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यूपी के ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19: क्या प्रदेश भारी संकट के मुहाने पर खड़ा है?

उत्तर प्रदेश में जारी विशाल पैमाने पर कोविड-19 संकट के बीच में पंचायत चुनावों को संचालित कराने के लिए कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार को इसका दोषी ठहराया है।
यूपी के ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19: क्या प्रदेश भारी संकट के मुहाने पर खड़ा है?
चित्र का उपयोग मात्र प्रतीकात्मक तौर पर। चित्र साभार: बिज़नेस स्टैण्डर्ड 

लखनऊ: कोरोनावायरस महामारी की दूसरी लहर जिसने शहरी क्षेत्रों में कहर बरपाने के क्रम को जारी रखा हुआ है, ऐसा लगता है कि अब इसने उत्तर प्रदेश के दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में भी अपनी रफ्तार पकड़ ली है, जहाँ पर स्वास्थ्य सुविधायें पहले से ही बेहद लचर स्थिति में हैं, परीक्षण सुविधायें ना के बराबर हैं और कोरोना से लड़ने के लिए जरुरी कार्य-व्यवहार के नाम पर मात्र ढकोसलेबाजी की जा रही है।

इन ग्रामीण क्षेत्रों में उचित चिकित्सकीय सुविधाओं के अभाव, ब्लॉक स्तर पर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों (सीएचसी) में डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवा कर्मियों की किल्लत और रोग की गंभीरता के बारे में अनभिज्ञता के चलते हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। कई जिलों में देखने में आ रहा है कि प्रशासन के पास इस जानलेवा वायरस से होने वाली मौतों के कोई आंकड़े नहीं हैं।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 23 मार्च से 9 मई के बीच में कुल 14,80,315 मामले प्रकाश में आये थे, जबकि मरने वालों का आंकड़ा 15,170 था। राज्य में इस समय कुल 2,45,736 सक्रिय मामले चल रहे हैं।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 22 मार्च, 2020 से लेकर 4 अप्रैल, 2021 के बीच में पिछले 13 महीनों की अवधि के दौरान यूपी में कुल 6.3 लाख कोविड-19 मामले दर्ज किये गए थे। हाल के दिनों में देखें तो 4 अप्रैल से अब तक 34 दिनों में, 8 लाख से अधिक नए कोविड-19 मामले प्रकाश में आये हैं, जिससे कुल मामलों की संख्या बढ़कर 14.8 लाख हो चुकी है।  

दूसरी लहर की दस्तक के बावजूद राज्य में पिछले कुछ सप्ताहों तक पंचायत चुनावों का आयोजन कराया जाता रहा। राज्य में जारी बड़े पैमाने पर कोरोनावायरस के संकट के बीच में ही पंचायत चुनावों का आयोजन कराने को लेकर कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इसके लिए योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी को दोषी ठहराया है। उनका कहना है कि 2020 में महामारी की पहली लहर के दौरान उत्तर प्रदेश में अनियोजित राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की वजह से बड़े पैमाने पर श्रमिकों के पलायन के बावजूद ग्रामीण इलाके कमोबेश अप्रभावित रहे थे। लेकिन इस बार पंचायत चुनावों, महाकुंभ, शादियों, धार्मिक आयोजनों और बड़े शहरों से पंचायत चुनावों के लिए गाँवों की यात्रा करने वाले लोगों ने गाँवों में कोविड-19 संकट को बढ़ा दिया है।

हेल्थ वाच फोरम नामक एक एनजीओ, जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य संकट पर अपने ध्यान को केंद्रित किये हुए है, से सम्बद्ध आजमगढ़ के एक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता, राजदेव चतुर्वेदी ने न्यूज़क्लिक के साथ अपनी बातचीत में कहा: “ग्रामीण क्षेत्रों में कई लोग तेज बुखार, खांसी से पीड़ित हैं और इसके साथ-साथ उन्हें सांस लेने में तकलीफ की भी शिकायत है। वायरस से संक्रमित मरीजों का परीक्षण अभी तक अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं हो पाया है, क्योंकि ये लोग जरुरी सुलभ स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच न बना पाने के कारण पूरी तरह से ‘झोला छाप’ डॉक्टरों के रहमोकरम पर आश्रित हैं।” उनका आगे कहना था कि गांवों में पंचायत चुनाव एक “सुपर स्प्रेडर” परिघटना साबित हुई है, क्योंकि चुनावों के कारण कई मतदाता मुंबई, दिल्ली और गुजरात से यात्रा कर वोट डालने के लिए अपने घरों में पहुंचे थे। उन्होंने आगे जानकारी देते हुए बताया कि “उनमें से अधिकांश लोग अब बीमार हैं। उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों के दौरान कोविड-19 संक्रमण पर अंकुश लगाने के लिए निर्धारित शारीरिक दूरी के मानदंडों की जमकर धज्जियां उड़ाई गईं थीं।”

चतुर्वेदी के मुताबिक शुक्रवार को आजमगढ़ जिले से संक्रमण के 605 से अधिक नए मामले प्रकाश में आये, जिसमें से कम से कम पांच लोगों की मौत वायरस के कारण हो गई थी। जिले में तकरीबन 4,946 सक्रिय मामले हैं। उनका कहना था कि “अस्पतालों में बिस्तर, ऑक्सीजन और दवा की कमी के कारण हर दिन कोविड मरीजों की मौत हो रही है। चार दिन पहले ही पीजीआई, आज़मगढ़ में कम से कम 17 मरीजों की मौत हो गई थी।”

स्वास्थ्य अधिकारियों का इस बारे में कहना है कि पंचायत चुनावों के अलावा बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों ने हरिद्वार कुंभ का दौरा किया था और उनमें से कई लोग जांच में पॉजिटिव पाए गए थे। छोटे कस्बों या गांवों से करीब 50% मामलों की रिपोर्टिंग आ रही है, जबकि वहां पर जितने परीक्षण की आवश्यकता है उससे काफी कम जांच चल रही है। पिछले वर्ष की तुलना में सक्रिय कोविड-19 मामलों की संख्या लगभग नौ से दस गुना अधिक है। 

बाँदा जिले के हालात के बारे में बताते हुए बाँदा स्थित एक एनजीओ, विद्या धाम समिति के सचिव राजा भैया ने कहा कि यहाँ पर हर गाँव में कई लोग “बीमार हैं और बड़ी तेजी से मर रहे हैं।”

राजा भैया ने न्यूज़क्लिक को बताया कि “संसाधनों के अभाव में यहाँ पर मरीज अस्पतालों तक नहीं पहुँच पा रहे हैं, और जो इसका प्रबंधन करने में सफल हैं, उन्हें अस्पतालों में बिस्तर या ऑक्सीजन मुहैय्या नहीं हो पा रहा है। बाँदा जिले में कुल कितने लोगों की मौत हो चुकी है, मैं इसकी संख्यात्मक मात्रा को तो नहीं निर्धारित कर सकता, लेकिन अतर्रा ब्लॉक में जिसकी आबादी एक लाख से उपर है, में अभी तक 250 लोग मारे जा चुके हैं।” जिला प्रशासन द्वारा वायरस की वजह से होने वाली मौतों का सही तरीके से रिकॉर्ड दर्ज नहीं किया जा रहा है, का दावा करते हुए इस कार्यकर्त्ता का कहना था कि “अगर कोरोनावायरस के कारण 200 लोग मर रहे हैं, तो उसमें से मात्र 5-10 को ही रिकॉर्ड में दिखाया जा रहा है।”

इस स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता ने न्यूज़क्लिक को बताया कि “ग्रामीण बुखार और बदन दर्द को नजरअंदाज कर रहे हैं और वे इसे मौसमी फ्लू के लक्षण मानकर इलाज करा रहे हैं, और इसके बारे में उनका मानना है कि समय के साथ यह अपनेआप ठीक हो जायेगा। इससे पहले कि वे समझ पाएं कि यह कोरोना है, उनकी मौत हो जा रही है।”

गावों में स्थिति बेहद चिंताजनक है, जो कभी भी भारी विपदा में तब्दील हो सकती है 

महामारी की पहली लहर में जहाँ मामले काफी सीमित थे, की तुलना में वर्तमान में जारी लहर बड़ी तेजी से तहसीलों और ग्रामीण क्षेत्रों में फ़ैल रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सहारनपुर, मेरठ और अमरोहा जिलों और पूर्वांचल में आज़मगढ़, बलिया, गोरखपुर और देवरिया जिलों में मामलों की संख्या में तेजी से उछाल देखने को मिल रहा है।

राज्य के स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 6 मई को बुढ़ाना तहसील में 63 मामले, मोरना तहसील में 94, मुज़फ्फरनगर ग्रामीण में 175, मुज़फ्फरनगर शहरी क्षेत्र में 264, खतौली तहसील में 59 और जनसठ तहसील में 57 मामले प्रकाश में आये हैं, जिसमें 21 मौतों को भी रिपोर्ट दर्ज की गई है। राज्य सरकार ने गाँवों में संक्रमित रोगियों के बारे में आंकड़े जुटाने के लिए रैपिड एंटीजन टेस्ट किये जाने की सिफारिश की है।

7 मई तक बलिया में कोरोनावायरस से 190 लोगों की मौत हो चुकी है। इनमें से 70 से अधिक मौतें पिछले 21 दिनों में हुई हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जिले में कुल 3,012 सक्रिय मामले चल रहे हैं, जिनमें से 2,554 लोग होम आइसोलेशन में रहकर अपना उपचार कर रहे हैं। 

कुछ इसी प्रकार से लखनऊ से 19 किमी की दूरी पर स्थित जुग्गौर गाँव में पिछले दो हफ़्तों 55 लोग बुखार से मर चुके हैं। बाराबंकी के रुदौली के पाककौड़ी गाँव में आधा दर्जन ग्रामीणों की मौत हो जाने के बाद से जिला प्रशासन निगरानी रखने के काम में जुट गई है। अयोध्या के भौपुर गाँव में कई लोगों की मौत की खबर के बाद परीक्षण में 32 लोग कोविड-19 पॉजिटिव पाए गए हैं। 

किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) के रेजिडेंट डॉक्टर्स वेलफेयर एसोसिएशन (आरडीडब्ल्यूए) के पूर्व अध्यक्ष नीरज मिश्रा का इस बारे में कहना है कि पहली लहर के दौरान, नए मामलों की शीघ्रता से पहचान करने और उन्हें आइसोलेट करने में कोई खास मुश्किल नहीं आ रही थी, क्योंकि तब लॉकडाउन लगा हुआ था और आवागमन पूरी तरह से प्रतिबंधित था। मिश्रा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि “लेकिन दूसरी लहर में पंचायत चुनावों के दौरान सभी प्रोटोकाल्स  की धज्जियां उड़ा दी गईं। लखनऊ, वाराणसी, कानपुर और प्रयागराज जैसे शहरों में दूसरी लहर के कारण आई तबाही के बावजूद राज्य सरकार अभी भी ग्रामीण इलाकों में अँधेरे में तीर मारकर काम चला रही है। यहाँ पर एम्बुलेंस, ऑक्सीजन या दवाओं की कोई सुविधा नहीं है। एक बार चीजें यदि नियंत्रण से बाहर चली गईं तो ग्रामीण फिर कहाँ जायेंगे? शहरों में तो पहले से ही सारे अस्पताल खचाखच भरे पड़े हैं।” उनका आगे कहना था कि जल्द ही ग्रामीण क्षेत्रों में “कोरोना बम” फटने वाला है। उनको यह भी लगता है कि इस आसन्न संकट के लिए पंचायत चुनावों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

सीतापुर के डॉ. मोहन का इस बारे में कहना था कि सिर्फ व्यापक परीक्षणों के जरिये ही गाँवों में कोविड-19 संकट के बारे में सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। वे आगे कहते हैं “बहुत हो चुका हमें नोडल अधिकारियों की टीमों का गठन करने के बजाय उपचार पर अपना ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, क्योंकि पहले से ही गाँवों में संक्रमण काफी फ़ैल चुका है। शिक्षकों, सहायक शिक्षकों, ‘शिक्षा मित्रों’ एवं अन्य राज्य कर्मचारियों को चुनावी ड्यूटी के लिए मतदान केन्द्रों पर नियुक्त किया गया था, यह जानने के बावजूद कि उनके द्वारा कोविड-जैसे लक्षणों की शिकायत की जा रही थी; जिसकी वजह से उन्होंने बाकियों को भी संक्रमित कर दिया। अब जरूरत इस बात की है कि सभी प्राथमिक एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर ऑक्सीजन और दवाइयों, विशेषकर स्टेरॉयड को तत्काल उपलब्ध कराया जाए, ताकि जिन लोगों में इसके लक्षण नजर आ रहे हैं, उनका परीक्षण कर तत्काल इलाज शुरू किया जा सके।”

इस बीच इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देशित किया है कि वह बताये कि राज्य के ग्रामीण एवं उप-नगरीय क्षेत्रों और छोटे शहरों में कोविड-19 मामलों में उभार से वह किस प्रकार से निपट रही है।

अदलात में दर्ज की गई याचिका में दावा किया गया है कि दुर्भाग्यवश छोटे जिलों और शहरों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है और मीडिया का भी इस ओर ध्यान नहीं गया है। इसमें कहा गया है कि “अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी मामलों में उछाल देखने को मिल रहा है और उचित चिकित्सा व्यवस्था के अभाव में स्थिति खतरनाक स्तर तक बदतर हो चुकी है।”

स्वास्थ्य विभाग के अनुसार 1 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के मात्र लखनऊ, कानपुर, प्रयागराज और वाराणसी जिलों में ही 100 से अधिक कोविड-19 मामले दर्ज किये जा रहे थे। 27 अप्रैल से हालाँकि, ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले 41 जिलों से प्रतिदिन 100 से लेकर 500 के बीच रिपोर्ट दर्ज की जा रही हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले जिलों से मौत की दर में भी 15 अप्रैल से लेकर 25 अप्रैल के बीच में 10% से अधिक की वृद्धि दर्ज हुई है। बांसगांव गाँव जहाँ पर 8,000 लोगों की आबादी और 3,000 घर हैं, के निवासी राकेश सिंह दावे के साथ कहते हैं कि “हर घर में कम से कम दो लोग बुखार एवं अन्य बीमारियों से पीड़ित चल रहे हैं। कई मरीज ऐसे भी हैं जो घर पर ही ऑक्सीजन की व्यवस्था कर अपना इलाज खुद से करने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि सरकार पूरी तरह से विफल हो चुकी है।” 

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि राज्य में पंचायत चुनावों के लिए नियोजित किये जाने के बाद से कोरोनावायरस के कारण 800 सरकारी कर्मचारियों की कथित तौर पर मौत हो चुकी है। 

योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली यूपी सरकार पर कोविड-19 मामलों में लगातार बढ़ोत्तरी के बीच में पंचायत चुनाव कराने में “घोर लापरवाही” का आरोप लगाते हुए आरएसएस से सम्बद्ध राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ से जुड़े यूनियन के शिक्षकों ने न्यूज़क्लिक से अपनी बातचीत में बताया था कि कर्मचारियों की मौत के लिए सरकार और राज्य चुनाव आयोग पूरी तरह से जिम्मेदार हैं।

ओपीडी सेवाएं पूरी तरह से ठप पड़ी हुई हैं 

मौजूदा संकट के बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले 15 दिनों से समूचे राज्य में बहिरागत रोगी विभागों (ओपीडी) को पूरी तरह से बंद कर दिया है। यह फैसला मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के साथ राज्य में कोविड-19 की स्थिति का जायजा लेने के बाद लिया था।

आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (रैडिकल) के सदस्य दिनकर कपूर सवाल खड़े करते हुए पूछते हैं “जिन लोगों को बुखार, जुकाम, खांसी या बदन दर्द की शिकायत है, उनके पास डॉक्टरी परामर्श का कोई जरिया नहीं बचा है। इसलिए उनके लिए सिर्फ एक ही विकल्प के साथ छोड़ दिया गया है: और वह है ‘झोला छाप’ डॉक्टरों की शरण में जाने का। यदि इस समय ओपीडी चालू होती तो डॉक्टरों के पास एल1, एल2, एल3 या होम आइसोलेशन की सलाह देने का विकल्प बचा रहता। शहरों में तो लोगों के पास प्राइवेट डॉक्टरों से परामर्श लेने का विकल्प खुला हुआ है, लेकिन ग्रामीणों के पास क्या विकल्प बचता है?

पिछले साल इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की ओर से दायर एक जनहित याचिका, जिसे इसके राष्ट्रीय प्रवक्ता एस आर दारापुरी के जरिये दाखिल किया गया था, जो एक सेवानिवृत्त आइपीएस अधिकारी हैं, पर एक आदेश जारी किया था। अदालत ने सरकार से अस्पतालों और नर्सिंग होम्स पर लगाये गए प्रतिबंधों के बारे में स्पष्टीकरण देने के लिए कहा था।

इस बीच जहाँ एक तरफ कोविड-19 के सक्रिय मामले रिकॉर्ड स्तर को छू रहे हैं और बिस्तरों, चिकित्सा उपकरणों, दवाइयों और ऑक्सीजन की कमी के चलते सभी गंभीर रोगी बढती संख्या के बीच में अपने जीवन के लिए जूझ रहे हैं, वहीँ यह तथ्य प्रकाश में आ रहा है कि केंद्र सरकार द्वारा पीएम केयर फण्ड का इस्तेमाल कर भिजवाये गए वेंटिलेटर फिलहाल आगरा, बलिया, देवरिया, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर और सीतापुर सहित उत्तर प्रदेश के कई जिला अस्पतालों में धूल फांक रहे हैं। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में लिखने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

COVID-19 in Rural UP: Massive Crisis Unfolding?

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