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भारत
राजनीति
सस्ती शिक्षा पर सवाल उठाने वाले सियासी पार्टियों को मिल रहे चुनावी चंदे पर भी ध्यान दें!
आरटीआई आवदेनों से मिले जवाबों और इलेक्शन कमीशन में दर्ज किये गए दस्तावेजों से यह पता चलता है कि राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला चंदा सात हजार करोड़ की सीमा पार कर चुका है। इसमें सबसे बड़ी हिस्सेदारी बीजेपी की है।
अजय कुमार
14 Nov 2019
political funding

सस्ती शिक्षा की लड़ाई लड़ते छात्रों पर सवाल उठाने वाले लोगों को राजनीतिक पार्टियों के फंड की तरफ देखना चाहिए। उनसे पूछना चाहिए कि उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अथाह पैसा कहां से मिलता है? किस वजह से मिलता है? जब कोई हद से अधिक पैसा मांगता है तो उसके बदले में चाहता क्या है? क्या वह इसलिए पैसा देता है कि नेता चुनकर आएं और सस्ती शिक्षा मुहैया करवाएं या इसलिए कि नेता सस्ती शिक्षा की मांग करवाने वालों पर लाठियां बरसाएं और उन स्कूलों और कॉलेजों की वकालत करें जो शिक्षा देने के नाम पर कारोबार चलाती हैं और पढ़ाने के नाम पर मोटी फीस वसूल करती हैं।  

आरटीआई आवदेनों से मिले जवाबों और इलेक्शन कमीशन में दर्ज किये गए दस्तावेजों से यह पता चलता है कि राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला चन्दा सात हजार करोड़ की सीमा पार कर चुका है। और चंदे के तौर पर मिलने वाली इतनी अधिक राशि तब मिल रही है, जब भारतीय अर्थव्यवस्था खस्ताहाली के दौर से गुजर रही है। राजनीतिक पार्टियां अपने पास मिलने वाले चंदे को दो तरह से दिखाती हैं- पहला है, कम्पनी ट्रस्ट और व्यक्तियों से मिलने वाला चंदा। दूसरा है, इलेक्ट्रोरल बॉन्ड से मिलने वाला चंदा।  

भाजपा कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक पार्टियों ने अभी इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के तहत मिलने वाले चंदे को नहीं दिखाया है। यानी इलेक्ट्रोरल बॉन्ड से मिलने वाले चंदे को ही दिखाया है। इलेक्शन कमीशन के कंट्रीब्यूशन रिपोर्ट से मिली जानकारी से यह पता चलता है कि साल 2017-18 में कांग्रेस को मिलने वाला चंदा 27 करोड़ था, जो साल 2018-19 में  बढ़कर 147 करोड़ हो गया।  जबकि 2017-18 में भाजपा को 437 करोड़ रुपये चंदा मिला था, जो 2018-19 में बढ़कर 742 करोड़ हो गया। यह कांग्रेस को मिले कुल चंदे से सात गुना अधिक था।  

साल 2018-19 में कांग्रेस को 147 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को 44 करोड़, एनसीपी को 12 करोड़, सीपीएम को 2 करोड़ , सीपीआई को 1 करोड़ रुपये चंदा मिला। इस तरह से देखा जाए तो भाजपा को मिलने वाला चंदा सभी पार्टियों के कुल चंदे के दो गुने से अधिक था।  

फरवरी 2018 से लेकर अक्टूबर 2019 तक तकरीबन 6,128 करोड़ रुपये के इलेक्ट्रोरल बॉन्ड  खरीदे गए। इनमें से केवल 602 करोड़ रुपये के चंदे को ही इलेक्शन कमीशन के पास दिखाया गया है। इनमें से भी साल 2018 के लिए भाजपा के द्वारा दिखाया गया चंदा तकरीबन 210 करोड़ है।  

तेलंगाना राष्ट्र समिति ने तकरीबन 141 करोड़, टीएमसी ने तकरीबन 97 करोड़, शिव सेना ने 60 करोड़ और कांग्रेस ने केवल 5 करोड़ चंदा इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के तौर पर दिखाया। एनडीटीवी के अंग्रेजी संस्करण के एक प्रोग्राम रियलिटी चेक ने इस तरह से मिल रहे चंदे के आधार पर अनुमान लगाया कि हो सकता है कि भाजपा के पास इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के तौर पर आये 6,128 करोड़ रुपये के बॉन्ड में से कुल चार हजार से पांच हजार तक का बॉन्ड हो। और बाकी बची राशि में दूसरी सभी पार्टियां हो।  

चंदे की इस अथाह राशि को देखकर पहला सवाल तो यही उठता है कि भाजपा में आखिरकार ऐसा क्या है कि लोग उसे सभी पार्टियों के कई गुने से भी अधिक पैसा दे रहे हैं। तो पहला जवाब तो यह होगा कि जो पार्टी सरकार में होती है, जिसकी नीतियों को तय करने में अधिक भूमिका होती है, जो मौजूदा विमर्श को बहुत अधिक प्रभावित कर सकता है, उसे सबसे अधिक चंदा मिलने की सम्भावना रहती है फिर भी सरकार में मौजूद पार्टी और विपक्षी पार्टियों को मिलने वाले चंदे में इतना बड़ा गैप समझ से बाहर है।

जानकारों का कहना है कि कांग्रेस जिस तरह की स्थिति में है, उसमें बड़ी संभावनाएं नहीं दिखती है। लोग न ही कांग्रेस की लीडरशिप में शासन को प्रभावित करने की क्षमता देख पाते हैं और न ही कांग्रेस के रवैये में नीतियों को बदल पाने का बूता है। फिलहाल विपक्ष की ऐसी खस्ताहाली के बाद भी भाजपा को मिला इतना अधिक चंदा गले नहीं उतरते।

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफार्म इलेक्ट्रोरल बॉन्ड को खारिज करने में शुरू से जुटा हुआ है। इस संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर कर रखी है कि यह चंदा वसूलने का अपारदर्शी तरीका है, इसलिए इसे ख़ारिज किया जाना चाहिए।  

इस संस्था के सह संस्थापक त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं कि राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला चंदा केवल भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों से जुड़ा मुद्दा नहीं है। यह पूरे देश से जुड़ा मुद्दा है। एक पुरानी कहावत है कि दुनिया पैसे के दम पर चलती है। इसलिए अगर यह नहीं पता चलता कि पैसा कहां से आ रहा है तो यह नहीं पता चलेगा कि दुनिया कैसे चल रही है। यह सही से जानने के लिए कि दुनिया कैसे चल रही है, यह जानना जरूरी है कि पैसा कहां से आ रहा है।  

त्रिलोचन शास्त्री आगे कहते हैं कि किसी पार्टी के पास चुनाव लड़ने के लिए अथाह पैसा हो तो  सभी के लिए लेवल प्लेइंग फील्ड कैसे बन सकता है। चुनाव बस एक इवेंट बनकर रह जाता है और लोकतंत्र छलावा।  

इस बार के अर्थशास्त्र के नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी ने भारतीय राजनीति पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई है। इस फिल्म में राजनीतिक विशेषज्ञ योगेंद्र यादव कहते हैं कि भारतीय राजनीति में लूट का सबसे बड़ा कारण राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला अथाह चन्दा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि चुनाव लड़ने के लिए चंदे की जरूरत होती है और पार्टियों को चंदा मिलना भी चाहिए। लेकिन अगर चंदे को मिलने वाले सोर्स सार्वजनिक नहीं होते तो भारतीय राजनीति में किसी भी तरह के सुधार केवल भाषणबाज़ी का हिस्सा बनकर रह जाएंगे और कुछ नहीं।  भारतीय राजनीति में कुछ भी असंवैधनिक दिख रहा हो तो उसका सबसे बड़ा कारण पैसा है।  

इसलिए मामला चाहें सस्ती शिक्षा का हो या महाराष्ट्र में सरकार न बन पाने का।  ऐसा होने के लिए बहुत  सारे कारण जिम्मेदार हैं लेकिन इन सरे कारणों में तह में जाए तो राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला चंदा भी एक बहुत बड़ा कारण नजर आएगा। जरा सोचकर देखिये कि महाराष्ट्र चुनाव में अथाह खर्च करने के बाद के भाजपा  चुनाव में 105 सीटें जीतकर आयी है।  लेकिन चुनाव से पहले किये गए गठबंधन को तोड़ने में उसने इस बारें में तनिक भी नहीं सोचा होगा कि फिर से चुनाव की सम्भावना बन सकती है और फिर से पैसे की जरूरत पड़ेगी। ऐसा क्यों ? तो जवाब सीधा है  कि भाजपा के पास अथाह पैसा है और इस पैसे के दम पर हर संवैधानिक मर्यादाएं ताक पर रखी जा सकती है।  

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