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एक हिंदू उम्माह का निर्मित होते जाना

जैसे ही कोई सामान्य इन्सान धार्मिक कट्टर व्यक्ति में तब्दील हो जाता है,  उसके अंदर सही और गलत के बीच भेद करने की शक्ति खत्म हो जाती है, क्योंकि सोचने समझने का वह कोना  उसके कब्जे में नहीं रहता।
howdy modi

जिस प्रकार से ‘हाउडी मोदी’ धूमधड़ाके की योजना बनाई गई, उसे लागू किया गया और प्रचार किया गया, उससे कोई भी सोच में पड़ सकता है कि क्या यह एक हिन्दू उम्माह को निर्मित करने का प्रयास है। पहली नजर में, यह ऐसा चरित्रीकरण मजाकिया लगे, क्योंकि उम्मा का विचार इस्लाम से जुड़ा हुआ है जो हिंदुत्व का विलोम है। हिन्दू उम्मा इस सन्दर्भ में विरोधाभाषी होना चाहिए। हिन्दू धर्म सैधांतिक रूप में आंतरिक है। ज्यादातर मामलों में, इसके अनुष्ठान और ध्यान सम्बन्धी कार्यव्यापार व्यक्तिगत हैं। ईसाईयत और इस्लाम के विपरीत यह गैर-सामूहिक भी है।

उम्माह एक अरबी शब्द है। इसका अर्थ है 'लोग' या 'समुदाय'  हालाँकि, इसके राजनीतिक मायने काफी अलग अर्थ रखते हैं। यह आस्तिकों के एक समुदाय की कल्पना करता है, अर्थात मुसलमानों की, जो कई राष्ट्रों में बिखरे हुए हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे इस्लाम के प्रचार के लक्ष्य के लिए संगठित होंगे, जिसे इस्लामी धर्मशास्त्र में सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दी गई है। धर्मान्तरण की मान्यता के कारण, इस्लाम में दावत-ए-इस्लाम की भी धारणा है। अपनी  मान्यता के अनुसार यह इस्लाम की श्रेष्ठता को बताता है और इसलिए, गैर-मुस्लिमों को इसमें शामिल होने के लिए आह्वान करता है।

दूसरी तरफ, हिंदू धर्म, धर्मांतरण को हतोत्साहित करता है।  हिंदू धर्म के भीतर एकमात्र मुकदमा चलाने का प्रयास आर्य समाज द्वारा 19 वीं शताब्दी के अंत में किया गया था, जब इसने शुद्धि (शुद्धिकरण) की रस्म शुरू की थी, जिसके माध्यम से एक धर्मान्तरित मुस्लिम या कोई गैर-हिंदू हिंदू बन सकता था। लेकिन यह काफी हद तक शुरू होकर ठन्डे बस्ते में ही पड़ा रह गया। शुद्धि को आज के घर वापसी (हिंदू गुट में वापसी) के साथ जोड़कर भ्रमित नहीं होना चाहिए, जिसे दूसरे शब्दों में कहें तो यह किसी राजनीतिक गुंडागर्दी के सिवाय कुछ नहीं है।  

लेकिन फिर भी, एक हिंदू उम्माह की संभावना पहले की तुलना में आज कहीं अधिक है। राजनीतिक हिंदू धर्म आज लगभग 40 देशों में सक्रिय है।  पश्चिमी लोकतंत्र में, जैसे, संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) में, इसकी मौजूदगी घरेलू राजनीति और अन्य धर्मावलम्बियों के बीच भी हलचल पैदा कर रही है। ऐसा रातोंरात बिलकुल नहीं हुआ है। फिर, कोई कैसे इसके उभार की अवधारणा बना सकता है?

इसीलिये, कुछ सवाल हैं जिनसे बचा नहीं जा सकता।  हिन्दू उम्माह की उत्त्पत्ति क्या है, यह कैसे विकसित हुआ, वे कौन सी ताकतें हैं जो इसे चला रही हैं, और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके क्या नतीजे होंगे? क्या यह सेम्युल हटिंगटन की बात को सही साबित करता है कि शीत युद्ध के बाद की दुनिया में ‘’सभ्यताओं का टकराव’ होगा?

इन सवालों के जवाब देने से पहले, कुछ वैचारिक स्पष्टता आवश्यक है।  इसे इस्लामिक और हिंदू उम्मा की अवधारणाओं के तुलनात्मक अध्ययन को रेखांकित करके किया जा सकता है। उनके मध्य दो महत्वपूर्ण अंतर तुरंत स्पष्ट हो जाते हैं। पहला अंतर यह है कि, इस्लामी उम्माह के विपरीत, हिंदू उम्माह सैद्धांतिक रूप से मान्य नहीं है (जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है)  और दूसरा यह कि, इस्लाम के विपरीत, हिंदू उम्माह बहुत दूर, भारत से नियंत्रित है।

सऊदी अरब पर भी इस्लामी उम्माह को रिमोट कंट्रोल से चलाने का आरोप लगता रहा है।  सऊदी तो दिलो जान से चाहेगा कि ऐसा हो जाए, लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं. वृहद स्तर पर, मुस्लिम देशों में बड़ी मुश्किल से कोई एकता दिखाई देती है, जबकि सऊदी अरब के नेतृत्व में तो यह सबसे कम है। अगर शिया समुदाय को छोड़ दें जो 1.8 अरब मुस्लिम दुनिया का 15% हिस्सा हैं, तो भी जरुरी नहीं कि सुन्नी तक सऊदी समर्थक हों।अधिकतर सुन्नी बहुल देशों में उनके समाज में अवांछित वहाबी प्रभाव को संदेह की नजरों से देखा जाता है।

57 सदस्यीय ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (OIC) को इस्लामिक मोर्चे के रूप में बमुश्किल गंभीरता से लिया जाता है, और शास्त्रीय उम्माह (समूह) संदर्भ में एक सुसंगत झुण्ड के रूप में तो और भी नहीं। अगर इस संगठन को समूह के रूप में देखें तो यह अंतर-सरकारी स्तर पर विफल रहने के साथ सामाजिक स्तर पर भी इसने खास प्रदर्शन नहीं दिखाया है। इस्लामिक उम्माह सिर्फ ‘इस्लामी आतंकवाद’ के रूप में सफल होता दिखता है, जिसका स्वरुप पार-राष्ट्रीय है और जो खलीफा की शान में वापसी के सपने देखता है। लेकिन 'इस्लामिक आतंकवाद' भी कई शक्ति केन्द्रों में बँटा है।

इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि इस्लामी उम्माह सिर्फ नाम के स्तर पर जिन्दा है. फिर भी, हम इसे उधृत इसलिए करते हैं क्योंकि हम एक काल्पनिक इस्लामी एकता में विश्वास करते हैं, एक ऐसा गोंद जो इसे एक साथ जोड़ता है. हिन्दू उम्माह के सन्दर्भ में यह गोंद हिंदुत्व पेश करता है। इस्लामी उम्माह की ही तरह, यह भी अधिकारिक तौर पर प्रायोजित नहीं है। लेकिन यह इस्लामी उम्माह की तुलना में कई मायनों में वास्तविक है क्योंकि यह अर्ध-आधिकारिक तौर पर प्रायोजित है।  इसे प्रायोजक के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जो भारत की सत्तारूढ़ दल भारतीय जानता पार्टी (बीजेपी) का दिल और दिमाग दोनों है, और जिसका प्रभाव पूरे देश में निरंतर बढ़ रहा है।  

इस सूत्रीकरण को स्पष्ट करने के लिए, आइये स्वतंत्र भारत की पूरी अवधि को दो चरणों में विभाजित कर देखते हैं। जब भाजपा सत्ता में नहीं थी और जब वह सत्ता में आई। हम देख सकते हैं कि पहले चरण में ही एक हिंदू उम्माह का बीज बोया गया था। 1947 की शुरुआत में ही जब भारत को नई नई आजादी मिली थी, आरएसएस के सदस्यों ने केन्या और म्यांमार में अपनी शाखाएं खोल ली थीं।  लेकिन ये प्रयास अल्पविकसित थे और शायद नागपुर में आरएसएस मुख्यालय द्वारा इनकी देखरेख नहीं हो पाई।

इस संदर्भ में पहला स्पष्ट मार्गदर्शन 1953 में तब आया जब आरएसएस के सुप्रीमो माधव सदाशिव गोलवलकर ने आरएसएस के प्रचारकों (कार्यकर्ताओं/प्रमोटरों) को “विश्व एकल परिवार की हिन्दू अवधारणा के वर्ल्ड मिशन के प्रचार” की घोषणा की। (शब्दों पर जोर हमारा है)  इस आह्वान को किसी भी हिंदू उम्माह के जमीनी स्तर के शुभारंभ के रूप में समझ सकता है।

जल्द ही, नेपाल और केन्या में हिंदू समुदायों के भीतर जगह बनाने की कोशिश की गई, और बाद में इसी तरह की गतिविधियाँ इंग्लैंड में भी शुरू हुईं। 1964 में विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) जिसे आरएसएस का लड़ाकू हिन्दू दस्ता माना जाता है, की स्थापना के साथ, अमेरिका आरएसएस के रडार पर अधिक प्रमुख रूप से दिखाई देने लगा। 1970 से वीएचपी ने वहां अपना काम शुरू कर दिया।  

80 के दशक की शुरुआत में एकात्मता यज्ञ (हिन्दू खुद को एक आत्मा के रूप में सोचे) जैसे अभियानों के जरिये हिंदुत्व की अवधारणा को एक सुनियोजित बल दिया गया और इसके कारण विदेशी तार तेजी से जुड़ने लगे। शुरू शुरू में, आम तौर पर कौन भारतीय-अमेरिकन है और कौन हिन्दू-अमेरिकन इसके बीच भेद करना मुश्किल था, लेकिन यह अंतर तेजी से स्पष्ट होने लगा।

हिंदुत्व पर यह संगठित जोर, जिसे हम आज दुनिया के कई हिस्सों में महसूस कर रहे हैं वह एक हिन्दू उम्माह को एक वास्तविक संभावना में तब्दील कर रहा है।  वर्तमान में, आरएसएस कम से कम 40 देशों में हिंदू स्वयंसेवक संघ (HSS), ओवरसीज़ फ्रेंड्स ऑफ़ द बीजेपी (OFBJP), द हिंदू एजुकेशन फाउंडेशन (HEF), वैदिक फाउंडेशन, हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन आदि जैसे संगठनों के माध्यम से सक्रिय है। विश्व की जनसंख्या का 15% हिंदू (1 अरब 10 करोड़ लोग) होने के कारण, यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिए अपरिहार्य परिणामों के साथ एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम को दर्शाता है।

हिंदुत्व के वैश्वीकरण की पूरी प्रक्रिया को बता पाना इस छोटे से लेख में सम्भव नहीं है, लेकिन एक अमेरिकी केस स्टडी में शामिल कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों के जरिये इस पर कुछ रौशनी डाली जा सकती है। जब भी कोई हिंदू प्रवासी के बारे में बात करता है, तो आमतौर पर इसका मतलब है कि वह पश्चिमी दुनिया में बसे हिन्दू समुदाय की बात कर रहा है और वह भी खासतौर पर अमेरिका में। अमेरिका में मोदी की दो उच्च-स्तरीय यात्राएं इस परिकल्पना के बारे में कोई संदेह नहीं छोड़तीं।  

अमेरिका का हिंदू कनेक्शन काफी पुराना है। अपने आरंभ के दिनों में, हिंदू आप्रवासी के बजाय यह हिंदू दर्शन था जिसने कई प्रतिष्ठित अमेरिकियों को अपनी ओर आकर्षित किया।  इसे श्रेष्ट दार्शनिक राल्फ वाल्डो इमर्सन (1803-82) के लेखन में कर्म की धारणा के प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है।  हेलेना ब्लावात्स्की की थियोसोफिकल सोसायटी (1875) में हिंदू रहस्यवादी दर्शन से उधार लेने के लिए बहुत कुछ था। लेकिन यह स्वामी विवेकानंद ही थे जिनके जरिये हिंदू धर्म के प्रति अमेरिकी रुचि को प्रचुर मात्रा में बढ़ावा मिला।

1893 में शिकागो की विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए मंत्रमुग्ध कर देने वाले भाषण ने अमेरिकियों को इतना प्रभावित किया कि कई उनके वेदांत सोसाइटी में शामिल हो गए। बाद के वर्षों में, रवींद्रनाथ टैगोर के लेखन में उनकी सार्वभौमिक दृष्टि के चलते अमेरिकियों में उसका जबरदस्त असर देखा गया, जो अपने आप में बड़े पैमाने पर आधुनिक हिंदू धर्म से लिया गया था।

महात्मा गांधी के जीवन और शिक्षाओं ने अमेरिकी चेतना में हिंदू सामाजिक नैतिकता के बारे में गहरे दृष्टिकोण को सम्प्रेषित किया।  गाँधी के अध्यात्म-प्रेरित राजनीतिक चिंतन और अत्याचार के खिलाफ अहिंसा को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के अपने दृष्टिकोण के चलते उन्होंने कम से कम तीन प्रतिष्ठित अमेरिकियों को प्रभावित किया: सिविल राइट्स की लड़ाई के नेता मार्टिन लूथर किंग, (जूनियर), ईसाई शांतिवादी और कार्यकर्ता ए. जे. मस्टी, और लोकगायक –कार्यकर्त्ता जोन बायेज़ (वी शल ओवरकम..से मशहूर ).

हालाँकि वर्तमान चरण, पूर्व से बिलकुल अलग है। यह अब हिन्दू धर्म दर्शन नहीं बल्कि हिंदुत्व है, या कहें राजनैतिक हिन्दू धर्म है, जिसने केन्द्रीय स्थान ग्रहण कर लिया है। हिन्दू धर्म की इस किस्म में अमेरिकियों की कोई रूचि नहीं है। वास्तव में यह उनके समर्थन के उम्मीद में चलाई भी नहीं जा रही। इसका मकसद अमेरिका में बसे हिन्दुओं को इस बात के लिए तैयार करने से है जिससे कि वे भारत में किसी ख़ास राजनीतिक दल जो हिन्दू राष्ट्रवाद पर यकीन करती है, के विदेशी चीयरलीडर्स के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान कर सकें।

औसत बुद्धि से भी सोचें तो पाएंगे कि अप्रवासियों का देश होने के नाते अमेरिका में सभी प्रकार के प्रवासी होंगे। उनसे संबंधित मातृ देश उन प्रवासियों का उपयोग अमेरिकी सरकार को अपने पक्ष में प्रभावित करने के लिए एक लॉबी के रूप में उपयोग करते हैं। लेकिन हिंदू प्रवासी एक संकीर्ण डायस्पोरा है, भारतीय डायस्पोरा नहीं।  इस कारण भारत-अमेरिका संबंधों में एक संभावित अड़चन आ सकती है, इसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मोदी के 'हाउडी, मोदी' कार्यक्रम का जोरदार समर्थन किया है।  

ईसाई समुदाय की की बहुतायत वाले देश अमेरिका में हिंदुओं की एक छोटी संख्या का प्रतिनिधित्व करते हुए, ऐसा कदम अमेरिकी हिंदुओं पर ईसाई बहुमत के अविश्वास को उजागर कर सकता है. हाल के दिनों में भारत में घटित ईसाई-विरोधी हिंसा जिसे उन्हीं ताकतों ने अन्जाम दिया था, जो अमेरिका में हिंदू डायस्पोरा पर हावी हैं, के जवाब में कुछ अमेरिकी ईसाई संगठनों ने इस मामले को अमेरिकी विदेश विभाग के समक्ष उठाया और कार्यवाई की माँग की है. इस सम्बंध में यह तथ्य स्वीकार किया जाना चाहिए कि कि धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में पश्चिम ने भारत को उसके ख़राब रिकॉर्ड के लिए नियमित तौर पर फटकार लगाई है.

दूसरी समस्या अधिक गहराई लिए हुए है और अमेरिका में भारतीय प्रवासी लॉबी के घटते प्रभाव के कारण चिंता का विषय बना हुआ है।  2008 में भारत-अमेरिका के बीच असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर के दौरान इस लॉबी ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. याद करें जब अमेरिका में भारतीय डायस्पोरा का महत्व पहली बार राजीव गांधी द्वारा उजागर किया गया था, उस समय 'ब्रेन ड्रेन' शब्द की जगह पर 'ब्रेन बैंक' शब्द गढ़ा गया था, और उनका संदर्भ ‘भारतीय डायस्पोरा’ से था न कि ‘हिन्दू डायस्पोरा’ से. एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि कुल 966 भारतीय अमेरिकी संगठनों में से 481 धार्मिक संगठन हैं और इनमें से 60% हिंदू संगठन हैं।

यह महज संयोग नहीं है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही मुस्लिम भारतीय-अमेरिकियों को बड़े पैमाने पर समुदाय से निकाल दिया गया है।  अब वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास वार्षिक ईद समारोह का आयोजन नहीं करता। मोदी के समर्थन में आयोजित दोनों भव्य समारोह, पहला  न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन में, 28 सितंबर 2014 को और हाल ही में 23 सितंबर, 2019 को ह्यूस्टन, टेक्सास, पर लगभग पूर्ण रूप से अमीर हिंदुओं का कब्ज़ा था. (कुछ मुस्लिम बोहराओं ने भारत में मोदी समर्थन के चलते कार्यक्रम में शिरकत की, लेकिन वे व्यापक भारतीय मुस्लिम समुदाय के भीतर एक अपवाद स्वरुप हैं.)

इस आयोजन की एक अजीब विडंबना यह रही कि भारतीय मूल के मुस्लिम हास्य अभिनेता हसन मिन्हाज को उनके नेटफ्लिक्स शो पैट्रियट एक्ट पर मोदी की खिचाई के कारण प्रवेश से वंचित कर दिया गया था, लेकिन उन्हें सांस्कृतिक कार्यक्रम में उन्हें चित्रित किया गया था. स्टेडियम के बाहर खड़े, मिन्हाज ने शो का एक लाइवस्ट्रीम देखा और इस विडम्बना को बताया कि किस तरह वहाँ "स्टेडियम के विशाल स्क्रीन पर भारतीय-अमेरिकियों के बीच में से एक हस्ती के रूप में कला के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया है।"

अमेरिका में बसे हिन्दू समुदाय में सभी हिंदुत्व के प्रति उत्साही हैं, ऐसा नहीं है, लेकिन जो हैं वे ज्यादा मुखर और संगठित हैं।  दक्षिण एशियाई समुदायों के मामले के जाने-माने अमेरिकी विशेषज्ञ पीटर फ्रेडरिक कहते हैं।  “जो लोग मोदी का विरोध करते हैं वे अक्सर भारतीय चुनावों का बड़ी गहरे से अध्ययन करते हैं, और शायद उसके बारे में बोलते और लिखते भी रहते हैं, लेकिन इसके आगे कुछ खास नहीं करते।  लेकिन जो लोग मोदी का समर्थन करते हैं, वे रैलियों का आयोजन करने से लेकर, प्रशिक्षण शिविरों और अभियान कार्यक्रमों तक का आयोजन करते हैं।  जहाँ एक पक्ष का आरोप है कि मोदी ने सब बर्बाद कर दिया, वहीँ दूसरी ओर हजारों स्वयंसेवक सशरीर भारत में जाकर अपनी राजनीतिक पार्टी के लिए प्रचार करते हैं."

सभी हिंदू-अमेरिकियों को, खासतौर पर जो 'हाउडी, मोदी'  कार्यक्रम में भीड़ की शक्ल में थे, को यह याद दिलाना आवश्यक है कि उन्होंने अमेरिकी नागरिक बनते समय अमेरिकी सरकार के समक्ष शपथ ली थी कि, "मैं शपथ लेकर इसकी घोषणा करता हूँ कि मैं किसी भी विदेशी राजकुमार, शक्तिशाली, राज्य या संप्रभुता के लिए सभी निष्ठां और निष्ठां का पूरी तरह से परित्याग करता हूँ और समाप्त कर देता हूँ, जिनमें या से या जिसके पास मैं एक विषय या नागरिक हूँ; मैं संयुक्त राज्य अमेरिका के सविधान और कानूनों का समर्थन और बचाव करूँगा.”

उन्हें इस बात की भी याद दिलाई जानी चाहिए कि अमेरिका में नए आये हुए प्रवासियों के खिलाफ दुश्मनी का एक हिंसक इतिहास रहा है, उदाहरण के लिए, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापानी-अमेरिकियों के खिलाफ।  उससे मात्र एक दशक पूर्व, अमेरिकियों ने "हिंदुओं के प्रसार को बढ़ावा देने" के खिलाफ बांग दी थी. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यह प्राथमिक सीख है कि यहाँ पर कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं है; आज का दोस्त-भारत कल का दुश्मन-भारत माना जा सकता है।

इस मामले में बाकी सभी लोगों की तुलना में ट्रम्प सबसे कम भरोसेमंद इन्सान हैं।  आज वह मोदी को “भारत का राष्ट्रपिता” कहने के हास्यास्पद स्तर तक जा सकते हैं, तो कल यही ट्रम्प उसी समान भाव से कह सकते हैं कि इमरान पाकिस्तान के राष्ट्रपिता हैं, और इसलिए मोदी और इमरान चचेरे भाई हुए।  इसके बाद वे अपने रियल-एस्टेट व्यवसाय की कुशलता को इन दो चचेरे भाइयों के बीच में बांटने के कौशल को दिखाने में मशगूल हो सकते हैं।

जिस किसी को भी इस बात की जरा भी समझ है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव कैसे काम करता है, तो उसने नोट किया होगा कि यह ट्रम्प ही थे जिन्होंने मोदी से बेहतर अपने पत्ते खेले।  रोमांच से भरे मोदी प्रशंसकों के सामने मोदी के साथ पोडियम साझा करके, ट्रम्प की कोशिश थी कि किस तरह 2020 के अपने पुनः निर्वाचित होने की सम्भावनाओं को डेमोक्रेटिक समर्थक  भारतीय-अमेरिकी समुदाय के बीच अपनी घुसपैठ बधाई जाय। निर्वाचक मंडल में टेक्सास के 38 वोट हैं, जो कैलिफोर्निया के 55 के बाद यह सबसे अधिक हैं। ट्रम्प टेक्सास को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं, हालांकि, पारंपरिक रूप से यह रिपब्लिकन का गढ़ रहा है जिसने हाल ही में डेमोक्रेट की ओर रुख किया है। एक करीबी मुकाबले में ये हिंदू-अमेरिकी वोट काफी अहम साबित होंगे।

मुझे इस लेख को एक विलाप के साथ समाप्त करना चाहिए. जैसे ही कोई व्यक्ति कट्टर रूप से धार्मिक हो जाता है,  वह क्या सही है और क्या गलत, इसके बीच अंतर करना बंद कर देता है क्योंकि उसके मष्तिष्क का वह संकाय अब उसके कब्जे में नहीं रहा।  यह सभी कट्टरपंथियों, हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या बौद्ध के लिए लागू होता है. हिंदू उम्माह के विस्तार में भी यही जोखिम है, जैसा कि इस्लामी उम्माह के साथ हुआ था, जिसका पतन आतंकवाद के रूप में हो गया।
 
यह कंपकंपा देने वाला तथ्य है कि इन दिनों हर महाद्वीप में धर्म ने हमारे जीवन में अपनी व्यापक पकड बनानी शुरू कर दी है।  इसी परिघटना के चलते हमारे सामाजिक रिश्तों में विश्वास का संकट तक खड़ा हो रहा है।  हालांकि अधिकांश सोशल मीडिया पोस्ट कचरा साबित होती हैं, लेकिन उनमें से कुछ उद्धृत करने योग्य हैं. मैं एक याद करता हूँ: “अगर एक दोस्त को दुश्मन में बदलना है तो राजनीति पर चर्चा करें. अगर उसमें भी सफलता नहीं मिलती है तो धर्म पर चर्चा शुरू कर दें.”

 उपसंहार: इस वर्ष, भारत पूरी धूमधाम से महात्मा गांधी की 150 वीं वर्षगांठ मना रहा है. यह काफी शिक्षाप्रद होगा कि महात्मा गांधी का प्रवासी भारतियों के बारे क्या संदेश था।  हालाँकि उस समय यह काफी छोटा समुदाय था, जो लगभग पूरी तरह से सीलोन, मलय और वेस्ट इंडीज तक सीमित था, जहां भारतीय गिरमिटिया मजदूर बसे हुए थे- लेकिन उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं. 25 नवंबर 1927 को कोलंबो में भारतीय तमिलों की एक सभा को संबोधित करते हुए गांधी ने कहा था, “चूंकि आप इस खूबसूरत द्वीप में अपनी रोटी कमा रहे हैं, तो मैं आपसे दूध में चीनी के रूप में रहने के लिए कहूंगा।

यहां तक कि एक कप दूध के रूप में जो कोनों तक भरा हुआ होता है, लेकिन जब चीनी को धीरे-धीरे इसमें डाला जाता है, तो दूध बाहर नहीं छलकने लगता है, बल्कि चीनी दूध में घुल जाती है और इसके स्वाद को समृद्ध करती है, उसी तरह, मैं चाहूंगा कि आप इस द्वीप में रहें, घुसपैठियों की तरह न रहे और उन सभी लोगों के जीवन को समृद्ध करें जिनके बीच में आप रह रहे हैं”.
 
पार्थ एस घोष सामाजिक विज्ञान संस्थान में सीनियर फेलो हैं. लेख उनके व्यक्तिगत विचार हैं.

अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

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