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रिलायंस को जिओ स्पेक्ट्रम के लिए भारी बकाये का भुगतान करना होगा: सांसद

संचार मंत्री रवि शंकर प्रसाद को लिखे अपने एक पत्र में कांग्रेस सांसद कुमार केतकर ने इस बात का दावा किया है कि सरकार, रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड से अपने देय राशि को वसूलने को लेकर “अबूझ आलस्य” का प्रदर्शन कर रही है, जो कि इस टेलिकॉम स्पेक्ट्रम की “वास्तविक लाइसेंसधारी” है। इसके ‘फ्रंट’ कम्पनी इन्फोटेल द्वारा स्पेक्ट्रम को इस्तेमाल में लाया गया, जो कि बाद में जाकर इसकी सहायक कंपनी जिओ बन गई।
जिओ
चित्र साभार: द पायनियर

बेंगलुरु, गुरुग्राम: केन्द्रीय संचार मंत्री रवि शंकर प्रसाद को लिखे अपने एक पत्र में कांग्रेस के राज्य सभा सदस्य कुमार केतकर ने दावा किया है कि सरकार का दूरसंचार विभाग (डीओटी), अपने लाखों करोड़ की बकाया रकम को मुकेश अंबानी की अगुआई वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) से वसूल पाने में विफल रहा है, जिसे वह एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू (एजीआर) के बेक पेमेंट्स के तौर पर दावा करने की हकदार है।

जैसा कि सबको मालूम है कि अंबानी भारत एवं एशिया के सबसे अमीर व्यक्ति हैं और इसके साथ ही वे दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से भी एक हैं। वहीं आरआईएल देश में निजी स्वामित्व वाली सबसे बड़ी कंपनी है।

केतकर का पत्र (जिसकी एक कॉपी नीचे प्रस्तुत की गई है) से दो बिंदु निकलकर आते हैं। पहला, एजीआर मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के 2019 के फैसले ने यह निर्धारित कर दिया था कि किसी भी दूरसंचार लाइसेंसी के कुल राजस्व के तौर पर एजीआर की गणना के लिए सभी स्रोतों को उपयोग में लाया जायेगा।

दूसरा, सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार ब्रॉडबैंड वायरलेस एक्सेस (बीडब्ल्यूए) टेलीकॉम स्पेक्ट्रम की 2010 की नीलामी इस बात की ओर इशारा करती है कि इन्फोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक मामूली कंपनी ने देश भर में लगभग 12,850 करोड़ रुपये मूल्य की चौथी पीढ़ी (4जी) स्पेक्ट्रम लाइसेंस को हासिल करने में सफलता हासिल की है।

सांसद ने दावा किया है कि इन्फोटेल, जिसे बाद के दौर में आरआईएल ने अधिग्रहण कर लिया था, ने इसके “आवरण” या एक “फ्रंट” कम्पनी के तौर पर काम किया था।

केतकर के पत्र में कहा गया है कि “सार्वजनिक जानकारी के अनुसार छोटे से इन्फोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड.....जिसकी नेट वर्थ मात्र 2.49 करोड़ रुपये थी, को रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड द्वारा आगे किया गया था....जिसमें सिक्योरिटी डिपाजिट के तौर पर 252.50 करोड़ रुपये और 12847.77 करोड़ रुपये की चौंका देने वाली नीलामी को जीतने में इस्तेमाल में लाया गया था। इन्फोटेल एक ओट के रूप में था, जबकि आरआईएल ही इसका असली लाइसेंसी था जिसने इस स्पेक्ट्रम नीलामी में हिस्सेदारी ली थी। (नीलामी खत्म हो जाने के फौरन बाद ही इस फ्रंट इकाई को आरआईएल की सहायक कंपनी के तौर पर बदल दिया गया था, और बाद में इसका नामकरण जिओ के तौर पर कर दिया गया।”) (मूल पत्र में शब्दों पर जोर दिया गया है।)

प्रसाद का ध्यान आकर्षित करते हुए पत्र में लिखा गया है “सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के 24.10.2019 के “समायोजित सकल राजस्व एजीआर फैसले” में दूरसंचार विभाग ने....खुद के सर्वोच्च न्यायालय को दिए गए 24.08.2020 के हलफनामे में इस बात की पुष्टि की है कि “... समायोजित सकल राजस्व एक टेल्को द्वारा अर्जित किये गए समूचे राजस्व पर आधारित है, और यह केवल स्पेक्ट्रम से अर्जित राजस्व पर ही आधारित नहीं है।” (एक बार फिर से, शब्दों पर जोर मूल पत्र में।)

इन “तथ्यों” के आधार पर कांग्रेस सांसद के पत्र में तर्क प्रस्तुत किया गया है कि “एक सच्चे टेल्को लाइसेंसी के तौर पर आरआईएल को चाहिए कि वह सम्पूर्ण राजस्व पर एजीआर का भुगतान करे, भले ही यह राजस्व स्पेक्ट्रम से सम्बंधित न हो, उसे 2010 के बाद से अब तक के पेनाल्टी और ब्याज समेत इसे चुकाना चाहिए।” इसमें आगे जोड़ते हुए मांग की गई है: “यह धनराशि कई लाख करोड़ की बैठती है। लेकिन डीओटी अपने ही स्पष्ट हलफनामे पर न जाने क्यों बड़े अजीब तौर पर निष्क्रिय बनी हुई है और कोई कार्यवाही नहीं कर रही है। अभी तक जितने एजीआर की गणना की गई है वह इन्फोटेल तक ही सीमित है, इसके असली लाइसेंसी आरआईएल के आधार पर इसका आकलन नहीं किया गया है।”

इस पत्र की प्रतिलिपि केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण सहित डीओटी एवं वित्त मंत्रालय के सचिवों को भी भेज दी गई है, जिसमें माँग की गई है कि “इसके बारे में सदन (संसद को) और भारत की जनता को” “तत्काल सूचित किया जाए कि इस बकाया राशि की वसूली के लिए सरकार की ओर क्या कदम उठाये जा रहे हैं।”

पृष्ठभूमि

सर्वोच्च न्यायालय के एजीआर के मुद्दे पर 1 सितंबर के फैसले के तुरंत बाद ही केतकर का यह पत्र आता है। जहाँ एक तरफ शीर्ष अदालत के अक्टूबर 2019 के फैसले के हिसाब से सकल राजस्व और “समायोजित” सकल राजस्व कुल कितना बैठता है, को लेकर एक दशक पुरानी बहस को निपटाने की मांग की गई थी, वहीँ दूरसंचार कंपनियों (टेल्कोज) और डीओटी ने अदालत के निर्णय के बाद विभिन्न टेल्कोज पर सरकार के बकाये को विभिन्न चरणों में चुकाए जाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।

अपने 2019 के फैसले में सर्वोच्च नयायालय ने दूरसंचार विभाग की दलीलों पर अपनी सहमति जताते हुए इस बात की घोषणा की थी कि एजीआर की गणना किसी स्पेक्ट्रम धारक द्वारा अर्जित किये गए सभी राजस्व को मिलाकर किया जायेगा, इसमें उसे भी शामिल किया जाना तय हुआ था जिसे स्पेक्ट्रम द्वारा सीधे तौर पर इस्तेमाल में नहीं लाया गया है। नतीजे के तौर पर डीओटी की तरफ से दूरसंचार कम्पनियों से भारी पैमाने पर धन की मांग की गई, जिसमें रिलायंस जियो (आरजिओ) के दो मुख्य प्रतिद्वंदी शामिल हैं: जिसमें आइडिया-वोडाफोन से 58,254 करोड़ रुपये, एयरटेल से 43,980 करोड़ रुपये और टाटा टेलीसर्विसेज से 16,798 करोड़ रुपये (जिसे एयरटेल द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया है) की बकाया रकम वसूली जानी तय पाई गई।

दूरसंचार कंपनियों द्वारा पिछले बकायों को चुकाने के लिए 15 साल के भुगतान के शेड्यूल की मांग की गई थी, जबकि डीओटी ने इसके लिए 20 साल के शेड्यूल को प्रस्तावित किया था। लेकिन सर्वोच्च नयायालय ने अपने 1 सितंबर के फैसले में दूरसंचार कंपनियों को सिर्फ 10 साल के भीतर बकाया चुकाने की अवधि मंजूर की थी।

हालांकि इस एजीआर मुद्दे पर आर-जियो की अनुपस्थिति बेहद खास रही है। पुरानी दूर-संचार कंपनियों ने जिस बकाये को पिछले 15 वर्षों से डीओटी को राजस्व दिए जाने के प्रवाह को रोक रखा था, और कंपनियों ने देश के दूरसंचार नियामक तंत्र के माध्यम से चुनौती दे रखी थी। वहीँ दूसरी तरफ आर-जिओ ने, जिसने 2010 में ही अपना स्पेक्ट्रम लाइसेंस ले लिया था और 2016 में जाकर इसका परिचालन भी शुरू कर दिया था, उसको लेकर डीओटी द्वारा कभी भी राजस्व की मांग के संबंध में मूल चुनौती और दावों को लेकर पक्ष नहीं बनाया गया।

सांसद केतकर ने वर्तमान लेखकों द्वारा 4 सितंबर की न्यूज़क्लिक रिपोर्ट में एक दूरसंचार कंपनी के एक अनाम भूतपूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) के मार्फत इस मामले में दी गई चुनौती को प्रतिध्वनित किया है, जिसमें इस दावे को चुनौती दी गई है कि सर्वोच्च न्यायालय के 2019 के फैसले के चलते आर-जिओ पर कोई अतिरिक्त एजीआर बकाया नहीं बनता है। इसमें जिस महत्वपूर्ण प्रश्न को उठाया गया है वह यह है कि: असली स्पेक्ट्रम लाइसेंस धारक कौन है, आर-जिओ या इसकी मूल कंपनी आरआईएल?

2010 की नीलामी

इस प्रश्न का उत्तर बीडब्ल्यूए स्पेक्ट्रम की नीलामी में निहित है, जिसे डीओटी ने एक दशक पूर्व संचालित किया था। 2010 के मई और जून माह में डीओटी ने 3जी और 4जी टेक्नोलॉजी को उपयोग में लाकर अपनी सेवाएं प्रदान करने के लिए दूरसंचार कंपनियों के लिए स्पेक्ट्रम की नीलामी के काम का आयोजन किया था। इस नीलामी में भारत के प्रत्येक 22 दूरसंचार "सर्किल" (या क्षेत्र) में तीन से चार 5+5 MHz (मेगाहर्ट्ज़) ब्लॉक में 2.1 एमएचजेड बैंड के 3जी स्पेक्ट्रम और दो 20 मेगाहर्ट्ज ब्लॉक के 4जी ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम में 2.3 मेगाहर्ट्ज बैंड को इस नीलामी में उपलब्ध कराया गया था।

करीब-करीब सभी भारतीय टेलिकॉम कंपनियों ने, जो इस नीलामी में बोली लगाने की पात्रता रखते थे के साथ इन्फोटेल ब्रॉडबैंड सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड नामक एक बेहद मामूली और तब तक इस क्षेत्र पूरी तरह से गुमनाम कंपनी इस 4जी ब्रॉडबैंड की नीलामी में बड़े विजेता के तौर पर उभरकर सामने आई थी। इसने 12,847.44 करोड़ रुपये की कुल बोली के साथ सभी 22 सर्किल में ब्लॉक जीतने में कामयाबी हासिल की थी। 2007 में शामिल की गई इन्फोटेल एक ऐसी कंपनी थी जिसकी कुल चुकता पूंजी उस समय 2.51 करोड़ रुपये, नेट वर्थ 2.49 करोड़ रुपये, बैंक बैलेंस 18 लाख रुपये और 14.78 लाख रुपये की राजस्व आय के साथ यह एकल ग्राहक वाली कंपनी थी।

नीलामी के नतीजों की घोषणा के फ़ौरन बाद ही 11 जून 2010 को इन्फोटेल ने घोषणा कर डाली कि इसे आरआईएल द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया है। इन्फोटेल के शेयरधारकों की एक असाधारण आम बैठक में इसने अपनी अधिकृत शेयर पूंजी को 3 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 6,000 करोड़ रुपये तक पहुँचा दिया था। बाद में जाकर इसने अपने 75% शेयर आरआईएल के नाम जारी कर दिए और खुद को आरआईएल की सहायक कंपनी के रूप में घोषित कर दिया। ठीक उसी दिन इन्फोटेल के प्रवर्तक अनंत नाहटा ने टेलीविजन पर इस बात का खुलासा किया कि नीलामी शुरू होने के बाद से ही रिलायंस समूह के साथ उनकी बातचीत चल रही थी। इसके छह दिनों के बाद ही आरआईएल ने इन्फोटेल में अपनी हिस्सेदारी को 95% तक बढ़ा लिया था। (वहीँ दूसरी तरफ अनंत नाहटा के पिता महेंद्र नाहटा जो कि हिमाचल फ्यूचरिस्टिक कम्युनिकेशंस लिमिटेड या एचएफसीएल समूह के प्रवर्तकों में से एक हैं, को आरआईएल के निदेशक मंडल के सदस्य के बतौर नामित कर दिया गया था।)

नीलामी के बाद 2011 में इन्फोटेल ने दूर संचार विभाग से देश भर में ब्रॉडबैंड वायरलेस इंटरनेट सेवाओं को मुहैय्या कराने के लिए 4जी स्पेक्ट्रम का उपयोग करने के सन्दर्भ में अपने लाइसेंस में बदलाव के लिए आवेदन किया था। यह आवेदन एक अलग प्रकार के लाइसेंस के लिए किया गया था, जिसके माध्यम से वह एलटीई या दीर्घकालीन विकास के जरिये आवाज और डेटा सेवाएं प्रदान किये जाने की अनुमति माँगी गई थी, जो तब एक नई विकसित 4जी तकनीक के तौर पर थी। जनवरी 2013 में इन्फोटेल जो कि तब तक एक आरआईएल की सहायक कंपनी के तौर पर थी, का नाम बदलकर रिलायंस जिओ कर दिया गया था। इसके कुछ समय बाद ही उस वर्ष के फरवरी माह में, दूरसंचार विभाग की तकनीकी शाखा और कई अन्य डीओटी समितियों की आपत्तियों के बावजूद आर-जिओ को 1,673 करोड़ रुपये जमा करा देने के एवज में मनचाहा लाइसेंस मुहैय्या करा दिया गया था।

सीएजी की मसौदा रिपोर्ट

बाद में जाकर इस सौदे की जांच भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा की गई थी, जो कि संवैधानिक प्राधिकारी के तौर पर सार्वजनिक वित्त की देखरेख के लिए जिम्मेदार पद है। कैग की रिपोर्ट का एक मसौदा, जो मीडिया में जुलाई 2014 में लीक हो गया था, में इस बात का खुलासा हो गया था कि नीलामी की इस इन्फोटेल की सभी कारगुजारियों के पीछे असल में आरआईएल का हाथ था।

मसौदा रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि इन्फोटेल ने 252.5 करोड़ रुपये मूल्य की जो बैंक गारंटी एक्सिस बैंक से हासिल की थी, जिसे दूरसंचार विभाग की नीलामी में बोली लगाने की पात्रता हासिल करने के मकसद से जमा किया गया था, उसमें स्पष्ट तौर पर "जालसाजी" की गई थी। इसने यह भी आरोप लगाए थे कि बैंक गारंटी से छेड़छाड़ की गई थी और लाभार्थी के नाम को – जो कि इन्फोटेल है - को वाइट फ्लुइड का इस्तेमाल करके पिछले लाभार्थी के नाम को छुपाने के बाद हाथ से स्याही से उपर से लिखा गया था।

जब इस विषय पर इस लेख के लेखकों द्वारा जून 2016 में इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली में एक लेख लिखा गया था, तो निम्नलिखित व्यक्तियों और कंपनियों के प्रतिनिधियों को विस्तृत प्रश्नावली उनकी प्रतिक्रियाएं हासिल करने के मकसद से भेजी गई थीं: जिसमें मंत्री रविशंकर प्रसाद भी शामिल थे, जो संयोगवश अप्रैल 2013 और मार्च 2014 के दौरान आरआईएल के लिए एक कानूनी सलाहकार के तौर पर काम कर रहे थे और आरआईएल द्वारा एक रिटेनर (अनुचर) के रूप में उन्हें इसका भुगतान किया जा रहा था।

इसके अलावा तत्कालीन दूरसंचार विभाग के सचिव जेएस दीपक, आर-जियो, भारती एयरटेल, आइडिया सेल्युलर, वोडाफोन इंडिया, एयरसेल इंडिया, टाटा टेलीसर्विसेज और क्वालकॉम इंडिया के प्रवक्ताओं को भी इस प्रश्नावली को भेजा गया था। प्रकाशन के समय तक इस संबंध में सिर्फ एक ही प्रतिक्रिया प्राप्त हुई थी, जो कि भारती एयरटेल समूह के प्रवक्ता से प्राप्त हुई थी, जिन्होंने इस बारे में टिप्पणी करने से इंकार कर दिया था। ईपीडब्ल्यू में इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद एक्सिस बैंक के एक प्रवक्ता ने इस बारे में कहा था कि इन्फोटेल द्वारा दिए गए मसौदे में कुछ भी "अनियमित" नहीं था।

कैग की उस मसौदा रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया था कि इन्फोटेल ने नीलामी में भाग लेते वक्त अपने आवेदन में कहीं भी एक सहयोगी या भागीदार के तौर पर आरआईएल के साथ अपने रिश्ते को घोषित नहीं किया था, जो कि "नीलामी की पारदर्शिता और पवित्रता का उल्लंघन है। मसौदा रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि “इन्फोटेल ने नीलामी के नियमों की गोपनीयता शर्तों का उल्लंघन करने का काम किया था, और शुरुआत से ही नीलामी की धांधली के बारे में बताए गए संकेतों को पहचानने में विफल होने पर इसके लिए दूरसंचार विभाग को जिम्मेदार ठहराया था।”

कैग ने अपने मसौदा रिपोर्ट में इस बात का भी दावा किया था कि अपने 4जी ब्रॉडबैंड लाइसेंस को "यूनिवर्सल लाइसेंस" में तब्दील करने के लिए इंफ़ोटेल/जियो पर बेहद मामूली शुल्क ही वसूला गया था, जिसके तहत वह वॉयस और डेटा सेवाओं की पेशकश करने में सक्षम बन सकता था। इस तरह से आर-जियो को 22,842 करोड़ रुपये तक के “अनुचित लाभ” हासिल होने का अंदेशा है।

मसौदा रिपोर्ट में शामिल कई टिप्पणियों को 8 मई, 2015 को संसद में पेश की गई सीएजी की अंतिम रिपोर्ट से हटा दिया गया था। अंतिम रिपोर्ट में दूरसंचार विभाग को आर-जियो को "अनुचित लाभ" प्रदान करने को लेकर जहाँ पूरी तरफ से दोषी करार दिया गया था, वहीँ दूसरी तरफ आर-जिओ को बीडब्ल्यूए/4जी स्पेक्ट्रम को इस्तेमाल करते हुए वायस सर्विसेज को मुहैय्या कराने की इजाजत दे दी गई थी। जबकि 2010 की नीलामी में कंपनी ने जो लाइसेंस हासिल किया था, उसमें इस कंपनी को जिन सेवाओं को प्रदान करने की इजाजत मिली थी, उसमें वॉयस टेलीफोनी को शामिल करने की अनुमति नहीं मिली थी। एक एकीकृत लाइसेंस के जरिये ही – जो आर-जिओ को इंटरनेट सेवा प्रदाता से पूर्ण सेवा प्रदाता के तौर पर रूपांतरित करने की अनुमति देता है – को उसे चुपके से उपलब्ध करवा दिया गया था। और जैसा कि सीएजी की मसौदा रिपोर्ट में इस बारे में आरोप लगाया गया था, इसे एक ऐसी कीमत पर मुहैय्या कराया गया था, जो मौजूदा बाजार मूल्य से बेहद कम पर था। हालाँकि सीएजी की अंतिम रिपोर्ट ने अपने मसौदा संस्करण से इस "अनुचित लाभ" के अनुमान को 3,367 करोड़ रूपये तक लाकर काफी हद तक कम कर दिया था।

इस रिपोर्ट के पेश होने के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान, यह बात स्पष्ट हो गई थी कि कहानी में अभी भी काफी कुछ बाकी है। तत्कालीन डिप्टी सीएजी सुमन सक्सेना ने खुद को एक ऐसे सवाल-जवाब के इर्दगिर्द घिरा पाया, जिसके बारे में उन्होंने पूर्वानुमान नहीं लगा रखा होगा। यह सवाल उन दो रिपोर्टों के बीच मौजूद असमानता के इर्द-गिर्द घूम रहा था, जिसमें से एक रिपोर्ट सदन में पेश की गई थी और दूसरी वह जिसे साल भर पहले अगस्त 2014 में सीएजी द्वारा तैयार किया गया था। पहली रिपोर्ट में "अनुचित लाभ" के लिए "मूल" अनुमानित आंकड़ा 22,842 करोड़ रुपये था - जो कि अंततः प्रस्तुत किये गए रिपोर्ट में दर्शाए गए आंकड़े से सात गुना अधिक का आँकड़ा था। यह कैसे और क्यों हुआ? तब सक्सेना ने इस प्रश्न का कोई स्पष्ट उत्तर देने से इनकार कर दिया था, और इतना भर कहा था: "मसौदा तो आख़िरकार मसौदा ही होता है।"

जहाँ तक मसौदा रिपोर्ट और सीएजी की अंतिम रिपोर्ट के बीच में किये गए बदलाव का प्रश्न है, तो इस संबंध में एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बहस करते हुए, आर-जिओ के वकील और वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने दावा किया था कि आंकड़ों में विसंगति की वजह असल में सीएजी के कार्यालय में किसी के द्वारा भ्रम फैलाने के मकसद से “प्लांट” करने के चलते हुई थी।

सीएजी के भीतर मौजूद एक विश्वसनीय स्रोत, जिन्होंने इस लेख के लेखकों में से एक के साथ पिछली बार भी लेख लिखे जाते वक्त नाम न छापने की शर्त पर बातचीत की थी, के अनुसार साल्वे ने जो दावा किया था, असल में मामला इसके ठीक उल्टा है। इस व्यक्ति का आरोप था कि जितने भी मुख्य सरकारी अधिकारी थे, उनके उपर बाहरी दबाव काम कर रहा था। इसके साथ ही यह भी दावा किया गया कि दो वरिष्ठ सरकारी नौकरशाहों द्वारा, जो कि एक अंतर-मंत्रिस्तरीय समिति के सदस्य भी थे, ने सीएजी ऑफिस में इस रिपोर्ट को "टोन डाउन" करने के लिए "अधिकारियों को प्रभावित करने की कोशिश की थी"।

स्रोत को इस बात का पछतावा था कि जनहित याचिका में गवाह या उत्तरदाताओं के तौर पर या तो खुद सीएजी को या डायरेक्टर जनरल ऑफ़ ऑडिट (पोस्ट एंड टेलीकम्युनिकेशन) को नामित या सम्मन नहीं भिजवाया गया था, जिन्होंने इस मामले का ऑडिट और मसौदा रिपोर्ट तैयार करने का काम किया था। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा याचिका को खारिज किए जाने से पहले उनके विचार दर्ज नहीं किए जा सके थे।

संसद की लोक लेखा समिति द्वारा मई 2015 में 2015-16 के दौरान जांच हेतु 4जी/बीडब्ल्यूए की नीलामी पर कैग की रिपोर्ट को चुना गया था, लेकिन इसे क्रियान्वयन में नहीं लाया जा सका।

क्या आरआईएल एक बेनामी लाइसेंसी के तौर पर है?

एक दूरसंचार क्षेत्र के पर्यवेक्षक ने जो आर-जियो के प्रतिद्वंद्वियों में से एक के करीबी हैं, ने नाम न छापे जाने की शर्त बातचीत के लिए हामी भरी, ने इन्फोटेल-आरआईएल के बीच के लेनदेन को "बेनामी व्यवस्था की पाठ्यपुस्तक जैसे मामले" के तौर पर वर्णित किया। इसमें "संपत्ति (इस मामले में आशय लाइसेंस के तहत स्पेक्ट्रम हासिल करने से है) एक व्यक्ति के नाम पर है (इन्फोटेल) और इस प्रकार की संपत्ति के लिए (बोली लगाने के लिए बैंक गारंटी और समर्थन के तौर पर 12,847.77 करोड़ रुपये की मदद) का काम किसी अन्य व्यक्ति (आरआईएल) द्वारा मुहैय्या कराया गया है। इसके साथ ही जिस व्यक्ति ने इस संपत्ति को तत्काल या भविष्य के लाभ को ध्यान में रखते हुए मुहैय्या कराया है (अन्य चीजों के साथ, एजीआर बचत के पिछले बकाया भुगतान में होने वाली बचत), प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर यह लाभ उसी व्यक्ति को (आरआईएल) मिलने जा रहा है, जिसने इस विचार को मुहैय्या कराया है।"

उन्होंने आरोप लगाया कि “11 जून, 2010 को सुबह 10.50 बजे दूरसंचार विभाग की ओर से विजेताओं के नामों की घोषणा किये जाने तक इन्फोटेल की भूमिका आरआईएल के लिए एक बेनामदार या प्रॉक्सी के तौर पर थी, और इन दोनों के बीच के कानूनी संबंध इस अवधि के बीच में परिभाषित हुए थे।”

बेनामी संपत्ति लेनदेन निषेध अधिनियम का काम बेनामी लेन-देन को परिभाषित करने से है। इसमें "किसी भी लेन-देन जिसमें किसी संपत्ति को किसी लाभ को ध्यान में रखते हुए किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को चुका दिया जाता है या हस्तांतरित कर दिया जाता है।” यह अधिनियम हालाँकि 1988 से लागू है, लेकिन अक्टूबर 2016 में जाकर ही केंद्र सरकार द्वारा इसके प्रवर्तन के नियमों को अधिसूचित करने का काम किया जा सका था।

ऐसी स्थिति को देखते हुए पर्यवेक्षक ने आगे दावा किया है कि “सर्वोच्च न्यायालय में सरकार के अपने हलफनामे के मुताबिक एजीआर को आरआईएल के 'संपूर्ण राजस्व' के आधार पर गणना किये जाने की जरूरत है, जो कि इसके 'वास्तविक' मालिक के तौर पर है। 2010 से लेकर अब तक आरआईएल द्वारा अर्जित किये गए इस राजस्व को दण्ड और मय ब्याज के वसूले जाने की जरूरत है, भले ही उसने इसे स्पेक्ट्रम के जरिये अर्जित नहीं की है।”

उन्होंने आगे कहा: "कॉमन सेन्स के हिसाब से देखें तो आर-जिओ के राजस्व पर भी एजीआर को वसूलना चाहिए, लेकिन न तो दूरसंचार विभाग और न ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक ईकाई के तौर पर 'वास्तविक' लाइसेंसधारी की एजीआर देयता की परिकल्पना की है, जबकि वह अपनी मूल कंपनी के साथ मौजूद रहकर स्पेक्ट्रम का उपभोग कर रहा है, और उसके जरिये राजस्व कमा रहा है।”

इस व्यक्ति का कहना था कि यह सरकार के उपर है कि वह बेहद स्पष्टता के साथ "गैर-लाइसेंसीकृत आने/जाने वाली ईकाइयों को जो लाइसेंस प्राप्त स्पेक्ट्रम को उपभोग में ला रही हैं” के लिए एजीआर के बैक-ड्यूज की प्रयोज्यता को निर्देशित करे।

सांसद कुमार केतकर की ओर से मंत्री रविशंकर प्रसाद के नाम लिखे पत्र में भी इसी प्रकार के तर्क पेश किये गए हैं।

3 नवंबर को हमारी ओर से केतकर के पत्र का मजमून मंत्री प्रसाद के ऑफिस और आरआईएल के कॉर्पोरेट संचार डिवीज़न को ईमेल के जरिये प्रेषित कर दिया गया था, ताकि इस बारे में उनके विचार और टिप्पणियों की जानकारी हासिल हो सके। उनमें से किसी की भी प्रतिक्रिया प्राप्त होने की सूरत में इस लेख को अपडेट कर दिया जाएगा।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। 

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिेए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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