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भारत
राजनीति
सी ए ए का विरोध कर रहे मुसलमानों की तरह किसानों, सिखों को निशाने पर नहीं लिया जा सकता
सीएए का विरोध और कृषि क़ानूनों के विरोध के बीच की तुलना हिंदुत्व की सीमाओं को दर्शाती है।
अजाज़ अशरफ
04 Dec 2020
सी ए ए का विरोध कर रहे मुसलमानों की तरह किसानों, सिखों को निशाने पर नहीं लिया जा सकता

नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ मुसलमानों के विरोध से लेकर तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों के विरोध तक में मोदी सरकार के आम लोगों को इन विरोधों के विरोध में भड़काने और फिर उन पर ख़ास तरह का ठप्पा लगाने को लेकर अपने इरादे दिखा दिए हैं। इसकी कार्यप्रणाली ने एक जाना-पहचाना पैटर्न अख़्तियार कर लिया है: आबादी के एक हिस्से को नुकसान पहुंचाने वाले किसी क़ानून को पारित करना, इसके बाद इनको भारत के लिए फ़ायदेमंद बताना,इन क़ानूनों से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होने वाले लोगों को चुप कराने को लेकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना। और इस सबके बावजूद भी अगर वे विरोध के लिए सड़कों पर उतर जाते हैं, तो उन्हें ऐसे राष्ट्रविरोधी तत्वों के रूप में पेश कर देना,जिनका व्यापक हित में दमन किया जाना चाहिए या जिन्हें जेल में डाल दिया जाना चाहिए।

यही वह पटकथा थी,जिसे मोदी सरकार ने सीएए विरोध को ख़त्म करने के लिए इज़ाद की थी,बेशक कोविड महामारी के मद्देनज़र लगाये गये लॉकडाउन से इसमें उन्हें मदद मिली थी। मोदी सरकार तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे किसानों के विरोध को कमज़ोर करने के लिए भी इसी इसी पटकथा का तबतक अनुसरण करती रही,जब तक कि सरकार ने किसान नेताओं के साथ बातचीत शुरू करने का फ़ैसला नहीं कर लिया,यहां तक कि इस बातचीत की बैठक की तारीख़ पहले 3 दिसंबर तय थी,उसे 1 दिसंबर कर दिया गया। सीएए और कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों का एक तुलनात्मक अध्ययन उन परिस्थितियों को सामने लाता है,जिनमें प्रदर्शनकारियों को अलग-थलग करने को लेकर मोदी सरकार की यह रणनीति नाकाम रही है, हालांकि अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगा कि यह सरकार अपने अलोकतांत्रिक आचरण में सुधार लाने के लिए तैयार है भी या नहीं।

मोदी सरकार ने जिस तरह से सीएए और कृषि क़ानूनों को अधिनियमित किया था,वह निश्चित रूप से अलोकतांत्रिक था। ऐसा करते हुए सरकार ने उन लोगों को भरोसे में नहीं लिया था, जिन पर इन क़ानूनों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ना था। इन विवादास्पद क़ानूनों को ऐसे निर्विवाद क़ानूनों की तरह पेश किया गया था,जिन्हें या तो स्वीकार किया जाना था या फिर जिसे लेकर राज्य की तरफ़ से मिलने वाले झटके का सामना करने के लिए तैयार रहना था।

जहां तक सीएए की बात है,हक़ीक़त तो यही है कि भारतीय जनता पार्टी का इस क़ानून को पारित करने का एक मक़सद मुसलमानों को परेशान करना था। इसके नेता भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर को तैयार करने के इरादे से आवाज़ उठा रहे थे। उन्होंने हिंदुओं को बार-बार इस बात का भरोसा दिया था कि उन्हें एनआरआईसी की उस क़वायद से डरने की ज़रूरत नहीं है,क्योंकि उनके हितों को सुरक्षित करने के लिए ही सीएए को लागू किया जायेगा। सीएए को 11 दिसंबर को संसद में पारित कर दिया गया था। इस बात का डर था कि जिनके पास एनआरआईसी में शामिल होने को लेकर अपेक्षित दस्तावेज नहीं होंगे, उन्हें आगे चलकर सीएए के सुरक्षात्मक छतरी से बाहर कर दिया जायेगा,इसी आशंका ने मुस्लिम नौजवानों को सड़कों पर उतार दिया। पुलिस ने स्टन ग्रेनेड और आंसू गैस के गोले दागे और दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों की बेरहमी से पिटाई की गयी। सरकार,प्रदर्शन कर रहे लोगों को संदेश दे रही थी- “हमारे पास बहुमत है। हमारी बातें मान लो।”

पहले क़ानून बनाओ, फिर समझाओ

इसके उलट,शुरू में अध्यादेशों के ज़रिये लागू किये जाने वाले इन तीन कृषि क़ानूनों को पारित करने के लिए  सरकार ने कोविड महामारी का फ़ायदा उठाया। टीम मोदी ने सोचा था कि जगह-जगह सोशल डिस्टेंसिंग के नियम लागू होने के चलते किसानों को विरोध करने से हतोत्साहित किया जायेगा। अगर वे इसके बावजूद सड़कों पर उतरना चाहें,तो उन्हें इसकी अनुमति देने से इनकार किया जा सकता है या फिर नॉवेल कोरोनावायरस के फ़ैलने से रोकने को लेकर उन्हें जबरन तितर-बितर भी किया जा सकता है। इसी नज़रिये के तहत हरियाणा में चल रही किसानों की एक बैठक पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया था।

उस पंजाब में इन तीनों क़ानूनों के ख़िलाफ़ असंतोष की आवाज़ें जैसे ही उठी,जिस पर भाजपा का शासन नहीं है, तो मोदी सरकार ने ज़ोर देते हुए कहा कि सरकार के ये विधायी क़दम से किसान समृद्ध होंगे,ख़ासकर उन लोगों को इससे फ़ायदा पहुंचेगा,जो सीमांत किसान हैं या फिर छोटे-छोटे जोत वाले भू-स्वामी हैं। सरकार की इस धारणा को मीडिया ने पूरे फ़र्ज़ के साथ आगे बढ़ाया। हालांकि,हक़ीक़त सरकार के दावों के ठीक उलट है। पंजाब में अपने शोध कार्य पर आधारित एक लेख में श्रेया सिन्हा दिखाती हैं कि पंजाब में कृषि संकट वर्ग, जाति और लिंग से कहीं आगे का मामला है, यही वजह है कि किसानों की यूनियनें कृषि पर निर्भर लोगों को व्यापक रूप से लामबंद करने में सक्षम रही हैं। एकदम प्रासंगिक सवाल तो यही है कि इन क़ानूनों के अधिनियमन के बाद ही इन विधायी उपायों के फ़ायदे की व्याख्या क्यों की जा रही है  ? सवाल यह भी है कि बिना बहस के संसद के बेहद छोटे से सत्र के दौरान इन क़ानूनों को पारित क्यों किया गया ?

पंजाब के नाराज़ किसानों ने रेलवे की पटरियों पर बैठना शुरू कर दिया, जिससे राज्य में ट्रेनों की आवाजाही तक थम गयी।

दूसरे असंतोष

आइये,एक बार फिर 2019 की सर्दियों को याद करें। जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों के साथ बेरहमी से पिटाई करने के बाद,शाहीन बाग़ की महिलाओं ने दिल्ली से नोएडा को जोड़ने वाले दोनों तरफ़ की सड़कों के एक हिस्से पर कब्ज़ा जमा लिया था,इन दोनों के बीच गर्भनाल जैसा सम्बन्ध है। उनके उस विरोध में इस बात की मांग की गयी थी कि सरकार को समान नागरिकता को लेकर उनके संवैधानिक अधिकार का सम्मान करना चाहिए, इस मांग को जगह-जगह संविधान के प्रस्तावना के पढ़े जाने ज़रिये देश के सामने रखा गया था। शाहीन बाग़ में हो रहे विरोध की इसी तर्ज पर देश भर में इस प्रक्रिया को दोहराया गया था। ये शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन थे। सही बात तो यही है कि सीएए को लेकर सिर्फ़ राज्य उत्तर प्रदेश, असम और कर्नाटक में हिंसा भड़की थी और इन राज्यों में बीजेपी का शासन था। दिल्ली में भी पुलिस पर केंद्र सरकार का ही नियंत्रण है।

जल्द ही एक नयी धारणा सामने आ गयी। तर्क दिया गया कि शाहीन बाग़ की सड़कों पर कब्ज़ा जमाने से मुसाफ़िरों को असुविधा हो रही है और शहर का ट्रैफ़ीक जाम हो गया है। क्या ये महिलायें कहीं और नहीं जा सकती हैं-मसलन, जंतर मंतर,जिसे आधिकारिक तौर पर विरोध स्थल के रूप में ही ख़ास तौर पर रखा गया है ? क्या उन लोगों को हो रही असुविधा को लेकर यह न्यायसंगत है,जिनका सीएए विरोध से किसी तरह का कोई लेना-देना तक नहीं है ?

पंजाब में कांग्रेस की सरकार प्रदर्शनकारियों को रेल ट्रैक से हटाने के लिए तैयार नहीं थी। जैसे ही राज्य का कोयला और पेट्रोलियम का स्टॉक ख़त्म होने लगा, प्रदर्शनकारी मालगाड़ियों के चलाये जाने को लेकर सहमत हो गये। ऐसा नहीं कि भारतीय रेल इन सबके बीच नहीं आया।रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष,वीके यादव ने कहा,“अगर ट्रैक बाधित नहीं हैं, तो ये ट्रैक माल और यात्री,दोनों ट्रेनों के लिए बाधित नहीं हैं। हम अनुरोध करते हैं कि रेलगाड़ियों को रेलवे के लिए छोड़ दिया जाये।”  

मोदी सरकार की इस स्थिति की व्याख्या लोगों को हो रही असुविधा को लेकर जानबूझकर किये गये उसी प्रयास के तौर पर की गयी,जिस तरह का प्रयास प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ आम लोगों को खड़ा करने के लिए किया गया था,यह चाल दिल्ली की बनायी रणनीति से चली गयी थी। शाहीन बाग़ के आसपास से गुज़रने वाली सड़कों को जाम करने के लिए उन्हें ग़ैर-ज़रूरी तरीक़े से अवरुद्ध किया गया था,मगर,इसके लिए उस समय सीए-विरोधी प्रदर्शनकारियों पर दोष मढ़ दिया गया गया था। सुप्रीम कोर्ट में दिये गये अपने हलफ़नामे में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष,वजाहत हबीबुल्ला ने कुछ इस तरह कहा था,“ ऐसी कई सड़कें हैं, जिनका इस विरोध से कोई लेना-देना नहीं है, पुलिस बेवजह उन पर बैरिकेडिंग की हुई है,पुलिस अपनी ज़िम्मेदारियां और ड्यूटी नहीं निभा रही है और विरोध करने वालों पर ग़लत तरीक़े से दोष मढ़ रही है।”

दिसंबर 2019 के आख़िर में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने रामलीला ग्राउंड में दिये अपने एक भाषण में इस बात का ऐलान किया था कि सीएए मुसलमानों से नागरिकता नहीं छीनेगा। ज़ाहिर है,लेकिन उन्होंने अमित शाह के उन पिछले दावों की व्याख्या नहीं की,जिनमें शाह ने कहा था कि सीएए-एआरआईसी को घुसपैठियों को भगाने के लिए बनाया गया है, घुसपैठिये असल में भारत के मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किया गया एक कोडवर्ड था। सरकार ने विरोध करने वाले मुसलमानों तक पहुंचने की कोई ईमानदार कोशिश भी नहीं की। जैसे ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां तेज़ हुईं, वैसे ही शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों से होने वाली दिल्लीवासियों की असुविधाओं की जगह मुस्लिम कट्टरता के रूपक ने ले ली। शाह सहित उनके नेताओं ने मुसलमानों को ख़तरे की तरह पेश करना शुरू कर दिया। हालांकि भाजपा उस विधानसभा चुनाव को जीतने में तो नाकाम रही,लेकिन फ़रवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में उस कथित असुविधा की जगह सांप्रदायिक दंगों ने ले ली।

सिखों की ख़तरनाक छवि गढ़ने की कोशिश  

किसानों के विरोध प्रदर्शन को रोकने वाली मोदी सरकार की रणनीति में भी इनमें से कई तत्व मौजूद हैं। चूंकि किसान पंजाब से दिल्ली तक आने का रास्ता ट्रैक्टरों,ट्रकों और बसों से तय कर रहे थे, लेकिन उन तमाम रास्तों में बैरिकेड्स खड़े कर दिये गये और सड़कें खोद दी गयीं,ताकि उन्हें दिल्ली पहुंचने से रोका जा सके। उन पर पानी की तोपों की बौछारें की गयीं,यहां तक कि उन्हें कई जगहों पर पीटा भी गया। फिर भी,प्रदर्शनकारी रुके नहीं। उनका मक़सद रामलीला ग्राउंड या जंतर-मंतर तक पहुंचना था,ताकि वे राजधानी में रहने वाले देशवासियों को इन कृषि क़ानूनों को लेकर अपनी चिंता से अवगत करा सके। लेकिन,उन्हें वहां तक पहुंचने नहीं दिया गया, और प्रशासन ने उन्हें बुरारी जाने के लिए कहा। किसानों ने प्रशासन के इस आदेश को अपने विरोध प्रदर्शन को लोगों की नज़र में नहीं आने देने की कोशिश के तौर पर देखा,यह ठीक उसी तरह की कोशिश थी,जिस तरह शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों को लोगों को हो रही असुविधा के हवाले से सलाह दी गयी थी कि उन्हें दिल्ली-नोएडा लिंक रोड से हट जाना चाहिए।

जैसे-जैसे किसान का सफ़र आगे बढ़ता गया और वे दिल्ली पहुंच गये, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सहित भाजपा नेताओं ने उन्हें ख़ालिस्तान समर्थक और नक्सली की तरह दिखाना-बताना शुरू कर दिया। प्रदर्शनकारियों को ख़ालिस्तान समर्थक,पाकिस्तान समर्थक और मोदी विरोधी नारे लगाते हुये दिखाने को लेकर कई फ़र्ज़ी तस्वीरें और वीडियो सामने लाये गये। दक्षिणपंथी पोर्टल,ओपइंडिया ने एक आलेख छापा,जिसका शीर्षक था-"जय हिंद नहीं कहेंगे, मोदी को उसी तरह का सबक सिखायेंगे,जैसे हमने इंदिरा को सिखाया था।" उनका प्रयास प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय भावना भड़काकर उन्हें राष्ट्र-विरोधी के तौर पर चित्रित करना था।

इसके बावजूद,इस मौक़े पर भाजपा ने बिना किसी शर्त किसानों के साथ बातचीत करने का फ़ैसला किया। ऐसा क्यों किया,इसके पीछे की वजह को लेकर सोच पाना मुश्किल नहीं है। भजाप को जब यह महसूस हो गया कि दिल्ली के बाहर डेरा जमाये हुए किसानों में न केवल सिख किसान हैं, बल्कि हिंदू भी हैं, भाजपा ने संभवतः तभी राष्ट्र के इस भरोसे को स्वीकार किया कि प्रदर्शनकारी न राष्ट्र विरोधी हैं और न ही वे विपक्ष की धुन पर नाच रहे हैं। ऐसा इसलिए भी हुआ,क्योंकि किसानों के विरोध की यह अनुगूंज उत्तर भारत के उस कृषि क्षेत्र में भी सुनायी दी,जहां भाजपा ने 2019 के राष्ट्रीय चुनाव में भारी जीत दर्ज की थी।

हिंदुत्व की सीमा

कहा जा सकता है कि भाजपा का हिंदुत्व का यह हथियार आर्थिक हितों से मज़बूती के साथ बंधे सामाजिक समूहों को विभाजित करने में नाकाम रहा। वास्तव में पिछले छह सालों में एक बार ही सही,लेकिन,हितों की राजनीति पहचान की राजनीति से मात खाती हुई दिख रही है। हिंदुत्व की सीमा को उजागर होने देने के बजाय, मोदी सरकार ने किसानों के साथ बातचीत करना ही उचित समझा।

एक दशक तक उग्रवादी-अलगाववादी द्वारा पंजाब को हिलाकर रख देने के बावजूद सिखों की छवि को मटियामेट कर पाना आसान नहीं है। हिंदुत्व को शायद हिंदू-सिख रिश्तों की कल्पना तक नहीं है, क्योंकि यह हिंदू-मुस्लिम संघर्षों वाले सम्बन्धों की तरह नहीं है। सिक्खों को अक्सर हिंदुओं के लड़ाकू अंग की तरह दर्शाता जाता है; भारतीय होने की उनकी परिभाषा में सिख भी इसलिए शामिल हैं, क्योंकि भारत उनकी पवित्र भूमि और जन्मभूमि,दोनों है। पंजाब के किसानों की समस्याओं को लेकर ताक़त का इस्तेमाल इस राज्य को अशांत कर सकता है और इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा हो सकता है। पंजाब,पाकिस्तान की सीमा पर स्थित है। पंजाब से होकर ही उस कश्मीर की तरफ़ भी सबसे सुगम रास्ता जाता है,जो अन्यथा भारत से अलग-थलग है। एक अशांत पंजाब और एक असंतुष्ट कश्मीर को एक साथ संभाल पाना किसी भी शासन के लिए बहुत मुश्किल हो सकता है, ख़ासकर तब,जब चीन का साया लद्दाख पर मंडरा रहा हो। एक अशांत पंजाब ख़ुद के सामाजिक रिश्तों को एक संघर्ष में भी बदल सकता है, जहां हिंदुओं की आबादी राज्य की आबादी का 38 प्रतिशत है।

फिर भी,यह बात समझ से बाहर है कि मोदी सरकार इन तीन कृषि क़ानूनों को वापस ले लेगी,क्योंकि वह इसमें किसी तरह के सुधार लाने के बजाय त्रुटियों के साथ बनाये रखना चाहती है। अब तक तो यह बता पाना मुश्किल ही है कि मोदी सरकार का किसानों के साथ बातचीत करने का यह फ़ैसला महज एक पीआर क़वायद तो नहीं, जिसे ग़ैर-कृषक जनता को यह यक़ीन दिलाने के लिए अंजाम दिया जा रहा हो कि वह असंतुष्टों को सुनने के लिए तैयार है, या फिर किसानों की आशंका और उनकी शिकायत के निवारण की एक सचमुच की कोशिश है। यही उम्मीद की जा सकती है कि देर से ही सही भाजपा को अब तक समझ में यह बात आ गयी होगी कि सिखों और किसानों के इस विरोध को दबा पाना इतना भी आसान नहीं है,जितनी आसानी से सीएए को लेकर मुसलमानों की बेचैनी से पार पा लिया गया था।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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