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ऑनलाइन समाचार मीडिया और अन्य प्रकाशित सामग्री: बड़ी सेंसरशिप की ओर बढ़ता कदम 

नए नियम कार्यकारी यानि सरकार को ऐसी शक्ति प्रदान करते हैं जो ऑनलाइन समाचार मीडिया पर अघोषित नियंत्रण करने का काम करेंगे, वह भी बिना किसी संतुलन या लगाम के। इस अनियंत्रित शक्ति से मीडिया में सरकारी घुसपैठ, दबाव और सेंसरशिप का तांडव होगा। 
ऑनलाइन समाचार

केंद्र सरकार ने पिछले हफ्ते नई सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती कंपनियों और डिजिटल मीडिया नैतिकता संहिता के मामले में दिशानिर्देश जारी किए) नियम, 2021 की घोषणा की है, इसने 2011 के उन नियमों को पलट दिया, जो मुख्य रूप से मध्यवर्ती कंपनियों के लिए बने थे। 

नए नियम सभी प्रकार के ऑनलाइन मीडिया के विनियमन का प्रावधान करते हैं, जिनमें फ़ेसबुक या गूगल जैसी मध्यवर्ती कंपनियाँ, नेटफ्लिक्स या अमेज़ॅन प्राइम जैसी बड़ी स्ट्रीमिंग सेवाएं, ट्विटर या व्हाट्सएप जैसी मैसेजिंग सेवाएं और समाचार और करंट अफेयर्स की वेबसाइट शामिल हैं। जबकि ये नियम दूसरे मीडिया पर भी लागू होते हैं लेकिन इनका मुख्य केंद्र ऑनलाइन समाचार मीडिया होगा।

जैसा कि सूचना और प्रसारण, और इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में नियमों को जारी करते हुए और सरकारी प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से कहा कि ये नियम प्रिंट मीडिया और टेलीविजन को "समान मंच" मुहैया कराने के लिहाज से जरूरी थे ताकि आम जनता को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाए बिना ऑनलाइन मीडिया में आपत्तिजनक सामग्री के खिलाफ शिकायत का मौका दिया जा सके और इसलिए नियम में केवल "सॉफ्ट-टच ओवरसाइट तंत्र" यानि हल्का हाथ रखने का तंत्र बनाया गया है।

हालाँकि, प्रावधानों पर यदि अच्छे से नज़र डालें तो पता चलता है कि न केवल ये बहलाने वाली बातें हैं और दो टूक रूप से गलत हैं, बल्कि नए नियम वास्तव में ऑनलाइन समाचार मीडिया को नियंत्रित करने के लिए कार्यकारी यानि सरकार को अनियंत्रित शक्तियां प्रादान करते हैं वह भी बिना किसी चेक या बैलेंस के। लेकिन ये मुख्यतः सरकारी घुसपैठ, दबाव और सेंसरशिप के लिए बड़ा दरवाजा खोल देते है।

सरकार का कठोर हाथ 

पुराना प्रिंट मीडिया और टीवी समाचार मीडिया बड़े पैमाने पर स्वयं-विनियमित हैं जैसे कि प्रेस काउंसिल और न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी के द्वारा ऐसा होता है। दूसरी ओर, नए आईटी नियम 2021 सरकार की प्रत्यक्ष और प्रमुख भूमिका निर्धारित करते हैं और पहले संबंधित उद्योग निकायों द्वारा किए गए प्रयासों के बावजूद, स्व-नियमन के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते है। यानि इन्हें कोई समान पटल का मौका नहीं दिया जाएगा। 

नए नियम निगरानी तंत्र और शिकायत निवारण के माध्यम से कार्यपालिका, न्यायाधीश और जूरी के रूप में न्यायपालिका को भिन्न-भिन्न बड़ी शक्तियां देता है जो कि "सॉफ्ट-टच" की घोषित नीति के खिलाफ हैं।

नियम तीन-स्तरीय शिकायत निवारण तंत्र की बात करता हैं, जिसमें पहले स्तर पर समाचार मीडिया की संस्थाएं आती है, दूसरे स्तर पर स्व-नियामक उद्योग निकाय है जिसे सेवानिवृत्त न्यायाधीश द्वारा चलाया जाएगा और विशेष रूप से उसे सूचना व प्रसारण द्वारा तय किए जाने वाले पैनल के माध्यम से चुना जाएगा, और तीसरे स्तर पर एक सरकारी तंत्र होगा जिसमें एक सरकारी अंतर-विभागीय समिति बनाई जाएगी जो स्व-नियामक निकाय के लिए चार्टर और अभ्यास संहिता भी बनाएगी, जो सरकार के लिए एक शिकायत पोर्टल और दंडात्मक कार्रवाई का तंत्र बनाएगी जिसके माध्यम से सरकार के अधिकृत संयुक्त सचिव दंडात्मक कार्यवाही का आदेश जारी कर सकेगा। 

किसी को ये उम्मीद रही होगी कि शिकायत का निवारण की मीडिया इकाई से शुरू होगा और संतोषजनक हल नहीं होने पर मामले को आगे बढ़ाया जाएगा, लेकिन यहां प्रक्रिया ऊपर से शुरू होकर नीचे जाती है- एक ऐसी प्रक्रिया जो सरकार को पूरा नियंत्रण देती है। 

कोई भी शिकायत सबसे पहले सूचना व प्रसारण मंत्रालय के शिकायत पोर्टल पर भेजी जाएगी जो इसे संबंधित मीडिया इकाई को संदर्भित करेगा, जिसमें स्व-नियामक निकाय और मंत्रालय को प्रतियां भेजी जाएंगी। यदि मीडिया इकाई शिकायतकर्ता की संतुष्टि के मुताबिक 5 दिनों के भीतर पोर्टल से संबंधित शिकायत को हल नहीं करती है, तो मामला दूसरे स्तर और फिर तीसरे स्तर पर चला जा सकता है, जो कि सरकारी इकाई है और जिसका निर्णय अंतिम और सबको मानना होगा। 

यह भी ध्यान देने की बात है कि मध्यवर्ती कंपनियों के मामले में भी अदालत या सरकार द्वारा नियुक्त संयुक्त सचिव खातों को अवरुद्ध करने या जानकारी हासिल करने के लिए शिकायत या आदेश जारी कर सकते हैं।

इसलिए, नए नियमों को कार्यकारी यानि सरकार के पक्ष में ढाला गया है जो यह तय करेगी कि शिकायतों को ठीक से संबोधित किया गया है या नहीं, और तय करेगी कि कार्रवाई की जानी चाहिए या नहीं, और फिर उस पर आदेश लागू किए जाएंगे। किसी भी विनियामक प्रणाली में चेक और बैलेंस की कोई व्यवस्था नहीं है, जिसे सरकार से स्वतंत्र एक अर्ध-न्यायिक संरचना के तहत बनाया जाना चाहिए था।

अपारदर्शी मापदंड

मीडिया में नैतिकता का उल्लंघन के मामले में नियम बेहद अस्पष्ट यानि अपारदर्शी हैं, और अगर इसके लिए दंडात्मक कार्रवाई की मांग की जाती है, तो यह आग में ईंधन डालने का काम करेगा। उदाहरण के लिए, नए नियम, प्रकाशित सामग्री के विभिन्न प्रारूपों के बारे में बोलते हैं, जो "भारत की एकता, अखंडता, रक्षा, सुरक्षा या संप्रभुता, या सार्वजनिक व्यवस्था, या किसी भी संज्ञेय अपराध के मामले में उकसावे का कारण बन सकती है," या "प्रकाशित सामग्री जो कानून का उल्लंघन करती है" तथा "किसी भी नस्लीय या धार्मिक समूह की गतिविधियों, विश्वासों, प्रथाओं या विचारों का उल्लंघन करती है," ये सभी मनमानी व्याख्या के लिए बेहद खुले होंगे। इसके अतिरिक्त, इस बात को भी खारिज नहीं किया जा सकता है कि सरकार के निर्णय पक्षपातपूर्ण होंगे, विशेष रूप से वर्तमान राजनीतिक सत्ता के तहत।

शिकायतों को एक खास राजनीतिक विचारधारा की संगठित "ट्रोल सेनाओं" और गृह मंत्रालय के "साइबर अपराध वालंटियर कार्यक्रम" के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए जो लोगों को "गैरकानूनी" प्रकाशित सामग्री के बारे में रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

यह नोट करने की जरूरत है क टीवी समाचार चैनलों के मामले में जहां सरकार ने स्व-नियामक उद्योग को वैधानिक दर्जा नहीं दिया है वहाँ स्व-नियामक उद्योग निकाय अप्रभावी हो गया है। यहाँ सरकार स्पष्ट रूप से कई टीवी चैनलों द्वारा फर्जी समाचार, पक्षपातपूर्ण समाचार, सांप्रदायिक रूप से भड़काऊ सामग्री के खिलाफ हस्तक्षेप न करने का निर्णय लिया है, जबकि इस तरह की शक्तियां केबल टेलीविजन नेटवर्क नियम 1994 के तहत आती हैं।

व्यापक रूप से देखे गए और टेलीकास्ट किए गए भाषणों में जिसमें "फलां-फलां को गोली मारो", के नारे दिए गए या कोविड-19 फैलाने के नाम पर कुछ धार्मिक समुदायों के खिलाफ खुलेआम नफरत फैलाने का काम किया गया या सरकारी सेवाओं में ‘एक खास धर्म’ को बदनाम करने के लिए घुसपैठ की जाने की गलत बयानी पर कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं की गई। दूसरी ओर, बहुसंख्यक समुदाय की "धार्मिक भावनाओं को आहत" करने की शिकायत को तुरंत स्वीकार कर लिया जाता है।

जैसा कि निरंतर हो रहा है कि विभिन्न सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल मुख्य रूप से सरकार की आलोचना करने वाले लोगों के खिलाफ किया जा रहा है, जो व्यापक रूप से उस संदेह को मजबूत करता है कि सरकार इन नए आईटी नियमों का इस्तेमाल मुख्य रूप से अपने आलोचकों को परेशान करने के लिए करेगी।

विशेषज्ञों ने बताया है कि इस तरह की अस्पष्ट परिभाषाएं अन्य निर्दयी कानूनों जैसे कि अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट (UAPA) और राजद्रोह (Sedition) के कानूनों में भी दिखाई देती हैं। इन विशेषज्ञों ने यह भी नोट किया है कि जिस बड़ी संख्या में अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट (UAPA) के तहत या देशद्रोह कानून के तहत केस दर्ज किए गए हैं, उनमें से छोटे से हिस्से के खिलाफ ही आरोप तय होते हैं और उन्हे सजा मिल पाती है। जबकि बड़ी संख्या को राजनीतिक द्वेष के चलते फंसाया जाता है। देश की न्यायिक प्रणाली की खामियों को मद्देनजर रखते हुए, यह पाया गया है कि सरकार द्वारा की जाने वाली दंडात्मक कार्यवाही की प्रक्रिया काफी लंबे समय तक चलती हैं, इस न्यायिक प्रक्रिया का जो भी परिणाम हो लेकिन यह प्रक्रिया अपने आप में एक सजा बन जाती है।

इसमें बड़ी बात यह है कि लगभग पूरी मीडिया बिरादरी उन सभी नए नियमों के खिलाफ दृढ़ता से विरोध कर रही किया है, जिनका अभिव्यक्ति की आज़ादी और आलोचनतमक राय पर गंभीर प्रभाव डालेगा। 

नियम की कानूनी वैधता पर खड़े होते सवाल 

नए नियमों के कई प्रावधान आईटी अधिनियमों के मामले में प्रथम दृष्टया उल्लंघन करते हुए नज़र आते हैं, खासकर जिस ताने-बाने के तहत उन्हें ढाला गया है। विशेष रूप से, जब आईटी अधिनियमों को लागू किया जा चुका है, और यह सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय है जिसे ऑनलाइन समाचार पोर्टल और अन्य सामग्री प्रदाताओं के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए इन नियमों के तहत सशक्त बनाया गया है।

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 समाचार मीडिया को कवर नहीं करता है, चूंकि अब तक ऑनलाइन समाचार मीडिया को विनियमित करने के लिए कोई अन्य उपाय नहीं किए गए थे, अब ऐसा लगता होता है कि इन नियमों को किसी उपयुक्त कानून के ना होने की वजह से लाया गया हैं। आईटी अधिनियम को कभी भी प्रकाशित सामग्री को विनियमित करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया है सिवाय कुख्यात अनुच्छेद 66 (ए) के जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी क्योंकि वह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत अभिव्यक्ति की आज़ादी का उल्लंघन करता था। 

इसके अलावा, इस तरह के "नियम" पर एक विस्तृत मूल कानून का होना निहायत जरूरी है ताकि इसके कार्यान्वयन को नियंत्रित किया जा सके। कोई भी नियम मूल कानून के उद्देश्यों और उसके आदेश से बड़ा नहीं हो सकता है। जैसे कि, वर्तमान नियम ऑनलाइन समाचार मीडिया को पिछले दरवाजे से विनियमित करने का प्रयास लगता है। ऑनलाइन मीडिया सामग्री के विनियमन के लिए सरकार को एक उपयुक्त विधेयक तैयार करने की जरूरत है, फिर इसे जांच और अंततः कानून बनाने के लिए संसद के समाने पेश किया जाना चाहिए। 

इन नियमों से संबंधित कई अन्य मुद्दे भी हैं जो या तो अभिव्यक्ति की आज़ादी या व्यक्तिगत जानकारी की गोपनीयता पर संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं, जिसके लिए फिर से, सरकार उचित कानून लाने के मामले में अनिच्छुक नज़र आ रही है, या जिसके आधार पर विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म बनाए गए हैं। उदाहरण के लिए, नियमों के हिसाब से यदि सरकार मानती है कि कानूनों का उल्लंघन किया गया है, तो अपमानजनक संदेश को पहले संदेश जारी करने वाले को प्रेषित करना चाहिए। 

मैसेजिंग सेवा ऐसा कैसे करती है, अगर संदेशों को संबंधित व्यक्ति की गोपनीयता का उल्लंघन किए बिना एंड-टू-एंड एन्क्रिप्ट संदेश के ज़रीए भेजा जाता है या फिर व्यक्ति से गुप्त रखते हुए कोड को तोड़ा जाता है जिसे न तोड़ने का वादा किया गया था? और क्या यह जरूरत खुद मूल आईटी अधिनियम की धारा 79 का उल्लंघन नहीं करती है जो कुछ मामलों में 'सुरक्षित ठिकाना' प्रदान करती है?

स्पष्ट रूप से देखा जाए तो इन नियमों को विभिन्न आधारों पर चुनौती दी जा सकती हैं। देश में वर्तमान संदर्भ को देखते हुए, वास्तव में एक बहादुर व्यक्ति की जरूरत है जो सरकार या कार्यकारी के खिलाफ उच्च न्यायपालिका की अज्ञात सोच का सामना कर सके, कुछ को अदालत ने स्वीकार कर लिया है लेकिन लंबे समय से कई अपीलों पर अभी नज़र भी नहीं डाली गई है। इन चुनौतियों के बावजूद, ऐसा लगता है कि कोई न कोई इसके खिलाफ खड़ा होगा।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Online News Media and Other Content: Big Leap Towards Censorship

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