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इंसानी दिमाग़ में भाषा का विकास कितना पुराना है?

ऐसे लोग जिनकी भाषायी क्षमता पर स्ट्रोक या मस्तिष्क अवनति (डिजेनरेशन) के चलते बुरा असर पड़ा है, उनके इलाज में इस 'पाथवे' से मिली जानकारी अहम हो सकती है।
इंसानी दिमाग़

भाषा एक विशिष्ट मानवीय गुण है। आख़िर हमारे बदलते इतिहास के बीच यह इंसानी दिमाग़़ का हिस्सा कब बनी? दुर्भाग्य से इंसानी दिमाग़, हड्डियों और दांतों की तरह जीवाश्म में परिवर्तित नहीं होते। किसी भी दिमाग़ी जीवाश्म के न होने के चलते, मानवीय विकास के क्रम में भाषा कितनी पुरानी है, यह सवाल अब भी वैज्ञानिकों के बीच पहेली है।

इस पहेली को समझने के लिए हमें अपने पास उपलब्ध साधन, जैसे दूसरे जानवरों के मस्तिष्क, जो हमारे पूर्वजों की तरह थे, उन पर ही निर्भर रहना होगा। 'नेचर' में प्रकाशित एक न्यूरोसाइंस पेपर में इसी तरह की प्रक्रिया अपनाई गई है। उसमें कुछ अहम चीजें प्रकाश में आई हैं। उद्भव को लेकर अब तक जो मान्यताएं चली आ रही थीं, पेपर के मुताबिक भाषा उससे भी दो करोड़ साल पहले इंसानी दिमाग़ में पहुंच चुकी थी। बता दें अब तक यह माना जाता रहा है कि भाषा करीब 50 लाख साल से निश्चित तौर पर इंसानी दिमाग़ का हिस्सा है।

अपनी रिसर्च में वैज्ञानिकों ने तमाम खुले प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध 'ब्रेन स्कैन' और मानव-बंदर-चिंपांजी-लंगूरों के ब्रेन स्कैन का इस्तेमाल किया है, जो उन्होंने ख़ुद किए थे। भाषा के लिए इंसानी दिमाग़ में मौजूद धनुषाकार 'फास्सिकुलस पाथवे' बेहद अहम होता है। यह रास्ता दिमाग़ के बाहरी क्षेत्र को भीतरी हिस्से से जोड़ता है। यहां इस 'न्यूरल पाथवे या कोशिकीय मार्ग' से हमारा मतलब उस भारी चौड़ाई वाले संयोजक मार्ग से है, जो दिमाग़ के अलग-अलग हिस्सों को जोड़ता है। यह हमें अच्छी तरह पता है कि दिमाग़ के अलग-अलग हिस्से भिन्न-भिन्न काम करते हैं। वैज्ञानिकों ने अपने विश्लेषण में पाया कि चिंपांजी, बंदरों और अफ्रीकन लंगूरों के दिमाग़ में अपनी तरह का 'आर्कुयेट फास्सिकुलस पाथवे' या 'धनुषाकार मार्ग' होता है। 

यह पाथवे जो हमारे दिमाग़ में भाषा के लिए बेहद अहम होता है, दरअसल यह हमारे पूर्वजों में ही विकसित हो चुका था। शोध के मुताबिक़, अफ़्रीकी लंगूरों के साथ इंसान के जो 'साझा पूर्वज' थे, कम से कम उनमें तो यह पाथवे मौजूद था। करीब़ ढाई करोड़ साल पहले इंसान और अफ्रीकी लंगूरों के साझा पूर्वज थे। इससे पहले भाषा के पचास लाख साल पहले विकसित होने की जो बता कही जाती थी, वह चिंपाजीं के साथ इंसान के साझा पूर्वजों के आधार पर थी। इंसान और चिंपाजी के साझा पूर्वज पचास लाख साल पहले मौजूद थे, मतलब इतने साल पहले आज के इंसान के पूर्वज, चिंपाजियों से अलग हुए थे।

लेकिन इंसानी पाथवे दूसरों से काफ़ी अलग है। इसका बांया हिस्सा मज़बूत है, जबकि दाहिनी हिस्से में दिमाग़ का वह हिस्सा काम करता है, जिसमें श्रवण क्षमता नहीं होती। लेकिन बंदरों और चिंपांजियों के दिमाग़ में ऐसा नहीं था।

इस अध्ययन के करस्पोंडिंग लेखक क्रिस्टोफ़र पेटकोव कहते हैं, ''भाषा को बोला, लिखा या उसका संकेतन किया जा सकता है। लेकिन अगर कुछ पाथवे ज़्यादा मज़बूती या कमज़ोरी से गुंथे हों, तो उससे ज़्यादा सटीक ढंग से इंसानी दिमाग़ में भाषा की पुनर्प्राप्ति और पुनर्वास के लिए जगह बन सकती है, ताकि भाषा क्षमताओं का दोबारा विकास किया जा सके।''

अगर इन शब्दों पर यक़ीन करें, तो हम मान सकते हैं कि ताज़ा अध्ययन न सिर्फ़ मानव विकास क्रम को समझने की ज़रूरी जानकारी है, बल्कि आज के लोगों लिए भी कई मायनों में अहम है। ऐसे लोग जिनकी भाषायी क्षमता पर स्ट्रोक या मस्तिष्क अवनति (डिजेनरेशन) के चलते बुरा असर पड़ा है, जिनकी भाषायी क्षमताओं का नुकसान हुआ है, उनके इलाज में इन पाथवे से मिली जानकारी अहम हो सकती है।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

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