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बिल गेट्स, गोरों का बोझ और टीके के मामले में मोदी सरकार की घोर विफलता

टीकों के मामले में मोदी सरकार का रवैया तो आरएसएस की विचारधारा की इस केंद्रीय निष्ठा पर ही आधारित है, कि शासन का काम तो सिर्फ इतना है कि वह बड़ी पूंजी की मदद करे।
बिल गेट्स, गोरों का बोझ और टीके के मामले में मोदी सरकार की घोर विफलता

मौजूदा संकट से मोदी सरकार जिस तरह से निपट रही हैउससे इस सरकार की अक्षमता खुलकर सामने आ गयी है। बहरहालटीके के मोर्चे पर तो इस सरकार का प्रदर्शन उससे भी बदतर रहा है। खुले बाजार पर आधारित पूंजीवाद की विचारधारा में अपनी आस्था के चलतेयह सरकार यह समझती है कि बाजार तो किसी चमत्कार से ऐसी हरेक चीज पैदा कर देगाजिसकी मांग हो। इसीलिएउसने सार्वजनिक क्षेत्र की सात टीका उत्पादक इकाइयों का गलाहर तरह की सहायता रोक कर घोंटा है। (डाउन टु अर्थ: कोविड-19 वैक्सीन्स: वेटिंग फॉर एडवांटेज इंडिया’, 17 अप्रैल, 2021)। इतना ही नहीं उसने सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित टीकाकोवैक्सीनजिसे आईसीएमआर तथा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वाइरोलॉजी ने विकसित किया हैभारत बायोटैक नाम की एक निजी टीका कंपनी के हवाले कर दिया। इसके अलावा यह सरकार यह भी मानकर बैठी रही कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियाजो कि एक और निजी कंपनी है तथा दुनिया की सबसे बड़ी टीका उत्पादक कंपनी हैबिना किन्हीं आर्डरों या पूंजीगत सहायता के हीभारत की जरूरत के लिए पर्याप्त टीके बनाकर दे देगी। इसी तरह वह यह भी मानकर बैठी रही कि उसे यह सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करने के जरूरत ही क्या है कि क्वॉड में भारत का नया-नया सहयोगी बना अमेरिकाउन सामग्रियों की आपूर्ति को नहीं रोकेजिनकी टीका बनाने के लिए हमारे देश में जरूरत है।
इसी का नतीजा है कि हालांकि भारत में कम से कम 20 टीका तथा बायलोजिक विनिर्माण प्रतिष्ठान हैंजिन सभी का टीका उत्पादन के काम में उपयोग किया जा सकता थाइनमें से सिर्फ दो ही इस समय टीके का उत्पादन कर रहे हैं। और यह उत्पादन भी ऐसी रफ्तार से हो रहा हैजो हमारे देश की जरूरतों को देखते हुए पूरी तरह से अपर्याप्त है।
टीकों के विकास का भारत का लंबा इतिहास है। इसकी शुरूआत, 1920 के दशक में मुंबई के हॉफकीन इंस्टीट्यूट से हुई थी। 1970 के पेटेंट कानून तथा सीएसआईआर की प्रयोगशालाओं द्वारा दवाओं की रिवर्स इंजीनियरिंग के बल परभारत ने इस क्षेत्र में वैश्विक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इजारेदारी को भी भेद दिया था। इसी चुनौती के बल परजिसके पक्ष में वामपंथ लगातार लड़ता रहा थाभारत सारी दुनिया में दवाओं तथा टीकों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बनकर सामने आया है और दुनिया भर के गरीबों का दवाखाना कहलाने लगा है।

बिल गेट्स ने हाल ही में यूके में स्काई टीवी के साथ बातचीत मेंमहामारी के दौरान कोविड-19 के टीकों तथा दवाओं पर बौद्घिक संपदा संरक्षण उठाए जाने केविश्व व्यापार संगठन में भारत तथा दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव पर अपनी प्रतिक्रिया दी। उसने दावा किया कि मुद्दा बौद्घिक संपदा का है ही नहीं और टीके का...भारत में किसी फैक्ट्री तक जाना...हो भी सकता है तो हमारे अनुदानों तथा विशेषज्ञता के चलते ही हो सकता है।’ दूसरे शब्दों मेंहम तब तक तो टीके बना ही नहीं सकते हैं जब तक गोरे आकर हमें नहीं बताएंगे कि कैसे टीका बनाना है और वे ही टीका बनाने के लिए पैसा भी मुहैया नहीं कराएंगे।

इस मामले में एक बार फिर हम एड्स के मामले में हुई बहस का पुनरावतार देख रहे हैं। उस बहस में भी पश्चिमी सरकारों और उनके उद्योग यानी भीमकाय दवा कंपनियों की यही दलील थी कि एड्स की जेनरिक दवाओं की इजाजत नहीं दी जा सकती है क्योंकि उससे तो घटिया दवाएं आएंगी और पश्चिम की बौद्घिक संपदा की चोरी भी हो रही होगी। बिल गेट्सजिसने माइक्रोसॉफ्ट के इजारेदाराना बौद्घिक संपदा अधिकारों के बल पर ही अपना दसियों खरब डालर का उद्योग साम्राज्य खड़ा किया हैदुनिया भर में बौद्घिक संपदा इजारेदारियों का सबसे बड़ा हिमायती है। एक महान परमार्थकारी के अपने नये-नये जुटाए गए आभामंडल के साथ अब वहपेटेंट इजारेदारियों के कमजोर किए जाने के खिलाफ वैश्विक मंच परभीमकाय दवा कंपनियों के हमले की अगुआई कर रहा है। बिल और मिलिंडा गेट्सजो विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख संस्थापकों में से भी हैंविश्व बैंक  के स्तर पर भी यह सुनिश्चित करने का काम करते हैं कि यह संगठन महामारी के दौरान भीपेटेंटों तथा जानकारियों को साझा करने का कोई कदम उठाए ही नहीं।
जैसाकि साथ में दी गयी तालिका दिखाती हैमौजूदा टीकों की सबसे बड़ी संख्या भारतीय कंपनियों ने ही बनायी है। हां! पैसे में हिसाब लगाया जाए तब जरूर बहुराष्ट्रीय कंपनियों या भीमकाय दवा कंपनियों का हिस्सा कहीं बड़ा हो जाता है। उनके पेटेंट संरक्षित टीकों कोकीमतें तय करने में उनकी इजारेदाराना हैसियत के बल परकहीं ऊंचे दाम मिल रहे हैं। यही मॉडल है जिसे बिल गेट्स और उसके संगी-साथी सारी दुनिया से मनवाना चाहते हैं। उनके हिसाब से बड़ी दवा कंपनियों का अनाप-शनाप कमाई करना जरूरी हैभले ही इसकी वजह से अपेक्षाकृत गरीब देश दीवालिया हो जाएं। इसके बदले में गेट्स और बफेट का पश्चिमी परमार्थी दानतीसरी दुनिया के गरीब देशों की थोड़े-बहुत टीके हासिल करने में मदद जरूर कर देगा और वह भी काफी धीमी रफ्तार से ही ये टीके हासिल करने में। लेकिनसारे फैसले उनके ही होने चाहिए।

मात्रा के हिसाब से टीका उत्पादन का अनुपात कंपनी मात्रा में कुल उत्पादन का हिस्सा (%) 

सीरम इंस्टीट्यूट 28
जीएसके 11
सानोफी 9
भारत बायोटैक 9
हाफकीन 7
अन्य 37

(विश्व स्वास्थ्य संगठन की ग्लोबल वैक्सीन मार्केट रिपोर्ट, 2020 से)
बहरहालटीकों के मामले में मोदी सरकार का रवैया तो आरएसएस की विचारधारा की इस केंद्रीय निष्ठा पर ही आधारित हैकि शासन का काम तो सिर्फ इतना है कि वह बड़ी पूंजी की मदद करे। इसके अलावा शासन से कुछ भी करने की अपेक्षा करना तोजिसमें नियोजन भी शामिल हैउनके हिसाब से समाजवाद’ हो जाता है। टीकों के मामले में इस तरह के रुख का अर्थ यह निकला कि इसकी कोई कोशिश ही नहीं की गयी है कि टीका उत्पादक कंपनियां- जिसमें सार्वजनिक तथा निजीदोनों ही क्षेत्र आते हैं- तेजी से टीकाकरण के कार्यक्रम के तकाजों के हिसाब से योजना बनाकर चलेंइस काम में पैसा लगाया जाए और आवश्यक आपूर्ति शृंखलाएं खड़ी की जाएं। इसके बजाएसरकार यह मानकर बैठी रही कि भारत का निजी दवा उद्योग तो खुद ही यह सब कर लेगा।

यह सरकार यह भूल ही गयी कि भारत का दवा उद्योग वास्तव में सार्वजनिक दायरे में विकसित विज्ञान--सीएसआईआर संस्थाओं--सार्वजनिक क्षेत्र और सिप्ला जैसी राष्ट्रवादी कंपनियों के प्रयासों का ही फल है। ये सभी तत्व भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से निकले थे और उन्होंने ही भारत के दवा उद्योग को खड़ा किया था। साहिब सोखे के नेतृत्व में हॉफकीन इंस्टीट्यूट और डा. पुष्प भार्गव के नेतृत्व में सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलाजी ने हीभारत की टीका तथा बायोलॉजिक्स क्षमताओं के निर्माण की अगुआई की थी। भारत की टीका निर्माण क्षमताएं इसी आधार पर टिकी हुई हैं।
प्रधानमंत्री के दावे के विपरीतभारत की टीका उत्पादन क्षमता कोई निजी कंपनियों की खड़ी की हुई नहीं है। ये निजी कंपनियां तो, 50 के दशक से 90 के दशक तकदेश में सार्वजनिक क्षेत्र में निर्मित विज्ञान व प्रौद्योगिकी की लहर पर सवार होकर हीयहां तक पहुंची हैं।

टीके की पात्र--18 वर्ष से ऊपर की--सारी आबादी का टीकाकरण करने के लिएभारत को टीके की दो अरब खुराकों की जरूरत होगी। इस स्तर के उत्पादन की तैयारी करने के लिएप्रौद्योगिकी व पूंजी के अलावाइस उत्पादन के लिए आवश्यक जटिल आपूर्ति शृंखला की कडिय़ां जुडऩा भी सुनिश्चित करना जरूरी था। इसमें कच्चे मालों से लेकरफिल्टरविशेष थैलियां आदिमध्यवर्ती मालों की आपूर्ति की कडिय़ां जोडऩा भी शामिल है। सीरम इंस्टीट्यूट ने ऐसे 37 आइटमों की निशानदेही की हैजिनके निर्यात पर इस समय अमरीका ने पाबंदी लगा रखी है। उसने यह पाबंदी 1950 के डिफेंस प्रोडक्शन एक्ट के तहत लगायी हैंजो वास्तव में अमरीका के कोरियाई युद्घ का ही अवशेष है।
अगर हम सीरम इंस्टीट्यूटभारत बायोटैक,बाइलॉजिक ईहाफकीन बायो फर्मास्युटिकल और स्पूतनिक-वी के निर्माण के लिए समझौताबद्ध पांच अन्य कंपनियों को भी जोड़ लें तोभारत पहले ही अरब खुराक सालाना से ज्यादा की टीका उत्पादन क्षमता की तैयारियां कर रहा है। इसमें अगर हम सार्वजनिक क्षेत्र के उन दवा कारखानों को और जोड़ लेंजिन्हें मोदी सरकार ने ठाली बैठने के लिए मजबूर कर के छोड़ दिया हैतो भारत आसानी से अपनी टीका उत्पादन क्षमता अरब टीका तक बढ़ा सकता था और चालू वर्ष में ही जरूरी अरब से ज्यादा टीका खुराकें बना सकता था। इस तरहभारत आराम से अपनी लक्ष्य आबादी का पूरी तरह से टीकाकरण कर सकता था और इसके बावजूद उसके पास अपनी निर्यात वचनबद्घताओं कोजिनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोवैक्स प्लेटफार्म की वचनबद्धताएं भी शामिल हैंपूरा करने के लिए पर्याप्त टीके बच गए होते। लेकिनइस सबके लिए जरूरत थी ऐसे योजना आयोग कीजो इस पूरी कसरत को अंजाम दे पाता। और जरूरत थी इसे कर दिखाने की राजनीतिक इच्छा की। जाहिर है कि खोखले नीति आयोग और इस अक्षम सरकार से यह नहीं होने वाला था।
उल्टे मोदी सरकार ने तो 11 जनवरी 2021 तक तो सीरम इंस्टीट्यूट को कोई आर्डर देने की परवाह नहीं की और इसके बाद भी उसने सिर्फ 1.1 करोड़ टीका खुराकों का आर्डर दिया गया। कोवीशील्ड की 120 खुराकों के लिए दूसरा आर्डर तो मार्च के महीने में ही दिया गयाजब संक्रमण के मामले फिर से बढऩे लगे और दूसरी लहर की संभावनाएं दिखाई देने लगीं। यह सरकार तो यही माने बैठी थी कि पूंजीवादी बाजार का चमत्कार हीउसकी सारी समस्याएं हल कर देगा।

इस बीच भारत और दक्षिण अफ्रीका ने इसकी मांग उठायी है कि महामारी के दौरान बौद्धिक संपदा के विश्व व्यापार संगठन के नियमों को स्थगित कर दिया जाए और पेटेंटों व नो-हाऊ समेत ज्ञान को बेरोक-टोक साझा किया जाए। इस प्रस्ताव को एशियाअफ्रीका तथा लातीनी अमरीका के ज्यादातर देशों का जोरदार समर्थन मिला है। जैसा कि आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता थाइसका विरोध धनी देशों द्वारा ही किया जा रहा हैजो टीकों के वैश्विक बाजार को अपनी बड़ी दवा कंपनियों के लिए संरक्षित कर के रखना चाहते हैं।
 

लेकिनएक ओर तो भारत दुनिया के स्तर पर इसके अभियान का नेतृत्व कर रहा है कि टीका बनाने में समर्थ सभी कंपनियों के साथटीका-उत्पादन के नो-हाऊ को साझा किया जाना चाहिए और दूसरी ओरउसने खुद हमारे देश में भारत बायोटैक कोकोवैक्सीन के लिए इकलौते उत्पादक का लाइसेंस दे दिया है! और यह लाइसेंस भी एक ऐेसे टीके के उत्पादन के लिए दिया गया हैजिसका विकास सार्वजनिक धन लगाकर और आईसीएमआर तथा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वाइरालॉजी जैसी सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा किया गया है। इस टीके को गैर-एकस्व लाइसेंस के तहत उत्पादन के लिएअन्य भारतीय कंपनियों तथा भारत से बाहर की कंपनियों के साथ भीसाझा क्यों नहीं किया जा रहा हैइसके बजाएइस टीके के नो-हाऊ का इकलौते उत्पादक के रूप में इस्तेमाल करने के लिएआइसीएमआर को भारत बायोटैक से रायल्टी मिल रही है। भारी सार्वजनिक दबाव के बाद हीइस टीके के नो-हाऊ को अब महाराष्ट्र के सार्वजनिक क्षेत्र उद्यमहॉफकीन बायो-फर्मास्यूटिकल्स के साथ साझा किया गया है। इस तरहभारत बायोटैक को छह महीने के समय की बढ़त तो दिलायी ही गयी हैउसे केंद्र सरकार की ओर से वित्तीय सहायता भी मुहैया करायी गयी है।
मोदी जी इसके सपने देख रहे थे कि भारतक्वॉड का टीका मुहैया कराने वाला बाजू बनने जा रहा है। वह यह भूल ही गए कि इसके लिएचीन के मुकाबले में भारत को टीका उत्पादन के ऐसे विशाल आधार की जरूरत होगीजिसके बल पर देश की अपनी टीकाकरण की जरूरतें भी पूरी की जा सकें और बाहर टीके मुहैया कराने की वचनबद्धताएं भी पूरी की जा सकें। चीन ऐसा करने की स्थिति में है क्योंकि वह अब तक सिनोफार्मसिनोवैक तथा कैनसिनो सेकम से कम तीन टीकों का विकास कर चुका हैजिनके उत्पादन के लाइसेंस दूसरों को दिए भी जा चुके हैं। अब इन टीकों का उत्पादन बढ़ाया जा रहा है और चीन अब एशियाअफ्रीका तथा लातीनी अमरीका के देशों के लिएटीके का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया है। और आखिरी बात यह कि भारत के विपरीतचीन ने अपने यहां महामारी पर काबू भी कर के रखा हुआ है।
इसी में मोदी सरकार फेल हुई है और बुरी तरह से फेल हुई है। एक अक्षम तथा घमंडी नेतृत्व और जादुई पूंजीवाद में आरएसएस की आस्था के योग का ही नतीजा है यह तबाहीजिसका हमें आज सामना करना पड़ रहा है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-
Bill Gates, the White Man’s Burden and Modi Government’s Vaccine Debacle

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