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अमेरिकी-भारतीय सैन्य गठबंधन की उभरती रूपरेखा

कुछ भारतीय विश्लेषकों ने अमेरिकी चुनावों से ठीक एक हफ्ते पूर्व मंगलवार को होने जा रही 2+2 वार्ता को एक जल्दबाजी में हो रहे आयोजन के तौर पर देखने की प्रवृत्ति दिखाई है। लेकिन वे इस 2+2 मीटिंग की टाइमिंग को लेकर जानबूझकर किये गए प्रयासों की महत्ता को समझ पाने में विफल रहे हैं।
एस्पर
एस्पर चहलकदमी करते हुए: मार्क टी. एस्पर (अमेरिकी रक्षा मंत्री) ब्रसेल्स में नाटो मुख्यालय में नार्थ अटलांटिक काउंसिल के कक्ष में नजरें फिराते हुए। (फाइल फोटो)

नई दिल्ली में 27 अक्टूबर को होने वाली तथाकथित 2+2 अमेरिकी-भारतीय सुरक्षा वार्ता की अजीबोगरीब टाइमिंग के पीछे के रहस्य की मुख्य वजह काफी हद तक मुर्गी और अंडे वाली स्थिति के चलते है।

यह तय कर पाना बेहद मुश्किल हो रहा है कि वे कौन सी दो वजहें हैं जिसके कारण दूसरी घटित हो रही है - अमेरिकी-भारतीय सैन्य गठजोड़ की बाढ़ या भारत-चीन संबंधों में लगातार जारी गिरावट का रुख।

यहाँ पर आज एक कौतुहुल पैदा करने वाली पहेली काम कर रही है - जहाँ एक तरफ 2008 के परमाणु समझौते के बावजूद अमेरिकी-भारतीय सैन्य गठबंधन आगे की उड़ान भर पाने को लेकर संघर्ष कर रहा था, लेकिन 2015 से (बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से) इसने अपनी रफ्तार पकड़ ली थी। वहीं दूसरी ओर यूपीए के शासनकाल में चीन-भारत संबंधों में एक हद तक स्थिरता ने आकार ले लिया था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में इसमें निरंतर, अकथनीय गिरावट का दौर शुरू हो गया और अकारण द्वेष के साथ तीव्र प्रतिद्वंदिता की स्थिति तक संबंधों में गिरावट का आ चुका है।

यहीं पर एक विरोधभास नजर आता है – मोटे तौर पर भारत के लोगों के पास जहाँ अमेरिका के साथ तेजी से बढ़ते गठबंधन को लेकर दूरदृष्टि का अभाव दिखता है (क्वैड इसके सबसे बड़े प्रतीक के तौर पर नजर आता है) जबकि अमेरिकियों के पास कहीं व्यापक वैश्विक दृष्टि है कि भारत के साथ वे सुनियोजित तौर पर क्या निर्मित करने जा रहे हैं।

इस विरोधाभास के भीतर ही एक पहेली भी छुपी है: आम तौर पर भारतीय इस धारणा को लेकर चल रहे हैं कि उनके देश को अमेरकी टोकरी से मनचाहा फल उठाने की इजाजत है, लेकिन दिल्ली में बैठे नीति-नियंताओं और राजनीतिक नेतृत्व को हालात के बारे में अच्छे से पता है कि यह मात्र एक दिवा-स्वप्न है, क्योंकि एक महाशक्ति के साथ सैन्य गठबंधन में जाने का सीधा सा अर्थ है कि यह एक गहन अपरिवर्तनीय प्रतिबद्धता में तब्दील हो जाने जा रहा है।

अमेरिकी विश्लेषक हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर की भूरि-भूरि प्रशंसा करने में तल्लीन हैं जो एक मैकेनिक की भूमिका में रैलिंग के नीचे सर रखकर क्वैड को जोड़ने में जुटे हैं। वहीं कुछ भारतीय विश्लेषक मंगलवार की 2+2 बैठक को ठीक एक हफ्ते पहले होने जा रहे अमेरिकी चुनावों के बीच किये जाने को लेकर इसे हड़बड़ी में किया जाने वाला आयोजन समझ रहे हैं। लेकिन वे इस जानबूझकर की जा रही जल्दबाजी के पीछे की वजहों को समझ पाने में असमर्थ साबित हो रहे हैं।

इसे अभी करना होगा, ठीक अभी 3 नवम्बर से पहले करना होगा। इसके पीछे की वजह यह है कि एक हफ्ते की देरी से भी कई अनिश्चितताएं उत्पन्न हो सकती हैं, यदि जो बिडेन के राष्ट्रपति पद में जीत की पतवार दृष्टिगोचर होने की संभावना दिख रही हो तो। जैसा कि कहावत है कि कप और होंठों के बीच के अंतराल में भी फिसलन की कई संभावनाएं बनी रहती हैं। इसके साथ ही अपने बंद गैराज में एस. जयशंकर जिस प्रोटोटाइप के एक-एक कस-बल को कसने में जुटे हैं - जिसमें बीईसीए (BECA) फिनिशिंग टच के तौर पर है, उसमें यदि इंजन के क्रेन्किंग के काम को अभी न किया गया तो उसमें जंग लगना शुरू हो सकता है।

इतनी कड़ी मेहनत के बाद जो कि सार्वजनिक निगाह से छिपाकर चल रही है, जिसमें इंजन को जोड़ने में सफलता हासिल कर ली गई है, लेकिन इंजन को चालू हालत में लाने के लिए इसे सबसे पहले पर्याप्त गति से घुमाने की जरूरत है, ताकि अपने स्वयं की ताकत से सिलिंडर तक इंधन पंप हो सके और प्रज्ज्वलित हो सके और इंजन अपनी खुद की शक्ति से चल सके। इंजन की क्रेन्किंग का काम किसी भी कार मैकेनिक को अच्छे से मालूम होता है कि इंजन के क्रैंकशाफ़्ट को चालू हालत में लाने के लिए इस बिंदु पर यह आवश्यक है कि इस बात को सुनिश्चित कर लिया जाए कि वह इंजन को घुमा सके, ताकि इंजन खुद को पॉवर में तब्दील कर सके।

अमेरिकी-भारतीय सैन्य गठबंधन के लिए एक निर्णयक क्षण आ चुका है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। परीक्षण चालक ने अमेरिका से अपनी उड़ान भर ली है। विदेश मंत्री माइक पोम्पेओ अपने साथ रक्षा सचिव मार्क एस्पर को अमेरिकी-भारतीय सैन्य गठबंधन के बेहद अहम कार्य की प्रभावकारिता का परीक्षण करने के लिए साथ में ला रहे हैं। इसमें और देरी न तो की जा सकती है और ना ही करनी चाहिए।

लेकिन भारतीय पक्ष को एस्पर से एक समस्या हो सकती है, जो पूरे तौर पर पेशेवर हैं और जिनका 101वें एयरबोर्न (“स्क्रीमिंग ईगल्स”) के साथ थल सेना के अफसर के तौर पर उल्लेखनीय रिकॉर्ड रहा है। इसके साथ ही उन्होंने ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म और खाड़ी युद्ध (ब्रोंज स्टार विजेता) के तौर पर अपनी सक्रिय सेवाएं देने के साथ वेस्ट पॉइंट से इंजीनियरिंग में स्नातक होने के साथ-साथ हार्वर्ड में कैनेडी स्कूल से मास्टर्स और जॉर्ज वाशिंगटन से पीएचडी की डिग्री हासिल की है। एस्पर पेंटागन चीफ से पहले रक्षा मामलों के उप सहायक सचिव एवं आर्मी में सचिव पद पर तैनात रहे हैं।

हमारे एमओडी में न तो एस्पर जैसा कोई समकक्ष मौजूद है और न ही मोदी मंत्रिमंडल में ही कोई उनकी टक्कर का है जो उनके पाण्डित्य एवं पेशेवर कौशल का मुकाबला कर सके। यही वजह है कि उनके अटलांटिक काउंसिल के अध्यक्ष और सीईओ फ्रेडेरिक केम्पे के साथ 20 अक्टूबर को हुई बैठक में उनकी भारत में होने वाली संभावित यात्रा के सम्बंध में हुई “बातचीत” के ट्रांसक्रिप्ट को अवश्य ही पढ़े जाने की आवश्यकता है।

एस्पर ने काफी सोच-विचारकर अपनी चर्चा में महान-शक्ति प्रतिद्वंदिता के इस युग में अमेरिकी गठबन्धनों एवं साझीदारियों की मजबूती जैसे विषय को चुना - जबकि भारत यात्रा के पीछे भी यही मुद्दा है।

एस्पर हमें उस रोडमैप का शानदार पूर्वावलोकन कराते हैं जिसे वे अपने साथ दिल्ली लेकर आ रहे हैं, ताकि उस इंजन की टेस्ट ड्राइविंग कर सकें, जिसे जयशंकर ने जोड़ने का काम किया है। एस्पर ने जिन तत्वों पर प्रकाश डाला है उनका सार-संकलन निम्नलिखित है, जिनमें से ज्यादातर उनके शब्दों में ही उद्धृत किया गया है:

पेंटागन की “सबसे पहली प्राथमिकता” अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को लागू करने की है, जिसका आकलन है कि वर्तमान में अमेरिका “एक महान-शक्ति प्रतिद्वंदिता के युग में” जी रहा है, जिसमें हमारी प्राथमिक प्रतिद्वंदिता चीन और रूस के साथ में है।”

इस सन्दर्भ में पेंटागन तीन “कोशिशों: (अमेरिकी) सैन्य बल की मारक क्षमता और तत्परता में सुधार करने पर बल देता है। दूसरा, गठबन्धनों को मजबूती देने और साझेदारियों को निर्मित करने पर जोर, और तीसरा पहलू (रक्षा) विभाग में सुधारों को पुनर्निर्देशित करने के जरिये हमारे समय, धन और जनबल को हमारी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में रखने के काम को करने में जुटा है।“

इसमें से सहयोगियों एवं साझेदारों के एक नेटवर्क का काम बेहद अहम है क्योंकि यह “हमें (अमेरिका) असममित लाभ की स्थिति मुहैया कराता है जिसे हमारे विरोधी हासिल करने की स्थिति में नहीं हैं... चीन और रूस के पास शायद कुलमिलाकर भी दस सहयोगियों से कम हों।”

हालाँकि इस बिना पर अमेरिका अपनी पतवार खेना बंद नहीं कर सकता क्योंकि “हमारे मुख्य प्रतिद्वंदी चीन और रूस बेहद तेजी के साथ अपने सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण में लगे हैं... और शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में कर रहे हैं...और इसके साथ ही नाटो सहित अमेरिकी सुरक्षा के लिए बेहद अहम देशों और संस्थाओं के लचीलेपन और सामंजस्य को कमजोर कर रहे हैं।”

इसके लिए “जरूरी है कि हम पहले से ज्यादा रणनीतिक और प्रतिस्पर्धी सोच और क्रियान्वयन के साथ काम करें।” पेंटागन ने इस सम्बंध में “हाल ही में दो पहल की हैं जिससे हम यह सब करने में सक्षम हो सकते हैं।” इसमें से एक डिफेंस गाइडेंस फॉर डेवलपमेंट ऑफ़ अलायन्स एंड पार्टनरशिप (जीडीएपी) और दूसरा डिफेन्स ट्रेड मॉडरनाइजेशन नाम से दो विभागों को स्थापित किया गया है।

इन दो औजारों के साथ मिलकर काम करने से अमेरिका को “समान सोच वाले राष्ट्रों की हैसियत और क्षमताओं को निर्मित करने का काम किया जा सकता है और मैत्रीपूर्ण सैन्य बलों की क्षमता और अंतर-परिचालन क्षमता को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है।” इसके साथ ही साथ अमेरिकी हथियार उद्योग को भी प्रोत्साहन मिल सकेगा ताकि यह “वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी बन सके।”

जीडीएपी का उद्देश्य अमेरिका के अपने मित्र राष्ट्रों और साझीदारों के साथ संबंधों को पारंपरिक “क्षेत्रीय प्राथमिकता और हितों” वाले रुख से नए युग वाले महान शक्ति प्रतिद्वंदिता में पुनर्संयोजित करने वाला होना चाहिए। यह अपनी प्रकृति में वैश्विक स्वरुप लिए हुए है, और जिसके लिए “प्राथमिकताओं की एक आम सूची” की आवश्यकता होती है।

इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए पेंटागन के पास एक “टूलकिट” मौजूद है जिसमें विदेशी सैन्य दलों एवं विदेशी सैन्य बिक्री कार्यक्रम के लिए वरिष्ठ सैन्य अधिकारीयों को गहन प्रशिक्षण दिए जाने की बात शामिल है।

विदेशी सैन्य बिक्री का पहलू बेहद अहम है क्योंकि यह अमेरिका को अपने मत्वपूर्ण औजारों, तकनीक, और सिस्टम को “रणनीतिक औजार के तौर पर” साझीदारों की युद्ध-लड़ने की क्षमता में मदद करने के साथ-साथ अंतर-संचालन क्षमता के निर्माण को बढाने वाला साबित हो सकता है। निश्चित तौर पर इस प्रक्रिया में वैश्विक बाजार में अमेरिकी हथियार उद्योग को नवीनतम एवं प्रतिस्पर्थी बनाये रखने की कोशिश भी रहेगी।  

इसके अतिरिक्त विदेशी सैन्य बिक्री को चीनी और रुसी राज्य स्वामित्व वाले हथियार उद्योगों से भी प्रतिस्पर्धा में जाना पड़ता है, जो “वैश्विक हथियारों के बाजार में अपने हिस्से के विस्तार के लिए” कड़ा मुकाबला करने के साथ-साथ “अन्य देशों को अपने सुरक्षा नेटवर्क में आकर्षित करने” और अमेरिका के रिश्तों को साधने के प्रयासों को विफल करने की कोशिशों में लगे रहते हैं।

एस्पर ने अपनी बात के समापन करते हुए कहा कि सोमवार को दिल्ली में होने वाली 2+2 वार्ता “हमारे समय के रणनीतिक मुद्दों पर हमारे राष्ट्रों के निरंतर बढ़ते अभिशरण” को दर्शाता है। उन्होंने इस बात को लेकर संतोष व्यव्क्त किया कि हाल के महीनों में सैन्य अभ्यासों, रक्षा साइबर संवाद एवं अन्य मामलों की ट्रेजेक्ट्री में जो गति देखने को मिली है वह “21 व़ी सदी के सबसे अधिक फलित साझेदारियों में से एक साबित हो सकती है।”

दिलचस्प तथ्य यह है कि पिछले सप्ताह ही एस्पर ने इस बात का खुलासा किया था कि अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की तथाकथित फाइव आईज फोरम – की ख़ुफ़िया समूह की बैठक हुई थी। इसमें “हमने भारत-प्रशांत क्षेत्र में चुनौतियों को लेकर चर्चा की थी और किस प्रकार से हम आपस में एक दूसरे को सहयोग कर सकते हैं? किस प्रकार से हम संप्रभुता को मिल रही चुनौतियों का मुकाबला कर सकते हैं, जोकि अंतर्राष्ट्रीय नियमों पर आधारित समुद्री आवागमन की स्वतंत्रता को बरक़रार रख सके? तो आप देख सकते हैं कि कई नजदीकी सहयोग समझौतों की संभावना निकलकर आ रही हैं। और ये चीजें हमारी नई दिल्ली में अगले सप्ताह होने वाली बैठकों में भी देखने को परिलक्षित होंगी, जब हम वहां की यात्रा पर होंगे।”

(लेख का समापन अगले भाग में होगा।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Emerging Contours of the US-Indian Military Alliance

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