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देवेंद्र सत्यार्थी : भारत की आत्मा को खोजने वाला लोकयात्री

जयंती विशेष: ‘‘सत्यार्थी जी निरंतर गाँव-गाँव भटककर, लोकगीतों के संग्रह के जरिए भारत की आत्मा की जो खोज कर रहे हैं, वही तो आज़ादी की लड़ाई की बुनियादी प्रेरणा है...’’
Devendra Satyarthi
देवेंद्र सत्यार्थी। फोटो साभार: गूगल

देवेंद्र सत्यार्थी एक विलक्षण इंसान थे। पूरे हिंद उपमहाद्वीप में उनकी जैसी शख़्सियत शायद ही कोई दूजी हो। उर्दू-हिंदी-पंजाबी ज़बान के वे एक अज़ीम अदीब थे। मगर इन सबसे अव्वल उनकी एक और शिनाख़्त थी, लोकगीत संकलनकर्ता की। अविभाजित भारत में उन्होंने पूरे देश में ही नहीं बल्कि भूटान, नेपाल और श्रीलंका तक घूम-घूमकर विभिन्न भाषाओं के तीन लाख से ज्यादा लोकगीत इकट्ठा किये थे। यह एक ऐसा कारनामा है, जो उन्हीं के नाम पर रहेगा। इसे दोहराना किसी के वश की बात नहीं।

देवेंद्र सत्यार्थी की एक किताब का नाम है, ‘मैं हूं ख़ाना-ब-दोश’। हक़ीक़त में वे ख़ाना-ब-दोश ही थे, जिन्होंने पूरी ज़िंदगानी ख़ानाबदोशी में ही गुज़ार दी। उनकी बीवी और दोस्तों को भी यह मालूम नहीं होता था कि वे घर से निकले हैं, तो कब लौट कर वापस आयेंगे।

लोकगीतों के जानिब देवेंद्र सत्यार्थी की दीवानगी और जुनून कुछ ऐसा था कि उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी इन्हीं को इकट्ठा करने में कुर्बान कर दी। एक-एक गीत को इकट्ठा करने में उन्होंने कई तकलीफ़ें, दुःख-दर्द सहे पर हिम्मत नहीं हारी। अपने पीछे वे लोकगीतों का एक ऐसा सरमाया छोड़ कर गये हैं, जिसकी दौलत कभी कम नहीं होगी। इन लोकगीतों का यदि अध्ययन करें, तो इनमें भारत की सभ्यता, संस्कृति, कला, रहन-सहन, रीति रिवाज, ऋतुएं, त्योहार, शादी-विवाह, खेतीबाड़ी आदि को आसानी से समझा जा सकता है। इन लोकगीतों में जैसे ज़िंदगी धड़कती है।

28 मई, 1908 को पंजाब के संगरूर जिले के भदौड़ में जन्मे देवेंद्र सत्यार्थी का असली नाम देव इंद्र बत्ता था। आला तालीम के वास्ते परिवार ने बड़े शौक से डीएवी कॉलेज लाहौर में उनका एडमिशन करवाया लेकिन वहां देवेन्द्र सत्यार्थी का दिल नहीं लगा। जब उनकी उम्र महज उन्नीस बरस थी, तब कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वह अपने घर से निकल गए। घर छोड़ने का मक़सद, लोकगीतों के प्रति उनकी दीवानगी और हद दर्जे का जुनून था। शायर इक़बाल, लेनिन और गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर वे शख़्सियत थे, जिनका देवेंद्र सत्यार्थी की जिंदगी पर काफ़ी असर रहा।

वे नौ-उम्र ही थे, जब उन्होंने खु़दकुशी का इरादा कर लिया था। कुछ दोस्तों को जब यह बात मालूम चली, तो वे उन्हें पकड़ कर अल्लामा इक़बाल के पास ले गये। इक़बाल ने समझाया, तब जाकर उन्होंने खु़दकुशी का ख़याल अपने दिल से निकाला।

बहरहाल, लेनिन की तालीमात से वाकिफ़ होकर, उनमें लोकगीतों को जमा करने की ख़्वाहिश जागी। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर को जब देवेन्द्र सत्यार्थी ने अपने मन की बात बताई, तो उन्होंने उनके इस ख़याल को न सिर्फ़ सराहा, बल्कि हौसला-अफ़ज़ाई भी की।

देवेंद्र सत्यार्थी के इस अजीब जुनून में उनके भाषाओं के ज्ञान ने काफ़ी मदद की। उन्हें कई भाषाएं आती थीं। अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू गुरुमुखी यानी पंजाबी के अलावा तमिल, मराठी, गुजराती पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। मौक़ा पड़ने पर वे किसी भी भाषा या बोली में संवाद कर सकते थे। अलबत्ता किसी भाषा की जानकारी न होने से उनके काम में कभी रुकावट नहीं आई। वे जहां जाते वहां किसी को भी पकड़ कर, उससे उन गीतों का अनुवाद जानते और उसे लिपिबद्ध कर देते।

यायावर देवेंद्र सत्यार्थी ने बरसों बरस बिना रुके, बिना थके घूम-घूमकर देश के कोने-कोने, गाँव-गाँव की यात्रा की और अनेक भाषाओं व क्षेत्रीय बोलियों के लाखों लोकगीत इकट्ठे किए। एक-एक लोकगीत के लिए उन्होंने बेहद मेहनत की। बिना किसी सहारे के अपने मक़सद में लगे रहे। शुरुआत पंजाबी लोकगीतों से की और उसके बाद दीगर भाषाओं के लोकगीत ख़जाने की तरफ़ बढ़े।

भारत की तमाम भाषाओं के लोकगीत इकट्ठे हो गए, तो पड़ोसी देशों की लोक संस्कृति और लोकगीतों की जानने की चाहत जागी, उन्हें इकट्ठा करने निकल लिए। इस लोकयात्री ने तक़़रीबन 50 भाषाओं के हज़ारों गीतों का ऐसा ख़जाना तैयार किया है, जो साहित्य की अमूल्य निधि है। अकेले ‘लोकगीत’ ही नहीं ‘लोककथा’, ‘लोक साहित्य’, ‘लोककला’ और ‘लोकयान’ जैसे शब्दों के हिंदी में प्रचलन का श्रेय भी देवेंद्र सत्यार्थी को ही जाता है।

अपने ज़माने में उनके लोकगीत संबंधी लेख, और इकट्ठा किये लोकगीत देश भर की मशहूर पत्र-पत्रिकाओं मसलन ‘विशाल भारत’, ‘मॉडर्न रिव्यू’ और ‘एशिया’ में एहतिराम के साथ छपते थे। देवेंद्र सत्यार्थी के ये लेख ‘मॉडर्न रिव्यू’ जैसी दुनिया भर में मशहूर मैगजीन में जब छपने को जाते, तो इस मैगजीन के एडिटर रामानंद चटर्जी का अपने एडिटोरियल डिपार्टमेंट को यह साफ़ हुक्म था, ‘‘सत्यार्थी जी द्वारा किए गए लोकगीतों के अनुवाद का एक भी शब्द इधर से उधर न किया जाए और न उन्हें बदला जाए। इसलिए कि लोकगीतों के हृदय को सत्यार्थी जी और उनके लिखे अल्फ़ाज़ ही सबसे बेहतर ढंग से खोल सकते हैं, कोई और नहीं।’’

देवेंद्र सत्यार्थी ने अपनी अटूट लगन और बेमिसाल काम से यह विश्वसनीयता और इज़्ज़त कमाई थी। बावजूद इसके उन्हें अपने इस काम का किसी भी तरह का कोई अहंकार नहीं था। वे हमेशा विनम्र बने रहे। अपने पहले लोकगीत-अध्ययन ‘धरती गाती है’ की भूमिका में उन्होंने बड़े ही विनम्रता और सादगी से यह बात लिखी है, ‘‘आज सोचता हूँ कि कैसे इस लघु जीवन के बीस बरस भारतीय लोकगीतों से अपनी झोली भरने में बिता दिए, तो चकित रह जाता हूँ। कोई विशेष साधन तो था नहीं। सुविधाओं का तो कभी प्रश्न नहीं उठा था। फिर भी एक लगन अवश्य थी, एक धुन। आज सोचकर भी यह कहना कठिन है कि नए-नए स्थान देखने, नए-नए लोगों से मिलने की धुन अधिक थी या वस्तुतः लोकगीत-संग्रह करने की धुन। जो भी हो, मैंने निरंतर लंबी-लंबी यात्राएँ कीं। कई जनपदों में तो मैं दो-दो, तीन-तीन बार गया। इन्हीं यात्राओं में मैंने शिक्षा की कमी को भी पूरा किया।’’

देवेंद्र सत्यार्थी ने जो लोकगीत इकट्ठा किए उनमें प्रेम, विरह, देशप्रेम, भाईचारा, गुलामी की फांस, साहूकारों-जमींदारों का शोषण और अंग्रेजी सरकार के विरोध के रंग भरे पड़े हैं, तो दूसरी तरफ अकाल, बाढ़ और सूखे के वर्णन भी हैं।

देवेन्द्र सत्यार्थी ने एक मर्तबा अंग्रेजी राज में हाहाकार करते देशवासियों के दर्द को बयां करते हुए, यह लोकगीत सुनाया, ‘‘रब्ब मोया, देवते भज्ज गए, राज फिरंगियाँ दा।’’ इस गीत को जब महात्मा गाँधी ने सुना, तो उन्होंने बेसाख़्ता यह टिप्पणी की, ‘‘अगर तराजू के एक पलड़े पर मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण रख दिए जाएं और दूसरे पर अकेला यह लोकगीत, तो लोकगीत वाला पलड़ा ही भारी रहेगा।’’ देवेन्द्र सत्यार्थी की अज़्मत बतलाने के लिए यह सिर्फ़ एक बानगी भर है। वरना उनकी ज़िंदगी से जुड़े हुए ऐसे कई दिलचस्प और हैरान कर देने वाले किस्से हैं, जिन्हें बयां किया जाए, तो एक किताब भी कम पड़ जाये।

घुमक्कड़ी के दौरान देवेंद्र सत्यार्थी की मुलाकातें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से होतीं। वे उनसे लंबी चर्चाएं करते। सत्यार्थी के काम की वे हमेशा सराहना करते और हौसला-अफ़ज़ाई भी। देवेंद्र सत्यार्थी की ज़िंदगी में एक दौर ऐसा भी आया था, जब शांति निकेतन उनके लिए दूसरे घर सरीखा हो गया। गुरुदेव उन्हें अक्सर शाम की चाय पर बुलाया करते थे। राजनेता ही नहीं देश के बड़े साहित्यकार साहिर लुधियानवी, सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, रेणु और हरिवंश राय बच्चन आदि भी उनके बहुविध लेखन, लोकगीतों के प्रति समर्पण और उनकी बेदाग निष्ठा के लिए उन्हें मान-सम्मान देते थे।

मशहूर शायर-नग़मा निगार साहिर लुधियानवी ने अपनी ज़िंदगी में सिर्फ़ एक ही संस्मरण लिखा और वह सत्यार्थी पर ही था। इस संस्मरण में वे एक जगह अपने दोस्त देवेन्द्र सत्यार्थी से जज़्बाती अंदाज़ में मुख़ातिब होते कहते हैं, ‘‘तुमने इन गीतों को गांव के सीमित वातावरण से निकाल कर असीमित कर दिया है। तुमने एक मरती हुई सभ्यता की गोद में महकने वाले फूलों को खि़ज़ां के हाथों मिटने से बचा कर उनकी महक को अमर बना दिया है। यह तुम्हारा कारनामा है, आज़ाद और इश्तिराकी हिंदुस्तान में जब शिक्षा आम हो जायेगी और औद्योगिक जीवन शबाब पर होगा तो यही किसान जो आज तुम्हारे ख़यालों में तुम्हें जलती हुई आंखों से घूरते हैं, तुम्हें मुहब्बत और प्यार से देखकर मुस्करायेंगे। उनके बच्चे तुम्हें श्रद्धा और सम्मान भाव से याद करेंगे और फु़र्सत के लम्हों में तुम्हारे इन लेखों और कहानियों को पढ़ेंगे। जिनमें तुमने उनके पूर्वजों के दिल की धड़कनें समो दी हैं और एक बार फिर वे उस सभ्यता की झलकियां देख सकेंगे, जो उस वक़्त नापैद हो चुकी होगी।’’ (‘तरक़्क़ीपसंद सत्यार्थी’, लेखक-साहिर लुधियानवी, त्रैमासिक ‘उर्दू अदब’, जनवरी-मार्च 2021)

देवेंद्र सत्यार्थी की यायावरी के अनगिनत दिलचस्प किस्से हैं। एक मर्तबा लोकगीतों के वास्ते पाकिस्तान यात्रा पर गये। निकले तो थे एक पखवाड़े के लिए, मगर जब चार महीने तक वापस नहीं लौटे, तो पत्नी को उनकी चिंता हुई। उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जी को पत्र लिखा, ‘‘मेरे पति की तलाश कराएं।’’ बहरहाल, नेहरू ने सरकारी स्तर पर कोशिशों तेज कीं और उन्हें बुलवाया। आज़ादी से पहले ऑल इंडिया रेडियो के निदेशक सैयद अहमद शाह बुख़ारी यानी ‘पतरस’ बुख़ारी ने देवेन्द्र सत्यार्थी से अपने इकट्ठा किए गए चुनिंदा लोकगीत ऑल इंडिया रेडियो को देने की इल्तिज़ा की। ताकि उन्हें उस दौर के बेहतरीन सिंगरों की आवाज़ में पेश किया जा सके। सत्यार्थी ने इस बात पर अमल करते हुए,  अलग-अलग ज़बानों के एक हज़ार लोकगीत उन्हें दे दिए। मगर जब मानदेय की बात आई, तो उन्होंने इनका मानदेय लेने से यह कह कर मना कर दिया कि ‘‘ये तो अवाम का सरमाया है। इनके कॉपीराइट मेरे नहीं, भारत माता के हैं।’’ जबकि देवेन्द्र सत्यार्थी को उस वक़्त पैसे की बहुत ज़रूरत थी। उनका परिवार गु़र्बत में जी रहा था।

देवेंद्र सत्यार्थी ने लोकगीतों को इकट्ठा करने के लिए की गईं बेशुमार यात्राओं और ज़िंदगी से हासिल तजुर्बों को कलमबंद कर तमाम साहित्य रचा। इस बहुभाषी लेखक ने साहित्य की अनेक विधाओं कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथात्मक लेख, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रा वृतांत और साक्षात्कार पर पचास से ज़्यादा किताबें लिखीं। पर इन सबके ऊपर लोकगीतों से मुहब्बत रही। पंजाबी में लोक साहित्य के क्षेत्र में उनकी चार किताबें ‘गिद्धा’, ‘दीवा बले सारी रात’, ‘पंजाबी लोक साहित्य विच सैनिक’ और ‘लोकगीत दा जनम’ प्रकाशित हुईं। वहीं ‘धरती दीयाँ वाजाँ’, ‘मुड़का ते कणक’, ‘बुड्ढी नहीं धरती’ और ‘लक टुनूँ-टुनूँ’ उनके काव्य-संग्रह हैं। देवेंद्र सत्यार्थी ने सैकड़ों कहानियां लिखीं। ‘कुंगपोश’, ‘इकन्नी’, ‘नए देवता’, ‘कब्रों के बीचों बीच’, ‘जन्मभूमि’, ‘अन्न देवता’, ‘टिकुली खो गई’, ‘नए धान से पहले’, ‘सड़क नहीं बंदूक’, ‘चाय का रंग’ उनकी चर्चित कहानियां हैं। कहानी-संग्रह की यदि बात करें, तो ‘कुंगपोश’, ‘सोनागाची’, ‘देवता डिग पया’, ‘तिन बुहियाँ वाला घर’, ‘पेरिस दा आदमी’, ‘सूई बाजार’, ‘नीली छतरी वाला’, ‘लंका देश है कोलंबो’ और ‘संदली गली’ आदि संग्रह में उनकी कहानियां संकलित हैं।

देवेंद्र सत्यार्थी ने उपन्यास भी लिखे। ‘रथ के पहिए’, ‘कठपुतली’, ‘ब्रह्मपुत्र’, ‘दूध-गाछ’, ‘घोड़ा बादशाह’ और ‘कथा कहो उर्वशी’ उनके उपन्यास हैं। इन उपन्यासों में एक तरह से उनके लोक अनुभवों का ही विस्तार है। देवेंद्र सत्यार्थी ने अपनी आत्मकथा भी लिखी। ‘चाँद-सूरज के बीरन’ उनकी आत्मकथा है। यह एक अलग ही तरह की आत्मकथा है, जिसमें पंजाब और उसके लोकमानस के दीदार होते हैं।

देवेंद्र सत्यार्थी ने रेखाचित्र, संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत भी ग़ज़ब के लिखे हैं। इन किताबों में उनकी घुमक्कड़ी की ऐसी-ऐसी दास्तानें बिखरी पड़ी हैं कि मंटो ने उनसे मुतासिर होकर एक बार सत्यार्थी को पत्र लिखा, ‘‘वह उनके साथ गाँव-गाँव, नगरी-नगरी घूमना चाहते हैं।’’ वहीं उर्दू अदब के बड़े अफ़साना निगार कृश्न चंदर ने उनसे एक बार हसरत भरे अल्फ़ाज़ों से कहा, ‘‘भाई, अपने सुख मुझे भी दे दो !’’ देवेंद्र सत्यार्थी हरफ़नमौला थे। उनमें एक साथ कई खू़बियां थीं। उन्होंने संपादन और अनुवाद-कला में भी हाथ आजमाया। ‘आजकल’ पत्रिका के संपादक रहे। उनके संपादन में निकले इस पत्रिका के ‘बापू’ और ‘लोकरंग’ विशेषांक आज भी याद किये जाते हैं। उनके संपादन में पत्रिका ने नई ऊंचाईयां छुईं। कथाकार प्रकाश मनु ने देवेंद्र सत्यार्थी के साहित्य का श्रमसाध्य संपादन कर उनकी पूरी रचनावली तैयार की है। भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक जीवन में देवेंद्र सत्यार्थी का जो अमूल्य योगदान है, उसके लिए वे कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किये गये। साल 1977 में भारत सरकार ने लोकगीतों के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान के मद्देनज़र ‘पद्मश्री’ सम्मान से नवाज़ा, तो इसी साल भाषा विभाग, पंजाब के द्वारा श्रेष्ठ हिंदी लेखक के रूप में उन्हें पुरस्कृत किया गया। साल 1987 में पंजाबी अकादमी, दिल्ली ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार के रूप में सम्मानित किया। साल 1989 में हिंदी अकादमी की ओर से उन्हें विशेष सम्मान तो साल 1999 में पंजाबी साहित्य सभा, नई दिल्ली ने आजीवन फेलोशिप प्रदान की।

देवेंद्र सत्यार्थी ने लोकगीत-संग्रह के अपने जुनून और दीवानगी की वजह से जो काम कर दिखाया, वह वाकई बेमिसाल है। एक अकेले शख़्स ने बिना किसी संस्था या सरकारी मदद के, अकेले अपने बूते जो किया, देश में उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। हमारी अनमोल बौद्धिक संपदा जो वाचिक अवस्था में थी, उसको लिपिबद्ध करने का उन्होंने मुश्किल काम किया। एक लिहाज से कहें, तो वे आधुनिक भारत के सांस्कृतिक दूत हैं। जिन्होंने देश भर में बिखरे लोकगीतों को इकट्ठा कर, देशवासियों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम किया।

महात्मा गाँधी, देवेंद्र सत्यार्थी के इस काम को मुल्क की आज़ादी की लड़ाई का एक ज़रूरी हिस्सा मानते थे। वे बार-बार इस बात को जोर देकर कहते थे, ‘‘सत्यार्थी जी निरंतर गाँव-गाँव भटककर, लोकगीतों के संग्रह के जरिए भारत की आत्मा की जो खोज कर रहे हैं, वही तो आज़ादी की लड़ाई की बुनियादी प्रेरणा है। हम भारत की जिस विशाल जनता के दुख-दर्द की बात करते हैं, उसकी समूची अभिव्यक्ति तो अलग-अलग भाषाओं के लोकगीतों में ही होती है।’’

देवेंद्र सत्यार्थी को एक लंबी उम्र मिली। 95 साल की उम्र में 12 फरवरी, 2003 को उन्होंने इस दुनिया से अपनी विदाई ली। हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष हजारी प्रसाद द्विवेदी ने देवेन्द्र सत्यार्थी की तारीफ़ में लोकगीत शैली में एक लंबी कविता लिखी थी। जिसका मज़मून यह था, ‘‘जैसे सूर्य और चन्द्रमा आकाश में अकेले होते हैं। वैसे ही सत्यार्थी भी अपने एकाकी पथ में अलग और अकेले हैं।’’ वहीं चिंतक वासुदेवशरण अग्रवाल ने देवेन्द्र सत्यार्थी को जनपदीय भारत का सच्चा चक्रवर्ती बताया था। उनका कहना था, ‘‘जिनके रथ का पहिया अपनी ऊँची ध्वजा से ग्रामवासिनी भारतमाता की वंदना करता हुआ सब जगह फिर आया है।’’ जो लोग देवेन्द्र सत्यार्थी के काम को अच्छी तरह से जानते हैं, उन्हें शायद ही इन सब बातों में कोई अतिश्योक्ति लगे।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

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