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मंगल सूत्र, पितृसत्ता और धार्मिक राष्ट्रवाद

गोवा की प्रोफ़ेसर को जिस बात के लिए दंडित किया जा रहा है,वह दरअस्ल हिंदुत्व राष्ट्रवाद के नाम पर सज़ा से माफ़ी का प्रतिरोध है।
मंगल सूत्र
फ़ोटो:साभार: पिंटरेस्ट

गोवा पुलिस ने एक लॉ स्कूल की सहायक प्रोफ़ेसर,शिल्पा सिंह के ख़िलाफ़ 10 नवंबर को एक एफ़आईआर दर्ज की थी, जिसमें उनपर शादीशुदा महिलाओं के मंगलसूत्र की तुलना कुत्ते के गले में पड़े पट्टे से करते हुए भावनाओं को कथित तौर पर "चोट" पहुंचाने का आरोप है। राष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी के एक सदस्य को लगा कि शिल्पा सिंह ने सोशल मीडिया पोस्ट में की गयी अपनी टिप्पणी से उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचायी है और इसी को लेकर शिकायत दर्ज की गयी। आरएसएस के छात्र संगठन, एबीवीपी ने भी इसे लेकर अपने कॉलेज के अधिकारियों से शिकायत की थी।

शिल्पा सिंह ने इसके जवाब में कहा है कि वह हमेशा से "जिज्ञासु" रही हैं और यहां तक कि वह बेहद छोटी उम्र में भी सोचती थी कि भारत की विभिन्न संस्कृतियों में "महिलाओं के लिए तो विशेष वैवाहिक स्थिति के प्रतीक हैं, लेकिन पुरुषों के लिए ऐसा क्यों नहीं है।" मंगलसूत्र और बुर्क़ा पहनने की प्रथा का ज़िक्र करते हुए उन्होंने हिंदू धर्म और इस्लाम में प्रचलति इन रूढ़िवादी परंपराओं की आलोचना की। इस तुलना ने एबीवीपी जैसे संगठनों को नाराज़ कर दिया है।

प्रोफ़ेसर सिंह ने जो रुख़ अख़्तियार किया है, दरअस्ल वह पितृसत्तात्मक प्रतीकों और महिलाओं को नियंत्रित किये जाने के विरोध में है, साथ ही साथ ये भारत की परंपराओं के हिस्से बन गये हैं और इन्हें सभी धार्मिक समूहों की तरफ़ से बहुत अहमियत दी जाती है और समाज पर इन्हें थोपा जाता है। प्रोफ़ेसर सिंह की यह असहमति इसी तरह की थोपी गयी चीज़ों को लेकर है, और यह असहमति ऐसे समय में आयी है, जब पूरी दुनिया में धार्मिक राष्ट्रवाद की सियासत बढ़ रही है। ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश के अयोध्या में एक राम मंदिर के निर्माण के बाद तो भारत में पूरे सरकारी समर्थन (बाबरी मस्जिद विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद) से इन मानदंडों को ज़्यादा से ज़्यादा मान्यता दिलायी जा रही है। हिंदू-राष्ट्रवादी भाजपा का राजनीतिक तौर पर हावी होने के साथ ही इन रूढ़िवादी मानदंडों को मानक बनाया जा रहा है और उन्हें सामाजिक वैधता भी दी जा रही है।

प्रचलित परिकल्पना में तो हिंदू राष्ट्रवाद धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिए पर रखे जाने को लेकर ही है। इस तरह, यह धार्मिक राष्ट्रवाद या हिंदुत्व के एजेंडे का सबसे ज़्यादा दिखायी देने वाला हिस्सा है। हालांकि, राष्ट्रवाद के इस रूप में कुछ और भी है, जो धर्म की आड़ में चल रहा है। इस एजेंडे का पहला घटक अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे की नागरिकता के साथ अलग-थलग कर देना है और यह हिंदुत्व का अब तक का सबसे ज़्यादा दिखायी देने वाला रूप और असर है। इसका दूसरा घटक दलितों और अन्य हाशिये पर पड़ी जातियों को सामाजिक क्षेत्र में या तो सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिये अधीनस्थ करना है या फिर उन्हें अल्पसंख्यक विरोधी विचारों की बड़ी परियोजना में शामिल कर लेना है। तीसरा, और उतना ही अहम घटक महिलाओं को समाज में दोयम दर्जे की स्थिति तक ले आना है। इस तीसरे घटक पर शायद ही कभी चर्चा की जाती है, हालांकि यह सर्वोपरि है।

भारत में ही नहीं, बल्कि जहां कहीं की राजनीति धर्म में लिपटी हुई है, वहां पितृसत्तात्मक मूल्यों को मज़बूत करने का प्रयास होता है। याद कीजिए कि सावित्रीबाई फुले के समय में भी महिलाओं ने बराबरी की दिशा में कोशिश की थी, जिन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल शुरू किये थे; या फिर राजा राम मोहन राय जैसे समाज सुधारकों के समय में भी ऐसे प्रयास हुए थे, जिन्होंने सती प्रथा के उन्मूलन की पैरवी की थी। आनंदी गोपाल, पंडिता रमाबाई, और कई अन्य महिलाओं ने अपनी ख़ुद की पहचान को गहरा किया था, धीरे-धीरे अनेक उदाहरणों के ज़रिये यह दर्शाया गया था कि महिलायें "संपत्ति" नहीं होती हैं और न ही वे "वह" होती हैं, जिन्हें ख़ास तौर पर उन परंपराओं से जुड़ा हुआ माना जाता है, जिनमें वे पैदा होती हैं। ये प्रक्रिया अपने समय में क्रांतिकारी थी, हालांकि ये सिर्फ़ पितृसत्ता के क़िले पर होने वाले शुरुआती हमले थे। उनके समय में भी उनके ख़िलाफ़ हो रहे विरोध ने धर्म और परंपरा की पोशाक को पहना रखा था।

जब महिलायें स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने लगीं, तो पितृसत्ता की ये ज़ंजीरें और ढीली होनी शुरू हो गयी थीं। महिलाओं की भागीदारी भी उन लोगों को नाग़वार थी, जो पितृसत्ता और जाति पदानुक्रम की बाधाओं को बनाये रखना पसंद करते थे। हमारे समाज में जाति और लिंग के आधार पर होने वाले दमन साथ-साथ चलते हैं। मुस्लिम सांप्रदायिकता की नुमाइंदगी करने वाला वह मुस्लिम लीग ही तो था, जिसका गठन पुरुष मुस्लिम अभिजात वर्ग द्वारा किया गया था और पुरुष हिंदू अभिजात वर्ग द्वारा गठित हिंदू महासभा ने ही महिलाओं और अधीनस्थ वर्गों के पक्ष में चलाये जा रहे सभी सामाजिक परिवर्तनों का विरोध किया था।

इस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), जो ख़ास तौर पर एक पुरुष संगठन है, उसके द्वारा चलायी जा रही हिंदू सांप्रदायिकता या हिंदू राष्ट्रवाद किसी भी तरह के बदलाव के ख़िलाफ़ सख़्त रवैया अपनाने में सबसे आगे है। जो महिलायें "हिंदू राष्ट्र" के निर्माण में भाग लेना चाहती थीं, उन्हें सिर्फ़ महिला राष्ट्र सेविका समिति बनाने की सलाह दी गयी। इस संगठन के नाम से ऐसे ही नहीं "स्वयं" जैसा शब्द ग़ायब कर दिया गया है, जिसका मतलब ही होता है- ख़ुद या ख़ुद का वजूद होना। यह कोई आकस्मिक चूक नहीं है, बल्कि जानबूझकर की गयी चूक है, क्योंकि सभी पितृसत्तात्मक विचारधारायें महिलाओं को पुरुषों के अधीनस्थ के रूप में देखती-समझती है- कभी अपने पिता के अधीन, तो कभी पति और बेटे के अधीन या फिर सामान्य रूप से अन्य पुरुषों के अधीन। इसके अलावा, आरएसएस ने महिलाओं और लड़कियों के लिए दुर्गा वाहिनी की स्थापना की है, जो ख़ास तौर पर आधुनिक विचारों और चलन से महिलाओं की किनाराकशी के लिए प्रशिक्षित करने और अल्पसंख्यकों से घृणा करने वाले हिंदुत्व में शामिल करने वाली संस्था है।

1829 में सती प्रथा के उन्मूलन की मिसाल ही लें। इसे महिलाओं के लिए बराबरी और इंसाफ़ की राह में बढ़ने वाला पहला बड़ा क़दम माना गया था। हालांकि, 1980 के दशक में भी भाजपा नेताओं ने इस प्रथा का समर्थन किया था। रूप कंवर मामले के बाद तत्कालीन भाजपा उपाध्यक्ष,विजया राजे सिंधिया ने संसद में एक मार्च का नेतृत्व किया था, जिसमें नारा दिया गया था कि सती होना हिंदुओं की "शानदार परंपरा" है, और यह हिंदू महिलाओं का "अधिकार" है। इसी तरह, भाजपा के महिला मोर्चा की मृदुला सिन्हा ने अप्रैल 1994 में उस समय की लोकप्रिय पत्रिका सैवी को दिये अपने साक्षात्कार में पत्नी की पिटाई और दहेज, दोनों को उचित ठहराया था। यह आरएसएस के पूर्व प्रचारक, प्रमोद मुथालिक ही थे, जिन्होंने 2009 में मैंगलोर के एक पब में युवतियों पर हुए हमले को संगठित किया था। बजरंग दल नियमित आधार पर सेंट वेलेंटाइन डे पर प्रेमी युगल पर हमला करवाता है। "लव जिहाद" नौजवान महिलाओं और पुरुषों को नियंत्रित करने का अभी तक का एक और प्रयास है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री,योगी आदित्यनाथ ने खुले तौर पर इस बात का ऐलान किया है कि माता-पिता को अपनी बेटियों की आवाजाही पर नज़र रखनी चाहिए और उनके मोबाइल फ़ोन के इस्तेमाल की निगरानी करनी चाहिए।

यही एक कारण है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में ‘प्रवासी’ भारतीय हिंदू अमेरिका स्थित विहिप और आरएसएस से जुड़े अन्य विदेशी सहयोगी संस्थाओं के जाल में पड़ जाते हैं, जिन्हें उस देश की महिलाओं की सापेक्ष स्वतंत्रता को पहली बार देखने से उनकी भावना को झटका लगता है। वे अपने अमेरिकी सपनों को पूरा करते हुए भी एक सख़्त पितृसत्तात्मक पदानुक्रम को बनाये रखना चाहते हैं।

ऐसा नहीं है कि अकेले आरएसएस ही इस तरह के प्रतिगामी सोच को क़ायम रखने वाला इकलौता संगठन है और वही पितृसत्ता को सही ठहरा रहा है। कुल मिलाकर, भारतीय समाज अब अपनी प्रतिगामी विचारधारा की चपेट में है। इसीलिए, प्रोफ़ेसर सिंह, जिन्होंने मंगलसूत्र (या बुर्क़ा) को लेकर अपनी जिस समझ को सामने रखा है, उस पर लोगों का ज़बरदस्त ऐतराज़ हो सकता है। आरएसएस से इतर कई लोग भी प्रतिगामी विचार रखते हैं। इतना तो तय है कि आरएसएस और उससे जुड़े लोग, या इससे प्रेरित लोग ऐसे विचारों के सबसे स्पष्ट समर्थक हैं। इस बात को मानने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि धर्म की आड़ में राजनीति करने वाले अन्य संगठन भी लैंगिक इंसाफ़ को बरक़रार रखने के मामले में बेहतर नहीं हैं। एशिया या उत्तरी अमेरिका के तालिबान, बौद्ध और ईसाई कट्टरपंथी समूह, सबके सब एक ही नाव में सवार हैं, हालांकि उनकी सीमाये इस बात से तय होती हैं कि उनका समाज उनके लिए किस हद तक गुंज़ाइश देता है या फिर नहीं देता है।

प्रोफ़ेसर सिंह ने अपनी कक्षाओं में दिये गये लेक्चरों में रोहित वेमुला की आत्महत्या, गोरक्षा के नाम पर लींचिंग और तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या जैसे मुद्दों को उठाती रही हैं। ऐसे में इस बात को लेकर अचरज नहीं होना चाहिए कि एबीवीपी उनके ख़िलाफ़ ज़ोरदार विरोध में उतर आया है।

(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता और टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Mangal Sutra, Patriarchy and Religious Nationalism

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