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बिहार : कबाड़ पड़ी है मोतीपुर की चीनी मिल, नीतीश कुमार कर रहे विकास के दावे

राज्य सरकार ने कभी भी मुज़फ़्फ़रपुर की मोतीपुर शुगर मिल को पुनर्जीवित करने की कोशिश नहीं की, जिसमें कभी हज़ारों मज़दूर काम किया करते थे।
बिहार : कबाड़ हो गई चीनी मिल, नीतीश कुमार कर रहे विकास के दावे

नीतीश कुमार सरकार पिछले 15 वर्षों में निवेश लाने और बीमार उद्योगों को पुनर्जीवित करने में विफल रही है। यह स्वीकार करने के बावजूद कि "बड़े उद्योग राज्य में निवेश के लिए नहीं आ रहे हैं", कुमार ने हाल ही में दावा किया कि "बिहार नियमित रूप से हर साल 10 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ रहा है।"

बंद पड़ी मोतीपुर शुगर मिल लिमिटेड एक कुशासन का उदाहरण है। बिहार में अपनी तरह का यह सबसे बड़ा कारखाना, मुजफ्फरपुर शहर से 17 मील पश्चिम में स्थित है और इसमें नीदरलैंड से आयातित मशीनें लगी हैं जो अब निष्क्रिय, जंग लगी और बेकार पड़ी हैं।

मुजफ्फरपुर जिले के किनारे मोतीपुर ब्लॉक, पूर्वी चंपारण के साथ सीमा साझा करता है, जहां चीनी मिलों की संख्या सबसे अधिक है।

इस कारखाने की स्थापना कलकत्ता के कच्छी मेमन व्यवसायी सेठ हाजी अब्दुर रहीम उस्मान ने की थी, एक अनुमान के अनुसार, जिन्होंने 1933 में 1,800 मजदूरों को काम पर रखा था और 66 एकड़ भूमि में गन्ने की पेराई शुरू की थी।

ऊस्मान की पहल से किसानों को गन्ना उगाने में मदद मिली, जिससे मोतीपुर और आसपास के ग्रामीण इलाकों में बड़ा बदलाव ला दिया था। फैक्ट्री की संपत्ति 1,297 एकड़ में फैली हुई है थी जिसका इस्तेमाल गन्ने की खेती और किसानों को उचित दर पर गन्ने के बीज उपलब्ध कराने के लिए किया जाता था। 

मोतीपुर शुगर मिल का जंग लगा हुआ लोकोमोटिव इंजन।

कारखाने के जंग लगे लोकोमोटिव इंजन पर गिरने वाली दीवार के छोटे छेद के माध्यम से सूरज की रोशनी की धारियाँ सरकार की उदासीनता और लापरवाही को उजागर करती नजर आती हैं। कभी लोडिंग पॉइंट से एंडपॉइंट तक कच्चे माल और रिफाइंड चीनी के भार को आगे-पीछे ले जाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला इंजन अब कबाड़ बन चुका है।

फैक्ट्री गार्डों में से एक राम बालक सिंह (55) कहते हैं, "कारखाना अब नीदरलैंड और जर्मनी से आयातित कीमती और महंगी मशीनों का कब्रिस्तान बन गया है।" मेरे पिता यहां कर्मचारी थे, लेकिन फैक्ट्री बंद होने के बाद बेरोजगार हो गए थे।वे आगे कहते हैं, कि "बिहार सरकार ने कारखाने को दोबारा जीवित करने की कभी कोशिश नहीं की।"

मोतीपुर शुगर मिल की कहानी लगभग चार दशक पुरानी है जब बिहार शुगर उपक्रम (अधिग्रहण) अध्यादेश, 1977 के तहत बिहार राज्य चीनी निगम (बीएसएससी) ने 1980 में इसका अधिग्रहण किया था।

फैक्ट्री 1997 तक चलती रही लेकिन लगातार प्रबंधन के बीच चलने वाली अंतर्कलह और मजदूरों के असंतोष के कारण बीएसएससी ने इसे बंद करने का फैसला किया, जिससे 1,800 कर्मचारी/मज़दूर और 1,000 संविदा कर्मचारी बेरोजगार हो गए थे और गन्ना किसान भी गंभीर वित्तीय संकट में डूब गए थे। 

2011 में कारखाने को पुनर्जीवित करने के लिए, बीएसएससी ने इसे एक निजी कंपनी, इंडियन पोटाश लिमिटेड (IPL) को पट्टे पर दे दिया था। इसके पुराने प्रबंधक, उस्मान अहमद खान कहते हैं, "किसी निजी कंपनी को पट्टे पर देने का निगम का फैसला, फ़ैक्टरी मालिकों को अच्छा नहीं लगा, उन्हें डर था कि कर्मचारियों के बकाये का भुगतान नहीं किया जाएगा।"

उस्मान ने कहा, "रोजगार पैदा करने और औद्योगीकरण के लिए कारखाने को फिर से शुरू करने की सरकार की मंशा इसमें पूरी तरह से गायब थी- मोतीपुर शुगर फैक्ट्री के भाग्य का यह सबसे दुखद हिस्सा है।" कारखाने पर, कर्मचारियों का 85 लाख रुपये बकाया है, जो हर तीन से चार महीने के बाद चुकाया जा रहा है। किसानों का बकाया 2015 में तय किया गया था।” 

बाद में, मिल को पट्टे पर दिए जाने के खिलाफ मालिक ने पटना उच्च न्यायालय (एचसी) में यह तर्क देते हुए चुनौती दी कि राज्य सरकार को कारखाने को एक अनुसूचित उपक्रम को केवल निगम या राज्य कंपनी को स्थानांतरित करने के लिए अधिकृत किया गया था।

2012 में, उच्च न्यायालय की एक एकल पीठ ने पट्टा समझौते को रद्द कर दिया और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह कारखाने और भूमि को निगम को और पूर्व मालिकों को वापस करे।

मोतीपुर चीनी मिल का बंद पड़ा कर्मचारी भविष्य निधि कार्यालय।

इसके परिसर में टहलने से, कारखाने के लगभग सात दशक लंबे इतिहास की झलक मिलती है। मुजफ्फरपुर जिले के हजारों ग्रामीण परिवारों की रोजी-रोटी का जरिया बने कारखाने के कर्मचारी भविष्य निधि कार्यालय के बाहर बिखरे और फटे कागज कारखाने की दयनीय स्थिति को दर्शाते हैं। सिंह के अनुसार, कुछ पूर्व कर्मचारी अभी भी अपनी भविष्य निधि और देय राशि का हिसाब देखने के लिए कार्यालय आते हैं।

अमानुल्लाह खान (उम्र 65), जो मशीनों के प्रभारी थे, कारखाने को एक ऐसा भुला हुआ  अध्याय बताते हैं जिसका जिक्र केवल चुनाव से पाहले स्थानीय राजनेताओं द्वारा किया जाता है।

अमानुल्लाह कहते हैं कि सैकड़ों गाँव इस पर निर्भर थे और तरक्की की। कारखाना स्थानीय बाजार की जीवन रेखा भी था और इस क्षेत्र में आर्थिक स्थिरता ले आया था। लेकिन अब सब कुछ मर चुका है।अमानुल्लाह को प्रति माह 8,000 रुपये कमाते थे जो उनकी पीढ़ी के लिए एक बढ़िया वेतन माना जाता है।

मोरसंडी गांव के मूल निवासी मनोज कुमार रे 30 एकड़ में गन्ना उगाते थे और कारखाने में सप्लाई करते थे। मोतीपुर चीनी कारखाना कभी गन्ना उत्पादकों के लिए वरदान था। गन्ना 'उगाओ, आपूर्ति करो और लाभ कमाओ' हमारा मंत्र था, जो अब हवा में उड़ गया। मनोज उदास होकर उक्त बयान करता है।

कभी कारखाने को गन्ने की आपूर्ति करने वाले मोतीपुर और आसपास के क्षेत्र के लगभग 7,000 किसान ब गायब हो गए हैं। निकटतम चीनी कारखाने बहुत दूर हैं- सिधवालिया कारखाना, जो गोपालगंज जिले में 85 किमी दूर है, और सगौली कारखाना, पूर्वी चंपारण में 78 किमी दूर है।

एक समय था जब बिहार देश की जरूरत की 30 फीसदी चीनी का उत्पादन करता था, जो अब बहुत ही कम स्तर यानि 2 फीसदी % तक गिर गया है। आजादी के बाद से चीनी मिलों की संख्या 28 से घटकर केवल 10 रह गई है- जो बगहा, हरिनगर, नरकटियागंज, मझौलिया, सासामुसा, गोपालगंज, सिधवलिया, हसनपुर, लौरिया और सुगौली एमिन स्थित हैं।

बिहार में डोवन के करीब आखिरी चीनी मिल सीतामढ़ी जिले की रीगा चीनी मिल भी सरकारी अनदेखी का शिकार हुई है।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। 

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