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गुजरात में जातीय हिंसा: बलात्कार और दमन के मामले बढ़े

गांधीनगर स्थित अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ द्वारा संकलित आंकड़ों से पता चलता है कि इस साल मई तक दलितों की हत्या के 16 मामले दर्ज किए गए हैं।
गुजरात में जातीय हिंसा

गुजरात में इस साल मई से जुलाई के बीच पांच दलित लोगों पर उच्च जातियों के लोगों ने हमला किया हैं, इन हमलों में केवल एक पीड़ित ही अपनी जान बचा पाया है। गांधीनगर स्थित अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ द्वारा संकलित आंकड़ों से पता चला है कि इस साल मई तक दलितों की हत्या के 16 मामले दर्ज हुए हैं।

8 जुलाई को, 22 वर्षीय दलित हरेश सोलंकी की कथित तौर पर उनकी पत्नी के परिवार के सदस्यों ने हत्या कर दी थी, हमलावर अहमदाबाद के पास वर्मोर गांव में एक उच्च जाति के परिवार से संबंधित थे, उन पर तब हमला किया गया जब वह दलित युवक अपनी पत्नी से मिलने अपनी ससुराल वाले घर गया था।

27 जून को लालजी सरवैया के भाई पीयूष सरवैया - जिन्हें 2012 में सवर्णों की भीड़ ने ऊना में उनके घर में ज़िंदा जला दिया गया था – उन पर, उनके भाई के हत्यारों ने हमला किया था। अर्जनभाई मकवाना, जो पैरोल पर बाहर आया हुआ था, और अर्शी वाजा, जिसके पिता और भाई लालजी, सरवैया की हत्या के दोषी हैं, ने कथित तौर पर पीयूष की मोटरसाइकिल में अपनी मोटरसाइकिल से टक्कर मार दी और नीचे गिरते ही उनकी पिटाई करनी शुरु कर दी। हालांकि, सरवैया हमले में बाल-बाल बच गए।

19 जून को, मंजिभाई सोलंकी, 55 वर्षीय एक दलित उपसरपंच पर उनके गाँव के उच्च जाति के लोगों ने पाइप और लोहे की छड़ से हमला कर दिया, जो कथित रूप से उनसे नाराज़ थे क्योंकि सोलंकी ने गाँव के दलितों पर हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ़ मामलों की पैरवी करने में दलितों की मदद की थी। सोलंकी ने अस्पताल जाते समय रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

12 जून को, प्रकाश परमार 34 वर्षीय मज़दूर, जो चीनी मिट्टी के कारखाने में काम करता था, प्रकाश के भाई द्वारा दर्ज की गई शिकायत का बदला लेने के लिए, सुरेंद्रनगर में दरबार जाति के लोगों ने उन्हें कथित तौर पर मार डाला। इस साल 22 मई को ही, एक दलित आरटीआई कार्यकर्ता के बेटे राजेश सोंडर्वा को एक साल पहले उनके पिता की हत्या के आरोपी लोगों ने राजकोट के पास मौत के घाट उतार दिया। इस मामले के आरोपी भी ज़मानत पर बाहर आए हुए थे।

इस साल मार्च में, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री ईश्वर परमार ने गुजरात विधानसभा को बताया कि 2013 से 2018 तक गुजरात में दलितों के ख़िलाफ़ अपराध 32 प्रतिशत तक बढ़ गए हैं।

परमार ने आगे कहा कि 2018 में, अकेले अहमदाबाद ज़िले में ही अत्याचार के 49 मामले दर्ज किए गए हैं, जबकि जूनागढ़ में 34, सुरेंद्रनगर ज़िले में 24 और बनासकांठा ज़िले में 23 मामले दर्ज किए गए हैं।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ के आंकड़ों के अनुसार, दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार के 568 मामले इस साल मई तक दर्ज किए गए हैं। इनमें से हत्या के 16 मामले, 30 मामले ऐसे जिनमें पीड़ित लोगों को गंभीर रूप से चोट आई है और 36 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए हैं। इन आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि 2010 से हर वर्ष दलितों पर अत्याचार के मामलों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2010 में, अत्याचार के कुल मामलों की संख्या 1,006 थी, 2011 में यह 1,083, 2013 में 1147 थी, 2013 में यह 1,355 थी, 2016 में 1355 मामले 2017 में 1,515 और 2018 में 1,544 मामले थे।

उल्लेखनीय रूप से, बलात्कार के मामलों की संख्या 2010 में 39 से बढ़कर 2011 में 51 हो गई थी, 2013 में यह 70 और 2018 में 108 हो गई थी। वर्ष 2019 में, मई तक बलात्कार के 36 मामले दर्ज किए जा चुके हैं।

मंजुला प्रदीप, जो एक गुजरात-आधारित दलित और महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं, ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा, “यह ध्यान में रखने की बात है कि दलित महिलाएं लिंग और जाति आधारित दोनों तरह की हिंसा को झेल रही हैं। दलित महिला को जहां घर में घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है, वहीं उसे अपने कार्य स्थल पर उच्च जाति के पुरुषों द्वारा यौन हिंसा को भी झेलना पड़ता है।"

मंजुला ने सवाल उठाया, “बलात्कार की घटनाओं की संख्या में वृद्धि का मतलब यह भी है कि अधिक मामले दर्ज किए जा रहे हैं। हालांकि, बडी़ संख्या में बलात्कार की घटना का होना सवाल उठाता है कि क्या गुजरात में वास्तव महिलाएँ सुरक्षित है?”

कांतिलाल परमार, नवसर्जन(जो गुजरात में सबसे पुराना दलित अधिकार संगठन है) से जुड़े एक दलित कार्यकर्ता हैं, ने न्यूज़क्लिक को बताया, ये संख्या तो ऊंट के मुहँ में ज़ीरे की तरह है क्योंकि यहां ऐसे मामलों की संख्या अधिक है जो बिना रपट के निकल जाते हैं। मामलों को दर्ज न करने के पीछे दलितों के मन में उच्च जाति के पुरुषों का डर भी होता है जो उन्हें यह क़दम उठाने से रोकता है, कई मामलों में तो ऐसा भी होता हैं जब उन्हें पुलिस को मामला न रिपोर्ट करने के लिए पैसे का भुगतान कर दिया किया जाता है।"

दलित महिलाएँ लिंग और जाति आधारित दोनों तरह की हिंसा का सामना करती हैं। घरों के बाहर, उच्च जाति से संबंध रखने वाली महिलाओं को एक निश्चित सम्मान दिया जाता है जबकि दलित महिलाओं के साथ ऐसा नहीं होता हैं। उदाहरण के लिए, दरबार जाति से संबंधित एक महिला को केवल 'बा' शब्द से संबोधित किया जाएगा और उसे उसके नाम से नहीं पुकारा जाएगा। जबकि एक दलित महिला, विशेष रूप से जो एक मज़दूर के रूप में काम करके अपना जीवन यापन करती है, आमतौर पर उसके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और उसके मालिक द्वारा उसे जातिवादी गालियाँ दी जाती हैं, ऐसा व्यवहार करने वाले ज़्यादातर उच्च जाति के पुरुष होते हैं। दलित महिलाओं को काम पर इन पुरुषों से यौन उत्पीड़न का ख़तरा भी होता है।

दलित महिलाओं को, विशेष रूप से गुजरात के कई गांवों में, उच्च-जाति के पुरुषों के सामने अपने अपना सिर ढंकने की इज़ाजत नहीं है, जबकि उच्च जाति की महिलाएं अपने परिवार के बाहर के पुरुषों के सामने अपने चेहरे और सिर को ढँक के एक शुद्ध व्यवस्था का पालन करती हैं।

उच्च जाति के निवासियों ने कई ऐसे सामाजिक नियम बनाए हैं जिनका पालन गुजरात के कई गाँवों में दलितों को अपनी सुरक्षा और अस्तित्व के लिए करना पड़ता है।

गांधीनगर ज़िले के कलोल तालुका के लिंबोदरा गाँव में, जहाँ दरबारों के लगभग 1,000 परिवार और दलितों के केवल 100 परिवार हैं, दरबारों ने दलितों के सामने कई अड़चनों को लागू किया है। लिम्बोद्रा के दलितों पर पीढ़ी-पुराने प्रतिबंध लगाए गए हैं जैसे कि उन्हें नए कपड़े पहनने की अनुमति नहीं है, मूंछे रखने की इजाज़त नहीं है, गाँव के नाई से मुंडन नहीं करवाना है और कुछ जगह पर शादी में घोड़े की सवारी मना है।

2017 में, दो दलित युवक - एक लिम्बोदरा से और दूसरा जो उसके साथ गाँव में आया था - उच्च जाति के लोगों ने मूंछ रखने के गुनाह में उन्हें पीट दिया।

उसी वर्ष, आनंद ज़िले में एक दलित युवक को गरबा (गुजरात में नवरात्रि के त्योहार के दौरान प्रचलित एक नृत्य का रूप) देखने के गुनाह में मौत के घाट उतार दिया था। भावनगर ज़िले में एक अन्य घटना में, एक दलित व्यक्ति की पिटाई की गई क्योंकि उसके पास अपनी मोटरसाइकिल पर "बन्ना" शब्द लिखा (एक शब्द जिसका इस्तेमाल दरबार जाति के पुरुष करते हैं) था।

2017 में एक अन्य घटना में, मेहसाणा ज़िले के बेचारजी तालुका में रांटेज गाँव के दलितों ने गाँव के एक समारोह में भेदभाव का विरोध किया, जहाँ दलितों के लिए अलग से बैठने की व्यवस्था थी। जैसे ही दलितों ने अपने विरोध के नाम पशुओं के शवों को उठाना बंद किया, उच्च जाति के ग्रामीणों ने दलित परिवारों का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार कर दिया। जब कुछ उच्च जाति के ग्रामीणों ने दलितों की मदद करने की कोशिश की, तो उन पर इसके लिए 2,100 रुपये का जुर्माना लगाया दिया गया।

2018 में, भावनगर ज़िले में एक दलित जो खुद घोड़े का मालिक था, को अपने घोड़े की सवारी करने के लिए हत्या कर दी गई। उसी वर्ष, मेहसाणा में एक 13 वर्षीय दलित लड़के को मोजरी और एक सोने की चेन पहनने के लिए बेरहमी से पीटा गया। मेहसाणा में इसी तरह की एक घटना में, एक अन्य दलित युवक को मोटरसाइकिल पर शिवाजी की तस्वीर लगाने के लिए पीटा गया था।

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