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दिशा रवि की ज़मानत पर न्यायालय का आदेश और राजद्रोह क़ानून में संशोधन की ज़रूरत

दिशा रवि मामला रेखांकित करता है कि देश की लोकतांत्रिक ताक़तों, जो संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विरोध ज़ाहिर करने के अधिकार की हिमायत करती हैं, को निश्चित रूप से देश में राजद्रोह कानून को हटाने के लिए पुरजोर तरीके से विरोध करना चाहिए।
Disha Ravi
फोटो द इंडियन एक्सप्रेस के सौजन्य से

पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि की जमानत पर दिल्ली न्यायालय के हालिया आदेश ने राजद्रोह कानून के ऐसे कई प्रावधानों को सामने ला दिया है, जो बेरहम और पुराने हैं। एक जीवंत लोकतंत्र के रूप में भारत को अनिवार्य रूप से स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विरोध जाहिर करने के अधिकार की रक्षा करनी चाहिए। सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे कार्यकर्ताओं की रक्षा तभी की जा सकती है, जब राजद्रोह पर मौजूदा कानून को खत्म किया जाए और उसे हल्का बनाया जाए

दिल्ली न्यायालय के आदेश से 23 फरवरी को पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को जमानत मिली और इसने राजद्रोह कानून पर चल रही चर्चा को एक नया आयाम दे दिया है। वर्तमान के इसके प्रावधान बेरहम हैं और सरकार को वैसे नागरिकों को राजद्रोह के आरोप में फंसाने का अधिकार देते हैं, जो उसकी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाते हैं। 

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धमेंद्र राणा का आदेश देश में लोकतांत्रिक विरोध की वर्तमान स्थिति पर एक वस्तुपरक टिप्पणी है। यह टिप्पणी ऐसे समय की गई है, जब पुलिस किसी भी व्यक्ति पर इल्जाम लगाकर बिना उसके खिलाफ संतोषजनक साक्ष्य के राजद्रोह के आरोप में उसे गिरफ्तार कर सकती है। 

पिछले दो वर्षों में, विशेष रूप से, जब नरेन्द्र मोदी की सरकार मई 2019 में दूसरे कार्यकाल के लिए चुनी गई, सभी विरोधी तभी से सरकार तथा उसके तहत काम करने वाली एजेंसियों की आंखों में संदिग्धों के रूप में चुभ रहे थे। 

अधिकांश प्रदर्शनकारियों को शासन द्वारा राष्ट्रदोही करार दिया गया है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार केंद्र तथा राज्यों में अपनी सत्ता काबिज करने के एकमात्र मकसद से जायज और नाजायज सभी तरीकों के माध्यम से देश में सर्वोच्च ताकत जमा कर रही है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) तथा नए कृषि कानूनों जैसी भेदभावपूर्ण नीतियों के खिलाफ किसी भी विरोध प्रदर्शन को राष्ट्रदोही करार दे दिया गया और आंदोलन के नेताओं को मनगढंत आरोपों में बंदी बना लिया गया है।

राजद्रोह के आरोप में कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी और उसकी सुनवाई के दौरान दिल्ली पुलिस का निराशाजनक प्रदर्शन तथा उसके बाद न्यायाधीश द्वारा की गई टिप्पणियां प्रदर्शित करती हैं कि सरकर से असहमति जताना ही उसका अपराध था।

22 वर्षीया दिशा ने लोकतांत्रिक संरचना के भीतर सरकार से लड़ने की कसम खाई और उसे सार्वजनिक तौर पर बेइज्जती का सामना करना पड़ा जबकि अधिकारी अपने आरोपों को पुष्ट करने वाला कोई भी ठोस दस्तावेज प्राप्त करने में विफल रहे। 

 

राजद्रोह कानून एवं इसके तर्क

जैसा कि विद्वान न्यायाधीश ने अपने 18 पेज के जमानत आदेश में कहा, ‘ राजद्रोह का आरोप सरकारों के आहत अहं की तुष्टि के लिए नहीं लगाया जा सकता। विचारों की भिन्नता, असहमति, विविधता, विरोध या यहां तक कि नापसंदगी को भी सरकार की नीतियों में वस्तुपरकता लाने के वैध माध्यमों के रूप में स्वीकार किया जाता है। एक उदासीन या दब्बू नागरिकता के मुकाबले एक जागरूक और मुखर नागरिकता निश्चित रूप से एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र की निशानी है। 

राष्ट्रीय राजनीति और सरकार के फैसलों में जागरूक नागरिकों की भागीदारी भाजपा के नेतृत्व वाली वर्तमान केंद्र सरकार के लिए राष्ट्रीयता की भावना के खिलाफ है। यही वजह है कि सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ता इसके निशाने पर हैं और दिल्ली दंगों के पीड़ितों सहित जो कोई भी उत्पीड़ितों के कल्याण के लिए काम करता है, उसे डराया-धमकाया जाता है और उस पर मनगढ़ंत और झूठे आरोप लगा दिये जाते हैं।

भीमा कोरेगांव के कार्यकर्ता गिरती सेहत के बावजूद जेल में सड़ रहे हैं और इस मामले में गिरफ्तार नौ आरोपितों में से केवल 82 वर्षीय वरवरा राव को ही पिछले सप्ताह अंतरिम जमानत मिल पाई है। 

ऐसे समय में जब लोकतांत्रिक अधिकारों के दायरे को विस्तारित करने की आवश्यकता है, राजद्रोह कानूनों की मौजूदगी और सत्तारूढ़ दलों द्वारा इसके दुरुपयोग ने इसमें संशोधन कर इसे हल्का बनाने की जरूरत को उजागर कर दिया है। यह संशोधन इस तरह किया जाना चाहिए कि ऐसे नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त उपाय हों, जिन पर निशाना बनाए जाने का खतरा है। 

जब अंग्रेजों ने इस प्रावधान को कानून की किताबों में शामिल किया, उस वक्त वे भारतीयों से भेदभाव करते थे। राजद्रोह को भारत में इंग्लैंड की तुलना में भी अधिक कठोर अपराध बना दिया गया। बहरहाल, 1970 के दशक में, सरकार ने इस कानून को औपनिवेशिक अवधि की तुलना में भी और अधिक ताकतवर बनाते हुए राजद्रोह के आरोपित की गिरफ्तारी तथा नजरबंदी से संबंधित प्रावधानों को बदल दिया।

1860 में, भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) लागू की गई तथा औपनिवेशिक भारत में प्रभावी बनाया गया। उस समय, राजद्रोह से संबंधित कोई धारा नहीं थी। मूल कानून में राजद्रोह के न होने के पीछे दो सिद्धांत हैं। आधिकारिक संस्करण यह है कि यह एक बड़ी गलती थी, इसे आइपीसी के अंतिम संस्करण में होना चाहिए था, लेकिन गलती से इसे छोड़ दिया गया।

अधिवक्ता अभिनव चंद्रचूड़ के अनुसार, इसकी बहुत संभावना है कि राजद्रोह को आइपीसी से बाहर कर दिया जाए क्योंकि इस समय तक यह इंग्लैंड में कोई अपराध ही नहीं रह गया था। 

19वीं सदी के एक ब्रितानी लेखक के अनुसार, 1832 के बाद से ब्रिटेन में राजद्रोह के मुकदमे इतने कम थे कि वास्तव में इसका वजूद ही नहीं रह गया था। 

आइपीसी संहिताकरण औपनिवेशिक अनुभव का एक हिस्सा था। उस समय तक इंग्लैंड में कोई कोड नहीं था क्योंकि इसका समान कानूनसदियों से निर्णित मामलों में सन्निहित था। आइपीसीभारत अनुबंध कानून, भारतीय साक्ष्य कानून जैसे महान भारतीय कोडइंग्लैंड द्वारा अपनाए जाने के लिए थे। 

विख्यात वकील ने यह भी कहा कि जब 1870 में आखिरकार आइपीसी में राजद्रोह को शामिल किया गया, तब तक इसमें औपनिवेशिक भेदभाव की बदबू आ चुकी थी। 

जिन अंग्रेजों पर इंग्लैंड में राजद्रोह का आरोप लगाया गया थे, उन्हें उनके समकक्षों की एक जूरी द्वारा जांच किए जाने का अधिकार प्राप्त था। ये जूरी अपने देशवासियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार रखते थे और इसलिए उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाना मुश्किल था। 

आपराधिक कार्यवाही की नई संहिता 1973, जो 1974 में प्रभावी हुई, में आपराधिक कार्यवाही की उपनिवेश-युग 1898 संहिता निरस्त कर दी गई और भारत के इतिहास में पहली बार राजद्रोह को एक संज्ञेय अपराध बना दिया गया।

अब पुलिस के पास बिना मजिस्ट्रेट से प्राप्त वारंट के राजद्रोह के आरोपित व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति है। अधिकारियों की इस अभूतपूर्व शक्ति का दुरुपयोग आक्रोश जाहिर करने पर सरकार के विरोधियों के खिलाफ किया जा रहा है। लोकतंत्र एवं स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए यह लगातार एक बड़ा खतरा बना हुआ है। 

दिलचस्प बात यह है कि 2009 में इंग्लैंड में राजद्रोह का अपराध औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया गया, लेकिन भारत में उन्हीं बेरहम प्रावधानों के साथ यह बना हुआ है। 

कई विख्यात वकील पिछले दशक से ही इसे वापस लिए जाने की मांग करते रहे हैं। दिशा रवि मामला रेखांकित करता है कि देश की लोकतांत्रिक ताकतों, जो संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विरोध जाहिर करने के अधिकार की हिमायत करती हैं, को निश्चित रूप से देश में राजद्रोह कानून को हटाने के लिए पुरजोर तरीके से विरोध करना चाहिए।

आरंभ में, कम से कम इसे नरम बनाए जाने के एक हिस्से के रूप में, राजद्रोह के अपराध को जमानतयोग्य तथा गैर-संज्ञेय बनाया जा सकता है। वक्त गुजर रहा है। राजद्रोह के प्रावधानों को हटाने या कम से कम रक्षोपायों के साथ उल्लेखनीय रूप से इसे नरम बनाये जाने की लड़ाई किसी भी हाल में जीतनी होगी। असहमति व मतभेद की आवश्यकता की रक्षा करने के लिए यह अनिवार्य है, जो भारत को एक गतिशील लोकतंत्र बनाता है। (आइपीए सर्विस)

यह आलेख मूल रूप से द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था। 

(नित्या चक्रवर्ती एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.theleaflet.in/delhi-courts-order-on-disha-ravis-bail-is-reminder-that-indias-sedition-law-needs-revision/# 

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