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क्या फेसबुक-जियो डील नेट न्यूट्रेलिटी के लिए खतरा है?

फेसबुक और जियो के बीच 43,574 करोड़ रुपये के सौदे से कई सवाल उठ रहे हैं। लोग सोच रहे हैं कि क्या ये दो बड़ी कंपनियां कोई डिजिटल अधिकार कायम करने की फिराक में हैं? इस सौदे के बाद यह सुनिश्चित करना ट्राई की जिम्मेदारी हो गई है कि इंटरनेट सबको बराबरी का मौका देने वाला नेटवर्क बना रहे। रफी अहमद ने फेसबुक-जियो डील की इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है।
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इस साल जून में जब भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग यानी CCI ने जियो प्लेटफॉर्म्स में फेसबुक की 9.99 फीसदी हिस्सेदारी खरीद को मंजूर दे दी तो कई लोग चौंक गए। जियो प्लेटफॉर्म्स रिलायंस इंडस्ट्रीज की डिजिटल इकाई है।

महज चार साल पुरानी इस कंपनी का अब तक निवेश सिर्फ 1.8 करोड़ रुपये था। ऐसे में फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग का इस कंपनी की दस फीसदी से कम हिस्सेदारी के लिए 43,574 करोड़ रुपये खर्च करने पर चौंकना तो लाजिमी ही था। जियो प्लेटफॉर्म में हिस्सेदारी की यह खरीद भारतीय टेलीकॉम सेक्टर में अब तक का सबसे बड़ा विदेशी निवेश है।

कई लोग यह अनुमान लगा रहे थे कि क्या यह डील भारतीय बाजार में एकाधिकार कायम करने के लिए विशालकाय कंपनी खड़ी करने के इरादे से की गई है। क्या इससे आगे चल कर नेट न्यूट्रेलिटी के सिद्धांतों से समझौता नहीं होगा। क्या इससे पिछले दरवाजे से जीरो-रेटिंग थोपने की शुरुआत नहीं होगी? ये सवाल तो उठ रहे हैं लेकिन इनसे जुड़े पहलुओं पर लोगों की राय बंटी हुई है।

नेट न्यूट्रिलिटी का सिद्धांत इंटरनेट को एक समान अवसर देने वाला ग्लोबल नेटवर्क मानता है। इसके मुताबिक इसमें हर किसी के लिए बराबर का मौका होना चाहिए। इस सिद्धांत से देखें तो इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स (ISP) को नेट पर आने वाले सभी कंटेट को एक समान मानना चाहिए और किसी को न तो रोकना चाहिए और न किसी कंटेट या सर्विस को आगे बढ़ कर बढ़ावा देना चाहिए। इसका प्रमुख तर्क यह कि अगर किसी खास कंटेंट को तवज्जो दी जाती है, उसे बढ़ावा दिया जाता है तो नए खिलाड़ियों के लिए ग्राहकों तक पहुंचने में दिक्कत आएगी। इससे इनोवेशन की मौत हो जाएगी।

नागरिक आजादी की चिंता करने वालों की नजर में अगर नेट न्यूट्रेलिटी को रोका जाता है तो इसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैं। इंटनेट पर कुछ ही कंपनियों का वर्चस्व कंटेंट के चयन में उनकी ताकत को काफी बढ़ा देगा। इससे जनता उसी कंटेंट और स्पीच तक अपनी पहुंच बना जाएगी, जिनका ये कंपनियां चयन करेंगी। इसका गहरा राजनीतिक-सामाजिक असर होगा। इसके अलावा यह इंटरनेट टैरिफ (शुल्क) और डेटा की कीमतों को भी प्रभावित करेगा।

जीरो रेटिंग कारोबार में अपनाई जाने वाली एक धूर्त रणनीति है। इसका इस्तेमाल नेट न्यूट्रेलिटी को खत्म करने के लिए होता है। इसके तहत इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स और उनके सोशल मीडिया सहयोगी इंटरनेट यूजर्स की कंटेंट तक पहुंच को रोकने और नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं।
इसे सीधे तौर पर इस तरह समझ सकते हैं- इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर आपसे वादा करते हैं अगर किसी खास ऐप या सर्विस का आप इस्तेमाल करते हैं तो इस दौरान जो डेटा खर्च होगा वह आपके मंथली चार्ज में नहीं जोड़ा जाएगा।

अगर जीरो-रेटिंग के आधार पर कोई सर्विस प्रोवाइडर किसी ऐप के इस्तेमाल की इजाजत देता है तो यह बाकी ऐप के साथ भेदभाव होगा। बड़ी कंपनियों (जैसे फेसबुक और नेटफ्लिक्स) के पास ही इतना पैसा होता है कि वे इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स से जीरो-रेटिंग डील कर सकती हैं।

जीरो रेटिंग एक तरह से इंटरनेट उपभोक्ताओं के इंटरनेट और डेटा यूज को कुछ खास प्लेटफॉर्म या ऐप (जैसे फेसबुक या वॉट्सऐप) तक सीमित कर देना है। यह फ्री है। इनके इस्तेमाल के दौरान डेटा चार्ज लागू नहीं होता है।

नेट न्यूट्रेलिटी का खमियाजा

नेट न्यूट्रेलिटी का यह संकट आज कई देशों के इंटरनेट यूजर्स को परेशान कर रहा है। मसलन, ब्राजील में ज्यादातर नागरिकों के पास अनलिमिटेड सोशल मीडिया एक्सेस है। ऐसा जीरो-रेटिंग की वजह से हुआ है। लोगों के पास असीमित सोशल मीडिया एक्सेस तो है लेकिन इससे व्यापक इंटरनेट तक उनकी पहुंच सीमित हो जाती है। चूंकि ब्रॉडबैंड कनेक्शन महंगा है इसलिए व्यापक इंटरनेट तक उनकी पहुंच भी काफी कम हो जाती है। नतीजतन जब वॉट्सऐप जैसी फ्री मैसेजिंग सर्विस पर जब फेक न्यूज वायरल होती है तो ब्राजील के ज्यादातर लोग इंटरनेट के बड़े दायरे में फैक्ट चेक भी नहीं कर पाते।

आपको याद होगा कि 2015 में फेसबुक ने रिलायंस कम्युनिकेशन के साथ मिल कर फ्री बेसिक्स के नाम से जीरो-रेटिंग प्रोग्राम शुरू करने की कोशिश की थी। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं और आलोचकों ने इस तथाकथित लोक कल्याणकारी कार्यक्रम की यह कर विरोध किया था कि यह नेट न्यूट्रेलिटी के सिद्धांतों की बखिया उधेड़ रहा है। इससे फेसबुक समेत कुछ ही वेबसाइटों को ही तवज्जो मिलेगी। ट्राई (TRAI) ने अपनी सिफारिश में इसका विरोध किया था। इसके बाद यह अभियान रोक दिया गया था।

कुछ दूसरे तरीकों से भी नेट न्यूट्रेलिटी को खत्म करने की कोशिश हो रही है। मिसाल के तौर पर एयरटेल अपने कस्टमर का डेटा पैक के ऊपर वॉयस ओवर इंटरनेट प्रोटोकोल (VOI) कॉल्स पर चार्ज लगाना चाहती है। इससे स्काइप जैसी सर्विस पर कॉल करने के लिए कस्टमर को ज्यादा पैसा देना होगा क्योंकि इसमें एक निश्चित डेटा ऑफरिंग से ज्यादा डेटा खर्च होगा। एयरटेल ग्राहकों की जेब काटने वाला यह पैकेज नहीं ला पाई क्योंकि सोशल मीडिया पर इसका तीखा विरोध हुआ। लेकिन अब यह इस बात का इंतजार कर रही है कि ट्राई नेट न्यूट्रेलिटी पर क्या रुख अपनाता है।

मार्केट में उथल-पुथल मचाने वाला रिलायंस जियो

देश में जियो टेलीकॉम प्लेटफॉर्म या ‘जियो इकोसिस्टम’ 2016 में लॉन्च हुआ था। लॉन्च होते ही इसने टेलीकॉम मार्केट में वो उथल-पुथल मचाई कि ज्यादातर छोटी कंपनियों को इसने खीरद लिया या फिर वे इंडस्ट्री छोड़ गईं। जियो का देश में डेटा खपत और एक्सेसिबिलिटी पर जो असर पड़ा वह तो मिसाल बन गया। मोबाइल डेटा एक ही महीने में 20 करोड़ GB प्रति महीने से 370 करोड़ GB पर पहुंच गया। जियो की आक्रामक नीति कि वजह से देश में सिर्फ चार आईएसपी रह गईं।

खुद जियो और बाकी तीन – एयरटेल, वोडाफोन-आइडिया और बीएसएनएल। जियो को छोड़ कर बाकी तीन कंपनियां अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। जियो के सस्ते डेटा की वजह से भारत इंटरनेट यूजर के लिहाज से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया। शायद इसी वजह से फेसबुक इस लहर पर सवार होकर भारत में अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहता है।

2015 में रिलायंस और फेसबुक ने मिल कर दो सर्विस लॉन्च करने का ऐलान किया था। लेकिन इन दोनों से नेट न्यूट्रेलिटी को नुकसान पहुंच सकता था। पहली सर्विस के तहत शॉर्ट फॉरमेट वीडियो शेयरिंग ऐप  ‘Lasso’ लॉन्च करने का इरादा था। शायद यह टिक-टॉक को टक्कर देने की कोशिश थी। उस समय भारत में 12 करोड़ टिक-टॉक यूजर थे। चीन के बाहर टिक-टॉक के यूजर्स की यह सबसे बड़ी संख्या थी।

यह एक चालाकी भरी डील थी लेकिन यह साफ समझ में आती थी। मतलब अगर आप इंटरनेट एक्सेस के लिए पैसा नहीं दे सकते तो आपको सिर्फ फेसबुक की फ्री सर्विस पर निर्भर रहना होगा और अंतत: आप यह समझने लगेंगे कि फेसबुक ही इंटरनेट है, और इंटरनेट का मतलब फेसबुक है।

Internet.org के डोमेन नाम से लॉन्च होने वाला यह कार्यक्रम दरअसल जुकरबर्ग की छिपी हुई रणनीति थी। अपने इस मास्टर प्लान से वह करोड़ों नए ऑनलाइन यूजर्स हथिया लेना चाहते थे। उस वक्त कइयों का कहना था कि जैसे ही फेसबुक Lasso को लॉन्च करेगा वैसे ही यह टिक-टॉक को पछाड़ देगा। इसके साथ ही एक और बड़ा विवाद पैदा हो गया था।

दरअसल यह कहा जा रहा था कि रिलायंस नेटवर्क के साथ वॉट्सपेमेंट ऐप को भी जोड़ दिया जाएगा। इससे सिक्योरिटी और एंटी-ट्रस्ट (एकाधिकारवादी प्रवृति) की चिंताएं पैदा हो गईं। यह सवाल उठाया जाने लगा कि इससे पेटीएम और मोबिक्विक जैसे पेमेंट ऐप खत्म हो जाएंगे। लेकिन सिविल सोसाइटी के विरोध और नियमन के लेकर उठाए गए कदमों की वजह रिलायंस और फेसबुक की यह डील टूट गई।

फेसबुक-जियो डील

संयोग से भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल है जिसने एक कदम आगे बढ़ कर नेट न्यूट्रेलिटी पर अपना रुख कायम किया है। यहां दूरसंचार विभाग यानी टेलीकॉम डिपार्टमेंट और इंटरनेट सर्विसेज प्रोवाइडर (ISP) के बीच लाइसेंस समझौते पूरे कर पारदर्शी नियम तय किए जाते हैं। कोशिश की जाती है कि सभी को लेवल प्लेइंग फील्ड मिले।

हालांकि भारत में न्यूट्रेलिटी का बचाव करने वाला कोई प्रत्यक्ष कानून तो मौजूद नहीं है लेकिन यह लाइसेंस एग्रीमेंट में ही समाहित है। यानी कानून के उलट इस समझौते में कभी भी संशोधन किया जा सकता है।

फेसबुक-जियो डील की आलोचना क्यों हो रही है?

फेसबुक-जियो डील की आलोचना सिविल सोसाइटी के लोग और उद्योग-कारोबारी संगठन भी कर रहे हैं। फिलहाल और आगे चल कर इस डील के जो दुष्परिणाम हो सकते हैं, उस बारे में ये काफी मुखर हैं। इस डील के आलोचकों का कहना है कि यह न सिर्फ स्थानीय कंपनियों बल्कि अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसी दिग्गज ई-कॉमर्स कंपनियों के लिए भी खतरा है।

उनका कहना है कि फेसबुक और जियो अपने-अपने सेगमेंट में मार्केट लीडर हैं और इनके पास बहुत बड़ा डेटा भंडार है। इस वजह ‘डिजिटल औपनिवेशिकता’ जैसी स्थिति पैदा हो सकती है।इस बात की भी आशंका जताई जा रही है कि जियो, अपने ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म जियोमार्ट को रफ्तार देने के लिए फेसबुक के विशाल डेटा का इस्तेमाल कर कर सकता है।

जियो की यह ताकत अभी-अभी उभर रहे ई-कॉमर्स स्पेस में कीमतों की एक नई प्रतिस्पर्धा पैदा कर सकती है। इससे जियो मार्ट को अपनी कीमतें कम रख कर बढ़त बनाने का मौका मिल सकता है। एक बार जब इसका बाजार पर एकाधिकार हो जाएगा तो उपभोक्ताओं और रिटेलर दोनों को अपनी शर्तों पर झुका सकता है।

गड़बड़ी करने वाली कंपनियों को बंद करने का अधिकार

जियो-फेसबुक के हालिया सौदे को शक का फायदा देना आसान है क्योंकि नेट न्यूट्रेलिटी के सिद्धांत लाइसेंसिंग एग्रीमेंट में ही समाहित हैं। हालांकि गलतियां करने वाली कंपनियों को बंद करने का ट्राई का रिकॉर्ड काफी अच्छा है। वैसे, नियामकों के लिए नेट न्यूट्रेलिटी के उल्लंघन का पता लगाना मुश्किल रहा है।

अब बड़ा सवाल यह कि अगर नेट न्यूट्रेलिटी के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ तो देश के सबसे बड़े डेटा प्रोवाइडर जियो के खिलाफ डॉट (DOT) क्या कार्रवाई करेगा?

हाल में ट्राई ने ट्रैफिक मैनेजमेंट प्रैक्टिसेज (TMP) से जुड़े मुददों पर एक कंस्लटेशन पेपर जारी किया था। इसका मकसद नेट न्यूट्रेलिटी पर एक बहुपक्षीय स्टेकहोल्डर निकाय (MSB) गठित करने की संभावना तलाशना था।

टेक्नोलॉजी कंपनियों और कंटेंट प्लेटफॉर्म्स ने इस विचार का समर्थन किया है। लेकिन देश की दोनों बड़ी टेलीकॉम कंपनियों भारती-एयरटेल और जियो का मानना है कि जब लाइसेंसिंग एग्रीमेंट में ही नेट न्यूट्रेलिटी के सिद्धांत समाहित हैं तो फिर ऐसे निकाय की क्या जरूरत है? बहरहाल, निकाय बने या न बने, लेकिन इतना तय है कि जियो-फेसबुक सौदा ट्राई को हमेशा चौकन्ना बने रहने के मजबूर किए रहेगा।

इसमें कोई शक नहीं है कि रिलायंस ने भारत में लोगों की डेटा तक पहुंच को काफी सस्ता बना दिया लेकिन यह देखना अब नियामकों का काम है कि कंपनी फेसबुक से हुए अपने सौदे का फायदा बड़ी संख्या में मौजूद अपने ग्राहकों तक पहुंचाए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि इस सौदे का इस्तेमाल उपभोक्ताओं की पसंद और प्राथमिकताओं को दबाने में किया जाए।

ऑनलाइन स्पेस में एकाधिकार न हो और कीमतें कम से कम रखने का चलन न बढ़े इसका भी ध्यान रखना होगा। अगर ऐसा हुआ तो बाजार में प्रतिस्पर्द्धा खत्म हो जाएगी। यह प्रतिस्पर्धा ही खुली अर्थव्यवस्था की प्राणवायु होती है।

(रफी अहमद सीनियर लीगल रिसर्चर और पॉलिसी प्रोफेशनल हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
यह लेख सबसे पहले Leaflet में छपा था। 

 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

 

https://www.newsclick.in/Facebook-Jio-Deal-Threat-to-Net-Neutrality

 

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