प्रज्ञा ठाकुर के आइडिया ऑफ इंडिया में गांधी से पहले गोडसे !
प्रज्ञा ठाकुर ने फिर ऐसा ही किया है। उन्होंने एक सांसद को हस्तक्षेप करते हुए नाराज़गी ज़ाहिर की और कहा कि नाथूराम गोडसे की उनकी निंदा ग़लत थी। प्रज्ञा ने कहा कि वह एक सच्चे देशभक्त थें। विपक्षे के हंगामे और भारतीय जनता पार्टी के पल्ला झाड़ने के बाद अब वह कहती है कि उन्होंने गोडसे का उल्लेख नहीं किया था। तब माफी मांगने का सवाल ही नहीं था "भले ही उनके बयान ने किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाई हो"।
लेकिन संसदीय कार्यवाही तो इलेक्ट्रॉनिक तरीक़े से रिकॉर्ड की जाती है और अध्यक्ष को शायद ही कोई ऐसी टिप्पणी को हटानी चाहिए जो वास्तव में नहीं की गई थी।
यह धारणा कि "आखिरकार, नाथूराम गोडसे एक सच्चे देशभक्त थें" उनकी इस पृष्ठभूमि को साझा करने वाले कई लोगों के लिए वास्तविक सत्य है। यह कोई आकस्मिक ग़लत धारणा नहीं है। एक बार दब जाने के बाद इस धारणा या मिथक ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान सामने आया। उसी अपराध में संलिप्तता के लिए कैद उनके भाई जेल से बाहर आ गए थे और उन्हें यह कहने की अनुमति दी गई थी कि उनके "शहीद भाई" एक सच्चे देशभक्त थे और यहां तक कि उन्हें अभी भी इस कृत्य के लिए कोई पश्चाताप नहीं हुआ था। यह सब बोलने की आज़ादी और "सिक्के के दोनों पहलू को देखने" की आवश्यकता के नाम पर हुआ। फ्रंटलाइन पत्रिका ने जनवरी 1994 में उनके विचारों का समर्थन किए बिना उनके साथ एक साक्षात्कार किया था। इसका अंश नीचे दिया गया है।
अदालत के समक्ष गोडसे के लंबे बयान वाली माफी को प्रकाशित किया गया था और एक पुस्तिका के रूप में व्यापक रूप से प्रसारित किया गया था। मुंबई में एक नाटक, मैं नाथूराम बोल रहा हूं, का मंचन किया गया। यहां तक कि एक फिल्म भी थी। वे सारी घटनाएं अनायास सफल नहीं हो सकती थीं। देश भर में इसका आयोजन किया गया और मंचन किया गया। यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि किसने यह सब किया। और गांधीजी की वास्तविक स्मृति लुप्त होती गई।
इस ज़ोरदार प्रचार ने उन दिनों जानकारी के बिना भी आम लोगों पर अच्छा प्रभाव डाला होगा जब गांधीजी की हत्या की खबर से पूरा देश स्तब्ध था।
प्रज्ञा साधारण मासूम जनता से नहीं बल्कि इसे प्रचार करने वालों की चुनिंदा दलों से संबंधित दिखाई देती है। या गुजरते समय में वह उस दल में शामिल हुए हों।
इसलिए हम अपनी भावना नहीं दिखा सकते हैं जब एनडीटीवी जैसे चैनल पर भी हम कुछ लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं "जब गोडसे को देशभक्त कहा जाता है"। अगर इन लोगों ने 1950 या 1951 में भी सार्वजनिक रूप से इस तरह का बयान दिया होता तो वे गुस्साए भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार दिए जाते।
वास्तव में इसका क्या मतलब है जब यह कहा जाता है कि "नाथूराम एक देशभक्त थे?" इस बात पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है कि नाथूराम ने जो कुछ कहा वह आत्मरक्षा में कहा और गांधीजी के ख़िलाफ़ उनका तर्क "व्यक्तिगत" नहीं था। उनके पास गांधीजी के सीधे संपर्क या संघर्ष में आने का कोई अवसर नहीं था। लेकिन वह उन हलकों में गए जहां गांधीजी के ख़िलाफ़ नफरत सामान्य और गहरा था।
उनके जैसे व्यक्ति के लिए ये विचारधारा व्यक्तिगत बन गया। और यह विचारधारा उस समय गांधीजी की हर बात पर नफरत फैलाने वाली थी। 1946 से 1948 के वर्षों में स्वतंत्र भारत के भविष्य के क्षेत्र को लेकर उग्र बहस की हवा को भड़काया गया था। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों ने दो-राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया। जबकि मुस्लिम लीग के लिए यह असमान रूप से सांप्रदायिक तर्ज पर देश का विभाजन था, हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने स्पष्ट रूप से अविभाजित भारत को बनाए रखने की मांग की थी। मुसलमानों के लिए उनका विचार यह था कि “विदेशी” के तौर पर वे भारत में दूसरे दर्जे के नागरिकों के रूप में बने रहेंगे।
वर्ष 1965 में प्रकाशित आरएसएस के दूसरे प्रमुख एमएस गोलवलकर की पुस्तक 'बंच ऑफ थॉट्स' ने इस दृष्टिकोण को पर्याप्त रूप से कायम रखा कि मुस्लिमों को या तो भारतीयकरण होना चाहिए या विदेशी के तौर पर स्वीकार करना चाहिए।
यहां तक कि कांग्रेस को विचलित किया गया और विभाजनकारी दंगों की क्रूरता और पैमाने से विभाजित किया गया। इस तरह की विपरीत परिस्थितियों से इस नेतृत्व को हवा दी गई और विभाजन की ओर बढ़ा। गांधीजी अकेले स्वतंत्र भारत के ऐसे विभाजनकारी सांप्रदायिक विचारों के ख़िलाफ़ चट्टान की तरह खड़े थें। वह न केवल पूर्वी पाकिस्तान के नोआखली में असहाय हिन्दुओं के मुस्लिम नरसंहार को रोकने के लिए गए थें बल्कि यह सोचते थें कि दिल्ली में मुसलमानों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम को रोकना और हिंदू चरमपंथियों व बदला लेने वाले लोगों से मुसलमानों की रक्षा करना उनका कर्तव्य था।
गांधीजी के ऐतिहासिक उपवास ने अंततः दंगे वाले क्षेत्र में शांति बहाल की और यहां तक कि आरएसएस को लिखित रुप से यह देने मजबूर कर दिया कि वह खुद मुसलमानों की रक्षा करेगा। भगवा समूहों के ज़ेहन में हिंदुओं के साथ विश्वासघात करने के जघन्य कृत्य के रूप में उनके द्वारा किए गए इस नेक काम ने उनके ख़िलाफ़ घृणा पैदा करना जारी रखा।
क्या इसे "देशभक्ति" कहा जा सकता है? इसका अब कोई मतलब नहीं है। न ही यह दलील दी जा सकती है कि देशभक्ति सभी आकार, प्रकार, क्षेत्र और रंगों में आए। किसी व्यक्ति को इन सवालों का सामना करने के लिए मजबूर किया जाता है: यह "देश" किसका है? क्या यह गांधी का भारत है या गोडसे का? हमारा संविधान, जब तक यह कमतर नहीं है, पूरे भारत में इसको स्वीकारा जाता है क्योंकि गांधीजी ने इसकी कल्पना की थी। और हम इसके लिए हमेशा उनके ऋणी हैं।
लेखक सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों के टिप्पणीकार और साहित्यिक आलोचक है। लेख में व्यक्त विचार निजी है।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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