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जम्मू-कश्मीर में केंद्र के दो एजेंडे: लैंड यूज पर नियंत्रण और खाद्य सुरक्षा का खात्मा

जम्मू-कश्मीर का समाज कृषि प्रधान है। जमीन के इस्तेमाल पर सामाजिक नियंत्रण और खेती-किसानी से जुड़े अधिकारों को यहां बड़े श्रम साध्य सुधारों के जरिये संस्थागत किया गया। लेकिन केंद्र के कृषि कानूनों की वजह से जम्मू-कश्मीर की जनता का बहुत कुछ छिन जाएगा।
जम्मू-कश्मीर में केंद्र के दो एजेंडे: लैंड यूज पर नियंत्रण और खाद्य सुरक्षा का खात्मा
प्रतीकात्मक तस्वीर , सौजन्य : दैनिक ट्रिब्यून

इस साल सितंबर में मोदी सरकार तीन बेहद विवादास्पद कृषि बिल पारित कर दिए। ये थे - कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) बिल 2020,  मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध बिल 2020 और आवश्यक वस्तु अधिनियमश (संशोधन) बिल, 2020।

ये बिल अब कानून बन चुके हैं। लेकिन इन कानूनों का पूरे देश के किसान का विरोध कर रहे हैं। किसान कोविड-19 के प्रतिबंधों की अनदेखी करके इन कानूनों के विरोध में मैदान में उतर पड़े हैं। इन कानूनों के लागू होने के बाद से ही कृषि सेक्टर को खोलने के लेकर विरोधी स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। कहा जा रहा है कि इन कानूनों की वजह से निजी क्षेत्र के पूंजीपतियों के हाथों किसानों के शोषण शुरू हो जाएगा। उनकी मुनाफाखोरी बढ़ेगी और किसानों के औरहाशिये पर जाने की आशंका बढ़ जाएगी। ये कानून किसान समुदाय के गरीबी के दलदल में धकेल देंगे।
 
किसानों के लिए औपनिवेशिक काल की वापसी
 
अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने इस पूरी बहस में ओझल हो रहे एक अहम पहलू को उठाया है। यह मुद्दा है खाद्य सुरक्षा का। उनके मुताबिक यह इस पूरे उष्णकटिबंधीय इलाके को खाद्य सुरक्षा से महरूम करने का यह साम्राज्यवादी एजेंडा है। यह इस पूरे क्षेत्र को खाद्य वस्तुओं के आयात पर निर्भर बनाने का एजेंडा है।

इस एजेंडे के तहत अनाज उगाने के लिए इस्तेमाल होने वाली जमीन को नकदी फसलों-  पेय पदार्थ तैयार करने वाली फसल, धागा तैयार करने वाली फसलों, सब्जियों और फलों की खेती की ओर मोड़ दिया जाता है क्योंकि विकसित देश इनकी खेती नहीं करना चाहते।  

अपने इस एजेंडे को लागू करने के लिए विकसित देशों में बैठी साम्राज्यवादी ताकतें दो काम करती हैं- 1. उष्ण कटिबंधीय इलाकों की जमीन पर नियंत्रण करने की कोशिश और 2. तीसरी दुनिया के देशों की सरकारों को अनाज उगाने वाली जमीन को नकदी फसल उगाने वाली जमीन को बदलने की इजाजत देने के लिए बाध्य करने काम। यह उष्ण कटिबंधीय इलाकों की जमीन को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए खोलने की कोशिश है। इस दिशा में आगे बढ़ने का सीधा मतलब खाद्य सुरक्षा और तीसरी दुनिया की आत्मनिर्भरता खो देना है। इससे किसानों के अबाध शोषण का रास्ता भी खुल जाता है।

पटनायक बताते हैं कि खेती की जमीन को अन्न उपजाने के बजाय नकदी फसलों की खेती की ओर मोड़ना इसे औपनिवेशक समय में ले जाना है जब फसलें निर्यात के लिए उगाई जाती थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी ने किसानों को इस तरह की खेती के लिए बाध्य किया था।

साम्राज्यवादी ताकतों के हाथों किसानों के इस शोषण की वजह से ही औपनिवेशक काल के बाद की सरकारों ने आत्मनिर्भरता और खाद्य सुरक्षा पर खास जोर दिया था। औपनिवेशक शासन के बाद में भारत में ‘अधिक अन्न उपजाओ’ और ‘एक वक्त खाली पेट रहो’ जैसे नारे उछाले गए। क्योंकि भारत अपनी आर्थिक आजादी हासिल करने और बाहर से अन्न मंगाए बिना अपने नागरिकों का पेट भरने के लिए प्रतिबद्ध था।
 
जम्मू-कश्मीर और नए कृषि कानून
 
जम्मू-कश्मीर सरकार ने भी पूरी गंभीरता से ‘अधिक अन्न उपजाओ’ की नीति गंभीरता से लागू की थी। आजादी के बाद शेख अब्दुल्ला की सरकार इस नीति को दो मकसद से लागू करना चाहती थी। एक तो वह जम्मू-कश्मीर को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे, दूसरे वह अपने राज्य की राजनीतिक स्वायत्तता को बरकरार रखना चाहते थे क्योंकि केंद्र पर आर्थिक तौर पर निर्भर रहने से इसकी राजनीतिक स्वायत्तता को चुनौती मिल रही थी।

‘अधिक अन्न उपजाओ’ की नीति कि तहत जम्मू-कश्मीर की सरकार ने अपने मालिकाना हक वाली पूरी जमीन में किसानों को खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया। एक साल के अंदर ही यानी 1948 से 1949 के बीच ही सरकार ने भूमिहीन किसानों को 1,85,583 कनाल (एक कनाल – 0.125 हेक्टेयर) जमीन बांट दी। इससे कृषि उत्पादों की पैदावार बढ़ कर दो लाख मन ( एक मन – 37.32 किलो) तक पहुंच गई।

1952 में रणवीरसिंह पोरा के एक भाषण में शेख अब्दुल्ला ने कहा, “ यह सुनने से मर जाना अच्छा होगा भारत हमें रोटी देता है। ” यह काफी महत्वाकांक्षी योजना थी क्योंकि राज्य के पास संसाधनों की कमी थी और यह वित्तीय संकट से गुजर रहा था। दरअसल विभाजन के बाद  हाईवे और पाकिस्तान और मध्य एशिया से जोड़ने वाले कारोबारी मार्ग बंद हो चुके थे। लिहाजा राज्य के सामने आर्थिक संकट खड़ा हो गया था।

राज्य सरकार बाहर से अनाज मंगाने का विकल्प आजमाना नहीं चाहती थी। अनाज की कमी का इलाज ढूंढने के लिए राज्य नेतृत्व ने लोगों को उनका मुख्य भोजन चावल का विकल्प अपनाने लिए प्रोत्साहित किया। लोगों के लिए नजीर कायम करने के लिए शेख अब्दुल्ला ने खुद एक वक्त मक्के से बना भोजन खाना शुरू किया।

बहरहाल, सात दशक बीत चुके हैं और इस बीच राज्य का सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हुलिया पूरी तरह बदल चुका है। राज्य की स्वायत्तता तो धीरे-धीरे खत्म हो ही रही थी, पिछले साल ( 2019) ने केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 को पूरी तरह खत्म करे इसे पूरी तरह छीन लिया।

लिहाजा, इस पृष्ठभूमि में इस बात का आकलन बेहद अहम है आखिर केंद्र सरकार की ओर से लाए गए नए कृषि कानूनों का जम्मू-कश्मीर के धान के खेतों पर क्या असर पड़ेगा? आखिर इस इलाके की खाद्य सुरक्षा के लिए इन कानूनों के क्या मायने हैं?
 
जम्मू-कश्मीर पर नए कृषि कानूनों का कहर

 
जम्मू-कश्मीर के लोगों की आजीविका की प्रमुख स्त्रोत खेती-बाड़ी और इसकी सहायक गतिविधियां ही हैं। राज्य की 70 फीसदी आबादी इसी पर निर्भर है। राज्य के सकल जीडीपी यानी GSDP में कृषि सेक्टर की हिस्सेदारी 50 फीसदी भी अधिक है। 1951 के बाद राज्य में अनाज का उत्पादन तीन गुना बढ़ा है लेकिन अब भी इसे अपनी जरूरत का 40 फीसदी अनाज और 20 फीसदी सब्जियों के लिए बाहरी राज्यों पर निर्भर रहना पड़ता है।  

राज्य के 7.35 लाख हेक्टेयर में खेती होती है, जो कुल रकबे का 35 फीसदी है। जबकि राष्ट्रीय औसत 46 फीसदी है। जम्मू संभाग में धान, गेहूं, मक्का, दलहन, तिलहन की खेती होती है, जबकि कश्मीर संभाग में हाई क्वालिटी धान, मक्का, फल और केसर, बादाम, अखरोट, अंजीर,चेरी और सेब जैसी नकदी फसल होती है।

बागवानी में काफी इजाफा हुआ है। 1953-54 में सिर्फ 12.4 हजार हेक्टेयर के इलाके में फलों की खेती होती थी लेकिन मौजूदा दौर में यह बढ़ कर 3.25 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गई है। 1953-54 में यहां 16 हजार टन फलों की पैदावार होती थी लेकिन अब यह 22 लाख तक पहुंच गई है। देश में सेब की जितनी पैदावार होती है उसमें जम्मू-कश्मीर की अकेले 60 फीसदी हिस्सेदारी है।

पिछले दो दशक से जम्मू-कश्मीर में कृषि भूमि सिकुड़ती जा रही है, क्योंकि खेती की जमीन को तेजी से हो रहे रहे शहरीकरण में इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके अलावा खेती-बाड़ी का फोकस अब अनाज उगाने से ज्यादा नकदी फसल की ओर ज्यादा है। किसानों के लिए अब धान की खेती घाटे का सौदा हो गई है। लिहाजा वे अब बागवानी ( फल-सब्जियों और दूसरी नकदी फसल) की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।

कुलगाम को कभी कश्मीर का धान का कटोरा कहा जाता थ। लेकिन अब यह तेजी से अपना यह दर्जा खोता जा रहा है। धान के खेत अब तेजी से हाउसिंग, फलों के बाग और औद्योगिक जमीनों में तब्दील होते जा रहे हैं। इससे चावल का उत्पादन काफी कम हो गया है। यह ट्रेंड न सिर्फ कुलगाम बल्कि पूरी घाटी में दिख रहा है।

चूंकि चावल कश्मीर के लोगों का मुख्य भोजन है। इसलिए इसके लिए बाहर के राज्यों पर निर्भरता जम्मू-कश्मीर की खाद्य सुरक्षा के लिए चिंताजनक है। एक अनुमान के मुताबिक जम्मू-कश्मीर को हर साल 11 लाख टन चावल की जरूरत होती है लेकिन यह 5.5 लाख टन चावल ही पैदा कर पाता है। चावल की यह कमी दूसरे राज्यों की सप्लाई से पूरी होती है। रिपोर्टों के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में चावल, गेहूं और सरसों की पैदावार क्रमश: छह, चार और चार फीसदी की गिरावट आई है। इन फसलों की पैदावार में कमी के लिए राज्य में फसलें पैदा करने के पैटर्न के साथ जलवायु परिवर्तन भी जिम्मेदार है।

लेकिन नए कृषि कानूनों में नए बदलाव की वजह से जम्मू-कश्मीर में अनाज की खेती को एक और झटका लगना तय है। अब सेब, अखरोट, अंजीर, चेरी और केसर की खेती जैसी नकदी फसलों की मांग बढ़ेगी क्योंकि इसके निर्यात की संभावना बढ़ेगी। इससे किसानों और निजी सेक्टर के कृषि कारोबारियों को फायदा हो सकता है।

लेकिन दूसरी ओर, गेहूं, धान, मक्का, दलहन फसलों की पैदावार घटेगी। इन फसलों के न्यूनतम (MSP) समर्थन मूल्यों को जारी न करने और पंजाब, हरियाणा जैसे कृषि प्रधान राज्यों की प्रतिस्पर्धा की वजह से जम्मू-कश्मीर के किसान इनकी खेती के लिए ज्यादा उत्साहित नहीं होंगे।

नए कृषि कानूनों का जम्मू-कश्मीर की खेती-बाड़ी पर पड़ने वाले असर के बारे में चेतावनी देते हुए जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के वकील, वकास मलिक और रोमान मुनीब ने लिखा, “ केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में अब नए कृषि कानून का स्थायी असर दिखेगा। किसान अब धान और मक्के की जगह वैकल्पिक फसल उगाएंगे ताकि ज्यादा फायदा कमा सकें। अबसे दस साल के बाद जब आप इस प्रदेश के हाईवे से गुजरेंगे तो आपको शायद ही महिला-पुरुष धान के खेतों में घुटने भर पानी में खड़े होकर धान के बिचड़ों को अलग करते मिलेंगे। दस साल पहले का यह दृश्य आपकी यादों में दफन होकर रह जाएगा। ”
 
खेती की जमीन का लगातार बदलाव

2015 में कृषि विभाग के एक सीनियर अफसर ने बताया था कि जम्मू-कश्मीर में शासन करने वाली अब तक की तमाम सरकारें कृषि भूमि में बदलाव की कोशिश में रफ्तार को नहीं रोक सकीं। अफसर का कहना था, “ सरकारें लैंड कन्वर्जन को रोकने के मामले में गंभीर नहीं रहीं वरना श्रीनगर और दूसरे जिलों में धान के खेतों में कॉलोनियां खड़ी करने की इजाजत नहीं मिल सकती थी।”

पिछले चार साल में ( 2015-2019) में कश्मीर ने अपनी 17 फीसदी कृषि भूमि ( 78,700 हेक्टेयर) खो दी है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2015 में 4,67,700 हेक्टेयर कृषि भूमि थी लेकिन 2019 यह घट कर सिर्फ 3,98,00 हेक्टेयर रह गई। 2015 में 1,48,000 हेक्टेयर में धान की खेती होती थी लेकिन 2019 में यह घट कर 1,40,000 हेक्टेयर रह गई। इसी तरह 2015 में मक्के की खेती एक लाख हेक्टेयर जमीन में होती थी लेकिन 2019 में यह घट कर 76 हजार हेक्टेयर रह गई।

पहाड़ी इलाका होने की वजह से जम्मू-कश्मीर में पहले ही जमीन की कमी है। 2015-16 में जितनी जमीन का इस्तेमाल हो रहा था उसमें सिर्फ 26 फीसदी में खेती हो रही थी। पिछले कई सालों से कृषि भूमि सिकुड़ती जा रही है। यहां लैंड होल्डिंग घट कर 0.54 हेक्टेयर हो गई है (राष्ट्रीय औसत 1.66 हेक्टेयर जमीन का है)

2014-15 के आर्थिक सर्वे के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में खेती लायक जमीन कम हो गई है। 1981 में प्रति व्यक्ति कृषि योग्य जमीन 0.14 हेक्टेयर थी लेकिन 2001 में यह घट कर 0.08 हेक्टेयर हो गई और 2012 में 0.06 हेक्टेयर। इन सारी वजहों से खेती-किसानी का काम अब घाटे का सौदा हो गया है। इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि जम्मू-कश्मीर खाद्यान्न की कमी का सामना कर रहा है और इसकी सप्लाई के लिए यह पड़ोसी राज्यों पर निर्भर है।
 
अगर जम्मू-कश्मीर की लैंड पॉलिसी पर बात की जाएगी तो दो समांतर और परस्पर विरोधी ट्रेंड दिखते हैं। एक ओर, खेती की जमीन में लगातार गिरावट से सरकारी हलकों में चिंता है दूसरी ओर प्रशासन खेती की जमीन पर कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स, शॉपिंग मॉल, स्कूल और सर्विस सेंटर बनाने की इजाजत दे रहा है। इसे रोकने के लिए कानून फ्रेमवर्क बना हुआ है। इसके मुताबिक- 1. जहां जमीन की कमी है वहां खेती की जमीन को बचाना है। 2. 1950 से 1970 के बीच हुए सुधारों के जरिये किसानों को जो हक हासिल हुए हैं उन्हें संरक्षित रखना है।

जम्मू-कश्मीर में जमीन से जुड़े कानून राज्य के गैर निवासियों के हाथों यहां की जमीन जाने से बचाने के लिए लागू किए थे। दूसरा उनका मकसद खेती की जमीन को गैर कृषि गतिविधि में इस्तेमाल होने से रोकना था। जम्मू-कश्मीर जमीन हस्तांतरण कानून, 1938, वृहद जमीन-एस्टेट उन्मूलन कानून,1950 और कश्मीर कृषि सुधार कानून, 1973 इसी मकसद से लाए गए थे। इसके बाद जम्मू-कश्मीर भू-राजस्व कानून, 1939 और जम्मू-कश्मीर भू-परिवर्तन निरोधक और बाग उन्मूलन कानून 1975 के तहत सब्जियां उगानें की जमीन, पानी में खेती करने वाली जगहों और बागों की जमीन का नियमन किया गया।

2016 में राजस्व विभाग ने जमीन के इस्तेमाल में होने वाले परिवर्तन के नियमन के लिए एक नीति बनाई। इस नीति में कहा गया, “किसी आवास नीति के न होने की वजह से जमीन के इस्तेमाल से संबंधित नियमों को लागू करना लगभग असंभव हो गया है क्योंकि इसका उल्लंघन करने वालों के सामने भू-संसाधन में परिवर्तन के अलावा और कोई चारा नहीं बचा है। ”

इसमें व्यापक आवास नीति न बनने तक जमीन के इस्तेमाल में परिवर्तन की इजाजत लेने का प्रस्ताव रखा गया है। लेकिन इस कानूनी ढांचा और तमाम नीतियों के रहने के बावजूद कृषि भूमि को बदलने का काम बे रोकटोक और अनियमित तरीके से चल रहा है। यह स्थिति आगे और खराब ही होगी।

अनुच्छेद 370 को खत्म करने और अनुच्छेद 35ए को हटा लेने के बाद जम्मू-कश्मीर में भू-कानूनों को बदल दिया गया है ताकि राज्य की जमीन गैर निवासियों को मिल सके। इसके अलावा कानून में और भी परिवर्तन किए जा रहे हैं ताकि विकास के नाम पर राजधानी दिल्ली के लिए जमीन का बाजार खोला जा सके। जमीन से जुड़े कानूनों को उदार बनाने और ग्लोबल ट्रेड के लिए जमीन के कारोबार से जुड़े बाजार को खोलना नव उदारवादी अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। और जैसा कि पटनायक ने कहा है कि यह सब खेती की जमीन का इस्तेमाल गैर कृषि मकसद के लिए किया जा रहा है। यह इस नव उदारवादी अर्थव्यवस्था का एजेंडा है। लेकिन कश्मीरियों के लगातार विरोध के बावजूद भारत सरकार जम्मू-कश्मीर में लगातार अपने एजेंडों को लागू करते जा रही है।

पिछले साल फरवरी ( 2019) में श्रीनगर मास्टर प्लान, 2035 को जारी किया गया। इसमें शहरीकरण की योजना को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए मौजूदा कानून (कानूनों का एक व्यापक दायरा ) को व्यापक तौर पर पुनर्जीवित करने पर जोर दिया गया है। इस योजना में कहा गया गया कि जमीन के मालिकाना हक से जुड़ी  ‘स्थिर और पुरानी अवधारणाओं’ में संशोधन की जरूरत है। यह कानून भी जमीन से जुड़े कानूनों के व्यापक दायरे में आता है। इसमें जम्मू-कश्मीर स्टेट टाउन प्लानिंग एक्ट 1963 भी शामिल है। इसके अलावा जम्मू एंड कश्मीर डेवलपमेंट एक्ट, 1970 और जम्मू-एंड कश्मीर म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन/म्यूनिसिपल एक्ट, 2000 भी जुड़ा है।

2020 में कश्मीर में जमीन के इस्तेमाल और रियल एस्टेट से जुड़ी कई नीतियां लागू की गई हैं। इनमें जम्मू-कश्मीर हाउसिंग, अफोर्डेबल हाउसिंग, स्लम पुनर्विकास और पुनर्वास और टाउनशिप पॉलिसी, 2020 जुलाई 2020 में लाई गई थी। इसमें बिल्डिंग परमिट फीस, एक्सटर्नल डेवलपमेंट चार्जेज और लैंड यूज कन्वर्जन से छूट के तौर पर प्रोत्साहन दिया गया है।

जम्मू-कश्मीर में कृषि भूमि के अलावा 727 हेक्टेयर जंगल की जमीन को डायवर्जन के लिए चिन्हित किया गया है। इसमें से 33 फीसदी यानी 243 हेक्टेयर वन भूमि को सेना और अर्धसैनिक बलों के इस्तेमाल के लिए बदलने की इजाजत दी गई है। यह इजाजत 18 सितंबर 2019 से लेकर 21 अक्टूबर 2019 के बीच दी गई है। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक भारतीय सेना ने इन अनुमतियों के तहत राज्य की 53,353 हेक्टेयर जमीन ले ली है। इसमें रहने और खेती की जमीन दोनों शामिल हैं। साथ ही वन भूमि, राज्य भूमि और प्राइवेट बिल्डिंग भी शामिल हैं।

अगस्त, 2019 के बाद से कश्मीर की 15 हजार हेक्टेयर जमीन और जम्मू की 42 हजार हेक्टेयर जमीन ( ज्यादातर जमीन पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील इलाकों में है) को इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के लिए चिन्हित किया जा चुका है।  फरवरी, 2020 में जम्मू-कश्मीर की 7,500 एकड़ जमीन औद्योगिक विकास के लिए चिन्हित की गई।
 
जम्मू-कश्मीर में दो एजेंडों पर काम कर रहा है केंद्र

नए कृषि कानूनों से केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर की खाद्य सुरक्षा पर सीधा करना चाहती है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व वित्त हसीब द्राबू की दलील थी कि पिछले कई सालों से ऐसी व्यवस्था बनाई गई है कि यह राज्य केंद्र पर निर्भर रहे। इससे केंद्र को इस पर नियंत्रण में सहूलियत होगी।

जम्मू-कश्मीर अनाज और दूसरी चीजों के लिए दूसरे राज्यों पर जितना ज्यादा निर्भर होगा नई दिल्ली के लिए उसे ‘मैनेज’ करना उतना ही आसान होगा। भारत की इस जकड़बंदी से छुटकारा पाने के लिए शेख अब्दुल्ला के प्रधानमंत्री रहते उनकी सरकार ने स्वायत्तता और राज्य की आत्मनिर्भरता के लिए संघर्ष किया था।

केंद्र का दूसरा एजेंडा जम्मू-कश्मीर की बची-खुची व्यवस्था को भी खत्म करना है। यह उन कानूनों पर हमला करना चाहता है जो जमीन का इस्तेमाल, निजी लाभ के बजाय सामाजिक कल्याण के लिए करने की इजाजत देता है। और जैसा कि पटनायक लिखते हैं, “ चूंकि जमीन ऐसा संसाधन जिसकी कमी है, लिहाजा इसका इस्तेमाल सामाजिक नियंत्रण में होना चाहिए” इससे निजी मुनाफाखोरी के लिए इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ”

यह दलील बिल्कुल सही है। चूंकि जमीन किसानों के पास है इसलिए जमीन के इस्तेमाल पर सामाजिक नियंत्रण के बावजूद उनके हितों का ध्यान रखना जरूरी है। अगर जमीन का इस्तेमाल सामाजिक नियंत्रण में भी होता है तो भी उन्हें इसका वाजिब मूल्य मिलना चाहिए। यही वह व्यवस्था है, जिसे मौजूदा सरकार खत्म करना चाहती है। साम्राज्यवाद ऐसा ही विनाश चाहता है और बीजेपी सरकार इसके लिए खुशी-खुशी तैयार है।

एक कृषि प्रधान समाज में जहां, जमीन के इस्तेमाल पर सामाजिक नियंत्रण और खेती-किसानी से जुड़े अधिकारों को बड़े श्रम साध्य सुधारों के जरिये संस्थागत किया गया हो वहां केंद्र के कृषि कानूनों की वजह से जनता का बहुत कुछ छिन जाएगा। केंद्र के हाथ में कश्मीर में विनाश का एजेंडा है।

जैन लेखिका हैं और ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल रिसर्च से जुड़ी रिसर्च हैं। उनसे @ShinzaniJain. पर संपर्क किया जा सकता है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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