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एससी में ओबीसी का घालमेल, यूपी में नये वोट बैंक की तलाश!

आरक्षण पर बीजेपी धीरे-धीरे उस सोच की ओर बढ़ रही है जहां यह व्यवस्था ही अपना अर्थ खो दे। आरक्षण का आधार आर्थिक कर देना, अनुसूचित जाति यानी एससी की सोच में घालमेल पैदा कर देना और एसबी-ओबीसी में फर्क मिटाना उसी दिशा में कदम है।
(फाइल फोटो)
Image Courtesy : ndtv

उत्तर प्रदेश में एक नये किस्म के ध्रुवीकरण की राजनीति लेकर बीजेपी प्रस्तुत हुई है। यह है ओबीसी के ध्रुवीकरण की सियासत। ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग की जिन 17 जातियों को अनुसूचित जाति (एससी) वर्ग में शामिल करने की पहल योगी आदित्यनाथ की सरकार ने की है उनका वोट प्रतिशत यूपी में तकरीबन 14 फीसदी है। जबकि आबादी में एससी वर्ग की हिस्सेदारी करीब 25 फीसदी मानी जाती है। यूपी सरकार की इस पहल से एससी वर्ग में शामिल जातियों, खासकर उन जातियों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी, जो अत्यंत कमजोर हैं। उनके लिए प्रतिस्पर्धा और कड़ी हो जाएगी।

सामाजिक चिन्तक और लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ. रविकान्त का मानना है, योगी सरकार का यह कदम आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था को कमजोर करने वाला है। इसकी राजनीतिक मंशा 17 ओबीसी जातियों का शुभचिन्तक बनने और एससी वर्ग में जाटवों के प्रभुत्व को कमजोर करने की है। बीजेपी यह भी संदेश देना चाहती है कि ओबीसी में आरक्षण का लाभ सिर्फ यादवों ने लिया है। वास्तविकता ये है कि सरकारी नौकरियां 3.5 फीसदी से घटकर 2.5 फीसदी रह गयी हैं और यह घटती ही जा रही हैं। ऐसे में इस पहल का कोई वास्तविक फायदा नहीं होने वाला है।

आरक्षित वर्ग को नहीं मिल पा रहा है वास्तविक फायदा

करीब एक साल पहले जून 2018 में तत्कालीन बीजेपी सांसद उदित राज ने संसद में चौंकाने वाला आंकड़ा पेश किया था। केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और विभागों से जुटाए गये इन आंकड़ों के मुताबिक 1 जनवरी 2016 की स्थिति के अनुसार ए वर्ग की नौकरियों में कुल 84,705 पदों में से एससी का प्रतिनिधित्व 11,333 था जबकि ओबीसी का 11,016 और एसटी का 5,013, वहीं अन्य श्रेणी में यह संख्या 57,343 थी। ये आंकड़े बताते हैं कि अपेक्षाकृत ओबीसी व एससी और एसटी वर्ग को आरक्षण का बड़ा लाभ नहीं मिल पा रहा है। यही स्थिति ग्रुप बी वर्ग की नौकरियों में देखने को मिलती है। इस वर्ग में एससी का प्रतिनिधित्व 46,625 है तो ओबीसी का 42,995 और एसटी का प्रतिनिधित्व है 20,915. सामान्य वर्ग के 1,80,406 लोग नौकरियों में थे।

एससी वर्ग की सियासत करने वाली पार्टियां योगी सरकार के फैसले को आसानी से नहीं पचा पाएंगी। आम तौर पर एससी वर्ग का प्रतिनिधित्व करने का दावा बीएसपी करती है। मगर, यह भी सच है कि बीएसपी सत्ता में तभी आ सकी है जब उसने एससी के अलावा किसी अन्य वर्ग को अपने साथ जोड़ा है। ब्राह्मण और दलितों का समीकरण बीएसपी के लिए बहुत मुफीद साबित हुआ था जब बीएसपी अपने दम पर पहली बार उत्तर प्रदेश में सत्ता में आयी थी। 2019 के आम चुनाव में भी बीएसपी को मिली 10 सीटों में एससी के साथ-साथ ओबीसी वर्ग के वोटों की बड़ी भूमिका है। यही वजह है कि राजनीतिक रूप से बीएसपी कितना मुखर होगी, इस पर सबकी नज़र है।

यह तय लगता है कि एससी वर्ग योगी सरकार के इस फैसले का विरोध करेगा। मगर, यह भी सम्भव है कि वह एससी वर्ग के लिए आरक्षण का दायरा बढ़ाने की मांग करे क्योंकि योगी सरकार के फैसले के बाद इस वर्ग की आबादी बढ़ जाएगी। डॉ. रविकान्त मानते हैं कि योगी सरकार का फैसला इस प्रतिक्रिया पर निर्भर करने वाला है। प्रतिकूल स्थिति होने पर वह पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार पर भी ठीकरा फोड़ दे सकते हैं जिन्होंने ऐसी ही पहल की थी और जिस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी।

हाईकोर्ट का फैसला आने तक निरर्थक है शासनादेश

यह याद दिलाना जरूरी है कि 2005 में मुलायम सरकार ने इस संबंध में आदेश जारी किया था जिसपर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। 2007 में मायावती सरकार ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया लेकिन बाद में केंद्र सरकार को पत्र लिखा। दिसम्बर 2016 में अखिलेश सरकार की ओर से जारी शासनादेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गयी थी जिस पर अग्रिम आदेश तक स्टे दे दिया गया था। 29 मार्च 2017 को हाईकोर्ट ने यह व्यवस्था दी कि शासनादेश के तहत जारी जाति प्रमाणपत्र कोर्ट के अंतिम फैसले के अधीन रहेगा। जाहिर है योगी सरकार का शासनादेश भी उसी परिधि में आता है। सरकार ने जाति प्रमाण पत्र निर्गत करने को लेकर जिलाधिकारियों को अदालत के निर्देश का ध्यान रखने को भी कहा है। इसका मतलब ये है कि वर्तमान शासनादेश वास्तव में प्रभावी नहीं हो सकता।

वास्तव में योगी सरकार की नयी चाल एसपी-बीएसपी गठजोड़ के जवाब में ही थी। बस इसे लागू करने का वक्त बदल दिया गया। इसका कारण ये है कि अगर लोकसभा चुनाव में यह पहल की जाती, तो उसका असर यूपी से बाहर पूरे देश में होता। बीजेपी ने इससे बचने की कोशिश की। अब विधानसभा उपचुनाव से पहले ओबीसी के लिए एससी वर्ग में शामिल करने का चारा फेंककर बीजेपी ने तगड़ी राजनीतिक चाल चल दी है। इस चाल से सबसे ज्यादा बेबस समाजवादी पार्टी हो जाएगी जो ओबीसी के हितों के नाम पर उठाए गये इस कदम का विरोध नहीं कर पाएगी और राजनीतिक फायदा भी उसे नहीं मिलेगा।

अपनी ही सोच के विरुद्ध बीजेपी!

ओबीसी की 17 जातियों को एससी वर्ग में शामिल करने की पहल खुद बीजेपी की उस सोच के विरुद्ध है जिसमें वह आरक्षित वर्ग के भीतर कमजोर तबके की आवाज़ बुलन्द करने का दावा करती रही है। ओबीसी की ये 17 जातियां निश्चित रूप से ओबीसी में हाशिये पर रही थीं, मगर एससी में वह नेतृत्वकारी भूमिका में आ जाएंगी। ऐसे में एससी के भीतर जो जातियां हाशिये पर रही हैं, उनकी मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। एससी में वे जातियां जो आरक्षण का सबसे ज्यादा लाभ उठाती रही हैं उन्हें भी कड़ी स्पर्धा झेलनी होगी।

जब नरेंद्र मोदी की सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण लागू किया था तो ओबीसी वर्ग नाराज़ न हो, इसका उसने पूरा ध्यान रखा था। बीजेपी ने कहा था कि बगैर आरक्षित वर्ग से छेड़छाड़ के यह पहल की गयी है, किसी का हक नहीं छीना गया है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी इसी वादे से मुकर गयी है। इस बार भी ओबीसी वर्ग को ही खुश करने की कोशिश है। उसे फिक्र नहीं है कि एससी वर्ग का हक इससे छिनने रहा है।

हालांकि आरएसएस से जुड़ीं सामाजिक कार्यकर्ता और ओबीसी की पैरोकार मोनिका अरोड़ा का मानना अलग है। वह कहती हैं, जो काम मुलायम और अखिलेश की सरकार कर रही थी, वही काम अगर योगी आदित्यनाथ की सरकार कर रही है तो इसमें गलत क्या है?ओबीसी के 17 जातियों को एससी में शामिल करने से उन्हें लाभ मिलेगा। इसे राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए।

एससी का मतलब नहीं रह जाएगा दलित!

एससी में शामिल की जा रहीं 17 ओबीसी जातियां हैं निषाद, बिंद, मल्लाह, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, प्रजापति, राजभर, कहार, कुम्हार, धीमर, मांझी, तुरहा और गौड़। अब तक एससी वर्ग में दलित जातियां आया करती थीं जिनके साथ छुआछूत होता आया है। निश्चित रूप से योगी सरकार की पहल के बाद एससी वर्ग का मतलब बदल जाएगा। वास्तव में यह दलित वर्ग नहीं रह जाएगा। यह एससी और ओबीसी वर्ग में फर्क को ख़त्म करने वाला एक्शन है। सवाल ये है कि अगर वास्तव में इन दोनों वर्गों में कोई फर्क नहीं है तो ये वर्ग बने ही क्यों?

एससी वर्ग में चिह्नित जातियां अंग्रेजों के जमाने से हैं। यह समाज का सबसे दबा-कुचला तबका है। इस वर्ग में ओबीसी की जातियों को शामिल करना महज वोट बैंक की राजनीति है। इससे आरक्षित वर्ग का भला नहीं होगा। आरक्षण पाने वाली जातियों में किसी का प्रभुत्व कम या अधिक जरूर होगा और इसलिए यह आपस में लड़ाने वाली पहल है। खासकर नौकरियां नहीं बढ़ने के संदर्भ में इसे देखें तो यह पूरी कवायद ही निरर्थक हो जाती है।

आरक्षण व्यवस्था को बेमतलब बनाने का कुचक्र?

आरक्षण पर बीजेपी धीरे-धीरे उस सोच की ओर बढ़ रही है जहां यह व्यवस्था ही अपना अर्थ खो दे। आरक्षण का आधार आर्थिक कर देना, अनुसूचित जाति यानी एससी की सोच में घालमेल पैदा कर देना और एसबी-ओबीसी में फर्क मिटाना उसी दिशा में कदम है। अब यह बात कायदे से उठायी जाएगी कि आरक्षण का फायदा ले रही जातियां चुनिन्दा हैं, ज्यादातर जातियों को लाभ नहीं मिल रहा है, क्रीमी लेयर का तत्परता से पालन हो, आरक्षण का लाभ ले लेने वाले को दोबारा आरक्षण न मिले। और, इन सबके लिए आरक्षण के पुनर्विचार की जरूरत पर बीजेपी लौटने की ओर बढ़ रही है जिस बारे में आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने बिहार विधानसभा चुनाव से पहले बयान दिया था।

(लेखक प्रिंट और टीवी मीडिया से लंबे समय तक जुड़े रहे हैं और इस समय एक पत्रकारिता संस्थान में पढ़ा रहे हैं। यह उनका निजी विचार-विश्लेषण है।)

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