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मोहन भागवत के भाषण के मीडिया कवरेज ने हारी सच की जंग

यह वह समय है जब भारतीय मीडिया को चाहिये कि वह ’उद्देश्यपूर्णता’ का दामन छोड़ दे और नेताओं को उनके झूठ के लिए लताड़े।
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हचिन्स आयोग, या प्रेस की स्वतंत्रता पर बने आयोग को 1942 में संयुक्त राज्य अमेरिका में गठित किया गया था, जिसका मक़सद मीडिया को आधुनिक लोकतंत्र में भूमिका निभाने के मामले में निर्देशित करना था। मार्च 1947 में प्रकाशित आयोग की रिपोर्ट में ऐसे पत्रकारों के काम के खिलाफ चेतावनी दी गई थी जो "वास्तव में सटीक तो थे लेकिन काफी हद तक असत्य थे"।

निस्संदेह विरोधाभासी, शॉन इलिंग, वोक्स वेबसाइट के लिए लिखे एक लेख में, टॉम रोसेनस्टियल, जो एक मीडिया स्कॉलर और अमेरिकन प्रेस इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक हैं, से पूछा कि उदाहरण देकर बताएं कि आयोग का मतलब क्या है। रोसेनस्टिएल ने जवाब दिया, "अगर मैं नव-नाज़ियों को जो कि कुछ मामलों में तकनीकी रूप से सटीक है (जिसका अर्थ है कि उन्होंने वास्तव में जो कहा), लेकिन वास्तविकता को पूरी तरह से विकृत कर वह बात कही है, तो मैंने उन्हें उनके झूठ को सही रूप से उद्धृत कर दिया है। यानि कड़े रूप से तथ्यात्मक पत्रकारिता दूसरे शब्दों में, सच्चाई को विकृत कर सकती है।

रोसेनस्टिएल का जवाब रेखांकित करता है कि क्यों राष्ट्रीय मीडिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के विजयादशमी के भाषण में उनके कुछ दावों की सत्यता पर सवाल उठाए बिना रिपोर्टिंग में गलती करता है। अपने विजयादशमी के भाषण में, भागवत ने मुख्य रूप से हिंदुत्व के दर्शन को व्यक्त किया, लेकिन अगर रोसेनस्टिएल को उद्धृत किया जाए तो उन्होने तीन मायने में सच्चाई को गढ़ा या उसे विकृत किया- जिसमें नागरिकता संशोधन अधिनियम, एक दुष्ट "टुकडे-टुकडे" गिरोह के अस्तित्व का होना, और लद्दाख में भारत-चीन तनाव।

भागवत ने कहा कि सीएए किसी भी धार्मिक समुदाय के खिलाफ नहीं बनाया गया है, लेकिन नए कानून के विरोधियों ने "हमारे मुस्लिम भाइयों को गुमराह किया" यह जताते हुए कि इस कानून का उद्देश्य भारत में मुस्लिम आबादी को कम करना है। भागवत ने कहा, "संगठित हिंसा और विरोध के नाम पर सामाजिक अशांति फैलाने के कारण अवसरवादियों ने नाजुक हालात का फायदा उठाया।" उन्होंने अवसरवादियों पर संघर्ष का न्रेतत्व करने की कोशिश करने का भी आरोप लगाया। उन्होंने कहा, उनके प्रयास सामूहिक चेतना पर कोई असर नहीं डाल पाए क्योंकि मीडिया का ध्यान मुख्य रूप से -19 पर केंद्रित रखने की प्रकृति था।

भागवत के दावे की दिक़्क़त

भागवत ने सीएए के बारे में जो सच बताया वह उनके चित्रण में फर्क पर आधारित था। गृह मंत्री अमित शाह सहित भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने बार-बार कहा कि सीएए नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की तैयारी का अग्रदूत है। उस समय, उनके अनुसार, गैर-मुस्लिम प्रवासियों को सीएए के तहत सुरक्षा मिलेगी लेकिन "घुसपैठियों", एक ऐसा शब्द जो बांग्लादेशी मुस्लिम को दर्शाता है, को देश के बाहर फेंक दिया जाएगा। यह वह बात थी जिसने सीएए के बारे में  मुसलमानों के बीच चिंता पैदा की, और इसलिए वे नए नागरिकता कानून के विरोध में सड़कों पर उतर गए थे।

इसे साबित करने के भी पर्याप्त सबूत मौजूद हैं कि "संगठित हिंसा" करने वाले वे "अवसरवादी" नेता भाजपा के थे। केवल, दिल्ली पुलिस ने ही, जो केंद्र सरकार को सीधे रिपोर्ट करती है, ने 15 सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों पर हिंसा की साजिश रचने का आरोप लगाया है। उनके खिलाफ आरोपों को अभी अदालत में दाखिल करना बाकी है। इसलिए भागवत का दावा बिना किसी आधार के था, जैसा कि उनका दावा था कि "अवसरवादी" नेता/लोग सांप्रदायिक आग को हवा देने की कोशिश कर रहे थे।

भागवत ने अपने भाषण में अपने दर्शकों को उन लोगों के खिलाफ चेतावनी दी जो अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और हमारे देश के तथाकथित अल्पसंख्यकों के बीच नफरत पैदा करके भारत की एकता को चूर-चूर करना चाहते हैं। उन्होंने ऐसे लोगों को ऐसे "षड्यंत्रकारी गिरोह" का सदस्य कहा, जो "भारत तेरे टुकडे होंगे" जैसे नारे को उकसाते हैं और बढ़ावा देते हैं।

यह अभी भी एक टीवी चैनल का आरोप है कि 2016 में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम में "भारत तेरे टुकड़े होंगे" का नारा लगाया गया था। भागवत यह जताते हुए कि टुकडे-टुकडे गिरोह एक वास्तविक इकाई है, जिसे भारत की अखंडता और एकता को कमजोर करने के बनाया गया है। फिर भी, सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत एक आवेदन के जवाब में, गृह मंत्रालय ने कहा कि "टुकडे-टुकडे़ गिरोह से संबंधित कोई जानकारी उनके पास नहीं है"।

भागवत ने यह भी दावा किया कि "भारतीय सुरक्षा दल, सरकार और लोग “चीन द्वारा हमारे इलाकों पर आक्रमण करने या कब्ज़ा जमाने के प्रयासों से अचंभित है" और "इस हमले का तेजी से जवाब दिया गया", जिससे पड़ोसी महाशक्ति स्तब्ध रह गई। यह टिप्पणी बहुत ही अतिशयोक्तिपूर्ण थी। भागवत ने देश की जनता को यह नहीं बताया कि चीन का कब्जा वास्तविक नियंत्रण रेखा की भारत की धारणा के खिलाफ है, क्योंकि हमने लद्दाख में अनुमानित 1,000 वर्ग किमी इलाका खो दिया है।

वस्तुनिष्ठता बनाम सच

भागवत के भाषण की मीडिया की तथ्यात्मक रिपोर्टिंग, अधिकांश अखबारों के पहले पन्नों पर छपी, जिसने सच को विकृत करने की कोशिश की। एक ऐसे समय में जहाँ सूचनाओं के कई स्रोत मौजूद हैं, वैसे समाचार आते हैं जैसा कि घटित होता है, ऐसा होता है, क्या नेताओं के भाषणों की रिपोर्टिंग के मामले में में हमारी शैली को बदलने का मामला नहीं हो सकता है?

जी हाँ, इस मामले में शॉन इलिंग का तर्क था कि, "ट्रम्प को पत्रकारों द्वारा 'निष्पक्षता' को कैसे समझा जाता है के तरीके से अपने को को बदलना चाहिए", जिसके लिए उन्होंने टॉम रोसेनस्टियल से बात की थी, और पाने लेख के शूरुआती पैराग्राफ में उस चर्चा को उद्धृत किया था। इलिंग ने लिखा है कि, "विशेष रूप से 'वस्तुनिष्ठा' ने 'संतुलन' बनाने या 'निष्पक्षता' के नाम पर जो जुनून पैदा किया है, वह बुरे विश्वास या विचार वाले अभिनेताओं के झूठ को आगे बढ़ाने के काम को आसान बनाता है।"

पत्रकारों का मानना है कि यदि वे किसी नेता के भाषण को प्रकाशित नहीं करते हैं, तो वे निष्पक्षता के इम्तिहान को पास नहीं कर पाएंगे, विशेष रूप से जिनके साथ आप असहमत हैं। समाचार की रपट में नेता के भाषण का विवरण देते हुए किसी व्यक्तिगत दृष्टिकोण का जिक्र नहीं करना भी पत्रकारिता की परंपरा है। इसने लोकलुभावन नेताओं की बढ़ती नस्ल को लाभ पहुंचाने के निष्पक्षता के विचार का फायदा उठाने के लिए प्रोत्साहित किया है- वे जानबूझकर झूठ में लिप्त होते हैं, यह जानते हुए कि वे जो कह रहे हैं उसे नकली करार नाही दिया जाएगा। इस तरह झूठ, सत्य का लिबास पहनता हैं और एक व्यापक प्रचार/प्रसार हासिल करता हैं।

राजनीतिज्ञ-मीडिया इंटरफ़ेस में बदलाव के चलते रोसेनस्टील से पूछा गया कि क्या निष्पक्षता पत्रकारों का लक्ष्य होना चाहिए। उन्होंने उत्तर दिया, "जैसा कि अब समाचार हर उपलब्ध है और लोग जहां चाहें वहां से तथ्यों को हासिल कर सकते हैं, इसलिए पत्रकारिता की जिम्मेदारी गहरी हो जाती है। इसमें अर्थ-निर्माण शामिल है, इसमें अधिक संदर्भ होना चाहिए..'तटस्थ' रहना इसका लक्ष्य नहीं है। " तटस्थता निष्पक्षता का दूसरा नाम है।

इलिंग ने अपना लेख लिखे जाने से पहले ही रोसेनस्टियल ने पत्रकारिता में वस्तुनिष्ठता या निष्पक्षता की उत्पत्ति के बारे में 22 ट्वीट के माध्यम से समझाया था जो उन्होंने वेस्ले लोवी के निबंध, "ए रेकेनिंग ओवर ऑब्जेक्टिविटी, लेड ऑन ब्लैक जर्नलिस्ट्स, जो न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित हुआ था, के जवाब में पोस्ट किए थे। रोसेनस्टिएल ने लिखा कि वस्तुनिष्ठता/निष्पक्षता 1920 के दशक में एक अवधारणा के रूप में अध्ययन के अन्य क्षेत्रों से पत्रकारिता की ओर चली गई। यह माना गया था कि पत्रकारों के लिए उद्देश्यपूर्ण होना असंभव है। उनके अपने पक्षपाती दृष्टिकौण होंगे।

रोसेनस्टिएल ने लिखा, “विचार यह था कि पत्रकार अपनी रिपोर्टिंग में समाचार उद्देश्यपूर्ण सत्यापन तथा अवलोकन योग्य हो, और उन्हे दोहराए जाने वाले तरीकों को नियोजित करने की आवश्यकता है- वे इसलिए ठीक है क्योंकि वे व्यक्तिगत उद्देश्य कभी नहीं हो सकते हैं। रिपोर्टिंग के उनके तरीके उद्देश्यपूर्ण होने चाहिए जो कभी नहीं हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, सामाजिक विज्ञान की ठीक धारणा यही है कि शोधकर्ताओं व्यक्तिगत अंदाज़ों पर काबू पाने के लिए यादृच्छिक नमूने ले और सही नतीजे पर पहुंचे।

इलिंग को, रोसेन्स्टियल ने अपने ट्विटर पर की गई टिप्पणियों पर विस्तार से बताया कि यादृच्छिक नमूने बराबर पत्रकारिता क्या हो सकती हैं। उन्होंने कहा, "बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो मुझे सबूत के बिना बता सकते हैं कि वे क्या विश्वास करते हैं, लेकिन पत्रकारिता एक साक्ष्य-आधारित पेशा होना चाहिए, न कि एक राय-आधारित। वहाँ बहुत से मत हैं जिनका पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं है- जो सिर्फ भाषण है।और भाषण एक पत्रकार का काम नहीं बनना चाहिए।

मीडिया को कैसे बर्ताव करना चाहिए

लेकिन नेताओं के भाषणों में खबरें होती हैं, यहां तक कि जानबूझकर झूठ या आधे-अधूरे सच के साथ बातें कही जाती हैं। इस तरह के भाषण पत्रकारों के लिए एक चुनौती हैं कि उन्हें उन्हें कैसे रिपोर्ट करना चाहिए: क्या उन्हें अपने पाठकों को बताए बिना पूरे पैराग्राफ को उद्धृत करना चाहिए कि वे दावे सही हैं या गलत?

2012 के राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान द न्यूयॉर्क टाइम्स के सार्वजनिक संपादक, आर्थर एस ब्रिस्बेन ने इस समस्या को उजागर किया था। तब रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी ने बार-बार दावा किया था कि राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने भाषण में हर समय "अमेरिका को माफी मांगने" की बात कहते हैं, जबकि ओबामा ने एक बार भी ऐसा नहीं किया। इसके एक स्तंभकार पॉल क्रुगमैन ने पाने एक लेख में, रोमनी के झूठ के बारे में लिखा था।

ब्रिस्बेन ने लिखा, "एक ओप-एड स्तंभकार के रूप में, श्री क्रूगमैन को स्पष्ट रूप से यह कहने की स्वतंत्रता है कि वे क्या सोचते हैं जो झूठ है। पाठकों के लिए मेरा सवाल है: क्या समाचार पत्रकारों को भी ऐसा करना चाहिए? ” ब्रिस्बेन ने एक पाठक के पत्र से उद्धृत किया, जो जानना चाहता था "कि पेपर की हार्ड-न्यूज कवरेज की भूमिका क्या है, उम्मीदवारों या अन्य के गलत बयानों के संबंध में।"

पत्र-लेखक ने पहचाना था कि न्यूयॉर्क टाइम्स सामान्य तौर पर, अलग-अलग लेखों में झूठ का दस्तावेजीकरण करता है। लेकिन उस व्यक्ति ने एक दार्शनिक बात भी उठाई: यदि अखबार का बड़ा लक्ष्य सत्य है, तो क्या सच्चाई को उसकी प्रमुख कहानियों में अंतःस्थापित नहीं किया जाना चाहिए? दूसरे शब्दों में, यदि कोई उम्मीदवार बार-बार एक झूठ बोलता है (मैं अस्पष्ट निहितार्थों को छोड़ देता हूं), तो टाइम्स की कवरेज में उस झूठ को उस बिंदु पर नहीं पकड़ना चाहिए जहां लेख उसे उद्धृत करते है? "

इसका मतलब होगा, जैसा कि ब्रिस्बेन ने कहा था, रोमनी के भाषण पर एक समाचार रिपोर्ट में एक पैराग्राफ है, कमोबेश, "राष्ट्रपति ने अमेरिकी नीति या इतिहास के बारे में एक भाषण में 'माफी' शब्द का इस्तेमाल कभी नहीं किया है। अमेरिकी कार्रवाइयों पर राष्ट्रपति के शब्दों की भ्रामक व्याख्या माफी मांगने पर आ कोई भी दावा नहीं करता है।"

2012 से संयुक्त राज्य अमेरिका कितनी दूर हुआ है, इसका अंदाज़ा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के विस्कॉन्सिन में 26 अक्टूबर को 90 मिनट के भाषण पर द न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट से देखा जा सकता है। अखबार ने लिखा कि ट्रम्प ने 131 गलत बातें या गलत बयान दिए, और ट्रम्प के हर एक झूठ को लाल रंग से चिह्नित किया गया। यह कुछ लोगों को  उद्देश्यपूर्ण नहीं लग सकता है, लेकिन यह निश्चित रूप से सत्य की जांच से गुजरता है, एक जांच जिससे भारतीय मीडिया भागवत के भाषण की अपनी रिपोर्टिंग में विफल रहा, क्योंकि यह अतीत में भी अन्य नेताओं की कवरेज के विभिन्न अवसरों पर ऐसा नहीं कर सका था। अबस आमय आ गया  है कि हम व्याख्यात्मक रिपोर्टिंग पर स्विच कर लें।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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