बिहार में मीडिया पर पाबंदी: प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक के बाद अब सोशल मीडिया
बिहार में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट लिखने के कारण अब जेल जा सकते हैं। बिहार सरकार द्वारा जारी किए गए नये सर्कुलर के माध्यम से सरकार को पसंद न आने वाली पोस्ट को अब साइबर क्राइम के दायरे में लाया गया है । बिहार में अखबारों व टेलीविजनों पर नियंत्रण व निगरानी का कार्य तो काफी दिनों से चला आ रहा है। लेकिन सोशल मीडिया अब नया शिकार बना है।
सोशल मीडिया यथा फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम , व्हाट्सअप एकमात्र ऐसे माध्यम बचे हुए थे जिसके द्वारा लोग सरकार के प्रति अपने सरोकारों, यहां तक कि अपने असंतोष को भी अभिव्यक्त करते रहे हैं। लेकिन इसे भी बिहार में पुलिसिया निगरानी के दायरे में लाया जा रहा है।
जबसे बिहार में एन. डी. ए की सरकार नीतीश कुमार के नेतृत्व में बनी है मीडिया पर हमेशा गंभीर खतरा छाया रहा है। बिहार सरकार द्वारा जारी किए गए हालिया आदेश के तहत सरकार की नजर में मंत्रियों, नेताओं और विधायकों के संबंध में डाले गए आपत्तिजनक पोस्ट को साइबर अपराध माना जाएगा।
बिहार में मीडिया पर अंकुश को लेकर चिंता काफी दिनों से जतायी जा रही है। बिहार में मीडिया की पाबंदी को लेकर ' प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया' तक का ध्यान गया है और इसे लेकर 2012 में एक समिति भी गठित की जा चुकी है।
2008 में लाई गयी विज्ञापन नीति के माध्यम से बिहार में भाजपा-जे डी यू की सरकार ने मीडिया को अपने कब्जे में किया। लेकिन सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफॉर्म बचा हुआ था जिसके माध्यम से सरकार की थोड़ी आलोचना होती रही है। लिहाजा सोशल मीडिया का मुंह बंद करने के उद्देश्य से लाई गई इस कोशिश का विरोध न सिर्फ विपक्षी पार्टियां बल्कि नागरिक समाज भी कर रहा है।
सोशल मीडिया पर सरकार की नजर में, यदि आप आक्रामक या अमर्यादित टिप्पणियां करते हैं तो आप संकट में फंस सकते हैं । पुलिस विभाग के इस नये आदेश ने बिहार के सामाजिक-राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। साइबर अपराध की नोडल शाखा, आर्थिक अपराध ईकाई ( इकॉनोमिक ऑफेंस विंग) के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (एडीजी) नय्यर हसनैन खान द्वारा सभी प्रधान सचिवों/ सचिवों को जारी किए गए पत्र में कहा गया है ‘‘ ऐसी सूचनाएं लगातार प्रकाश में आ रही हैं कि कतिपय व्यक्ति/ संगठनों द्वारा सोशल मीडिया/इंटरनेट के माध्यम से सरकार, माननीय मंत्रीगण, सांसद, विधायक एवं सरकारी पदाधिकारियों के संबंध में आपत्तिजनक/ अभद्र एंव भ्रांतिपूर्ण टिप्पणियां की जाती है। यह विधि विरूद्ध एवं कानून के प्रतिकूल है तथा साइबर अपराध की श्रेणी में आता है। इस कृत्य के लिए ऐसे व्यक्तियों, समूहों के विरूद्ध विधि-सम्मत कार्रवाई किया जाना समीचीन प्रतीत होता है।’’
बिहार में भाजपा-जे डी यू सरकार के दो उपमुख्यमंत्रियों में से एक तारकेश्वर प्रसाद ने इस आदेश के समर्थन में बयान दिया ‘‘ यह एक अच्छा कदम है ”। इन दिनों यह देखने में आया है कि सोशल मीडिया पर कैसे लोग सरकारी पदाधिकारियों के खिलाफ आपत्तिजनक और आक्रामक पोस्ट किया करते हैं। यह गलत है और इसपर अंकुश लगाने की आवयकता है।’’
बिहार सरकार के इस आदेश के बाद राज्य की विपक्षी दलों के साथ-साथ नागरिक समाज के लोगों द्वारा मुखर होकर विरोध किया गया है। राजद नेता तेजस्वी यादव ने सरकार को खुली चुनौती दी। वाम दलों और कांग्रेस के नेताओं ने भी सरकार के इस आदेश की कड़ी आलोचना की।
नागरिक सरोकारों व जनतांत्रिक अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध संस्था ‘सिटीजन्स फोरम’, पटना के अनिल कुमार राय ने इस आदेश पर टिप्पणी करते हुए कहा ‘‘ कानून की समझ में सरकार में शामिल लोग ही ‘माननीय’ होते हैं। बाकी जनता का तो कोई ‘मान’ होता ही नहीं। इसलिए ‘माननीय’ पर निन्दात्मक टिप्पणी करना ‘ अपराध’ है। लेकिन ‘ माननीय’ झूठ बोल सकता है जिसको चाहे ‘ देशद्रोही, खालिस्तानी, पाकिस्तानी आदि घोषित कर सकता है। ‘गोली मारो सालों को’ का नारा लगा सकता है, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मामलों में भी गलत सूचना दे सकता है, असंवैधानिक तरीके से कानून बना सकता है और जिसको चाहे पकड़कर बंद कर सकता है। बिहार पुलिस के इस फरमान ने फिर जनता को उसकी औकात दिखाई है।’’
वर्तमान आदेश ने किया बिहार के जनतांत्रिक जनमत को बदनाम ‘ बिहार प्रेस बिल’-1982' की याद दिला दी
बिहार सरकार के इस आदेश ने लोगों को 1982 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा द्वारा लाए गए बिहार प्रेस बिल की याद दिला दिया है। यह बिल इमरजेंसी के बाद बिहार में तब लाया गया था जब जयप्रकाश के नेतृत्व में चले छात्र आंदोलन, समाजवादी आंदोलन, वामपंथी आंदोलन तथा नक्सली आंदोलन से निकले प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं ने पत्रकारिता के क्षेत्र में आकर जमीनी स्तर की रिपोर्टिंग, न सिर्फ बिहार, अपितु देश के दूसरे हिस्सों में भी करना शुरू किया। यह वैसे पत्रकार थे जो सत्ता के साथ लेन-देन में शामिल हुए बगैर साहसपूर्वक सच को लाना प्रारंभ कर दिया था।
बिहार प्रेस बिल, 1982 इसे ही रोकने के लिए लाया गया था। पत्रकारिता का मुंह बंद करने की जगन्नाथ मिश्रा की इस कोशिश का पत्रकारों के साथ-साथ नागरिक समाज ने भी खुलकर विरोध किया था । अंततः सरकार को बिल वापस लेना पड़ा था।
जबसे नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने है बिहार के तमाम अखबारों पर लगाम लगाने का कार्य लगभग पूरा कर लिया था। यह कार्य एन. डी. ए की सरकार ने 2008 में बनी अपनी कुख्यात विज्ञापन नीति के माध्यम से किया। बिहार के अलग-अलग जिलों से दिए जाने वाले विज्ञापनों को अब राज्य केंद्र के माध्यम से दिया जाने लगा। विज्ञापन की विकेंद्रित व्यवस्था को बदलकर केंद्रीकृत व्यवस्था के तहत लाया गया। इस माध्यम से अखबारों को दिए जाने वाले विज्ञापन को नियंत्रित कर अखबारों पर अंकुश कायम कर लिया गया।
विज्ञापन नीति-2008 के माध्यम से अखबारें को नियंत्रित किया गया।
यह एक तथ्य है कि बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश में मीडिया उद्योग मुख्यतः सरकार द्वारा दिए जाने वाले विज्ञापनों के राजस्व पर निर्भर करती है। निजी क्षेत्र के विज्ञापन अपेक्षाकृत काफी कम रहते हैं । ये विज्ञापन अखबारों के अस्तित्व के लिए अत्यंत आवश्यक रहते हैं । अखबार व सरकार की एक दूसरे पर निर्भरता के तथ्य से दोनों वाकिफ हैं। इन परिस्थितियों में सरकार का अखबार पर विज्ञापन देने का एकाधिकार हो जाता है।
सरकार अपनी इस मोनोपोली का लाभ उठाते हुए तय अखबारों से पूर्ण समर्पण की मांग करता है। इस तरह प्रदेश के अखबारों को बिहार सरकार का ‘माउथपीस’ कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं है। बिहार सरकार की विज्ञापन नीति-2008 इसी मकसद से लायी गयी थी।
जब सरकार इस विज्ञापन नीति को लेकर आयी थी उस वक्त बिहार विधान सभा में विपक्ष के नेता अब्दुल बारी सिद्यिकी ने कहा था ‘‘ विज्ञापन नीति-2008 नौकरशाहों द्वारा तैयार किया है और सदन के पटल पर कभी भी बहस के लिए नहीं रख गया है। सरकारी विज्ञापनों द्वारा अनुगृहीत होने के बाद अखबारों ने सत्ताधारी दलों द्वारा किए गए अपराध, लूट , भूमि माफिया द्वारा जमीन कब्जे तथा जमीन कब्जे, हत्या की खबरों को नहीं प्रकाशित करती है या कभी प्रकाशित करते भी हैं बहुत छोटी खबर के रूप में।’’
अब्दुल बारी सिद्यिकी ने इन बातों को ' प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया' द्वारा गठित बिहार के अखबारों पर सरकार के दबाव संबंधी ‘फैक्ट फाइंडिंग कमिटि’ के समक्ष रखा था। 2012 में गठित इस कमिटि का गठन, बिहार में मीडिया पर सरकारी अंकुश संबंधी कई शिकायतों के बाद , किया गया था।
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने 2012 में मीडिया पर दबाव को लेकर कमिटि का गठन किया।
इसके लिए नीतीश सरकार को जस्टिस माकेंडेय काटजू के गुस्से का भी सामना करना पड़ा था। 2012 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के तत्कालीन चेयरमैन माकेंडेय काट्जू ने पटना विश्वविद्यालय परिसर में भाषण देते हुए कहा डाला था ‘‘ बिहार में वर्तमान प्रेस को कोई स्वतंत्रता नहीं है जबकि लालू प्रसाद के शासनकाल में ऐसा नहीं था।’’
जब जस्टिस काटजू ये बातें कह रहे थे तब श्रोताओं में बैठे पटना कॉलेज के प्राचार्य व जद-यू विधायक उषा सिन्हा के पति लालकेवर प्रसाद ने उन्हें बीच में टोकते हुए उनपर सरकार के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त होने का आरोप लगा दिया। इस घटना के बाद काफी हंगामा हुआ और अंत में मार्केंडय काटजू ने तीन सदस्यीय समिति की घोषणा इस बात की जांच के लिए की कि बिहार में अखबारों व टेलीविजन पर सरकार के दबाव संबंधी बातों में कितनी सच्चाई है ?
पटना कॉलेज के तत्कालीन प्रचार्य लालकेवर प्रसाद सत्ताधारी दल से इस कदर नजदीक थे कि बाद में उन्हें बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का भी चेयरमैन बनाया गया। लेकिन 2016 में लालकेवर प्रसाद को ‘टॉपरगेट’ (कमजोर छात्रों को टॉपर बनाने के खेल) घोटाले में पकड़े गए और उन्हें जेल की भी हवा खानी पड़ी।
यह तीन सदस्यीय समिति जिसमें वरिष्ठ पत्रकार राजीव रंजन नाग, कल्याण बरूआ तथा बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के महासचिव व अरुण कुमार भी मौजूद थे। अरूण कुमार का जुड़ाव सी पी आई से भी था। 24 फरवरी को यह समिति शिकायतों की जांच पटना, मुंगेर, मुजफ्फरपुर और गया की यात्रा पर गयी । इन शिकायतों को सुनने के लिए स्थानीय अखबारों में बाकायदा विज्ञापन छपवाया गया।
तीन सदस्यीय समिति ने 17 पेज का एक रिपोर्ट जारी किया। रिपोर्ट में इस बात को दर्ज किया गया ‘‘ बिहार की मीडिया में इन दिनों एक खतरनाक प्रवृत्ति देखने में आ रही है जिसमें सच को लिखने का अधिकार मानो खत्म हो गया हो। यह संविधानप्रदत्त मौलिक अधिकारों का न सिर्फ उल्लंघन है अपितु स्वतंत्र व निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए भी खतरा उपस्थित हो गया है। मीडिया पर सरकार के दबाव के कारण आंदोलनों और प्रदर्शनों की खबरें या सार्वजनिक महत्व से संबंधित खबरें अखबारों से गायब कर दी जाती हैं। क्योंकि ये आंदोलन और सवाल सत्ताधारियों के समक्ष असहज करने वाली जगहों पर उंगली रख देते हैं।’’
समापन वाले हिस्से में रिपोर्ट यह चिंता व्यक्त करती है कि ‘‘बिहार में स्वतंत्र व निष्पक्ष पत्रकारिता सेंसरशिप की स्थिति का सामना कर रही है ठीक वैसे ही जैसे आपातकाल के समय थी। बिहार की पत्रकारिता लंबे वक्त से अपने साहस व बहादुरी के लिए जानी जाती रही है जब पत्रकारों ने अपनी जान को दांव पर लगाकर भी सच लिखने का खतरा उठाया। लेकिन आज यह मीडिया पर अंकुश लगा दिया गया है, उसे मौन कर दिया गया है, यहां तक कि उसे विकलांग बना दिया गया है। पत्रकारों की बड़ी संख्या बेबस व असहाय महसूस कर रही है।’’
'फैक्ट फाइंडिंग टीम’ ने भी यह पाया कि बिहार सरकार मीडिया पर अंकुश लगाने का कार्य 2008 की अपनी विज्ञापन नीति के माध्यम से कर रही है। जैसा कि रिपोर्ट कहती है "प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की टीम विस्तृत जांच-परख के बाद इस नतीजे पर पहुंची है कि समाज के वास्तविक प्रहरी के रूप में काम करने वाली नैतिक पत्रकारिता के कामकाज के लिए उचित माहौल बिहार में अनुपस्थित है। विज्ञापन बाजार की जैसी बिहार में स्थिति है उसने बिहार में अखबारों के प्रबंधन को पत्रकारिता के सभी मानदंडों और नैतिकता को आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार होने से अधिक ही पाया है। यह सारा आत्मसर्मपण उस चीज को प्राप्त करने के लिए कहा जाता है जिसे प्रबंधकीय शब्दावली में ‘राजस्व लक्ष्य’ कहा जाता है। लेकिन यह ‘राजस्व लक्ष्य’ हासिल किया जा रहा है समाज के स्वस्थ विकास और भलाई की कीमत पर , लोकतांत्रिक मूल्यों की कीमत ओर तथा नैतिक पत्रकारिता के स्थापित मानदंडों और सिद्धांतों को ताक पर रखकर।’’
जांच टीम ने यह भी पाया था कि बिहार की विज्ञापन नीति-2008 का इस्तेमाल सरकार के प्रति आलोचनात्मक रूख रखने वाले मीडिया घरानां को परेशान करने के लिए किया जाता रहा है।’’
नीतीश राज में विज्ञापनों पर खर्च काफी बढ़ा
यदि हम सरकार के विज्ञापन संबंधी आंकडों को देखें तो हमें स्थिति की गंभीरता का अंदाजा हो जाएगा। सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार 2014 से 2019 के दरम्यान अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विज्ञापन में 498 करोड़ रूपये खर्च हुए हैं। वर्ष 2014-15 में सरकार ने मीडिया विज्ञापन पर 83 करोड़ रूपये खर्च किए तो 2018-19 में यह बढ़कर 133 करोड़ हो गया।
वहीं यदि 1999 से 2006 तक के मीडिया संस्थानों को दिए गए विज्ञापनों की बात करें तो ये पांच करोड़ से भी कम था। वर्ष 2007-08 में इसमें बढ़ोतरी हुई और यह बढ़कर 9 करोड़ 65 लाख 45 हजार 105 रूप्या हो गया।
2007-08 तक विज्ञापन सिर्फ प्रिंट मीडिया के लिए हुआ करता था। 2008-09 में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी विज्ञापन दिए जाने लगे। इस वित्तीय वर्ष में भी 24 करोड़ से ज्यादा का विज्ञापन प्रिंट मीडिया को दिया गया जो 2007-08 में दिए गए 9 करोड़ का लगभग तीन गुणा था। 2005 के पूर्व यानी लालू-राबड़ी के शासनकाल में विज्ञापन पर महज 5 करोड़ रूपये के करीब खर्च हुआ करते थे।
नीतीश कुमार ने दुर्गा पूजा के कार्टूनों तक को बंद करा दिया।
अपनी असहमति के प्रति नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एन. डी. ए सरकार इस कदर असहिष्णु रही है कि उसने दुर्गा पूजा के दौरान कार्टूनों को भी बंद करा दिया। बिहार सरकार द्वारा 2013 में दशहरा पूजा के अवसर पर स्थापित की जाने मूर्तियों में कहीं-कहीं स्थानीय कलाकारों द्वारा कार्टून लगाने की परिपाटी थी। चुंकि अधिकांश कार्टून समकालीन विषयों पर बनाए जाते थे फलतः उनके कुछ राजनीतिक निहितार्थ भी हुआ करते थे। पूजा की मूर्तियों को देखने वाले श्रद्धालू उन कार्टूनों में निहित राजनीतिक व्यंग्यों को को देख मुस्कुराए बिना नहीं रह सकते। सरकार को यह बात बहुत नागवार गुजरती । अंततः उन कार्टूनों को बंद कर दिया गया। 2013 में जब बिहार सरकार ने कार्टूनों पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया था तब भी इसकी व्यापक तौर पर आलोचना हुई थी।
बिहार में नीतीश कुमार की नुमाइंदगी वाली भाजपा- जे डी (यू ) की सरकार को ‘विकास’ की सरकार कहने का फैन है। लेकिन विकास के नवउदारवादी मॉडल की भयावह कीमत आम जनता को उठानी पड़ी है। नवउदारवादी विकास के इस मॉडल द्वारा ढ़ाए गए कहर की ओर लोगों का ध्यान न जाए इस कारण मीडिया को नियंत्रित करना अत्यावश्यक हो जाता है। हालिया विधानसभा चुनावों के बाद अपनी वैधता के संकट से जूझ रही नीतीश सरकार को अपनी किसी भी प्रकार की आलोचना को बर्दाश्त करना मुश्किल होता जा रहा है। प्रिंट, व इलेक्ट्रॉनिक के बाद सोशल मीडिया लोगों के पास इकलौता प्लेटफार्म बच गया था। इस कारण उसे भी निगरानी के दायरे में लाया गया है।
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