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जम्मू-कश्मीर : परिसीमन का पेचीदा सवाल

किसी भी तरह के परिसीमन को समकालीन भारत में प्रतिनिधित्व के विरोधाभासों के संदर्भ में भी देखने की ज़रूरत है। यह देखने कि ज़रूरत है कि क्या परिसीमन से उन जगहों की भागीदारी हो पा रही है, जिनकी भागीदारी नदारद रह जाती है।
Kashmir
प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो साभार: DNA India

खेल का नियम बदल देने से हार जीत का समीकरण बदल जाता है। चुनावी हार-जीत पर भी यही बात लागू होती है। यही वजह है कि सूत्रों के हवाले से जब जम्मू-कश्मीर की परिसीमन की बात हवाओं में फैली तो राजनीतिक गलियारे में बहुत अधिक शोरगुल होने लगा। परिसीमन का शाब्दिक अर्थ होता है किसी भी तरह के सीमाओं को फिर से निर्धारित करना। लेकिन इस लेख के संदर्भ में इसका अर्थ चुनावी क्षेत्र की सीमाओं के निर्धारण से जुड़ा है। संविधान के अनुच्छेद 82 के अनुसार प्रत्येक जनगणना के बाद संसद यानी केंद्रीय विधायिका को यह अधिकार दिया गया कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए परिसीमन करे। 

परिसीमन करने की यह प्रक्रिया साल 1971 तक चली। उसके बाद यह तर्क सामने आया कि जो राज्य जनसंख्या नियंत्रण पर अधिक ध्यान केंद्रित करेंगेलोकसभा में उनकी सीटों की संख्या कम हो जाएगी तथा जिन राज्यों की जनसंख्या अधिक होगीलोकसभा में उन्हें अधिक सीटें प्राप्त होंगी। इस आशंका को दूर करने के लियेसंविधान अधिनियम, 1976 की धारा 15 के तहत 1971 (इस वर्ष जनसंख्या 54.81 करोड़ तथा पंजीकृत मतदाताओं की संख्या 27.4 करोड़ थी) की जनसंख्या को ही आधार मानकर तब तक लोकसभा में इसी आधार वर्ष को प्रमुखता देकर सीटों का आवंटन करने का प्रावधान रखा गया जब तक कि वर्ष 2000 के पश्चात् हुई प्रथम जनगणना के आँकड़े जारी नहीं कर दिये जाते हैं। परन्तु, 84वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान अधिनियम, 2001 की धारा तीन के तहत इस समय सीमा को वर्ष 2000 से बढ़ाकर 2026 कर दिया गया।  

जहाँ तक जम्मू-कश्मीर की परिसीमन की बात है तो जम्मू कश्मीर में आख़िरी बार 1995 में परिसीमन किया गया थाजब राज्यपाल जगमोहन के आदेश पर 87 सीटों का गठन किया गया। विधानसभा में कुल 111 सीटें हैंलेकिन 24 सीटों को पाक अधिकृत कश्मीर के लिए रिक्त रखा गया है। शेष87 सीटों पर चुनाव होता है। साल 2002 में फ़ारुख़ अब्दुल्ला की सरकार ने जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में जम्मू-कश्मीर के संविधान में भी संशोधन कर दिया। इसके तहत भी शेष भारत की तरह यह प्रावधान किया गया कि साल 2026 तक जम्मू-कश्मीर में किसी भी तरह का परिसीमन नहीं किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है कि इसे बदला नहीं जा सकता है। अगर संसद चाहे तो गवर्नर की सलाह पर जम्मू-कश्मीर में साल 2026 से पहले ही परिसीमन कर सकती है। 

अब यह बात करते हैं कि जम्मू-कश्मीर में परिसीमन की बात क्यों की जा रही हैसाल 2011 की जनगणना के मुताबिक़ जम्मू क्षेत्र की आबादी53,78,538 हैजो राज्य की 42.89 फ़ीसदी आबादी है। जम्मू का इलाक़ा 26,293 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है यानी राज्य का 25.93 फ़ीसदी क्षेत्रफल जम्मू क्षेत्र के अंतर्गत आता है। यहाँ विधानसभा की कुल 37 सीटें हैं।

कश्मीर की आबादी 68,88,475 हैजो राज्य की आबादी का 54.93 फ़ीसदी हिस्सा है। कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल राज्य का क्षेत्रफल 15,948 वर्ग किलोमीटर हैजो 15.73 प्रतिशत है। यहाँ से कुल 46 विधायक चुने जाते हैं। राज्य के 58.33 फ़ीसदी (59146 वर्ग किमी) क्षेत्रफल वाले लद्दाख क्षेत्र में कुल चार विधानसभा सीटें हैं। कश्मीर और जम्मू के मामले में इसे साधारण शब्दों में समझा जाए तो ऐसी स्थिति है कि कश्मीर का क्षेत्रफल जम्मू से कम है और आबादी जम्मू से अधिक। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में सरकार बनाने के लिए किसी भी दल को 44 सीटों की ज़रूरत होती है। यह तर्क दिया जाता है कि 46 सीटों के साथ कश्मीर घाटी का विधानसभा में दबदबा रहता है।

कश्मीर घाटी में तकरीबन 96 फ़ीसदी आबादी मुस्लिम है। इसलिए जम्मू-कश्मीर की अगुवाई भी किसी मुस्लिम नेता को ही मिल जाती है। फिलहाल यह यहां की वस्तुस्थिति हैइस स्थिति को बदलने के लिए परिसीमन करना ज़रूरी होगा। साफ़ राजनीतिक शब्दों में कहा जाए तो जम्मू की मदद से भाजपा सरकार में तभी पहुँचेगीजब परिसीमन कर हालिया स्थिति बदल दी जाए। 

इस पूरी स्थिति के बाद परिसीमन के गहरे अर्थों को समझना ज़रूरी है। अभी तक की ऊपर की सारी बहस से यह निष्कर्ष निकल सकता है कि जम्मू इलाक़े की सीटें बढ़ाकर और कश्मीर की सीटें कम कर चुनावी समीकरण को इस तरह से बदला जा सकता है जिसमें कश्मीर से निकलने वाली किसी भी तरह की ताक़तों को कम किया जा सके और जम्मू-कश्मीर को जम्मू से निकलने वाली ताक़तों से संचालित किया जाए। जिसकी वजह से जम्मू-कश्मीर पर कश्मीर के मुक़ाबले केंद्र की सत्ता की तरफ़ संचालित होने वाली ताक़तों का अधिक दबदबा रहे।

लेकिन यह परिसीमन की पक्षपाती व्याख्या है। एक निष्पक्ष परिसीमन से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। कश्मीरनामा के लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं कि "केवल आबादी और क्षेत्रफल की लिहाज से ही अगर परिसीमन की बात करें तो यह बात स्पष्ट है कि आबादी परिसीमन में बहुत बड़ी भूमिका निभाती है। इसलिए उत्तर प्रदेश क्षेत्रफल में छोटा होते हुए भी आबादी की वजह से संसद में 80 सीटों का भागीदार बनता है और इससे क्षेत्रफल में बड़े राज्य जैसे कि मध्यप्रदेश और राजस्थान संसद में केवल 29 और 25 सीटों के भागीदार बनते हैं क्योंकि इनकी आबादी कम है। कश्मीर का इलाक़ा घाटी का इलाक़ा है यानी पहाड़ों के बीच का मैदानी इलाक़ा जहाँ जम्मू के पहाड़ी इलाक़े से स्वाभाविक तौर पर अधिक आबादी रहती हैइसलिए इस क्षेत्र से अधिक लोगों को प्रतिनिधित्व मिलेइसमें कोई ग़लत बात नहीं।"  

किसी भी तरह के परिसीमन को समकालीन भारत में प्रतिनिधित्व के विरोधाभासों के संदर्भ में भी देखने की ज़रूरत है। यह देखने कि ज़रूरत है कि क्या परिसीमन से उन जगहों की भागीदारी हो पा रही हैजिनकी भागीदारी नदारद रह जाती हैक्या परिसीमन से समाज के सबसे निचले स्तर पर छूट जा रहे लोगों को भागीदारी मिल रही है या नहींक्या भगीदार बन चुकेभागीदार हो रहे और भगीदारी के बिना रह गए लोगों के बीच बेहतर तालमेल हो रहा है अथवा नहींइस आधार पर देखा जाए तो आज़ादी से लेकर अब तक जम्मू-कश्मीर की तस्वीर बहुत अधिक बदल चुकी है। साल1991 में गुज्जरबकरवाल और गद्दी को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला। राज्य में इनकी आबादी तकरीबन 11 फ़ीसदी हैइनके लिए शेष भारत की तरह राज्य में कोई भी सीट हासिल नहीं है। इसके बाद जम्मू-कश्मीर में बहुत सारे रोहिंग्या भी शरणार्थी की तरह रह रहे हैं।

पाकिस्तान से आये बहुत सारे लोग शरणार्थी के तौर पर रहे हैं लेकिन अभी तक इन्हें नागरिकता नहीं मिली है।  पंचायत की व्यवस्था कैसी हैइस जगह से कैसी भागीदारी होती हैइसके बाद शहरी और ग्रामीण आबादी की स्थिति कैसी हैयह सारे ऐसे सवाल हैं,जिन्हें एक परिसीमन आयोग से ध्यान में रखने की उम्मीद जाती है। और अभी हाल-फ़िलहाल का सबसे बड़ा सच है कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ें कश्मीर से कट रही हैं और कश्मीर ख़ुद को अलग थलग महसूस कर रहा है। इसलिए इसे साथ में जोड़े रखने के लिए ज़रूरी है कि इसे पर्याप्त भागीदारी दी जाए। किसी भी तरह का नकारात्मक परिवर्तन करने का मतलब होगा कि कश्मीर में जल रही अंतहीन आग को और अधिक धधका देना। इससे बचने का उपाय यही है कि परीसीमन के सम्बन्ध में टीवी की बहसों से राय न बनाई जाए बल्कि यह समझा जाए कि परिसीमन का असल मक़सद है कि वह ऐसी व्यवस्था करे जिससे लोकतंत्र की जड़ें गहरी होती हैं। और इस मक़सद से सोचने पर यह कहीं से जायज़ नहीं लगता कि केवल जम्मू और कश्मीर के इलाक़े की सीटों के बारे में सोचा जाए।

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