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गांधी और भगवा

गांधी भले प्रार्थनासभा आयोजित करते हों, गीतापाठ से लेकर रामचरितमानस का पाठ करते रहे हों, लेकिन उन्होंने एक सीमा से अधिक धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं किया।
Gandhi and Saffron
फाइल फोटो। साभार : indianletter.com

गांधी के दर्शन से बहुत सारे लोगों को असहमति रही है। हमने आपसी विवादों और वैचारिक टकरावों से गांधी को जैसा बना दिया है, वैसे गांधी खुद थे भी कि नहीं इस पर बहस चलती ही रहती है। लेकिन जनता से जुड़ने, उसे एकजुट करने और उसे प्रतिरोध की भाषा में दीक्षित करने के मामले में गांधी को 20वीं सदी के बेजोड़ नेता के रूप में उनके विरोधी भी याद करते हैं। गांधी का पूरा जीवन लड़ते हुए बीता। लाखों लोगों को उन्होंने मानसिक दासता से बाहर निकाला। गांधी की पूरी राजनीति खुद के आचरण को खुद के विचार की कसौटी के रूप में कसने की राजनीति थी। आज के उन नेताओं की तरह नहीं जो अन्य के आचरण पर सारे वक्त निगाह रखते हैं, पर अपने आचरण पर सवाल उठने पर चीखने लगते हैं। रोने-गाने लगते हैं, लोगों से सहानुभूति मांगने लगते हैं। इस बात से सब वाकिफ हैं कि गांधी ने केवल सत्ता की सियासत नहीं की बल्कि देश के गरीबों के साथ एकाकार होने कीचेष्टा की। रेल, जेल, सभा और प्रार्थनासभाओं ने गांधी को आत्मिक स्तर पर बहुत मजबूत किया था। पर गांधी जब देश की गरीबी का साक्षात्कार करते थे तो उनका मन आता था कि अगर गरीबी दूर करने के लिए जान दी जाए तो वह भी कम नहीं है। यह वह दौर था जब लोग अपने जीवन ही नहीं बल्कि अपनी मौत का इस्तेमाल भी समाज के लिए करने की भावना से भरे हुए थे। भगत सिंह तो अपने इरादे में बहुत साफ थे कि उनकी मौत इस तरह फांसी के तख्त पर ही होनी चाहिए ताकि लोगों में बदलाव और आजादी की भावनाएं और तीव्र हो जाएं। गांधी ने आजादी, सांप्रदायिकता रोकने और लोगों में अहिंसा के प्रति प्रेम जगाने के लिए बार-बार अपनी जान को जोखम में डाला था। अपनी हत्या की साजिश की खबर सुनकर बिना बेचैन हुए वे हत्यारे के सामने हाजिर हो जाते थे। चंपारण के दिनों में जब उन्हें पता चला कि कुछ नीलहों ने उनकी हत्या के लिए एक आदमी लगा दिया है तो वे स्वयं उसके घर जा पहुंचे। उससे कहा- सुना है तुम मुझे मारना चाहते हो, लो मैं आया और अकेला ही आया हूं। ऐसा लगता है कि जैसे वे लोग के बीच रहकर किसी उदात्त आदर्श के लिए मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। जिस दिन गांधी की हत्या हुई थी, उस दिन उन्होंने प्रार्थनास्थल तक सुरक्षा घेरे में जाने से यह कहकर मना किया था कि मुझे मरना ही होगा तो प्रार्थना सभा में मरूंगा।

गांधी ने गरीबी दूर करने के लिए भी अपनी मौत का इस्तेमाल करने के बारे में अपनी राय रखी थी।उनके बारे में 1927-28 का किस्सा मशहूर है। तब वे उड़ीसा के छोटे गांवों का दौरा कर रहे थे जहां उनके व्याख्यान होते थे। कांग्रेस पार्टी तब लोगों के चंदे पर अधिक चलती थी और चंदे में दिया एक-एक पैसा लोगों के मन में राजनीतिक चेतना का विकास करता था। सामूहिक चंदा सामूहिक चेतना पैदा करता था। गांधी जिस गांव में व्याख्यान दे रहे थे, वहां की गरीबी का आलम यह था कि लोगों के पास सिक्के देने के लिए नहीं थे। इसीलिए कोई कुम्हड़ा लाया, कोई बैगन और कोई जंगल की भाजी। इस भयावह गरीबी को देख गांधी का हृदयपसीज उठा। तब गांधी ने कहा था- इतना दारिद्रय और दैन्य है यहां। क्या किया जाए इन लोगों के लिए। जी चाहता है कि अपनी मरण की घड़ी में उड़ीसा में आकर इन लोगों के बीच मरूं। उस समय जो लोग यहां मुझसे मिलने आएंगे, वे इन लोगों की करूण दशा देखेंगे। किसी न किसी का तो हृदय पसीजेगा और वह इनकी सेवा के लिए यहां आकर बस जाएगा। साफ लगता है कि गांधी ने अपने सार्वजनिक जीवन को इस प्रकार से चुना था कि वे अपनी मृत्यु से बिना घबराए अपने जीवन तथा मृत्यु दोनों का इस्तेमाल देश के लिए कर सकें। अपनी हर गतिविधि को वे देश के दृष्टिकोण से देखते थे। बताया जाता है उन्हें अंग्रेजी साहित्य से बहुत प्रेम था, पर उन्होंने अंग्रेजी साहित्य पढ़ना छोड़ दिया क्योंकि उन्हें लगता था वे जो भी पढ़ें, उसका सही इस्तेमाल देशवासियों के हित में हो सके।

गांधी के विचार और आचरण अन्य लोगों की सेवा करने पर आधारित थे। उनके जीवन का मकसद ऐसा संत बनना नहीं था जो स्वयं अपनी सेवा कराने में यकीन रखता हो। भारत में लोग तरह-तरह का धार्मिक ताना-बाना धारण करते हैं तो इसलिए नहीं कि वे किसी का भला करने चाहते हैं, या अन्य की सेवा करना चाहते हैं। वे स्वयं अपने लिए दूध-फल, अनाज और लोगों की मुफ्त की श्रद्धा जुटाने के लिए गेरुवा वस्त्र अधिक पहनते हैं। गांधी इस देश में संतों के इस स्वार्थपूर्ण आचरण से परिचित थे और इसीलिए उन्होंने संतों की जीवनशैली अपनाई पर कभी उनकी तरह तिलक, वस्त्र, या वाणी का इस्तेमाल नहीं किया। उन्होंने अपने आश्रमों में भी इन गेरुवाधारी साधुओं को घुसने नहीं दिया। जिसने भी आश्रम में रहने की अनुमति मांगी, उससे साफ कहा कि अगर सेवा-भाव से जुड़ना है तो पहले गेरुवा वस्त्रों का त्याग करना होगा। इस बारे में एक किस्सा प्रसिद्ध है। जब अहमदाबाद में गांधी का आश्रम स्थापित हुआ तो वहां स्वामी सत्यदेव परिव्राजक जी का आगमन हुआ था। हिंदी साहित्य के लोग सत्यदेव परिव्राजक जी के कामों से परिचित हैं क्योंकि उन्हें हिंदी में यात्रावृत्तांत लिखने वाले लोगों में काफी महत्त्व प्राप्त है। उनकी मेरी कैलाश यात्रा, मेरी जर्मनी यात्रा और यात्रामित्र जैसे पुस्तकें प्रसिद्ध हैं। अमेरिका से लौटकर स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने संन्यास ले लिया था। गांधी की प्रेरणा से दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार भी करते थे। वे जब गांधी के आश्रम में पहुंचे तो उन्होंने गांधी से कहा कि वे आश्रम में दाखिल होना चाहते हैं। गांधी ने कहा- अच्छी बात है। आश्रम तो आप जैसों के लिए ही है। किंतु आश्रमवासी बनने पर आपको ये गेरुए कपड़े उतारने पड़ेंगे। वे जब बहुत नाराज हुए तो गांधी ने उन्हें शांति से समझाया- हमारे देश में गेरुए कपड़े देखते ही लोग भक्ति और सेवा करने लगते हैं। अब हमारा काम सेवा करने का है। लोगों की हम जैसे सेवा करना चाहते हैं, वैसी सेवा वे आपसे इन कपड़ों के कारण नहीं लेंगे। उलटे आपकी सेवा करने के लिए ही दौड़ पड़ेंगे। तो जो चीज हमारी सेवा के संकल्प में बाधक हो, उसे क्यों रखें? संन्यास तो मानसिक चीज है, संकल्प की वस्तु है। बाह्य पोशाक से उसका क्या संबंध है? गेरुआ छोड़ने से कोई संन्यास थोड़े ही छूटता है। कल उठकर अगर हम देहात में गए और वहां की टट्टियां साफ करने लगे तो गेरुए कपड़े के साथ कोई आपको वह काम नहीं करने देगा। सत्यदेव को बात तो समझ आई लेकिन वे गांधी की बात को मानने के लिए तैयार नहीं हुए। इस कारण उन्हें स्थायी रूप से आश्रम में रहने के लिए भी अनुमति नहीं प्राप्त हो सकी। यह घटना दिखाती है कि गांधी भले प्रार्थनासभा आयोजित करते हों, गीतापाठ से लेकर रामचरितमानस का पाठ करते रहे हों, लेकिन उन्होंने एक सीमा से अधिक धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं किया। ईश्वर पर उनकी आस्था ऐसे आस्तिक की आस्था थी जो अपने ईश्वर के लिए किसी से घृणा करने या भेदभाव करने के लिए आस्थावान नहीं बना था। इन दिनों संसद और रैलियों में गेरुआ वस्त्रों वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। उप्र के मुख्यमंत्री समेत भोपाल, उन्नाव, अलवर आदि शहरों के सांसद अब गेरुवा में ही दिखते हैं। किसी के कपड़ों से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, पर सार्वजनिक जीवन में चाहे हिंदू धर्म हो या इस्लाम अथवा सिख, एक सीमा से अधिक धार्मिक वेषभूषा का प्रयोग खास तरह की संकीर्णता को नहीं पैदा करता! यूरोप और अमेरिका के किसी विकसित देश का कोई नेता पादरी के कपड़े पहनकर नहीं निकलता है। ऐसी परिस्थिति में गांधी की उस बात को याद करना चाहिए कि गेरुआ वस्त्र भारत में अपनी सेवा कराने के लिए लोग पहनते हैं, जिन्हें दूसरों की सेवा करनी है उन्हें साधारण जनों की तरह की वस्त्र पहनकर लोगों के बीच जाना चाहिए। भारत में साधारण जन कभी गेरुवाधारी लोगों से अपनी सेवा नहीं कराते हैं, वे उनके प्रति आस्था भले रखते हों। सेवा का संबंध आज भी गेरुवा से नहीं है।

(लेखक हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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