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आरएसएस पर मेरी किताब झूठ और नफ़रत के ख़िलाफ़ समुदायों को एकजुट करने का प्रयास करती है—देवानुरु महादेव

कन्नड़ साहित्य के दिग्गज कहते हैं कि संविधान को कमज़ोर करने वाली ताकतों से लड़ने के लिए निजी असहमति काफी नहीं है। लोगों को सच्चाई को समझना चाहिए और इस संदेश को व्यापक रूप से फैलाने के लिए संगठित होना चाहिए।
Devanoora Mahadeva
Image Courtesy: www.thenewsminute.com

देवनुरु महादेव कर्नाटक में सबसे प्रसिद्ध और काफी सम्मानित साहित्यिक आवाजों में से एक हैं। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखर आलोचक भी हैं और उन्होंने हाल ही में आरएसएस: आला मट्टू अगला यानि आरएसएस: इट्स डेप्थ एंड विड्थ शीर्षक से एक किताब लिखी और उसे प्रकाशित करवाया है। 

यह पुस्तक, जो आरएसएस के देशव्यापी विस्तार की परतों को खोलती है, के प्राकाशित होते ही हजारों प्रतियां बिक गईं और जल्दी से अन्य भाषाओं में अनुवाद के लिए उपलब्ध हो गई। आला मट्टू अगला की सफलता कर्नाटक में और आरएसएस और उसकी राजनीतिक शाखा, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बढ़ते पदचिह्न पर बढ़ते गुस्से और असंतोष की सीमा को प्रकट करती है। राजेंद्र चेन्नी ने हाल ही में महादेव से बात की और पूछा कि उन्होंने असामान्य प्रकाशन की शैली वाली किताब क्यों लिखी, और आरएसएस और भाजपा के बढ़ते प्रभुत्व और संस्थानों और राजनीति पर नियंत्रण के बारे में उन्हें सबसे ज्यादा चिंता किस बात की है। 

उनका कहना है कि नागरिकों को "आरएसएस के फ्रिंज समूहों के चलते देश में फैल रही विनाशकारी अराजकता" के मूल कारणों की पहचान करने में सक्षम होना चाहिए।

राजेंद्र चेन्नी (आर सी): दक्षिणपंथी विचारों की आलोचना आपके लेखन या कार्यों में कोई नई बात नहीं है। आपके कई लेख एज बिड्डा अक्षरा ऐसे विचारों की कठोर आलोचना करते हैं। बहरहाल, इस पुस्तक में आपने आरएसएस की आत्मा को पकड़ने की कोशिश की है। इस पुस्तक को लिखने के लिए आपको किस बात ने प्रेरित किया?

 देवनुरु महादेव (डी एम): मैं आमतौर पर 'वामपंथी' और 'दक्षिणपंथी' शब्दों का इस्तेमाल नहीं करता हूं। एक बार, एक बैठक में, जिसका विवरण मुझे याद नहीं है, किसी ने मुझे 'वामपंथी' कहा था। मैंने सभा को बताया कि फ्रांसीसी साम्राज्य के समय में जो लोग परिवर्तन चाहते थे, वे सम्राट के बाईं ओर बैठे थे और जो नहीं चाहते थे, वे उनके दाहिने ओर बैठे थे। फिर मैंने टिप्पणी करने वाले व्यक्ति से पूछा, "तो, क्या आप वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी हैं?" और उन्होंने कहा, "मैं वामपंथी हूं।" आज भी ये शब्द जीवित नहीं हैं। इसलिए, सरलता के लिए, मैं इसके बजाय 'अगड़े' और 'पिछड़े' शब्दों का उपयोग करता हूं।

आरएसएस की आत्मा को समझने का मेरा प्रयास कई कारणों से प्रेरित था- जिसमें आरएसएस का उकसाना, भाजपा सरकार द्वारा छल करना, और आरएसएस के फ्रिंज समूहों के चलते विनाशकारी अराजकता का माहौल तैयार होना। कुछ घटनाएं मुझे काफी समय से परेशान कर रही थीं। मैंने संक्षेप में ईडब्लूएस के आरक्षण के बारे में लिखा था। मैंने धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के कर्नाटक संरक्षण विधेयक, 2021 पर भी कुछ नोट्स तैयार किए थे, जो वास्तव में धर्म परिवर्तन को प्रतिबंधित करता है।

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इतनी गहरी उथल-पुथल के समय, पाठ्यपुस्तक विवाद भी छिड़ गया। इस मामले में सरकार ने काफी परेशानी खड़ी की। जब मैंने हेगड़ेवार के पाठ को पाठ्यक्रम में शामिल करने पर आपत्ति जताई तो माननीय शिक्षा मंत्री बी.सी. नागेश ने इस पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने एक पल के लिए भी मेरी आपत्तियों पर विचार नहीं किया। मेरा पूछने का सिर्फ यह इरादा था कि हेगड़ेवार का छात्रों से कैसे परिचय कराया जाए। मैं चर्चा करना चाहता था कि क्या बच्चों की शिक्षा के लिए हेगड़ेवार को आरएसएस के संस्थापक के रूप में पेश करना उचित होगा, जो हिंदू धर्म के चतुर्वर्ण की वकालत करते हैं। मैंने कहा कि पाठ्यक्रम का इस तरह का भगवाकरण एनडीए सरकार का मुरली मनोहर जोशी के समय से चल रहा कार्यक्रम था, जो उस समय मानव संसाधन विकास मंत्री थे। माननीय शिक्षा मंत्री बी.सी. नागेश ने इस बयान का जवाब देते हुए कहा, "देवनूरा महादेव सही हैं। वाजपेयी सरकार के खाते में कई उल्लेखनीय उपलब्धियां थीं। अच्छी सड़कें विकसित हुईं।”

अब, मैं इस तरह के बयान पर क्या प्रतिक्रिया देता? इस पूरे घटनाक्रम के दौरान भाजपा नेता और आरएसएस समर्थक बुद्धिजीवी सब उठ खड़े हुए। कुछ और भी थे जो आपत्तिजनक बयान दे रहे थे। जब सनेहल्ली के पुजारी ने ग्रंथों में बसवन्ना के विकृत चित्रण के बारे में मुख्यमंत्री को लिखा, तो मुख्यमंत्री ने जवाब दिया, “हां, कुछ छोटी-मोटी त्रुटियां हैं। उन्हें ठीक किया जाएगा।" बसवन्ना का चित्र मौजूद है, लेकिन उसकी आत्मा को निकाल दिया गया है। अगर वे इस तरह की विकृति को एक छोटी सी त्रुटि कह सकते हैं, तो इसके बारे में फिर क्या कहा जा सकता है? इससे मेरे अंदर गहरी उथल-पुथल मच गई। इस उथल-पुथल से बाहर आने के लिए, मैंने इस मुद्दे की जड़ तक पहुंचने के लिए इस मुद्दे के बारे में और अधिक पढ़ने में एक महीना बिताया। फिर इस पर लिखने के लिए दो सप्ताह तक संघर्ष किया। इसे स्पष्ट और सरल बनाने के लिए इसे संपादित करने में मुझे एक महीने से अधिक का समय लगा।

आर.सी : आरएसएस के विचारों के प्रचार में, आपने अतीत के शरारती, पुराने और खतरनाक विचारों को समकालीन बनाने के प्रयासों को देखा है। उनके अतीत के प्रति जुनून का कारण क्या है? क्या आरएसएस देश को ऐतिहासिक समय में वापस खींचने का बेतुका प्रयास कर रही है?

डीएम: मैंने इस घटना को समझने का प्रयास किया है।  मैंने संगठन के विकास के क्रम को पहचानने की कोशिश की है। मैंने जो कुछ भी सीखा, उसके बारे में लिखा है।

आर.सी.: आपने कहा है कि आपकी पुस्तक का उद्देश्य आरएसएस की धारणा और उसकी वास्तविकता के बीच के विशाल अंतर की ओर ध्यान आकर्षित करना है। आज भी, आरएसएस शिक्षित भारतीय मध्यम वर्ग में प्रशंसा और खुद के बचाव को आकर्षित करती है। यह कैसे हुआ?

डीएम: यह व्यावसायीकरण का युग है। किसी वस्तु का मूल्य उसकी गुणवत्ता के बजाय बेचने या व्यापार की रणनीति के ग्लैमर से तय होती है। समाज में सुसंस्कृत, सभ्य मानदंड को निरूपित करने के लिए 'यूज़ एंड थ्रो' का सिद्धांत विकसित हुआ है। मानव बुद्धि, सरलता और प्रतिभा आम आदमी को धोखा देने के उपकरण बन गए हैं। वे मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने के बजाय लोगों को धोखा देने के लिए रणनीति विकसित करने की कोशिश में अधिक पैसा खर्च करते हैं। ऐसी परिस्थितियों में, हम उस स्थिति में पहुंच जाते हैं, जिसमें अब हम स्वयं को पाते हैं।

आर सी: आपने गोलवलकर को, आर्य जाति की शुद्धता की रक्षा के लिए यहूदियों को भगाने में नाजियों की रणनीति की प्रशंसा करते हुए और भारतीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ इसी तरह की रणनीति की वकालत करते हुए उद्धृत किया है। यह एक ऐसा विचार है जो आज के युग में भी भयानक है। कई बुद्धिजीवियों की राय है कि भारत नरसंहार के कगार पर है। क्या आपको लगता है कि अल्पसंख्यकों और उसके समर्थकों का नरसंहार होना तय है?

डीएम: मुझे लगता है कि एक निश्चित बिंदु के बाद, ऐसी चीजें हैं जो मानवीय तर्क या समझ से परे की बात हैं। हमने कई बार देखा है कि परिस्थितियां पूरी तरह से बदल जाती हैं। इतिहास ने दिखाया है कि अपनी कब्र खोदने से कोई भी 'चरम' स्थिति खत्म हो सकती है। वर्तमान में भी ऐसा ही हो रहा है। हमारे अचेतन मन में भी, हम सभी पौराणिक संस्थाओं की कहानियों को जानते हैं, जिन्हें अपने अहंकार के कारण धूल चाटनी पड़ी थी।

आर सी: गोलवलकर और सावरकर दोनों का मत था कि मनुस्मृति ही देश का सच्चा संविधान होना चाहिए। बाबासाहेब अम्बेडकर ने विरोध में सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति को आग के हवाले किया था। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि आरएसएस संविधान की दुश्मन है?

डीएम: चेन्नी, क्या इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए किसी बुद्धिमान से पूछने की जरूरत है?

आर सी: आपने गोलवलकर का उल्लेख किया है जिन्होंने आर्य जाति की श्रेष्ठता का प्रदर्शन करने के लिए केरल का उदाहरण दिया था और बाद में अपना बयान वापस ले लिया था। क्या यह अभी भी आरएसएस का मूल सिद्धांत नहीं है? इस विश्वास का विरोध करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?

डीएम: हमें पहले झूठ और बेतुके अनुमानों के बिना सच्चाई को समझना चाहिए। यदि हम अपने विचार आपस में ही व्यक्त कर दें तो यह काफी नहीं है। इस संदेश को लोगों तक पहुंचाने के लिए हमें छोटी-छोटी गतिविधियों का आयोजन करना चाहिए। यह समुदाय ही है जिसे इस मुद्दे पर बोलने की जरूरत है।

आरसी: आपने कहा है कि मोदी ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण देकर संविधान को झटका दिया है। ऐसे समय में जब आरएसएस सामाजिक न्याय और आरक्षण की अवधारणा को ही नष्ट कर रही है, आरक्षण के लिए हमारे संघर्ष का स्वरूप क्या होना चाहिए?

डीएम: स्वरोजगार के सृजन और स्थानीय समुदायों की प्रतिभा को निखारने के लिए छोटे सहकारी संगठनों की स्थापना में, एक ओर पिछड़ा वर्ग और ग्रामीण समुदायों को सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। प्रत्येक घर से एक स्वयंसेवक को पूरे गांव की भलाई के लिए सामूहिक कार्यों को पूरा करने के लिए आगे आना चाहिए। जहां भी संभव हो, ऐसे समुदायों के लोगों को भी शैक्षिक अवसरों का लाभ उठाना चाहिए। दूसरी ओर, लोगों को सरकार की जनविरोधी नीतियों और कानूनों पर बहस और चर्चा करने में सक्षम होना चाहिए। जो लोग हमें बचाना चाहते हैं, उन्हें हमेशा उन ताकतों से सावधान रहना चाहिए जो संविधान को कमजोर करना चाहती हैं। सहभागी लोकतंत्र और निजी क्षेत्रों में उत्पीड़ित वर्गों के लिए आरक्षण के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए एक आंदोलन आवश्यक हो सकता है।

आर.सी: आपने तर्क दिया कि आरएसएस के खिलाफ संघर्ष में सभी संगठनों का हाथ मिलाना आवश्यक है। इसे हासिल करना मुश्किल क्यों रहा है? कर्नाटक में दलित संगठनों ने इस संबंध में क्या भूमिका निभाई है?

डीएम: हाल के घटनाक्रम को देखें। पहले राज्य के सभी प्रमुख संगठन व्यक्तिगत रूप से काम करते थे। हाल के दिनों में, वे सभी गठबंधन बनाने के लिए एक साथ आ रहे हैं। इसे हासिल करने के लिए कई संघर्ष भी किए गए हैं। सीएए का विरोध हो या किसान विरोधी कानून, ये सभी आंदोलन संगठन की बनी व्यापक फेडरेशनों के तहत किए गए हैं। साथ ही जनांदोलन महामैत्री का एक प्रगतिशील मंच है जो अस्तित्व में आया है। मैंने करीब से देखा है कि दलित और किसान संगठन लगभग सहयोगी संगठन बन गए हैं। मेरे हिसाब से यह एक असाधारण विकास है। यहां मुख्य मुद्दा यह है कि मंच बनाने वाले संगठन अपनी विचारधारा और सिद्धांतों इर्दगिर्द घूमते रहते हैं। जब हम वर्तमान में जीना शुरू करते हैं, तो कई समस्याओं का समाधान हो जाता है। फिर, कठोरता कम हो सकती है और रचनात्मक विचार विकसित होता है। जिसे वे विचारधारा मानते हैं वह खिल भी सकती है।

आरसी: आपके द्वारा सामने सुझाए गए समाधानों में से एक है विवेकशीलता को बढ़ाने की जरूरत। क्या यह पक्षपाती मीडिया, फेक न्यूज और प्रचार के व्यवस्थित प्रसार के बीच संभव है?

डीएम: यह सच है कि देश भर में फेक न्यूज और पेड न्यूज का बवंडर चल रहा है। सच बोलने वालों को 'देशद्रोही' के रूप में चित्रित करने के लिए एक संगठित, व्यवस्थित प्रयास भी जारी हैं। ऐसी परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए? हम कब तक उनकी आलोचना करके निराश होते रहेंगे? क्या करोड़ों लोगों तक पहुंचने वाली मीडिया बनाने के लिए उपलब्ध नई तकनीक का उपयोग करना संभव नहीं है? हमारी आंखों के सामने इस तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। हम ऐसे प्रयासों को नहीं पहचानते हैं। 

.कर्नाटक में, कई संगठन www.eedina.com नामक वेबसाइट शुरू करने के लिए एक साथ आए हैं। वेबसाइट पहले से ही काम कर रही है, लेकिन 15 अगस्त को पूरी तरह से लॉन्च हो जाएगी। मैंने भी इस उद्यम का समर्थन करने के लिए हाथ मिलाया है। यह एक नए युग का आंदोलन है, जिसका सैकड़ों लेखकों, प्रगतिशील कार्यकर्ताओं और प्रौद्योगिकीविदों द्वारा समर्थन किया जा रहा है। हम मानते हैं कि व्हाट्सएप और फेसबुक के माध्यम से लोगों को संगठित करना ही काफी नहीं है। इसके बजाय, हमने लगभग 100 तालुकों में जमीनी स्तर पर मीडियाकर्मियों का एक समुदाय बनाया है। यह आंदोलन अन्य तालुकों में भी फैल रहा है। इस वेबसाइट की वार्षिक सदस्यता 1000 रुपए है। और आजीवन सदस्यता 1,00,000 रुपए है।  कोई भी व्यक्ति पैसों का योगदान कर सकता है। कोई भी व्यक्ति 10,00,000 का योगदान कर निवेशक बन सकता है। क्या कर्नाटक में 50 लोगों को ढूंढना बहुत मुश्किल बात है जो रुपये का योगदान कर सकते हैं। वह भी केवल 10,00,000? इसी तरह, क्या हम 10 साल के लिए 1,000 लोगों को सब्सक्राइबर बनने के लिए नहीं ढूंढ सकते हैं? बड़ी मुश्किल से मैंने एक निवेशक बनने का फैसला किया है। मैं आपसे और आपके दोस्तों से भी निवेशक बनने का अनुरोध करूंगा।

“एक बार जब यह वेबसाइट लॉन्च हो जाएगी, तो आम लोगों के जीवन के बारे में सच्चे तथ्य सार्वजनिक मंच पर चर्चा के केंद्र में होंगे। झूठ और नफ़रत से भरी राजनीति की जगह सत्य और प्रेम मुख्य स्थान ले लेंगे। यह जीवन-समर्थक विचारों के साथ समाज के विचार के तौर-तरीकों को बदलने की दिशा में एक नया प्रयास है। यह सत्य, न्याय और मानवता की रक्षा और पोषण का एक आंदोलन है।"

यह न्यू मीडिया का आदर्श है। हम कब तक इस बारे में बात करते रह सकते हैं कि वे कैसे आग लगा रहे हैं और समाज को नष्ट कर रहे हैं? आज के बाद, हम अपनी हक़ीक़त के बारे में बात करेंगे। जहां तक संभव हो, हम छोटी-छोटी गतिविधियों में शामिल होंगे। 

आर सी: आपकी किताब बड़ी तादाद में प्रकाशित हो रही है और लगातार मांग जारी है। क्या आपने अनुमान लगाया था कि यह प्रकाशन इस तरह की हल-चल पैदा कर देगा? क्या यह उत्साह राजनीतिक प्रतिरोध की ताकत बनने के लिए और आगे बढ़ सकता है?

डीएम: मुझे नहीं पता कि यह राजनीतिक प्रतिरोध की ताकत में बदल सकता है या नहीं। मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरी किताब आरएसएस आला मट्टू अगला, इतनी व्यापक रूप से वितरित की जाएगी। आरएसएस आला मट्टू अगला पुस्तिका का पहला संस्करण जून के अंत में प्रकाशित हुआ था। अब जुलाई है। जब मैंने पूछा कि कितनी प्रतियां बिकी हैं, तो मुझे बताया गया कि पाठकों ने एक लाख से अधिक प्रतियां खरीदी हैं। मुझे यह भी पता चला कि बहुत से लोग अभी भी अधिक प्रतियां प्रकाशित करने के लिए पैसे भेज रहे हैं। यह मेरी समझ से परे है।

यह भी हो सकता है – कि पुस्तक का प्रकाशन अपने आप में एक अनूठा प्रयोग था। ऐसा दूरदर्शिता के साथ किया गया था। जब छह प्रकाशकों ने किताब की 9,000 प्रतियां छापने के लिए एकत्र हुए, तो वे सभी केवल दो दिनों में बिक गई थीं। उन्होंने पुस्तिका को फिर छापना  शुरू किया। ध्यान देने वाली एक घटना यह है कि कुछ तालुकों ने एक साथ मिलकर अपने स्वयं के प्रकाशन गृहों का गठन किया ताकि पुस्तिका को छापा जा सके। मेरे काम को छापने के लिए कुछ संगठन भी आगे आए हैं। उदाहरण के लिए, मैसूर के मनासा गंगोत्री के श्रम कुमार ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर इस पुस्तिका की 2,000 प्रतियां छापने के लिए धन जुटाया है और इसे वितरित कर रहे हैं। गुलबर्गा की कुछ महिलाएं और दावणगेरे के युवा पुस्तक को छापने और वितरित करने के लिए आगे आए हैं। और एक सेवानिवृत्त अधिकारी ने फैसला किया है कि उसने अब तक काफी बात की है लेकिन अब वह पुस्तिका प्रकाशित करने में पैसा लगाना चाहता है और इस तरह से एकत्रित धन को दूसरे तालुक में दान करना चाहते हैं। कई जगहों पर शादियों और हाउस वार्मिंग सेरेमनी में बुकलेट गिफ्ट की जा रही है। कांग्रेस और जद (एस) और अन्य दलों के सदस्यों ने पुस्तकों की हजारों प्रतियां खरीदी हैं और उन्हें वितरित कर रहे हैं। ऐसा मत सोचो कि भाजपा के सदस्य इससे दूर हैं!

आर सी: क्या आप शूद्र और दलित युवाओं को कुछ कहना चाहेंगे जो आरएसएस के पैदल सैनिक हैं और विनाशकारी और हिंसक गतिविधियों में शामिल हैं?

डीएम: कम से कम, हम उन्हें पहले के शूद्र कह सकते हैं। आइए हम उन्हें सामूहिक रूप से दलित, पिछड़े समुदायों के आदिवासी और खानाबदोश कहें। यदि आप कहते हैं कि ऐसे समुदायों के युवा पैदल सैनिक बन गए हैं, तो मुझे पूछना चाहिए कि ऐसे युवाओं के लिए रोजगार के अवसर कहां हैं? मोदी ने देश को बेरोजगारी में डुबो दिया है। युवा दिशाहीन हो रहे हैं और बिना उद्देश्य के भटक रहे हैं।

दूसरी ओर, ऐसे व्यक्ति, समूह और संगठन भी हैं जो आरएसएस का विरोध कर रहे हैं। वे आरएसएस के पेड आईटी सेल द्वारा प्रसारित फर्जी खबरों का खंडन करने में शामिल हैं। हालांकि, वे इस तरह के प्रचार के खिलाफ युद्ध छेड़ने में अपना सारा समय और ऊर्जा खर्च कर रहे हैं। वे लगातार आरएसएस के बारे में सोच रहे हैं। अगर वे कुछ मिनट शांत चिंतन में बिताते हैं, तो उन्हें एहसास होगा कि वे एक द्वीप बन गए हैं। वे स्थानीय प्रयासों की पहचान कर सकते थे जिनके लिए वे अपनी ऊर्जा को निर्देशित कर सकते थे। ऐसा करने से सामुदायिक जीवन का विकास हुआ होता। मैं उनसे क्या कह सकता हूं? अगर मैं कुछ कहूँ  भी, तो ऐसी दिनचर्या के आदी लोग मेरी बात सुनना पसंद नहीं करेंगे। मैं मजबूर हूँ। मैं केवल उनसे याचना कर सकता हूं।

(राजेंद्र चेन्नी एक अकादमिक, लेखक और मनासा सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज, शिवमोग्गा के निदेशक हैं। वे सांप्रदायिक सद्भाव के कई आंदोलनों में शामिल रहे हैं) 

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

My Book on RSS Seeks to Unite Communities Against Lies and Hate—Devanuru Mahadeva

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