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कांग्रेस: तमिलनाडु में एक चुकी हुई ताक़त ?

कांग्रेस 1971 से द्रमुक या अन्नाद्रमुक के नेतृत्व वाले गठबंधन के हिस्से के रूप में चुनाव लड़ती रही है।
कांग्रेस: तमिलनाडु में एक चुकी हुई ताक़त ?

1967 में हुए तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस पार्टी का राज्य में बहुत कम असर रह गया है। सच में कहा जाय,तो पार्टी एक मामूली पार्टी बनकर रह गयी है, और पिछले पांच दशकों में एक के बाद एक हुए चुनावों में इन्हीं दो द्रविड़ दलों की पीठ पर सवार होकर चुनाव लड़ती रही है।

गुटबंदी और अंदरूनी लड़ाई पार्टी संगठन के अटूट हिस्सा बन गये हैं और इस चलते निकट भविष्य में इसके उबर पाने की संभावना बहुत कम है। गुटों की बढ़ती तादाद और इन चीज़ो को दुरुस्त करने को लेकर केंद्रीय नेतृत्व की अनिच्छा ने दशकों से चल रही इसकी इस बदहाली को और भी बदतर कर दिया है।

पार्टी नेतृत्व को अपने उस घटते वोट शेयर को लेकर भी चिंता कम ही दिखती है,जो 1991 में 15% के आसपास और 2016 में सात प्रतिशत से कम था। 2011, 2014 और 2016 में पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा,सिर्फ़ 2019 के आम चुनावों में पार्टी अपनी थोड़ी सी ‘लाज’ बचा पायी ।

1989 को छोड़कर 1971 से कांग्रेस,द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) या ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIADMK) की अगुवाई में चुनाव लड़ रही है। इन द्रविड़ ताक़तों पर उसकी निर्भरता ही पार्टी के आधार को इसके कई मज़बूत गढ़ों में ख़त्म कर रही है।   

1967 से एक मुश्किल भरा सफ़र

1967 में मिले झटके के बाद से पार्टी कभी भी किसी तरह की वापसी नहीं कर पायी। पार्टी किसी तरह 51 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पायी थी, जिसमें जाने-माने नेता,के.कामराज अपने गृहनगर से हार गये थे। उस चुनाव में हिंदी के थोपे जाने के विरोध में किये जाने वाले विरोध प्रदर्शनों और एक अकाल की आंधी ने इस पार्टी को तिनके की तरह उड़ा दिया था।

उस चुनाव में राज्य में उन द्रविड़ पार्टियों के शासन का उदय हुआ था,जो आज भी निर्विवाद तौर पर बिना किसी चुनौती के ताक़तवर बनी हुई हैं।

1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) में विभाजन से प्रांतीय ढांचे में बदलाव देखा गया था। 1971 के चुनावों ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले गुट को विधानसभा चुनाव लड़ने से रोक दिया। के.कामराज के अगुवाई वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ओ) ने 201 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 35% वोट शेयर के साथ सत्ता में लौटने वाले डीएमके के साथ उसने 15 सीटें जीती थीं।

चूंकि पार्टी का वोट-शेयर लगातार गिरता रहा है,इसलिए राज्य के चुनावों में पार्टी कोई ख़ास असर नहीं डाल पा रही है। पार्टी ने 1980 में डीएमके के साथ चुनाव लड़ते हुए 20.9% वोट शेयर हासिल किया था,जबकि 1989 में अकेले लड़ते हुए 19.8% वोट हासिल करने में कामयाब रही थी।

राजीव गांधी के निधन के बाद,एआईएडीएमके के साथ 1991 का चुनाव जीतने के बाद पार्टी का 1996 में आपसी टकराव के चलते विभाजन हो गया था,पार्टी के जाने-माने संकटमोचक,जी.के.मूपनार ने तब जाकर तमिल मनीला कांग्रेस (TMC) बना लिया था, जब आईएनसी के नेतृत्व ने कई आरोपों से जूझ रहे एआईएडीएमके के साथ सहयोगी होने का फ़ैसला कर लिया था।

इस चुनाव में द्रमुक-टीएमसी गठबंधन ने आसान जीत दर्ज की थी और कांग्रेस ख़ाली हाथ रह गयी थी और उधर मुख्यमंत्री,जे.जयललिता को भी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। इसके बाद तो टीएमसी विपक्षी पार्टी बन गयी और कांग्रेस फिर कभी उबर ही नहीं पायी।

2001 में कांग्रेस और टीएमसी ने मिलकर कम से कम दस प्रतिशत वोट शेयर हासिल किये और 30 सीटें जीतीं। 2006 के नतीजे डीएमके और एआईएडीएमके,दोनों के लिए चौंकाने वाले थे,क्योंकि उनमें से किसी को भी साधारण बहुमत तक नहीं मिल पाया था। 98 सीटों वाली द्रमुक ने उस कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनायी, जिसके पास 34 सीटें थीं। हालांकि,पार्टी को तब से लगातार तीन हार का सामना करना पड़ा है।

आईएनसी ने 1971 के विधानसभा चुनावों में चुनाव नहीं लड़ा था,लेकिन आईएनसी (ओ) ने चुनाव लड़ा था। साभार: प्रकाश आर

2001 में आईएनसी और टीएमसी,दोनों ने एआईएडीएमके के सहयोगी के तौर पर चुनाव लड़ा था।उल्लेखित वोट प्रतिशत दोनों पार्टियों का हिस्सा है।

पार्टी 1996 के बाद से राज्य में हुए पांच चुनावों में दस प्रतिशत से ज़्यादा वोट शेयर हासिल कर पाने में भी कामयाब नहीं हो पायी है। इस मौक़े पर वोटों में आयी गिरावट की वजह उसके सहयोगी पार्टी के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी भावना रही है, लेकिन वोट शेयर में आयी उस गिरावट के पीछे की वजह वही एकलौता कारण नहीं हो सकती है।

कई मौक़ों पर किये गये बड़े-बड़े बदलाव का शायद ही कोई सकारात्मक असर पड़ा हो। 1996 में जी.के. मूपनार, और 2014 में उनके बेटे,जी.के. वासन द्वारा पार्टी में किये गये दो बार विभाजन से पार्टी की परेशानी में इज़ाफ़ा ही हुआ है।

तिहरी हार

2011 और 2016 के विधानसभा चुनावों और 2014 के आम चुनावों में कांग्रेस को मिली ज़बरदस्त हार चकित करने वाली नहीं थीं। पार्टी ने 2011 और 2016 में डीएमके के साथ चुनाव लड़ा था,जबकि 2014 में वह अकेले लड़ी थी। 2019 के आम चुनाव में मिली जीत हाल के दिनों में पार्टी के लिए एकमात्र ढाढस बंधाने वाली जीत है।

2011 में पार्टी ने 63 सीटों पर चुनाव लड़ा और महज़ पांच सीटों पर ही जीत दर्ज कर पायी,जिसमें 8.4% की वोट हिस्सेदारी थी। श्रीलंका में सरकार और लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (LTTE) के बीच 2009 में हुआ युद्ध और उसके बाद केंद्र द्वारा कांग्रेस के नेतृत्व में इसका समर्थन चुनाव के दौरान प्रमुख मुद्दे थे। चुनावों में द्रमुक-कांग्रेस के गठबंधन की हार से कांग्रेस को ज़बरदस्त झटका लगा और भारी नुकसान हुआ।

डीएमके और कांग्रेस के बीच रिश्ते कड़वे हो गये और दोनों दलों ने 2014 के आम चुनावों में अकेले-अकेले चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया। दोनों नाकाम रहे,कांग्रेस उन सभी 39 निर्वाचन क्षेत्रों से महज़ 4.52% मत ही हासिल कर पायी,जहां से उसने चुनाव लड़ा था।

साल 2016 तुलनात्मक रूप से बेहतर था,क्योंकि पार्टी ने 41 में से आठ सीटों पर 6.42% वोट शेयर के साथ जीत दर्ज की। पार्टी को डीएमके गठबंधन की कमज़ोर कड़ी माना गया था,जिससे कांग्रेस की संभावनायें धूमिल हुई थीं। उस पीपुल्स वेलफ़ेयर फ़्रंट (पीडब्ल्यूएफ़) पर भी सत्ता विरोधी वोटों को विभाजित करने का आरोप लगा था,जिससे एआईएडीएमके का समर्थन किया था।

चुनाव के आसपास विशाल समिति का गठन  

पार्टी 2021 के विधानसभा चुनावों के लिए अपने संगठनात्मक ढांचे में ज़बरदस्त सुधार लाने और ‘विशाल’ समिति की घोषणा करने के लिए कमर कस रही है। राष्ट्रीय नेतृत्व ने चुनाव के लिए 450 से ज़्यादा सदस्यों वाली एक समिति की घोषणा कर दी है,जिसमें 32 उपाध्यक्ष, 57 महासचिव और 104 सचिव शामिल हैं।

इसके अलावा,पार्टी ने क्षेत्रीय और जातिगत समीकरणों को संतुलित करने के लिए चार कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किये हैं।

हालांकि,पार्टी के भीतर से मतभेद की आवाज़ें सामने आयी हैं, शिवगंगा से सांसद,कार्ति पी.चिदंबरम ने इस समिति की जवाबदेही पर सवाल उठाया है। इस समिति में खपाये गये इन्हीं सारे सदस्यों को पार्टी के भीतर मौजूदा गुटबाज़ियों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया था।

इस बात की शिकायत रही है कि पार्टी के पास इस तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी (TNCC) के एक-एक सदस्य को एकजुट करने वाला कोई ऐसा चेहरा नहीं है,जिसे कथित तौर पर अन्य गुटों से समर्थन हासिल हो। गुटों की बढ़ती संख्या ने तो पार्टी को नुकसान पहुंचाया ही है, ऊपर से द्रविड़ दलों पर पार्टी की ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता भी इसके आधार को ख़त्म कर रही है।

आगे क्या ?

बैलों के साथ इंसान की लड़ाई वाले खेल,यानी जल्लीकट्टू देखने गये राहुल गांधी के दौरे को कई पर्यवेक्षकों ने राजनीतिक दौरा माना है। द्रमुक में कई लोग अपने सहयोगियों को ज़्यादा सीटें आवंटित करने को लेकर अनिच्छुक है, ऐसे लोगों में पार्टी में दूसरे पायदान के नेता,उधैनिधि स्टालिन भी शामिल हैं।

मौजूदा स्थिति को देखते हुए डीएमके के साथ गठबंधन होता तो दिख रहा है। हालांकि,बिहार के चुनाव में प्रदर्शन की एक दुखद सचाई से पार्टी की सौदेबाजी की क्षमता में भारी कमी आयी है। पार्टी ने तबसे दलीलें देना कम कर दिया है,जब से मणिशंकर अय्यर ने कह दिया है कि कांग्रेस अब सिर्फ़ सीटें मांग सकती है और फ़ैसला तो डीएमके को करना है।

डीएमके कथित तौर पर सीट आवंटन को  लेकर एक सख़्त रुख अपना रही है, इस रुख़ ने कांग्रेस की चिंताओं को बढ़ा दिया है।विदुथलाई चिरुथिगाल काची (वीसीके) और वाइको के नेतृत्व वाले मारुमर्लची डीएमके जैसे दोनों वाम दलों की मौजूदगी सीट-बंटवारे की व्यवस्था पर असर डालेगी।

इस हक़ीक़त को देखते हुए पार्टी को कम सीटों को लेकर समझौता करना पड़ सकता है कि पार्टी का अकेले चुनाव लड़ पाना मुमकिन नहीं है। लेकिन,अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए अकेले लड़ने का कोई भी फ़ैसला इस पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

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