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कृषि विधेयक: भाजपा को अलग-थलग पड़ जाने की चिंता क्यों करनी चाहिए

राज्यसभा में रविवार 20 सितंबर को अभिनीत उन दृश्यों पर लंबे समय तक चर्चा की जाती रहेगी और अहम मिसाल के तौर पर इसे दर्ज किया जायेगा, जब भाजपा ने संसद और इसके कामकाज की व्यवस्था को ही पलट दिया।
कृषि विधेयक

राज्य सभा के एक आज्ञाकारी उप सभापति, हरिवंश नारायण सिंह की सहायता से दो विवादास्पद कृषि विधेयकों- कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 और मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसानों (सशक्तिकरण और संरक्षण) के क़रार विधेयक को भले ही भारतीय जनता पार्टी पारित करा ले गयी हो, लेकिन सत्ताधारी दल ने अहंभाव से प्रेरित होकर किसान समुदाय का ग़ुस्सा ज़रूर मोल ले लिया है, इसके साथ ही साथ अपने बाक़ी पुराने और वफ़ादार सहयोगी-शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना के लिए अपने दरवाज़े लंबे समय के लिए बंद कर दिये हैं। दो दशक से ज़्यादा पुराने साथी शिवसेना ने तो पिछले साल ही उसका साथ छोड़ दिया था।

राज्यसभा में रविवार 20 सितंबर को अभिनीत उन दृश्यों पर लंबे समय तक चर्चा की जाती रहेगी और अहम मिसाल के तौर पर इसे दर्ज किया जायेगा, जब भाजपा ने संसद और इसके कामकाज की व्यवस्था को ही पलट दिया। जबकि 2014 के बाद से सरकार ने विपक्ष के विरोध के बावजूद इन विधेयकों को जल्दी से पारित कराने के लिए लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया है, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि ऊपरी सदन में भी प्रक्रियात्मक मानदंडों को पालन नहीं किया  गया।

ग़ौरतलब है कि राज्यसभा में भाजपा के पास बहुमत नहीं है और जून 2020 में 61 सीटों के लिए चुनावों के बाद भी भाजपा अपने सहयोगियों के साथ सदन में बहुमत से 10 सीटें कम रह गयी थी। अकाली दल की तरफ़ से केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपनी एकलौती प्रतिनिधि, हरसिमरत कौर बादल के इस्तीफ़े के निर्देश के फ़ैसले के बाद तो यह संख्या और भी बढ़ गयी होगी। हमने हरियाणा में भाजपा के गठबंधन के साथी, दुष्यंत सिंह चौटाला की जननायक जनता पार्टी की बेचैनी को भी देखा है, और ताज़ा घटनाक्रम के बाद तो राज्य सरकार के वजूद के लिए इस पार्टी की इस तरह की असहजता और भी अहम हो जाती है।

इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा के पास इन दो क़ानूनों को सदन में ले जाने के लिए संख्या बल नहीं था और हालांकि विपक्षी दल क़ानूनी रास्ते की तलाश करेंगे, लेकिन सरकार की इस बेशर्मी का राजनीतिक असर भी पड़ेगा। यह कहना जल्दबाज़ी होगा कि इन विधि निर्माणों के ज़रिये हड़बड़ी में इन विधेयकों को पारित कराने के फ़ैसले और इन विवादास्पद विधेयकों को चयन समिति के नहीं दिये जाने का नतीजा अल्पावधि में किस तरह से सामने आयेगा।

हालांकि, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह घटनाक्रम कोविड-19 महामारी, आर्थिक संकट के प्रबंधन से लेकर लद्दाख में चीन के साथ संघर्ष से निपटने जैसे मुद्दों के समूह पर एक नकारात्मक भावनाओं की सामूहिक अभिव्यक्ति की शुरुआत साबित हो सकता है। यह तो वक़्त ही तय करेगा कि इन विभिन्न मुद्दों पर सरकार विरोधी भावना किसी एक मुद्दे के ज़रिये किस तरफ़ जाती है,और ग्रामीण भारत में लोगों के दुखती रग को किस स्तर पर छूती है।

परंपरागत रूप से सुधारों को ग़रीब-विरोधी और अमीर-समर्थक होने के तौर पर देखा गया है और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी प्रमुख आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने को लेकर  सावधानी के साथ चर्चा करते रहे हैं, जिस पर विरोध होता रहा है। इस बात का ख़्याल रखना चाहिए कि इन कृषि विधेयकों का विरोध न सिर्फ़ विपक्षी दलों और एनडीए के साझेदार दलों की तरफ़ से हुआ था, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े उस भारतीय किसान संघ की तरफ़ से भी हुआ था, जो कि सिर्फ़ कृषि से जुड़े मुद्दों पर किसानों के बीच काम करता है।

सरकार के भीतर या विपक्ष के साथ पारदर्शी चर्चा के बिना ही कृषि क्षेत्र में बाज़ार के अनुकूल सुधारों के ज़रिये भाजपा के विवादास्पद आग्रह के चलते रविवार, 20 सितंबर को इन विधेयकों से जुड़ा घटनाक्रम का पटाक्षेप हो गया। इन घटनाक्रमों को तीन नज़रिये से जांचा-परखा जा सकता है।

पहला,साफ़ तौर पर इन दोनों विधेयकों को अपने अंजाम तक पहुंचाने में सरकार और उच्च सदन के उप सभापति की तरफ़ से अपनाया गया आचरण है। इसके स्थगन के बाद सदन में जो शोर-गुल भरे मंज़र भारतीय संसद में दिखायी दिया, वह संसद की गरिमा को एक नये स्तर तक कम करता है और इससे जो छवि का नुकसान हुआ है, उसका सदन पर लंबे समय तक के लिए असर रहेगा, इसके स्थगन के बाद सदन में उत्पन्न होने वाले अपमानजनक दृश्य भारतीय संसद के लिए एक नया स्तर है और इन छवियों पर लंबे समय तक प्रभाव पड़ेगा,यह उसी तरह के हालात की याद दिलाता है, जिस तरह 2011 में राज्यसभा की घटनायें हुईं थीं,जिससे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन शासन के आख़िरी पतन की शुरुआत कर दी थी। यह कहना जल्दबाज़ी होगा कि सरकार के पास इन विधेयकों के पारित होने के बावजूद इसके साथ संख्याबल नहीं होता, तो इसका इसी तरह का व्यापक असर होता या नही। लेकिन, इस बात में कोई शक नहीं कि विपक्ष को एक ठोस अभियान को खड़ा करने को लेकर एक मुद्दा तो मुहैया करा ही दिया है।

दूसरा नज़रिया, जिससे इन घटनाओं का आकलन किया जा सकता है, वह आर्थिक है। " पिछले 70 वर्षों से किसानों को अन्याय से नरेंद्र मोदी की अगुआई में मुक्त करने के सरकार के दावे" के बावजूद, इन नये क़ानूनों की गहन जांच-पड़ताल की जायेगी। अलग-अलग बैनर तले किसानों के प्रदर्शन के सैलाब और भारतीय किसान संघ की तरफ़ से होने वाले विरोध के चलते इतना तो तय है कि सरकार के इस नज़रिये के साथ मौन सहमति तो बिल्कुल ही नहीं हैं कि कृषि क्षेत्र के मौजूदा संकट से बाहर निकलने का रास्ता इसी सरकारी रास्ते से जाता है।

आर्थिक नज़रिये और जिस तरीक़े से इन विधेयकों को पारित कराया गया, उसके अलावा, इन घटनाक्रमों को राजनीतिक चश्मे से इसलिए देखा जाना चाहिए,क्योंकि इससे भाजपा की लोकतांत्रिक अमल के प्रति प्रतिबद्धता और अहम मुद्दों पर आम सहमति बनाने को लेकर अन्य दलों के साथ काम करने की इच्छा को लेकर भी एक समझ बनती है।

इस सिलसिले में 2012 के मध्य में मोदी के साथ हुई मेरी बातचीत का यहां ज़िक़्र करना मुझे ज़रूरी लगता है। हालांकि भाजपा के पास अपने दोस्तों के मुक़ाबले दुश्मनों की संख्या ज़्यादा थी और वह परेशानियों से घिरी हुई थी, और मोदी अभी तक पार्टी के चुनावी फ़ायदा पहुंचाने वाले किसी प्रतीक की तरह और प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर उभरकर सामने नहीं आये थे, मैं उनकी जीवनी पर काम कर रहा था और वह एक अनधिकृत जीवनी के लिए बातचीत करने को लेकर सहमत हो गये थे।

एक सत्र के दौरान मैंने उनसे पूछा था कि क्या वह अगले संसदीय चुनावों में अपनी पार्टी का नेतृत्व करने को लेकर नामांकित होने की स्थिति में सहयोगियों के समर्थन हासिल करने को लेकर आश्वस्त हैं या नहीं। यह मुश्किल सवाल बीजेपी के कई सहयोगियों की पृष्ठभूमि पर आधारित था, सबसे अहम बात यह थी कि नीतीश कुमार व्यक्तिगत तौर पर उनके विरोधी थे। लेकिन उनका जवाब एकदम सरल था:

" 1996 में जब अटलजी पहली बार जब प्रधानमंत्री बने थे,तो हमें उस समय कोई नया सहयोगी नहीं मिला था-अकाली दल और शिवसेना तो पहले से ही हमारे साथ थे। लेकिन,1998 में स्थिति बदल गयी,जबकि पार्टी वही थी, हमारे नेता भी वही थे। लेकिन इस बार, क्योंकि हमें ज़्यादा सीटें मिलीं थीं, और ज़्यादा सहयोगी हमारे पास आये (हंसते हुए)-फिर जब सीटें कम हो गयीं, तो कई सहयोगी हमें छोड़ गये। इसलिए, मुद्दा यह है कि सहयोगी दलों की संख्या हमेशा भाजपा की जीत पर निर्भर करती है। अगर सहयोगी दलों को लगता है कि भाजपा के साथ जुड़ने से ज़्यादा सीटें जीतने की संभावना बढ़ जाती है, तो वे हमारे साथ हाथ मिला लेंगे, भले ही वे चाहे जैसे भी हों। लेकिन, अगर उन्हें लगता है कि बीजेपी बोझ बन जायेगी, तो वे हमें छोड़ देंगे।"

इससे एकदम साफ़ हो गया था कि मोदी का मानना था कि गठबंधन अपने आप में कुछ होता नहीं,बल्कि गठबंधन लेन-देन का रिश्ता कहीं ज़्यादा होता है। यह गुजरात की खांटी व्यापारिक मानसिकता को परिलक्षित करता है, जहां ज़्यादातर रिश्तों को पूरी तरह से फ़ायदे और नुकसान के नज़रिये से तौला-मापा जाता है। राजनीति और गठबंधन पूरी तरह से 'फ़ायदे' के लिए होते हैं, न कि विकास (विकास) या परिवर्तन (परिवर्तन) के लिए।

प्रधानमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में ज़्यादातर सहयोगियों के साथ मोदी का रिश्ता सामंजस्यपूर्ण नहीं था। मोदी की अगुआई में बीजेपी ने अपने सहयोगियों को अपने पांव तले दबाकर इसलिए रखा, क्योंकि बीजेपी के पास अपना ख़ुद का बहुमत था। बीजेपी के नेता अहंकार से भरे हुए थे, क्योंकि बने रहने के लिए वे सहयोगी दलों पर निर्भर नहीं थे।

गठबंधन के साझेदारों के साथ एनडीए भागीदारों के बीच अहम फ़ैसलों और समन्वय समिति की बैठकों में परामर्श नहीं किया जाता था, इससे उनके बीच कुछ और दूरी बढ़ी थी। कई छोटे-छोटे साझेदारों ने एनडीए को छोड़ दिया था, मिसाल के तौर पर बिहार में जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीए से अपना नाता तोड़ लिया था। 2018 से यह दिखायी देने लगा कि 2019 के संसदीय चुनाव किसी एक-मुद्दे पर आधारित चुनाव नहीं होगा,बल्कि राज्यों के सामूहिक मुद्दों पर आधारित चुनाव होगा। इसका नतीजा यह हुआ कि जब 2019 की शुरुआत में सीट पर बातचीत शुरू हुई, तो भाजपा ने अपने सबसे बड़े सहयोगी, शिवसेना और जनता दल (यू) को रियायतें दे दीं।

हालांकि, पुलवामा में आतंकवादी हमले और बालाकोट में सरकार की जवाबी हमले ने चुनाव के इस कथानक को बदलकर रख दिया और मोदी के लिए व्यक्तिगत रूप से यह तुरुप का पत्ता साबित हुआ। नतीजतन, पार्टी के भीतर एक बार फिर दंभ आ गया। महाराष्ट्र में राज्य चुनावों के बाद भाजपा के साथ शिवसेना की साझेदारी के फ़ैसले के तरीक़े में बदलाव आया, यह बदलाव कई भाजपा नेताओं, ख़ास तौर पर अमित शाह और देवेंद्र फड़नवीस की तरफ़ से उद्धव ठाकरे को लेकर अपनाये गये तिरस्कारपूर्ण रवैये के चलते आया। ग़ौरतलब है कि दोनों पक्षों के बीच नीति को लेकर किसी तरह के कोई अहम मतभेद नहीं थे।

भाजपा और शिवसेना वैचारिक सफ़र के साथी अब भी बने हुए हैं, और यही बात महाराष्ट्र में इसके गठबंधन के नेता के साथ वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं की असहजता का कारण है। लेकिन, भाजपा ने ठाकरे के साथ इस टूटे हुए रिश्तों को फिर से जोड़ने को लेकर किसी तरह का कोई काम नहीं किया है। इसके उलट, बॉलीवुड में सुशांत सिंह राजपूत के दुखद निधन के बाद की स्थिति को जिस तरह भाजपा ने संभाला है और कंगना रनौत जैसे उस ढीले-ढाले प्रशंसकों को आगे करने में जिस तरह से पार्टी की भूमिका रही है, जैसा कि कंगना का रवैया महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और उनके परिवार के प्रति व्यक्तिगत तौर पर अपमानजनक रहा है, इन घटनाक्रमों ने बीजेपी और शिवसेना के बीच तालमेल की खुली संभावनाओं को कम कर दिया है।

यह 2019 के चुनावों के बाद किसी प्रमुख भाजपा सहयोगी का किसी नीतिगत मुद्दे पर अलग-अलग रुख़ की एक दूसरी मिसाल है। पिछले साल की शुरुआत में, जद (यू) नागरिकता संशोधन अधिनियम के मुद्दे पर सरकार के साथ सहमत नहीं थी और अब अकाली दल ने ऐसे मुद्दे पर असहमति जता दी है,जिसका सीधा-सीधा असर उसके मुख्य निर्वाचन क्षेत्र पर पड़ता है। अकाली दल अगले कुछ हफ़्तों में एनडीए में अपने बने रहने को लेकर समीक्षा करेगा और अगर लंबे समय तक साथी रहे ये पार्टियां अलग-अलग रहने का फ़ैसला करती हैं, तो इससे शहरी पंजाब में भाजपा की संभावनायें प्रभावित होंगी।

संघ परिवार के भीतर संभावित विरोध के अलावा,बीजेपी इस समय बड़े राज्यों में किसी बड़े सहयोगी के नहीं होने के जोखिम का सामना कर रही है। फिलहाल, इस समय जद (यू) को छोड़कर भाजपा बड़े-बड़े राज्यों में छोटे-छोटे सहयोगियों के साथ बनी हुई है। लोकसभा में सहज बहुमत होने के बावजूद इसके राजनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ने की संभावना रहेगी और अगर जनता का मूड शासन के ख़िलाफ़ हो जाता है, तो भाजपा के सामने जल्द ही कहीं बड़ी चुनौती पेश होगी। 

लेखक दिल्ली स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं। कई पुस्तकों के अलावा, इन्होंने नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स पुस्तक भी लिखी है। इनका ट्वीटटर अकाउंट है-@NilanjanUdwin

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Farm Bills: Why BJP Should Worry About Facing Isolation

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