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क्या बीआरडी कॉलेज नई बीमारियों की श्रेणी बनाकर इंसेफेलाइटिस के मामलों को छिपा रहा है?

बीआरडी अस्पताल में तीव्र इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम और जापानी बुखार (एईएस/जेई) के रोगियों की संख्या में कमी आई है लेकिन तीव्र बुखार (एक्यूट फीब्राराइल इलनेस) के रोगियों की खतरनाक वृद्धि हुई है।
BRD

नई दिल्ली: क्या उत्तर प्रदेश सरकार का ऐसा दावा करना कि पिछले दो वर्ष में गोरखपुर के बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) और जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) से पीड़ित मरीजों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई है, वो वास्तविकता है या कोई बहाना? आइए इसकी जांच करते हैं।

मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने इस साल अगस्त में एईएस/जेई के रोगियों की संख्या में 35 प्रतिशत कमी आने का दावा किया था और साथ ही इस बीमारी से होने वाली मौतों में 65 प्रतिशत आई कमी को भी रेखांकित किया था। गोरखपुर डिवीजन में कार्यरत अधिकारियों ने भी दावा किया है कि एईएस/जेई के मामलों में मौतों में पिछले दो वर्षों में 60 प्रतिशत से अधिक की कमी आई है।

हालांकि, कॉलेज के डॉक्टरों का आरोप है कि बीआरडी प्रशासन डेटा में हेरफेर कर रहा है, असलियत यह है कि तीव्र एन्सेफलाइटिस एईएस/जेई के मरीजों के नाम दर्ज़ ही नहीं किए जा रहे हैं। यहां तक कि इस रिपोर्टर द्वारा हासिल किए गए अनौपचारिक डेटा भी कुछ ऐसी कहानी बयां करते हैं। इस वर्ष जनवरी से नवंबर तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार कुल 331 मरीज जेई पॉजिटिव पाए गए हैं।

लेकिन तस्वीर का दूसरा रुख ये है की इस साल तीव्र बुखार संबंधी बीमारी (एएफआई) के रोगियों में नवंबर माह तक 1,563 मामलों की खतरनाक वृद्धि देखी गई है।

एईएस/जेई से पीड़ित मरीजों में तेज़ बुखार के साथ-साथ बेहोशी, दौरे पड़ना, मनोभ्रंश के लक्षण दिखाई देते हैं; जबकि, एएफआई में रोगियों को 37.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बुखार होता है। इस तरह का बुखार 2-14 दिनों तक रह सकता है।

इसके अलावा, रोगी को सिरदर्द, चक्कर आना, ठंड लगना, मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द, कमजोरी, उल्टी, हाइपरटोनिया, माशपेशियों में दर्द या जकड़न, डिस्टोनिया, हाइपोकिन्सिया, शरीर का कठोर होना, कंपकंपी, मूत्र का रुक जाना, कब्ज, भ्रम, भटकाव या फिर कोमा में चले जाना हो सकता है।

एएफआई में मलेरिया, स्क्रब टाइफस, डेंगू, चिकनगुनिया मुख्य कारक हैं। एएफआई के रोगियों में कंप मौतों में कंपी, बेहोशी या पागलपन जैसे लक्षण नहीं होते हैं जो उन्हें एईएस/जेई से जुदा करते हैं।

एएफआई रोग के तहत भर्ती किए जाने वाले अधिकांश बच्चों में इंसेफेलाइटिस जैसे लक्षण पाए जा रहे हैं, फिर भी अधिकारी एईएस संख्या को दर्ज़ करने से (जिसके तहत एईएस रोगियों का रेकॉर्ड दर्ज़ करना होता है) से इनकार कर रहे हैं और इसलिए वह इंसेफेलाइटिस के मामलों की संख्या में कमी को दर्शाते है।

इसलिए, डर इस बात का है कि इंसेफेलाइटिस रोगियों की वास्तविक संख्या को इंकार करके उन्हें एएफआई श्रेणी में डाला जा रहा है ताकि एईएस की वास्तविक संख्या को छिपाया जा सके।

बीआरडी मेडिकल कॉलेज में एएफआई के रोगियों में जेई के 13 प्रतिशत से अधिक केस पाए गए हैं। यह संख्या एईएस में पाए जाने वाले रोगियों की संख्या से अधिक है। एएफआई रोगियों में जेई मामलों की संख्या पाए जाने से पता चलता है कि इंसेफेलाइटिस रोगियों की वास्तविक संख्या छिपाई जा रही है।

वर्ष 2018 में एएफआई श्रेणी को पेश किया गया था और तब से एईएस/जेई श्रेणी के रोगियों को नई शुरू की गई एएफआई श्रेणी के तहत भर्ती किया जा रहा है। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि एएफआई शब्द बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 2018 से पहले नहीं सुना गया था।

सूत्रों का आरोप है कि जब से बीआरडी मेडिकल कॉलेज ने एईएस के साथ-साथ एएफआई के तहत मरीजों को वर्गीकृत करना शुरू किया है, तब से इंसेफेलाइटिस के मामलों में नाटकीय कमी आ गई है।

बीआरडी मेडिकल कॉलेज से हासिल किए गए दस्तावेज बताते हैं कि इस साल जनवरी से अब तक एईएस के 492 मामलों में से 116 मामले जेई पॉजिटिव पाए गए हैं। इसके अलावा, इसी दौरान जो कुल 1,563 एएफआई के मामले पाए गए हैं उसमें से 215 मरीज जेई पॉजिटिव पाए गए हैं।

क्षेत्रीय चिकित्सा अनुसंधान केंद्र (आरएमआरसी) जो बीआरडी मेडिकल कॉलेज परिसर में स्थित है ने 7 और 9 अक्टूबर को 29 एएफआई रोगियों के नमूनों की जांच की थी और सीएसएफ सीरम की जांच के बाद पांच मरीज़ जेई पॉज़िटिव पाए गए हैं।

इसी में स्क्रब टाइफस के भी ग्यारह मामले पाए गए हैं। इसी तरह अगस्त 2019 के महीने में जिन 114 एएफआई रोगियों की जांच की गई थी उनमें से 21 को जेई पॉजिटिव पाया गया और 56 को स्क्रब टाइफस हुआ था। इन 143 रोगियों में से, 92 (यानि 64 प्रतिशत) 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चे हैं।

बीआरडी सूत्रों के अनुसार इस साल जनवरी से नवंबर तक जेई के 215 ( यानि 13.7 प्रतिशत) मरीज 1,563 दर्ज़ एएफआई रोगियों में पाए गए हैं। इसके अलावा, स्क्रब टाइफस के 350 (22.37 प्रतिशत), डेंगू के 50 (3.14 प्रतिशत) और चिकनगुनिया के 100 (6.39 प्रतिशत) मामले पाए गए हैं।

अन्य पांच राज्यों जिसमें असम, बिहार, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु हैं में वर्ष 2011-12 में एएफआई के 1564 रोगियों पर किए गए शौध से पता चला कि उनमें मलेरिया के 17 प्रतिशत, डेंगू के 16 प्रतिशत, स्क्रब टाइफस के 10 प्रतिशत और चिकनगुनिया का 6 प्रतिशत मामले पाए गए थे।

जब एएफआई रोगियों की जांच की जाती है तो जेई पॉजिटिव रोगी बहुत कम पाए जाते हैं, लेकिन बीआरडी मेडिकल कॉलेज में एएफआई के रोगियों के बीच जेई के 3 प्रतिशत से अधिक का पॉजिटिव पाया जाना एक गंभीर सवाल खड़ा करता हैं।

जो रोगी एईएस/जेई से पीड़ित हैं और अगर उनकी मौत हो जाती है तो उनके परिवार को सरकार की ओर से 50,000 रुपये का मुआवजा दिया जाता है। यदि किसी जेई से पीड़ित मरीज को बचा लिया जाता है, तो उन्हें 1 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाता है क्योंकि उनके भीतर एक तरह की विकलांगता आ जाती  हैं।

बीआरडी और जिला प्रशासन का इंकार

बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य, गणेश कुमार ने इस तरह के किसी भी डेटा के होने से इंकार कर दिया है और मुख्यमंत्री के ही दावे को दोहराया है। “एईएस/जेई के लगभग 87 रोगियों को 2019 में अस्पताल में भर्ती किया गया था, उनमें से 19 बच्चों की मृत्यु हो गई थी। 2017 में इस तरह के रोगियों की संख्या 2,248 दर्ज की गई थी, जिनमें से 512 की मृत्यु हो गई थी जबकि 2018 में एईएस/जेई के रोगियों की कुल संख्या 1,047 थी और 166 मौतें हुई थीं। वर्ष 2005 जो हाल के वर्षों का सबसे खराब साल रहा उसमें इस बीमारी ने 1,500 से अधिक बच्चों के जीवन को दाग दिया था।”

जब एएफआई के बारे में उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा: “हमें इस साल स्क्रब टाइफस, डेंगू और चिकनगुनिया के ज्यादा रोगी मिल रहे हैं। और इसलिए, उन्हें एईएस/जेई रोगियों से अलग करने के लिए नई श्रेणी बनाई गई है और ऐसा करना कोई गलत बात नहीं है।”

जब उनसे आगे पूछा गया कि क्या जेई रोगियों को एएफआई और एईएस श्रेणियों में बंटे रोगियों में पाया जा रहा है और इस बात के भी आरोप हैं कि जेई रोगियों को एईएस नंबर से वंचित किया जा रहा है, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि, "जब इस तरह के मामले सामने आते हैं तो मरीजों को एईएस अनुभाग में स्थानांतरित कर दिया जाता है और उसकी संख्या दे दी जाती है।"

श्रीकांत त्रिपाठी जो गोरखपुर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी हैं ने एईएस मामलों में आई कमी के दावे का समर्थन किया। यह बीमारी “पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित थी, एईएस/जेई ने अब राज्य के अन्य हिस्सों में अपना जाल फैला लिया है। यह घातक बीमारी तीन साल पहले तक बड़ा कहर बरपाती थी, लेकिन अब पिछले दो सालों में इस तरह के मामलों में कमी आई है। मरने वालों की संख्या में सौ से दस की संख्या पर पहुँचने की तेज गिरावट दर्ज की गई है। जेई वायरस के संक्रमण के कारण जिले में केवल तीन मौतें दर्ज की गई हैं। गोरखपुर के विभिन्न अस्पतालों में कुल 225 एईएस रोगियों को भर्ती किया गया था, जिनमें से केवल 10 की मृत्यु हुई। यह संख्या पहले सैकड़ों में हुआ करती थी,” ऐसा उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया।

उन्होंने कहा कि "बुनियादी ढांचे के विकास, डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ के प्रशिक्षण, आक्रामक जन जागरूकता अभियान चलाने और स्वच्छता संवेदीकरण कार्यक्रम और 'दस्तक अभियान' ने घातक बीमारियों के बड़े पैमाने पर उन्मूलन में योगदान दिया है। बारह सरकारी विभाग (जैसे स्वास्थ्य, नगर निगम, पंचायती राज, आईसीडीएस, शिक्षा विभाग, आदि) ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जागरूकता फैलाने के लिए आपस में मिलकर काम कर रहे हैं। जिले को खुले में शौच मुक्त बनाने के लिए भी एईएस को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाई है। गाघा, पिपिरौली और चौरी चौरा में स्थापित किए गए तीन बाल चिकित्सा गहन चिकित्सा इकाई (PICU) द्वारा समय पर रोगियों को आवश्यक उपचार देने में काफी मदद कर रहे हैं। यदि एईएस रोगियों को उचित और समय पर उपचार मिल जाता है, तो उनके ठीक होने की संभावना बढ़ जाती है। ”

लेकिन अस्पताल के सूत्रों के हवाले से पता चला है कि यहाँ तथ्यों को छुपाने की कोशिश की जा रही है। बाल रोग विभाग के एक डॉक्टर ने कहा: “वायरस-विशिष्ट आईजीएम एंटीबॉडी का पता लगाने के लिए सीएसई के परीक्षण से जेई की जांच को आमतौर पर पूरा किया जाता है। जबकि रोगी को एईएस के बजाय एएफआई श्रेणी के तहत वर्गीकृत करने से रोगियों को उचित नैदानिक जांच और दवा प्रोटोकॉल से वंचित कर दिया जाता है यानि समय पर जांच नहीं की जाती और इसलिए दवा भी नहीं दी जाती है। जेई की वजह से यहां कई मरीजों की मौत हुई है, लेकिन रिकॉर्ड बताते हैं कि वे एएफआई से पीड़ित थे।” डॉक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर यह सब बताया।

डॉक्टर ने इस बात को स्वीकार किया कि सरकार ने एईएस के मामलों को नीचे लाने के लिए एक अभियान चलाया था, लेकिन फिर उन्होंने सवाल किया कि अगर टीकाकरण हो रहा था, तो इतनी बड़ी संख्या में संक्रमित मरीज मेडिकल कॉलेज में कैसे आ रहे हैं या आ रहे थे।

बीआरडी में भर्ती लगभग 95 प्रतिशत एईएस रोगियों को पहले से ही टीका लगाया जा चुका है। यह कैसे हो सकता है? या तो कोल्ड चेन को ठीक से मेनटेन नहीं किया जा रहा है या दो महीने के भीतर-भीतर बच्चों को दो बार टीका नहीं लगाया जा रहा है जैसा कि करने की हिदायत है।

भारत सरकार के दिशानिर्देशों के अनुसार, जेई वैक्सीन की दो खुराक को यूनिवर्सल टीकाकरण कार्यक्रम (यूआईपी) में शामिल करने की मंजूरी मिल गई है, जिनमें से एक को नौ महीने की उम्र में खसरा के टीके  के साथ देना है और दूसरे को डीपीटी बूस्टर (जो डिप्थीरिया, टेटनस टॉक्सोइड्स और पर्टुसिस टीके का संयोजन है) के जरिए 16-24 महीने की उम्र में दिया जाना है।

इस बीच, जो लोग इस बारे में जानते हैं उन्होंने मामले की स्वतंत्र जांच की मांग करते हुए कहा कि "यह आबादी के एक बड़े तबके के स्वास्थ्य के अधिकार का उल्लंघन है"। उन्होंने कहा, "सरकार और अस्पताल प्रशासन को आरोपों के मद्देनज़र स्वतंत्र जांच करानी चाहिए।"

बीआरडी, जो एक रेफरल अस्पताल है, में भर्ती होने वाले मरीज के लिए जरूरी नहीं कि गोरखपुर के हों। वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया, कुशीनगर, महराजगंज, संत कबीर नगर, सिद्धार्थ नगर के अलावा वे बिहार से आए मरीज़ भी हो सकते हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Is BRD College Hiding Encephalitis Cases by Creating New Illness Category?

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