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आंकड़ों को छिपाने में मोदी सरकार की आपराधिक असंवेदनशीलता

यह पहली बार हुआ है कि एक आधिकारिक सांख्यिकीय सर्वेक्षण को पूरी तरह से दबा दिया गया है, और उपभोक्ता व्यय के सर्वेक्षण पर ख़र्च हुई सारी धनराशि नाले में बहाई जा रही है।
Narender Modi

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने फ़ैसला किया है कि 2017-18 के उपभोक्ता ख़र्चों के पंचवार्षिक सर्वेक्षण आंकड़ों को वह प्रकाशित नहीं करेगी। ऐसा इसलिये है, क्योंकि ये आँकड़े, जिन्हें द बिज़नेस स्टैण्डर्ड द्वारा लीक किया गया, इनसे पता चलता है कि 2011-12 और 2017-18 के बीच वास्तविक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता ख़र्च में 3.7% की गिरावट दर्ज हुई है। जो 1,501 रुपये प्रति माह से घटकर 1,446 रूपये प्रति माह (2009-10 की क़ीमतों के आधार पर) रह गई है। 

प्रति व्यक्ति उपभोक्ता ख़र्च में वास्तविक गिरावट एक बेहद गंभीर मामला है। इस तरह की गिरावट पिछले 4 दशकों में पहली बार घटित हुई है। ऐसी गिरावट पिछली बार सिर्फ 1972-73 के दौरान देखने को मिली थी, जब ख़राब फसल होने के साथ साथ पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपीईसी) के द्वारा पहला आयल शॉक झेलने को मिला था। इस दौरान मुद्रा स्फीति में बढ़ोत्तरी होने के कारण इसने लोगों के हाथों में वास्तविक क्रय शक्ति को काफी हद तक निचोड़कर रख दिया था।

हालाँकि वह संकट एक अनियमित बाधा के रूप में सामने आई। विदेशी कारकों के चलते कारणों (ओपेक मूल्य-वृद्धि) या प्रसंगवश कारक (ख़राब फसल) के लिए सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता था। हाँ, उसकी ज़िम्मेदारी बनती है क्योंकि उन्हें इन बाधाओं को जिस प्रकार से निपटना चाहिए था, वह सलाहियत नहीं दिखाई।

लेकिन 2017-18 में इस प्रकार की कोई अनियमित बाधाएं नहीं थीं, जो सरकार के नियन्त्रण से बाहर की हों। जिस एकमात्र गड़बड़ियों ने 2017-18 के सर्वेक्षण अवधि में अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख दिया था, वे थी नोटबन्दी और गुड्स एंड सर्विस टैक्स (GST) को लागू करना। इन दोनों चीज़ों के लिए नरेंद्र मोदी सरकार पूरी तरह से ज़िम्मेदार थी।

निश्चिंत रहें, सिर्फ़ ये विनाशकारी निर्णय ही प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय में आई गिरावट की व्याख्या नहीं कर सकते।

इस गिरावट की घटना खासतौर पर ग्रामीण भारत में हुई जहाँ प्रति व्यक्ति व्यय में 2011-12 और 2017-18 के बीच 8.8% की गिरावट हुई। हालाँकि इसकी तुलना में शहरी भारत में इन तारीखों में तुलनात्मक रूप में 2% की मामूली वृद्धि देखने को मिली। नोटबन्दी और जीएसटी से पूरी तरह इतर भी ग्रामीण भारत में काफ़ी समय से मंदी के लक्षण दिखाई पड़ रहे थे। संक्षेप में, बाद के कारकों ने पहले से ही मंदी के हालात में और अधिक मंदी की चपेट में धकेलने का काम कर दिया। लेकिन ऐसा नहीं है कि अगर ये विनाशकारी कदम नहीं उठाये जाते तो स्थिति किसी प्रकार से सहनीय रही हो।

संकटपूर्ण स्थिति का सबसे स्पष्ट सुबूत उत्पादन के आंकड़ों से मिलता है। सरकार दावा कर रही है कि उत्पादन के आँकड़े उपभोक्ता व्यय के आंकड़ों से विपरीत दिशा में जा रहे हैं, लेकिन उसका यह दावा झूठा है। अगर हम वर्तमान कीमतों के कुल मूल्य को ‘खेती और अन्य सम्बन्धित कार्यों' में जोडें, जो इस क्षेत्र की सभी आय का स्रोत हैं। फिर इसे खेती पर निर्भर आबादी (जिसका अनुमान यह मानकर चला जाय कि थोड़े से समय में इसका अनुपात कुल जनसंख्या में बदल जायेगा), तब हमें पता चलता है कि ग्रामीण भारत के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की हवा निकालकर, कृषि पर निर्भर आबादी की प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में 2013-14 और 2017-18 के बीच थोड़ी सी थोड़ी गिरावट दर्ज की गई।

चूँकि खेती पर आश्रित आबादी में ज़मींदार और खेतिहर पूंजीपति भी आते हैं, जो संख्या में कम होने के बावजूद इसके विशाल हिस्से के मालिक हैं। इस तबके की आय के बारे में मानकर चलना चाहिए कि इस अवधि के दौरान कम नहीं हुए हैं। लेकिन ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा जो ग्रामीण भारत के कामगार वर्ग से आता है, उसकी आय में गिरावट की रफ़्तार काफ़ी तेज़ है (और भले ही इस अवधि में कुल आबादी में कृषि-निर्भर आबादी का अनुपात गिर गया हो, इस निष्कर्ष को नकारने के लिए यह गिरावट उतनी अधिक नहीं हो सकती थी)।

यदि हम अंतिम तिथि को 2017-18 से 2016-17 से बदल भी देते हैं, तब भी वही निष्कर्ष निकलता है जो निकाला गया है, अर्थात जैसा विमुद्रीकरण से पहले का कोई प्रभाव हो सकता था। यह इस प्रकार है कि विमुद्रीकरण (और जीएसटी) से जो भी प्रभाव पड़ता, वह पहले से ही संकट में घिरी खेतिहर अर्थव्यवस्था के उपर आरोपित कर दी गई थी, क्योंकि जिसे पूर्ववर्ती सरकारों से नव-उदार नीतियों के तहत जारी रखा हुआ था, और जिसे मोदी सरकार द्वारा खासतौर पर एकाग्र-चित्त होकर निर्मम ढंग से लागू किया गया।

ग्रामीण भारत में 2011-12 और 2017-18 के बीच ख़ासकर भोजन पर ख़र्च में गिरावट काफी तीखी दिखी, जो प्रति व्यक्ति के हिसाब से 10% तक के स्तर थी। इसने गरीबी की मात्रा में उल्लेखनीय वृद्धि करने का काम किया होगा।

सरकारी दावों के विपरीत, गरीबी के स्तर को जिसे भारत में कैलोरी के मानदंडों पर परिभाषित किया जाता है, ने नव-उदारवादी नीतियों के चलते, शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में बढ़ाया है। यदि हम 1993-94 और 2011-12 की तालिकाओं से इसकी तुलना करें (दोनों पञ्चवार्षिक सर्वेक्षण वर्षों से) तो यह स्पष्ट है । इस परिमाण को 2017-18 ने अवश्य ही और उपर की ओर ले जाने का काम किया होगा।

मोदी सरकार की यह ख़ासियत रही है कि जिस चीज़ से उसे तकलीफ़ होती है उसे वह जगज़ाहिर नहीं होने देती, जैसा कि उपभोक्ता व्यय के आंकड़ों को दबाने के मामले में दिखाई पड़ रहा है। रोजगार से सम्बन्धित आंकड़ों के साथ भी उसने यही किया था जिसे इस साल के मई में लोकसभा चुनावों से ऐन पहले भी देखा गया था, जिसमें पता चलता था कि बेरोज़गारी की दर पिछले 45 वर्षों से भी उच्च स्तर तक पहुँच गई है। लेकिन गनीमत रही कि चुनाव सम्पन्न होने के बाद इन आंकड़ों को सरकारी तौर पर जारी कर दिया गया।

लेकिन उपभोक्ता व्यय के आंकड़ों के सन्दर्भ में सरकार ने निर्णय लिया है कि इसे जारी ही नहीं किया जायेगा। इसके लिए 2020-21 तक अगले पंचवार्षिक सर्वेक्षणों का इंतज़ार करना पड़ेगा, तब तक आंकड़ों को इकट्ठा किये जाने के तरीकों में हेर-फेर कर इसमें मन मुताबिक़ संशोधन किये जा सकते हैं। इससे पहले कि वह उपभोक्ता व्यय पर किसी प्रकार के आँकड़े प्रकाश में लाये, उससे पहले यह सुनिश्चित किया जा सके, कि तस्वीर पहले से सुंदर दिखे। 

उपभोक्ता व्यय के आंकड़ों को दबाने के लिए जो तर्क आगे बढाया जा रहा है, वह बेतुका तर्क है: इसके अनुसार “आँकड़ों की गुणवत्ता ख़राब" है। यह एक ऐसा मामला है जिसे शोधकर्ताओं और जनता के ऊपर छोड़ दिया जा सकता था, लेकिन उसे नौकरशाहों और कथित तौर पर चुने गए "विशेषज्ञों" की टीम के भरोसे छोड़ दिया गया है।

वास्तव में, जब 2009-10 में पंचवार्षिक सर्वेक्षण में उपभोक्ता व्यय के आँकड़े प्रदर्शित हुए थे तो 2004-05 की तुलना में गरीबी में अच्छी खासी वृद्धि देखने को मिली थी। तब उस समय की सरकार ने 2011-12 में एक नए वृहद नमूना सर्वेक्षण का आदेश दिया था। इसके लिए यह तर्क दिया गया कि चूँकि ये सर्वेक्षण अकाल वर्ष के दौरान लिए गए थे, इसलिए 2009-10 के सर्वेक्षणों को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। लेकिन इन कारणों का हवाला देकर तब की सरकार ने 2009-10 के आंकड़ों की रिलीज़ पर रोक नहीं लगाई थी। और वास्तव में  2011-12 के वित्तीय वर्ष में जो एक बेहतर फसल का साल साबित हुआ। इस वर्ष में 2009-10 की तुलना में प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय के आंकड़ों में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई। हालाँकि इससे नव-उदारवादी दौर में गरीबी के बढ़ते ट्रेंड (कैलोरी की कमी के सन्दर्भ में) के निष्कर्ष को नकारा नहीं जा सकता।

वास्तव में, यह पहली बार हो रहा है जब किसी आधिकारिक सांख्यिकीय सर्वेक्षण के आँकड़ों को पूरी तरह से दबाया जा रहा है। इस सर्वेक्षण होने वाले समस्त धन को नाली में बहाया जा रहा है। किसी सरकार के लिए राष्ट्र के संसाधनों की इस मात्रा में बर्बादी, एक ऐसे सर्वेक्षण को जिसके लिए संतुस्ति खुद सरकार के द्वारा दी गई हो और जिसे अब खुद दबा रही हो। वह भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वह नहीं चाहती कि इसके अच्छे दिन के बारे में खुशफहमी कहीं खत्म न हो जाए, उसके उन्मादी अहंकार के स्तर को दर्शाती है, जो अपने आप में अकल्पनीय है। 

इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि केंद्र के इस उन्मादी अहंकार के कारण जिस सांख्यिकीय व्यवस्था को, जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रोफ़ेसर पी सी महालनोबिस के नेतृत्व में बेहद कष्टसाध्य प्रयासों से निर्मित किया गया था, उसे बर्बाद कर दिया जायेगा। 

महालनोबिस ने जिस राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की स्थापना की थी, वह नमूना सर्वेक्षण दुनिया भर में सबसे विशाल था। तीसरी दुनिया के देशों के इस प्रकार के सूचना के स्रोतों की किसी भी तौर पर तुलना नहीं की जा सकती थी। यह देश के लिए एक गौरव का विषय था और शोध सामग्री के लिहाज से इसका बेहद महत्त्व था। इसे चकनाचूर करने के लिए, इस अमूल्य स्रोत को सिर्फ इसलिये ध्वस्त कर दिया जा रहा है ताकि सरकार की ‘उपलब्धियों’ के दावों का खोखलापन कहीं उजागर न हो जाए, जो अपने आप में एक आपराधिक हृदयहीनता का परिचायक है।

सरकार का तर्क है कि उपभोक्ता व्यय के आँकड़े अन्य सरकारी संकेतकों से मेल नहीं खाते, इसलिए इसके बहस का आधार है कि इन “आँकड़ों की गुणवत्ता” ख़राब है। लेकिन ये आँकड़े उन सभी अन्य स्रोतों के अनुरूप हैं, जिनमें यह चमकदार तरीक़े से अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं। वे ऊपर उल्लिखित बेरोजगारी के आंकड़ों के अनुरूप हैं। वे उपरोक्त उल्लिखित कृषि से होने वाली आय के आंकड़ों के अनुरूप हैं। वे उस भारी गिरावट के अनुरूप हैं जिससे अर्थव्यवस्था वर्तमान समय से गुज़र रही है, जब कोई एक दिन ऐसा नहीं गुजर रहा है जिसमें इसके बुरे प्रदर्शन की नवीनतम ख़बरें न आ रही हों। सच्चाई तो यह है कि बिस्किट जैसे बेहद मामूली उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री भी हाल के दिनों में गिरी है जो प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय में संपूर्णता में गिरावट की सूचक है।

एक ऐसे दौर में जब राष्ट्र गहरे आर्थिक संकट की गिरफ़्त में है, मोदी सरकार प्रत्येक उपलब्ध सूचना का इस्तेमाल इस संकट को समझने में लगाने के बजाय, इन मूल्यवान सूचनाओं को दबाने में लगी है। यह है उसके पास 'गंभीर' उपाय, संकट से उबरने के लिए। 

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Criminal Callousness of Modi Government in Hiding Data

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