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कांग्रेस पार्टी का संकट

कोई भी देख सकता है कि कांग्रेस के लिए अपने खोए आधार को वापस हासिल करने की संभावना तब तक कम ही रहेगी जब तक कि वह अपने इतिहास के संदर्भ को नहीं समझती है, ऐसा करने के लिए उसे अपनी मूल नींव को तरो-ताज़ा करना होगा और अपने आधार को वापस जीतने के लिए कड़ा रुख़ करना होगा।
कांग्रेस पार्टी

कभी बहुत ही शक्तिशाली रही कांग्रेस पार्टी आज जिस खंडहरनुमा स्थिति में ख़ुद को पा रही है, वह भारतीय जनता पार्टी की सर्जिकल स्ट्राइक का नतीजा नहीं है, बल्कि उनकी ख़ुद की आंतरिक कमज़ोरियों का नतीजा है। भाजपा ने तिरस्कारपूर्ण नहीं तो इस स्थिति का इस्तेमाल काफ़ी चतुराई से ज़रूर किया है। कांग्रेस की ताक़त का स्रोत हमेशा से स्वतंत्रता आंदोलन और उसकी विरासत रही है, जिसका असर समय के साथ-साथ कम होता गया और अंतत: पार्टी ने अपनी इस विरासत का दामन छोड़ दिया और ख़ुद को पूरी तरह से अलग ही रास्ते पर डाल दिया।

सनद रहे कि गाँधीजी कभी भी कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में शामिल नहीं हुए थे, फिर भी उन्होंने इसके तीन बड़े आंदोलनों को प्रेरित किया और उनका नेतृत्व भी किया। लोगों ने उनकी पहचान कांग्रेस पार्टी के साथ मानी, जबकि वे इसके औपचारिक सदस्यता भी नहीं थे। गांधी के जीवन भर का काम और उनकी विरासत की पहली और प्रमुख विशेषता ग़रीबों और वंचितों के लिए उनकी चिंता को होना था। और उनकी इस दृष्टि की वजह से उनका जुड़ाव ज़मीनी स्तर पर आम लोगों के साथ रहता था जो काफ़ी अंतरंग था: जैसा कि उनके विशाल वार्तालापों, उनके द्वारा किए पत्राचार और लेखन के विशाल काम के ज़रीये देखा जा सकता है और उनका यह काम उनके जन-दर्शकों के लिए था या उनके लिए उनकी चिंताओं से भरा था।

आज़ादी के बाद के कुछ दशकों तक, सभी कांग्रेसियों ने इस दृष्टिकोण को अपनाया और इसके इसके साथ जुड़े रहे, यह उस वक़्त भी जारी था जब उनमें व्यक्तिगत हितों के प्रति लालच पैदा होने लगा था। हालाँकि कई लोग कम्युनिस्टों और यहाँ तक कि समाजवादियों से भी नफ़रत करते थे, वे इस मामले में हमेशा ईमानदार बने रहे। लेकिन वे ग़रीबों के उत्थान के लिए एक ग़ैर-क्रांतिकारी रास्ते के बारे में काफ़ी अस्पष्ट थे और मार्गदर्शन के लिए हमेशा नेहरू की तरफ़ देखते थे।

मुझे याद है कि पिछली सदी के अंत में पचास के दशक के आख़िर में मेरी मुलाक़ात कांग्रेस के नेताओं से होती थी, जिनकी आदतें साधारण थीं और रोज़मर्रा के जीवन में जनता के साथ उनका एक सहज तालमेल था। दूसरा, उन्होंने सांप्रदायिक जुनून के नेतृत्व वाली राजनीति से कड़वे सबक़ हासिल किए थे और बिना किसी समझौते के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को बनाए रखने की पूरी कोशिश कराते थे। मुझे यक़ीन है कि बाबरी मस्जिद के विनाश के लिए भगवा राजनीति के शर्मनाक एपिसोड ने उन्हें झकझोर कर रख दिया होगा, हालांकि उनमें से कई कट्टर हिन्दू थे।

तीसरा, हालांकि लीडरशीप में सत्ता और धन के लिए लोलुपता बढ़ रही थी और उनके कारनामों से भी यह काफ़ी स्पष्ट हो रहा था, इसका परिणाम यह हुआ कि साहित्य और रंगमंच में गाँधी टोपी पहनने वाले पाखंडी लोगों का जमावड़ा लग गया, कांग्रेस पार्टी के इन दिग्गजों ने अभी भी पार्टी के कार्यक्रमों के मुताबिक़ काम करना नहीं छोड़ा था, जिसका उद्देश्य ग़रीबों की स्थिति में सुधार लाना था।

लेकिन 1970 के दशक के अंत में यह स्पष्ट हो गया था कि बड़े पैमाने पर कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं और लोगों के बीच दूरी बढ़ रही थी यानी आपसी संपर्क कम हो रहा था। लोगों को केवल मतदाता अधिक माना जाने लगा था, रैलियों में उन्हें सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों के रूप में देखा जाने लगा। यहां पैदा होती है सरकारी कार्यक्रमों और उनके ओछे लक्ष्यों के बीच की एक अदृश्य खाई।

फिर क्या था, नेताओं ने ख़ुद को पूरी तरह से कार्यकर्ताओं की तरह देखना शुरू कर दिया, जो सिर्फ़ चुनाव जीतने के लिए काम कर रहे थे। इसने उन्हें व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और सामाजिक और आर्थिक रूप से शक्तिशाली ताक़तों के बाहरी हितों के साथ जोड़ दिया। तब से, नेतागण बड़े व्यवसाय और अपने व्यक्तिगत हितों तथा अपने चाहने वालों के हितों को बढ़ावा देने के लिए काम करने लगे और पार्टी नीचे की ओर लुढ़कती गई, और विशिष्ट बन गई। और कांग्रेसियों के बीच इसको लेकर कोई चिंता नहीं थी; लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण, उन्होंने लोकप्रियता को गारंटी का सौदा मान लिया। मतदाताओं को आकर्षित करने और जनता की राय में हेरफेर करने के लिए पार्टी का काम विभिन्न चालें चलने में बदलता गया। धर्मनिरपेक्षता अब हज सब्सिडी और इसी तरह कि योजनाओं तक सीमित होकर रह गई थी।

लोग ख़ामोश थे लेकिन उनका ग़ुस्सा बढ़ रहा था। साठ के दशक के उत्तरार्ध में पहला बड़ा बदलाव तब आया जब कांग्रेस को कई राज्यों में चुनाव जीत दर्ज की थी। इंदिरा गाँधी ने कुछ समय तक सीपीआई की मदद लेकर अपनी क़िस्मत बदली। लेकिन वह एकाधिकार पूंजी पर अंकुश लगाने के उनके प्रयास से काफ़ी सावधान थीं। उन्हें ग़रीबों की चिंता विरासत में मिली थी, लेकिन उनका पार्टी प्रबंधन का तरीक़ा तानाशाहपूर्ण था जिसकी वजह से पार्टी में अनुचित गिरावट आई क्योंकि वे पार्टी में ऐसे समर्थकों को रखना ही पसंद करती थीं जो उनके  हिसाब से काम करें और कोई सवाल भी खड़ा न करें, इस सब से उनकी काम करने की शैली ख़राब हो गई। फिर भी, अंत तक, उन्होंने जनता के साथ कुछ हद तक अपनी लोकप्रियता को बनाए रखा और कुछ समय तक अपने क्रोनियों पर नियंत्रण भी बनाए रखा। लेकिन आपातकाल एक ऐसा मोड़ था जिसकी वजह से पार्टी की छवि का पतन होना लाज़मी था।

जब उनकी स्थिति सुधरी तो तब तक पार्टी पहले की तरह मज़बूत और सजीव नहीं थी। इसने धीरे-धीरे धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को कम करना शुरू कर दिया और भगवा ताक़तों के साथ समझौते इस उम्मीद में करने लगीं कि राज्य सत्ता में होने से वह उस आकस्मिक क्षति को सँभाल लेंगी और उस स्थिति को नियंत्रित कर लेंगी जो उन्हें सत्ता में बनाए रख सकती है। इसके अलावा, वह भ्रष्टाचार में लिप्त हो गईं और इसका नेतृत्व चाहे क्षेत्रीय हो या फिर राष्ट्रीय स्तर का सभी निहित स्वार्थों के लिए खुले तौर पर काम करने लगे, संयोग से विपक्षी दलों के लिए यह एक सबक़ बन गया जिसने भ्रष्टाचार के निशान को मिटाने की चाल सीख ली थी।

तब से, भगवा ताक़तें न केवल उस राजनैतिक ख़ालीपन पर क़ब्ज़ा करने में सक्षम रही हैं, जिसे कांग्रेस ने ख़ाली किया था, बल्कि उसने लगातार वैचारिक और दुर्भावनापूर्ण प्रचार के लिए ख़ुद के चारों ओर दीवार खड़ी कर दी और अपने लोगों और धन दोनों को उसमें स्वाहा कर दिया।

आज की तारीख़ में जहां तक भी नज़र जाती है, कांग्रेस के हालात ठीक होने की संभावना दूर तक नज़र नहीं आती है। यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि वह अपने इतिहास के संदर्भ को नहीं पहचानती है, और अपनी मूल नींव को तरो-ताज़ा नहीं करती है जिस पर कांग्रेस पार्टी की नींव रखी गई थी और इस खोए हुए मैदान को जीतने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि कॉंग्रेस पार्टी को हिंदुत्व की ताक़तों के प्रति झुकाव के ख़तरनाक खेल का त्याग करना होगा। इसका मतलब है उसे अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतना होगा उनके नेताओं द्वारा किए गए समझौतों के ख़िलाफ़ उनके ग़ुस्से को कम करना होगा। और इसका मतलब है कि ज़मीनी स्तर पर लोगों से जुड़ना होगा वह भी चुनावों में तुरंत कोई जादुई वापसी की उम्मीद किए बिना।

हिरेन गोहेन एक बौद्धिक और साहित्यिक आलोचक हैं।

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