारोपण और सामान्य एमएसएमई इकाइयों जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण क्षेत्रों में संघर्ष करने का भी प्रयास किया है। यह इन क्षेत्रों की अस्थिरता और विशेष रूप से इस प्रकार के रोजगार के संबंधों को देखते हुए एक कठिन कार्य है।

एकता पर ज़ोर देना 

यद्यपि श्रमिक वर्ग विभिन्न ट्रेड यूनियनों में विभाजित है, जो राजनीतिक दलों द्वारा संरक्षण प्राप्त हैं, सीटू ने सभी तरह की यूनियनों के साथ वर्षों के काम के ज़रिये संयुक्त रूप से एकजुट संघर्ष प्लेटफ़ार्मों का सफ़लतापूर्वक निर्माण किया है। अधिकतर, बड़े राजनीतिक दलों से जुड़ी यूनियनें उस दौर में निष्क्रिय हो जाती हैं जब उनकी पार्टी सत्ता में होती है, जैसे कि आरएसएस से जुड़ी बीएमएस, उसके वर्तमान स्थिति भी कुछ ऐसी ही हैं और यह सभी संयुक्त मंचों से बाहर हैं। लेकिन हाल के दशकों में अधिकांश हड़ताल की कार्रवाई संयुक्त आहवान थी। इसका मतलब है कि संघर्ष की पहुँच और अनुभव सीटू के संगठनात्मक प्रभाव से कहीं अधिक है।

आने वाले दिनों में, ट्रेड यूनियन आंदोलन को व्यापक मुद्दों जैसे - बेरोज़गारी, सांप्रदायिकता और जातिवादी विभाजन, अंधराष्ट्रवाद के प्रभाव, और इसी तरह के मुद्दों का सामना करने और उससे निपटने की आवश्यकता होगी। विभाजनकारी मुद्दे हमेशा एक आपसी सहयोग के दृष्टिकोण का आह्वान करते हैं, जो ट्रेड यूनियन आंदोलन के लिए ख़तरनाक हैं। मज़दूरी में कमी के माध्यम से श्रमिकों के अधिकारों पर बेरोज़गारी का प्रहार और काम पर रखने और जब चाहे निकाल देने के हमले, फिर से आंदोलन को तबाह करने पर उतारू है। जबकि सीटू इन मुद्दों को संबोधित कर रहा है, उसे बाक़ी आंदोलन को भी रास्ता दिखाना होगा, जैसे उसने अन्य चीज़ों में किया है।

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