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आइए, बंगाल के चुनाव से पहले बंगाल की चुनावी ज़मीन के बारे में जानते हैं!

हार जीत के अलावा थोड़ा इस पहलू पर नजर डालते हैं कि चुनाव के लिहाज से पश्चिम बंगाल की पृष्ठभूमि क्या है?
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कोलकाता स्थित राइटर्स बिल्डिंग। यह राज्य सरकार का सचिवालय है। फोटो साभार : theculturetrip

साल 2019 के बाद पहली बार पांच राज्यों के एक साथ होने वाले चुनावों की घोषणा चुनाव आयोग के जरिए की जा चुकी है। चुनावी शेड्यूल के मुताबिक बंगाल की खाड़ी से लेकर हिंद महासागर के मुहाने तक 824 विधानसभा सीटों पर 62 दिनों के लिए चुनावी जंग की ज़मीन सजा दी गई है। इसमें से एक राज्य पश्चिम बंगाल भी है।

भारत में किसी भी चुनाव पर बात करने से पहले अब यह डिस्क्लेमर के तौर पर रखना जरूरी है कि समाज का हिंदू-मुस्लिम में बंटवारा कर दिया गया है। पैसा, मीडिया और सरकारी संस्थाएं सब भाजपा के पक्ष में झुके हैं। इन सब के मिलने के बाद हवा अपने आप भाजपा के पक्ष में मुड़ी हुई होती है। पश्चिम बंगाल में 27 मार्च से चुनाव भी सांप्रदायिकता, पैसा, मीडिया और सरकारी संस्थाओं के भाजपा के पक्ष में झुके होने वाले माहौल के अंदर होने जा रहा है।

चुनाव आयोग की घोषणा है कि पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में वोटिंग होगी। इस एलान से यह साफ हो गया है कि भाजपा बंगाल जीतने के लिए वह सब कुछ करेगी जो वह कर सकती है। बंगाल में 8 चरणों के चुनाव पर सीताराम येचुरी का कहना है कि इसके लिए चुनाव आयोग की तरफ से दिया गया कोई भी स्पष्टीकरण तार्किक नहीं लग रहा है। हकीकत यह है कि बंगाल में 294 सीटें हैं और तमिलनाडु में 230 सीटें हैं। तमिलनाडु में 1 दिन के अंदर चुनाव हो जाएगा जबकि बंगाल में 294 सीटों के लिए 8 चरणों में चुनाव होंगे। शायद ही  आजादी के बाद किसी भी राज्य में आठ चरण में चुनाव में हुए हों।

यह भी कहा जा रहा है कि खुद को भाजपा जिस दक्षिण बंगाल और जंगलमहल के इलाके में मजबूत मानती है वहां तो लगभग एक साथ चुनाव हो रहे हैं, मगर जिन जिलों में तृणमूल मजबूत है वहां सीटों को कई चरणों में बांट दिया गया है। चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद ममता भी कह चुकी हैं कि एक ही जिले में दो चरणों में चुनाव कराने की कोई जरूरत नहीं थी।

हार जीत तो नतीजों के शक्ल में वोटिंग के बाद पता ही चल जाएगी। इसलिए हार जीत के अलावा थोड़ा इस पहलू पर नजर डालते हैं कि चुनाव के लिहाज से बंगाल की पृष्ठभूमि क्या है?

पश्चिम बंगाल मुख्य तौर पर ग्रामीण इलाका है। इस राज्य की तकरीबन 60% आबादी गांवों में रहती है। शहरीकरण हुआ है लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी है।

बंगाल आबादी के लिहाज से देश में चौथे नंबर पर है, लेकिन क्षेत्रफल के लिहाज से इसका 13वां नंबर है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, पश्चिम बंगाल की आबादी 9.13 करोड़ थी, अब यह 10 करोड़ के करीब पहुंच चुकी है। यहां 23 जिले हैं।

राज्य की तकरीबन 27 फ़ीसदी आबादी मुस्लिम समुदाय की है। करीब 100 सीटों पर मुस्लिम निर्णायक भूमिका अदा कर सकते हैं। राज्य की तकरीबन 46 विधानसभा सीटों पर मुस्लिमों की आबादी 50 फ़ीसदी से अधिक है। मुस्लिमों में तकरीबन 94 फ़ीसदी आबादी बांग्ला भाषी है। वहीं पर अगर दलित और अनुसूचित जनजाति दोनों की आबादी जोड़ दी जाए तो यह राज्य की कुल आबादी के तकरीबन 30 फ़ीसदी होती है।

पश्चिम बंगाल में विधानसभा की कुल 294 सीटें हैं। 2016 के विधानसभा चुनाव में TMC ने यहां 211 सीटें जीती थीं। लेफ्ट-कांग्रेस के गठबंधन को 70 सीटें मिली थीं। बीजेपी महज 3 सीटों पर जीत सकी थी। 10 सीटें अन्य के खाते में गई थीं। लेकिन 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में पूरे भारत की तरह भाजपा ने बंगाल में भी झंडे गाड़े थे। राज्य की तकरीबन 40 फ़ीसदी वोट तकरीबन 18 लोकसभा सीटें जीत ली थी। वहीं TMC ने तकरीबन 43 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ 22 सीटें जीती थीं। 2 सीटें कांग्रेस के खाते में गई थीं। सबसे निराशाजनक प्रदर्शन सीपीएम का रहा था। तकरीबन 34 साल तक बंगाल पर राज करने वाली CPM का लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खुला था। अगर साल 2019 में हुए चुनावों के आधार पर विधानसभा सीटों की आकलन करें तो भाजपा 121 सीटों पर आगे रही थी। जबकि तृणमूल कांग्रेस 164 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी। यहीं से राजनीतिक विश्लेषकों को यह लगने लगा कि बंगाल में भी भाजपा ने सेंधमारी कर ली है।

अगर बंगाल के राजनीतिक इतिहास को देखें तो साल 1952 से लेकर 1967 तक बंगाल में कांग्रेस का दबदबा रहा। 1972 में जब बांग्लादेश आजाद हुआ और इंदिरा गांधी की तूती बोलने लगी। उस समय कांग्रेस को यह लगा कि वह अकेले बंगाल पर राज कर सकती है। चुनाव जीतने के लिहाज से उस समय खूब हिंसा हुई। और कहां जाता है कि साल 1972 में सिद्धार्थ शंकर रे की अगुवाई में कांग्रेस ने बंगाल का चुनाव तो जीत लिया लेकिन चुनाव को लेकर कांग्रेस पर धांधली के ढेर सारे आरोप लगे। उसके बाद 1977 में बंगाल में लेफ्ट की सरकार बनी।

साल 1998 में कांग्रेस से बाहर निकलकर ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की। साल 1999 और 2004 का लोकसभा चुनाव ममता बनर्जी ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर लड़ा। साल 2008 में जब लेफ्ट भारत अमेरिका परमाणु करार पर कांग्रेस के गठबंधन से अलग हुआ तब जाकर कांग्रेस और तृणमूल साथ में आए। और इन दोनों ने मिलकर लेफ्ट को चुनौती दी। 

1977 के बाद साल 2009 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट फ्रंट को सबसे बड़ा झटका लगा। साल 2009 में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने साथ में मिलकर चुनाव लड़ा। लेफ्ट फ्रंट को महज 15 सीटें मिली और तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने मिलकर 42 में से से 35 सीटें निकाल लीं। जानकारों का कहना है कि इस हार के पीछे सबसे बड़ी वजह नंदीग्राम में भू-अधिग्रहण कानून के खिलाफ हुई हिंसा थी, जिसमें तकरीबन 14 किसानों की मौत हो गई थी। इसी हिंसा के बाद बंगाल का कृषक वर्ग लेफ्ट पार्टियों के खिलाफ हो गया। और लेफ्ट पार्टियों से अलग होता चला गया।

साल 1977 से लेकर साल 2011 तक तकरीबन 34 सालों तक बंगाल  में लेफ्ट ने शासन किया। उसके बाद साल 2011 में तृणमूल कांग्रेस की अगुवाई करते हुए ममता बनर्जी ने बंगाल की गद्दी संभाली। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस अकेले उतरी। राज्य की कुल 42 सीटों में से 35 सीटें तृणमूल कांग्रेस के खाते में गई। कांग्रेस का वोट शेयर साल 2009 के 13.5 फ़ीसदी से कम हो कर महज 9 फ़ीसदी के आस पास आ गया। यही हाल लेफ्ट पार्टियों का भी रहा। साल 2009 में लेफ्ट पार्टियों का वोट शेयर तकरीबन 43 फ़ीसदी थी। यह कम होकर महज 29 फ़ीसदी के आसपास आ गया। और सबसे बड़ा फायदा भाजपा को पहुंचा। साल 2009 में केवल छह फ़ीसदी वोट बटोरने वाली भाजपा साल 2014 में 16.8 फ़ीसदी वोट बटोरने में सफल रही और दो लोकसभा की सीट भी अपने नाम कर ली।

प्रोफेसर द्वैपायन भट्टाचार्य लिखते हैं कि बंगाल का समाज दलगत राजनीति में धंसा हुआ समाज है। यहां के लोग दलों में बंटे हुए लोग होते थे। दल यहां पर हावी होता था। लेकिन पिछले कुछ वक्त से यहां पर दल हावी होने की बजाय व्यक्ति हावी होने लगे हैं। केंद्र में पर्सनालिटी पॉलिटिक्स आ गई है। इसकी वजह तृणमूल कांग्रेस की राजनीतिक संरचना है। पहले कम्युनिस्ट पार्टी का कैडर होता था। जिसमें शिक्षकों की बड़ी भूमिका होती थी। अब इसका स्थान तृणमूल कांग्रेस ने ले लिया है और तृणमूल कांग्रेस में बाहुबलियों, ठेकेदारों, व्यापारियों दबदबे वाले लोगों की बड़ी भूमिका मिल गई है। तब से बंगाल की राजनीति की संरचना बदल गई है।

जमीन पर मौजूद विश्लेषकों की मानें तो बंगाल में लोग ममता बनर्जी की सरकार से बहुत अधिक नाखुश हैं। उनके मन में   किसी को जिताने को लेकर उत्साह नहीं है बल्कि उनका उत्साह तृणमूल कांग्रेस को हराने को लेकर है। यानी बंगाल के अधिकतर लोग किसी की जीत से ज्यादा तृणमूल कांग्रेस को हारता हुआ देखना चाहते हैं। तृणमूल कांग्रेस के दौर में हुआ भ्रष्टाचार वहां के लोगों के बीच एक अहम मुद्दा है। साल 2018 के बंगाल के पंचायती चुनाव में लेफ्ट के मतदाताओं को वोट देने से रोका गया और कई हिंसक हमले भी हुए हैं। पुलिस ने मामलों को दर्ज नहीं किया। इन सब की वजह से जमीनी स्तर पर काम करने वाले लेफ्ट के कैडर में तृणमूल कांग्रेस को लेकर बहुत अधिक गुस्सा है। विश्लेषकों की माने तो यह एक प्रमुख वजह है कि चुनाव के पहले लेफ्ट पार्टियों ने तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से मना कर दिया।

इस तरह की जमीनी विश्लेषणों का एक मतलब यह निकल रहा है कि तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ गुस्सा हिंदुत्व के रथ पर सवार भाजपा के पक्ष में जाएगा। लेकिन क्या भाजपा चुनाव जीत रही है? इस पर विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा के पास तीन चुनौतियां है। पहली चुनौती तो यही है कि बंगाल लेफ्ट फ्रंट का गढ़ रहा है। अगर बेहतर रणनीति अपनाई गई तो तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ मौजूदा गुस्सा, वोट के रूप में वाम और कांग्रेस के खाते में जा सकता है। दूसरी बात यह कि केवल उत्तर प्रदेश को छोड़ दिया जाए तो लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा के वोट विधानसभा में 10 से 12 फ़ीसदी कम हो जाते हैं। तो क्या भाजपा बंगाल में भी उत्तर प्रदेश की तरह कमाल कर पाएगी या नहीं इस पर भाजपा का भविष्य निर्भर करेगा? और तीसरी चुनौती यह है कि बंगाल की राजनीति पर्सनालिटी सेंट्रिक यानी व्यक्ति केंद्रित हो चुकी है और पर्सनालिटी के तौर पर ममता बनर्जी के अलावा दूसरे दलों के पास और कोई नेता नहीं है। तो बंगाल में फिर से नरेंद्र मोदी बनाम ममता बनर्जी की लड़ाई छिड़ेगी। लेकिन ममता का शासन बंगाल के लोगों ने 10 साल देख लिया है और नरेंद्र मोदी का भी केंद्र में शासन वे सात साल से देख रहे हैं। और इस समय मोदी सरकार की नीतियों को लेकर देशभर में जो गुस्सा है उससे बंगाल भी अछूता नहीं है। चाहे वो नए कृषि कानूनों का मुद्दा हो या श्रम कानूनों में बदलाव का। वो युवा बेरोज़गारी का मुद्दा हो या फिर महंगाई का। इन सबका असर भी बंगाल में पड़ रहा है। अब अंतिम जवाब तो चुनाव के बाद ही मिलेगा। लेकिन राह किसी के लिए भी आसान नहीं है।

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