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महिलाएँ हुईं काम से बाहर: सरकारी रिपोर्ट

महिलाओं की रोज़गार में भागीदारी में काफ़ी गिरावट आई है, बेरोज़गारी पहले के मुक़ाबले सबसे उच्च स्तर पर है, पुरुषों के मुक़ाबले उन्हें अक्सर आधा वेतन मिलता है, यह खुलासा हाल ही में प्रकाशित हुई श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट ने किया है।
महिलाएँ हुईं काम से बाहर: सरकारी रिपोर्ट

[यह लेख सरकारी सर्वेक्षण में दर्शायी गई श्रमिकों की स्थिति पर लिखा गया है और यह इस श्रृंखला का भाग 2 है। भाग 1 को यहाँ पढ़ा जा सकता है।]

हाल ही में आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण(पीएलएफ़एस) 2017-18 द्वारा जारी किए गए आंकड़े कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में उल्लेखनीय गिरावट को दर्शाता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के सर्वेक्षण के 68वें दौर के अनुमान के अनुसार, कामकाजी उम्र की केवल 22 प्रतिशत महिलाओं (15 वर्ष या उससे अधिक की उम्र वाली) को ही काम मिला जो 2011-12 के लगभग 31 प्रतिशत से काफ़ी कम है। भारत में कार्यबल की भागीदारी में लगातार गिरावट आ रही है (नीचे चार्ट देखें) और मौजूदा नवीनतम स्तर 2004-05 में लगभग इसका आधा था। यह दुनिया में सबसे कम काम की भागीदारी दरों में से एक है।

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इन नवीनतम अनुमानों को 'सामान्य स्थिति (मूल+सहायक)' कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि कोई भी महिला जो एक व्यवसाय में पूर्ववर्ती वर्ष के बड़े हिस्से के साथ-साथ सहायक व्यवसायों में काम करने वाले वर्ष में 30 से अधिक दिन के लिए यदि काम करती है तो उसे रोज़गार में माना जाएगा। बल्कि यह एक अस्पष्ट परिभाषा है और इसमें बड़ी संख्या में कम रोज़गार पाने वाली महिलाएँ शामिल हैं। इसके बावजूद, काम में महिलाओं की उल्लेखनीय रूप से छोटी हिस्सेदारी देश में महिलाओं के रोज़गार की बिगड़ती समस्या को उजागर करती है। कोई भी सरकार रही हो, चाहे वह अपने पिछले कार्यकाल में हो या अब के, ने इस दुखद स्थिति को संबोधित नहीं किया है।

तो सवाल उठता है कि जो काम के बाहर हैं वे महिलाएँ क्या कर रही हैं? उनमें से अधिकांश अब श्रम बल का हिस्सा नहीं हैं, अर्थात वे नौकरी की तलाश में नहीं हैं। वे ख़ुद को घरेलू कामों तक ही सीमित रखती हैं, भारत में इन कामों में घर में जलाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठी करना, पानी इकट्ठा करना, साथ ही मवेशियों की देखभाल करना शामिल है। कहने की ज़रूरत नहीं है, कि वे घर के सभी कामों की देखभाल करती हैं। महिलाओं की रोज़गार में सहभागिता को सीमित करने वाला एक अन्य कारक पितृसत्तात्मक विचार और उसे संजोने वाला समाज भी है जो अभी भी भारत के परिवारों पर मज़बूती से हावी है जो पारिश्रमिक कार्यों के लिए घर से बाहर जाने वाली महिलाओं को बहु या बेटी के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि घर में रहने वाली ये महिलाएँ काम करने के लिए तैयार नहीं हैं या परिवार को उनके काम करने की ज़रूरत नहीं है। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट से पता चलता है कि महिलाओं की बेरोज़गारी, यानी उन महिलाओं की हिस्सेदारी, जो काम मांग रही हैं, लेकिन वे काम पाने में असमर्थ हैं, पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ी है।

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पीएलएफ़एस 2017-18 के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ महिलाओं का बड़ा हिस्सा रहता है, 2011-12 में वहाँ बेरोज़गारी दोगुनी होकर 2011-12 के 1.7 प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 में 3.8 प्रतिशत हो गई है। शहरी क्षेत्रों में भी, यह उसी अवधि में 5.2 प्रतिशत से बढ़कर 10.8 प्रतिशत हो गयी है।

उन महिलाओं के बीच जो काम करने के लिए बाहर जाती हैं - आर्थिक संकट के इन समयों में परिवार की आय को पूरा करने की ख़ासी ज़रूरत है – जिनका वेतन या वेतन का स्तर बेहद कम है, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में देखा जा सकता है, इसे पीएलएफ़एस रिपोर्ट से लिया गया है।

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ध्यान दें कि नियमित वेतन या वेतन पाने वालों में भी, महिलाओं की मासिक कमाई ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में 34 प्रतिशत कम और शहरी क्षेत्रों में 20 प्रतिशत कम है। आय में सबसे बड़ा अंतर विशाल स्वरोजगार क्षेत्र में है जहाँ महिलाओं की कमाई ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों की आधी है और शहरी क्षेत्रों में 60 प्रतिशत कम है। इसका कारण यह है कि स्व-नियोजित श्रमिक (जो अपने छोटे उद्यमों को चलाते हैं जैसे खुदरा दुकानें या सभी प्रकार के सेवा प्रदाता के रूप में) आमतौर पर महिला परिवार की काम में सहायता करती हैं, शायद ही इसमें उनकी अलग से कमाई मानी जाती है। इसके अलावा, कई बहुत छोटी दुकानों को (जैसे कैंडी या तंबाकू उत्पाद या सब्ज़ियाँ बेचना) महिलाओं के भरोसे पर छोड़ दिया जाता है, जबकि पुरुष दूसरे कामों को करने के लिए चले जाते हैं।

हालांकि, स्व-रोज़गार की श्रेणी में महिलाओं के लिए मुख्य रोज़गार व्यक्तिगत और अन्य सेवाओं से आता है, जो शहरी क्षेत्रों में 44 प्रतिशत से अधिक महिलाओं और ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 9 प्रतिशत कार्यरत हैं। ये सभी नौकरानियाँ, रसोइया, आया, घर के काम करने वाली, सफ़ाई कर्मचारी और इसी तरह के सेवा प्रदाता हैं जो शहरी परिवारों के जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए बहुत कम आय में काम करती हैं।

महिलाओं को भी बड़ी संख्या में आउटसोर्स कामों में देखा जा सकता है जैसे स्वास्थ्य कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, स्कूलों में रसोइया, नर्स इत्यादि - ये सभी बहुत कम वेतन पर काम करती हैं और इनके लिए कोई नौकरी की सुरक्षा नहीं है।

पीएलएफ़एस के अनुसार, पिछले लगभग डेढ़ दशकों से विनिर्माण क्षेत्र में महिलाओं का रोज़गार ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 8 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में लगभग 25 प्रतिशत का ठहराव है। भवन निर्माण, जो कभी महिलाओं के रोज़गार का एक बड़ा स्रोत था, अब अच्छी स्थिति में नहीं है, जैसे कि ग्रामीण क्षेत्रों में, महिलाओं का रोज़गार 2011-12 में 6.6 प्रतिशत से घटकर 2017-18 में 5.6 प्रतिशत रह गया है, जबकि शहरी क्षेत्रों में व्यावहारिक रूप से लगभग 4 प्रतिशत पर स्थिर है।

इस पीएलएफ़एस के ये नवीनतम आंकडे स्पष्ट रूप से स्थापित करते हैं, कि रोज़गार की स्थिति काफ़ी गंभीर है (6.1 प्रतिशत की बेरोज़गारी दर के साथ), महिलाओं को बड़ी बेरोज़गारी के साथ निरंतर कम मज़दूरी के साथ इस संकट का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है। और, वर्तमान सरकार - अपने सभी पूर्ववर्तियों की तरह - इस संकट को हल करने के बारे में नहीं सोच रही है।

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