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दिल्ली दंगा: क्यों नारेबाजी किसी लोक सेवक के आधिकारिक कर्तव्यों का हिस्सा नहीं है?

दिल्ली की एक अदालत ने सीपीएम नेता बृंदा करात और के.एम. तिवारी की एक याचिका को ख़ारिज कर दिया था, जिसमें उनके द्वारा बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर और परवेश वर्मा द्वारा इस्तेमाल की गई हेट स्पीच के खिलाफ एफआईआर दायर किये जाने की मांग की गई थी।
दिल्ली दंगा

दिल्ली की एक अदालत ने सीपीएम नेताओं बृंदा करात और के.एम. तिवारी की एक याचिका को ख़ारिज कर दिया, जिसमें बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर और परवेश वर्मा के खिलाफ हेट स्पीच देने पर एफआईआर दर्ज करने की मांग की गई थी। यदि इस बारे में कोई एफआईआर दर्ज नहीं की जाती है तो आखिर किन तथ्यों के आधार पर मंजूरी देने वाले प्राधिकारी मुकदमा चलाने के लिए सहमति प्रदान करने या रोकने को जायज ठहरा सकते हैं? ऐसा फैसला किसी भी कार्यकारी मंजूरी के बगैर, क़ानूनी कौशल एवं बुद्धिमत्ता से परे है, क्योंकि नारेबाजी करने का काम इन बीजेपी नेताओं के कर्तव्यों के कार्यक्षेत्र का हिस्सा नहीं था, मो. कुमैल हैदर लिखते हैं। 
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26 अगस्त 2020 को दिल्ली की एक अदालत ने सीपीएम नेताओं बृंदा करात और के.एम. तिवारी की याचिका खारिज कर दी, जिसमें बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर एवं परवेश वर्मा के खिलाफ हेट स्पीच देने के मामले में एफआईआर दर्ज करने की मांग की गई थी (बृंदा करात बनाम राज्य)। शिकायतकर्ताओं ने इन प्राथिमिकियों को विभिन्न धाराओं के तहत लगाने की मांग की थी जिसमें आईपीसी की धारा 153-ए के तहत (धर्म, नस्ल, जन्म के स्थान, निवास, भाषा इत्यादि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच में वैमनस्य को बढ़ावा देने का काम); 153-बी (अभियोग, राष्ट्रीय-एकीकरण के नाम पर जोर-जबर्दस्ती एवं पूर्वाग्रही रुख) और 295-ए में (जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण हरकत, जिसका उद्येश्य किसी धर्म या धार्मिक मान्यताओं की बेइज्जती करने के जरिये किसी वर्ग विशेष की धार्मिक भावनाओं को भड़काना है)। 
याचिका में आईपीसी की अन्य धाराओं के अंतर्गत भी कार्यवाही किये जाने की मांग की गई थी, जिसमें 298 (खास मकसद के साथ

जानबूझकर किसी भी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए बोलना, शब्द इत्यादि) के साथ 504 (शांति भंग करने के इरादे से जानबूझकर अपमानित करना) 505 (सार्वजनिक गड़बड़ी उत्पन्न करने वाले बयान) और 506 (आपराधिक धमकी के लिए सजा) के तहत कार्यवाही किये जाने की मांग की गई थी।

नारेबाजी के स्पष्ट सुबूत 

इसमें कहा गया था कि ठाकुर ने “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को” के नारे उन लोगों को संदर्भित करते हुए लगाये थे, जो नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा ले रहे थे। जबकि दूसरी तरफ वर्मा ने 28 जनवरी, 2020 को एएनआई को दिए अपने इन्टरव्यू में शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कथित तौर पर झूठे, भड़काऊ और साम्प्रदायिक बयानबाजी की थी। अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने इस संबंध में किसी योग्य नियामक, जैसे कि केन्द्रीय सरकार से पूर्व-अनुमति न लिए जाने का हवाला देते हुए इस याचिका को ख़ारिज कर दिया।

पूर्व मंजूरी के द्वारा प्राप्त सुरक्षा किसी ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी को इसलिए दिए जाने का प्रावधान है ताकि वह पूरी ईमानदारी एवं क्षमता के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सके। लेकिन किसी अपराध को करने के लिए सत्ता का दुरूपयोग नहीं किया जा सकता। 

सीआरपीसी की धारा 196 और 197 का उद्येश्य इस बात को सुनिश्चित करने का है कि कोई भी अभियोजन तभी योग्य माना जाय जब इस बारे में यथोचित प्राधिकारी द्वारा विचार कर लिया गया हो, ताकि बेकार के अभियोजनों से बचा जा सके। ये कानून न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों एवं लोक सेवकों के खिलाफ जानबूझकर परेशान करने के इरादे से लगाये जा सकने वाले अभियोजन से रक्षा हेतु बनाये गए हैं, जिन्हें उनके पद से बिना सरकार द्वारा या उसके अनुमोदन के नहीं हटाया जा सकता, और इसी प्रकार सैन्य बलों के सदस्यों को भी बिना उच्चाधिकारियों के अनुमोदन के दण्डित नहीं किया जा सकता है।

इनमें से किसी भी अपराध पर मुकदमा चलाने की मंजूरी देने से पहले केंद्र, राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट, मामले की प्रकृति को देखते हुए कम से कम इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी से इसकी प्राथमिक जाँच के आदेश दे सकते हैं। इस पुलिस अधिकारी के पास धारा 155(3) के तहत जाँच के निर्दिष्ट अधिकार होते हैं।

इस मामले में एफआईआर और जाँच कराने से क्यों मना कर दिया गया?

सर्वोच्च न्यायालय ने अंजू चौधरी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2013) और मोना पवार बनाम इलाहाबाद उच्च न्यायालय (2011) वाले मामलों में घोषित किया था कि धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए जाँच के निर्देश जारी कर दिए जाने मात्र से इसे संज्ञेय नहीं माना जा सकता, बल्कि इसे सिर्फ अग्रिम तौर पर आदेश कह सकते हैं, जिसके लिए पूर्व अनुमोदन की जरूरत नहीं है। इसलिए यह समझ से बाहर है कि क्यों प्राथिमिकी के पंजीयन और प्राथमिक जाँच की अनुमति को नजरअंदाज या अस्वीकृत कर दिया गया। प्राथिमिकी में लगाये गए किसी भी आरोपों वाले मामले में अनुमोदन का आधार अनुमोदन प्रदाता प्राधिकारी द्वारा बुनियादी तथ्यों के बारे में किये गए विचार के आधार पर ही तय होना चाहिए था। 

इसे लेकर एक महत्वपूर्ण सवाल फिर ये उठता है कि यदि किसी मामले में प्राथिमिकी ही दर्ज नहीं होगी तो किस बिना पर मंजूरी प्रदान करने वाली अथॉरिटी मामले पर कार्यवाही करने की मंजूरी या उसे रोकने के आदेश दे सकती है?

...अनुराग ठाकुर ने “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को” नारे लगाये थे....वहीँ परवेश वर्मा ने ...शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कथित तौर पर झूठे, भड़काऊ और साम्प्रदायिक बयानबाजी की थी।

सीआरपीसी की धारा 196 की उप-धारा 1 के तहत, बिना केंद्र या राज्य की पूर्व मंजूरी के किसी भी न्यायालय द्वारा निम्नलिखित अपराधों के मामले में संज्ञान नहीं लिया जा सकता है।

*राज्य के खिलाफ अपराध (आईपीसी, अध्याय VI)

*समूहों के बीच वैमनस्यता को बढ़ावा देने का अपराध (आईपीसी की धारा 153ए)

*राष्ट्रीय एकीकरण हेतु पूर्वाग्रहों के साथ अभियोग (धारा 153बी)

*धार्मिक भावनाओं को भड़काना (धारा 295ए)

*सार्वजनिक गड़बड़ी पैदा करने वाले बयान जारी करना (धारा 505) 

*इस प्रकार के अपराधों के लिए आपराधिक साजिश रचना और भारत से बाहर रहकर इस प्रकार के अपराधों के प्रति बहकाने के प्रयास सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अभियोजन से पहले इसके लिए मंजूरी की पूर्व-आवश्यकता का हवाला दिया था, जोकि यह है कि लोक सेवक द्वारा इस प्रकार के कृत्य या चूक उसके द्वारा अपने कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किया गया हो। इसके साथ ही कर्नाटक राज्य बनाम पादरी पी राजू मामले को भी संदर्भित करना महत्वपूर्ण होगा, जिसमें शीर्ष अदालत का मानना था कि मामले की जांच पूरी हो जाने के बाद किसी पुलिस एजेंसी या पुलिस द्वारा किसी रिपोर्ट को जमा करने को लेकर,

आपराधिक मामला दर्ज करने को लेकर किसी भी प्रकार की मनाही नहीं है, जैसा कि सीआरपीसी की धारा 173 में विचार किया गया है। एक बार आपराधिक मामला दर्ज हो जाने के बाद केंद्र, राज्य या डीएम से पूर्व अनुमति लिए बिना भी जाँच पूरी की जा सकती है और पुलिस चाहे तो मजिस्ट्रेट के समक्ष अपनी रिपोर्ट को प्रस्तुत कर सकती है।  

लोक सेवक बनाम लोक सेवा 

तो क्या लोक सेवक के द्वारा की गई कोई भी कार्यवाही को लोक सेवा का दर्जा दिया जा सकता है? बिना पूर्व मंजूरी के अभियोजन पक्ष से प्रतिरक्षा का विशेषाधिकार केवल उन्हीं शर्तों पर दी जा सकती है जिसे आधिकारिक कार्यावधि के दौरान संपन्न किया गया हो। सीआरपीसी की धारा 197 वहां लागू होती है जहाँ लोक सेवक द्वारा कृत्य या चूक अपने कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान और उसके साथ पूरी तरह से सम्बद्ध है जोकि एक अपराध है, जैसाकि अबनी चौधरी बिस्वाल बनाम उड़ीसा सरकार, 1988 में देखने को मिला। धारा 197 के इस्तेमाल में लाने के लिए केवल लोक सेवक होना ही पर्याप्त नहीं है। जैसाकि अदालत ने बिहारी लाल बनाम राज्य, 2002 वाले मामले में पाया: “इसे और दिखाए जाने की जरूरत है (i) कि इस प्रकार के लोक सेवक हटाये जाने योग्य हैं या थे, द्वारा या सरकार की मंजूरी के, और (ii) कि कथित अपराध उसके द्वारा कार्य के दौरान या अपने कर्तव्यों के निर्वहन का अभिनय कने के दौरान संपन्न की गई हो।”

एक अन्य मामले बैज नाथ गुप्ता बनाम मध्य प्रदेश सरकार, 1966 में यह पाया गया था कि पूर्वानुमति तभी आवश्यक है यदि लोक सेवक का आचरण, जिसके खिलाफ शिकायत है वह कार्यालय के अपने कर्तव्यो के निर्वहन में इतने अविभाज्य तौर पर जुड़ा हुआ है कि उन्हें अलग पाना असंभव हो। लेकिन यदि इसके बीच कोई सम्बंध नहीं है तो फिर किसी मंजूरी की जरूरत नहीं है।

इस सम्बंध में धारा 197 के जरिये लोक सेवकों के कृत्यों को तीन पहलूओं के जरिये सुरक्षा मुहैय्या कराई गई है। 

*जहाँ कृत्य के खिलाफ की शिकायत की गई है, वह उस व्यक्ति के आधिकारिक चरित्र को दर्शाता है। 

*जहाँ आरोपी का अधिकारिक चरित्र या स्थिति उसे इस कृत्य को करने का अवसर मुहैय्या कराती है।

*जहाँ अपराध एक ऐसे समय में हुआ हो जब दोषी अपने अधिकारिक सेवाओं के निर्वहन में व्यस्त था, जैसा कि पीठ द्वारा एस.बी. साहा बनाम एमएस कोचर मामले में प्रदान किया गया था।

हालाँकि आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के समय भी एक लोक सेवक से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वह किसी आपराधिक साजिश या आपराधिक कदाचार में लिप्त पाया जाए।

अनुमोदन के लिए दिशानिर्देशक सिद्धांत 

अनुमोदन की जरूरत के सम्बंध में कुछ विशिष्ट मार्गदर्शक सिद्धांत हैं, जोकि देविंदर सिंह बनाम सीबीआई के जरिये पंजाब राज्य वाले मामले से निकले हैं। ये कुछ इस प्रकार से हैं:  

*किसी ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी के लिए बचाव के लिए मंजूरी का विकल्प एक प्रकार से आश्वासन है ताकि वह अपने कर्तव्यों के निर्वहन के कार्य को अपनी पूरी क्षमता से कर सके। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अपराध करने के लिए इस अधिकार दुरूपयोग किया जाए।

*एक बार यदि कोई कृत्य या चूक किसी लोक सेवक के कार्यों में पाई जाती है तो जहाँ तक इसके आधिकारिक प्रकृति का प्रश्न है तो इस बारे में उदार एवं विस्तृत तरीके से सोचने की जरूरत है। लेकिन कोई भी लोक सेवक किसी प्रकार की आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने के लिए अधिकृत नहीं है। इस बारे में सीआरपीसी की धारा 197 को सीमित तौर पर लागू किये जाने की जरूरत है। 

*यदि हमले की प्रकृति आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के प्रदर्शन से आंतरिक तौर पर जुडी हुई है तो इसके लिए जरुरी है कि सीआरपीसी की धारा 197 के तहत जरुरी मंजूरी ली जाए, लेकिन कर्तव्यों से जुड़ाव के दावे को हवा हवाई नहीं होना चाहिए। कृत्य को सीधे तौर पर और समुचित तौर पर आवश्यक अनुमोदन पाने के लिए आधिकारिक कर्तव्यों से सम्बन्धित होना चाहिए। 

*आरोप तय करते समय अनुमोदन के प्रश्न को उठाया जा सकता है और इसे दोषारोपण के आधार पर तय किया जा सकता है। 

*क्या अनुमोदन आवश्यक है, इसे प्रत्येक चरण के हिसाब से और प्रत्येक मामले के लिए पेश किये गए साक्ष्य के हिसाब से तय किया जा सकता है। अनुमोदन का प्रश्न किसी भी कार्यवाही के चरण में तय किया जा सकता है, और अभियुक्त के लिए सुनवाई के दौरान किसी भी समय सामग्री को प्रस्तुत करने के लिए खुला रखा जाना चाहिए ताकि दिखाया जा सके कि उसके क्या कर्तव्य थे। 

हर प्रकार की कार्यवाही को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है और इस तरह अनुमोदन की मांग हर स्थिति में नहीं की जा सकती, खासतौर पर, जब कोई शिकायत ऐसे कार्यों को लेकर हो जो सार्वजनिक कार्य के दायरे से सम्बन्धित नहीं हैं। यहाँ तक कि आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान भी किसी लोक सेवक को किसी आपराधिक साजिश या आपराधिक कदाचार में लिप्त होने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। इसलिए धारा 197 के प्रावधान इसमें लागू नहीं होते हैं जैसा कि राजीब रंजन बनाम विजय कुमार (2015) मामले में देखने को मिला था।  

सर्वोच्च न्यायालय में पॉल वर्गीज बनाम केरल राज्य मामले ने दो वैधानिक प्रावधानों के बीच के फर्क को चिन्हित किया था, और इसके उपरान्त उसे लागू करने की प्रक्रिया शुरू की थी। न्यायालय ने कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 19(3)(सी) के तहत निषेधाज्ञा की कठोरता को कम करके यह बताती है कि अधिनियम के तहत लोक सेवकों के मामलों में, अनुमोदन स्वचालित है। सीआरपीसी की धारा 197 के तहत तथ्यों के आधार पर मंजूरी तय होती है। धारा 19 के भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और सीआरपीसी की धारा 197 अलग-अलग क्षेत्रों में काम करती हैं।

इस प्रकार मामले के तथ्यों और स्वैछिक न्यायिक निर्णय को देखते हुए इस बात को सुविचारित तौर पर कहा जा सकता है कि अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा अनुराग ठाकुर और परवेश वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की माँग से इंकार करना किसी भी कार्यकारी अनुमोदन से इंकार को क़ानूनी बुद्धिमत्ता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि नारेबाजी करने का काम उनके दायित्वों में शामिल नहीं था। 

(मोहम्मद कुमैल हैदर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विधि संकाय में कानून के छात्र हैं।)

यह लेख मूल रूप से द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Delhi Riots: Why Sloganeering is not Part of the Official Duties of a Public Servant

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