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सिकुड़ती अर्थव्यवस्था से दूर होता सैन्य लक्ष्य

''मेक इन इंडिया'' किस्म के देशीकरण का मतलब है कि जरूरी धन की उपलब्धता के बावजूद भी भारत को मिलिट्री हार्डवेयर और सिस्टम के लिए विदेशी सरकारों और OEMs पर निर्भर रहना होगा।
Runaway Military Ambition

अगर भारत सरकार को अपने नागरिकों की चिंता होती, तो सरकार तय करती कि नागरिक ऐसी व्यवस्था में न रहें, जहां कोई नियम ही न चलते हों। जहां कानून को लागू करने वाले लोग, संविधान और कानून को ताक पर न रखते हों, जहां अराजकरता न रहती हो और जहां भद्दे बोलचाल को ''संस्कारी भाषा'' न माना जाता हो।

जब सरकार ही नफरत के बीज बो रही हो तो किसी को भी उसकी ''राष्ट्रवादी'' साख पर शक होगा। सरकार ने अपने व्यवहार से बताया है कि वो समावेशी भारत की कोई कद्र नहीं करती। दरअसल यह सरकार देश में बंटवारे की नीति अपनाती है और उसे प्रोत्साहित करती है। इस चेतावनी को ध्यान में रखते हुए अब हम सैन्य बजट की ओर चलते हैं।

भारी होता खर्च

आम धारण से उलट, भारतीय सेना का खर्च बहुत ज्यादा है। इस खर्च से हमें सेना द्वारा आम लोगों के दमन की औपनिवेशिक प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ती है. दरअसल यह प्रवृत्ति कई दशकों से जारी है। बजट में अपने ही देश में, अपने ही लोगों के ख़िलाफ़, दशकों से लड़ रहे सशस्त्र बलों के खर्च का बड़ा आवंटन होता है। वित्त वर्ष 2020-21 के लिए रक्षा बजट 4,71,378 करोड़ रुपये या 67 बिलियन डॉलर है। इसमें रक्षा पेंशन भी शामिल है। यह GDP के 2.1 फ़ीसदी हिस्से से भी ज़्यादा है। इसमें रक्षा पेंशन करीब 1,33,825 करोड़ रुपये है। पिछली बार की तुलना में रक्षा पेंशन में करीब 14 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। यह बजट में हुए तीन फ़ीसदी बढ़ोत्तरी से काफी ज़्यादा है।

SIPRI के मुताबिक रक्षा बजट का असली आंकड़ा जानने के लिए इसमें गृहमंत्रालय के अंतर्गत आने वाली ''पुलिस'' के लिए आंवटित 85,184 करोड़ रुपये भी जोड़ने चाहिए। इसमें केंद्रीय अर्द्धसैनिक बल जैसे- असम राइफल्स, इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस, बीएसएफ, सशस्त्र सीमा बल, सीआरपीएफ और एनएसजी आते हैं। यह सभी अर्द्धसैनिक बल संघ के ''सशस्त्र बल'' के अंतर्गत आते हैं। इनका निर्माण औपनिवेशिक दौर की आइरिश कांस्टेबलरी के मॉडल पर हुआ है। इनका प्रशिक्षण भी सेना की इन्फेंट्री की तरह ही होता है। इसलिए रक्षा के लिए आवंटित पैसे का आंकड़ा बढ़कर 5,56,562 करोड़ रुपये पहुंच जाता है। यह बजट 79 बिलियन डॉलर या जीडीपी का लगभग 2.3 फ़ीसदी हिस्सा है।

किसी भी तरीके से सोचें, इस बजट को अपर्याप्त करार नहीं दिया जा सकता। वह भी तब, जब यह एक ऐसे देश का सैन्य बजट हो, जो आर्थिक मंदी से जूझ रहा है। SIPRI 2019 के मुताबिक़, चीन अपनी जीडीपी का 1.9 फ़ीसदी (250 बिलियन डॉलर), अमेरिका 3.2 फ़ीसदी (649 बिलियन डॉलर) खर्च करता है। भारत का सैन्य बजट, अमेरिका और चीन की तुलना में बहुत कम है, लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था का आकार देखते हुए रक्षा बजट बहुत ज्यादा मालूम होता है।

सैन्य बजट पर खर्च को इस तर्क से साथ सही ठहराया जाता है कि भारत एक उभरती हुई शक्ति है। इसलिए हमें अपनी ताकत को बढ़ाने की जरूरत है। खासकर तब, जब हम ''ढाई युद्ध'' की परिस्थितियों से घिरे हों। सैन्य विश्लेषक चीन और पाकिस्तान की तरफ से खतरे की बात लिखते हैं। लेकिन यहां ''खतरे की प्रवृत्ति'' के बारे में सरकार का विश्लेषण ही गायब है। इसलिए उन समाधानों का कहीं अता-पता ही नहीं है, जिनसे हम इन भावी खतरों से निपट सकें। पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायण ने हाल में लिखा, ''अब एक अच्छी तरह से बनाए गए 'रक्षा श्वेत पत्र' की जरूरत है, जिसमें खतरों को सही परिदृश्य में रखा गया हो और उनसे निपटने के लिए उठाए गए कदमों का जिक्र हो।''

अगर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए ने श्वेत पत्र जारी किया होता, तो इस सुझाव में ज्यादा दम होता। लेकिन पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार ने चीन के बारे में फैली ''अवधारणा'' पर बिलकुल सही सवाल उठाया। यह आम धारणा है कि चीन एक आक्रामक शक्ति है, जो दुनिया को अपने ईर्द-गिर्द मोड़ना चाहता है। एम के नारायण ने तर्क दिया कि ''भारत के अस्तित्व को चीन से क्या खतरा है'', इस बारे में ''गहराई से एक अध्ययन'' की जरूरत है। दूसरे शब्दों में क्या चीन एक प्रतिस्पर्धी पड़ोसी है या शत्रु देश?

प्रतिस्पर्धा और शत्रुता के बीच होता है बड़ा अंतर

इसे समझने के लिए हम एक उदाहरण लेते हैं। चीन, अब दुनिया की दो महाशक्तियों में से एक है। वह दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है, ऐसे में अपने वैश्विक हितों की रक्षा करने के लिए चीन को एक बड़ी सेना की जरूरत है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए, क्या भारतीय नौसेना को हिंद महासागर में चीन के दखल का तर्क देकर, अपने लिए दो या तीन या ज्यादा एयरक्रॉफ्ट कैरियर की वाकई में कोई जरूरत है? भारत को पुरानी औपनिवेशिक ताकतों की हिंद महासागर में उपस्थिति पर कोई समस्या नहीं है। ऐसे में किस आधार पर हम चीनी नौसेना के हिंद महासागर में होने से खतरा महसूस करते हैं? अमेरिका के सातवें बेड़े ने 1971 में जिस तरीके से भारत को धमकी दी थी, क्या आज तक वैसी घटना कभी हुई है?

भारत अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए हिंद महासागर में नौसैनिक अड्डों का अर्जन कर रहा है। ऐसे में हमें चीन के उभार से खतरा क्यों है? जबकि वह अमेरिका और NATO फौजों के एकाधिकार को चुनौती दे रहा है। जिन्होंने अतीत में कई बुरे काम किए हैं। हाल में इन औपनिवेशिक ताकतों ने अफगानिस्तान, सीरिया, ईराक, लीबिया और अब ईरान जैसे कई देशों में बहुत आक्रामकता दिखाई है।चीन का डर दिखाकर, दरअसल पुरानी औपनिवेशिक ताकतें, अपने पुराने उपनिवेशों को साथ लाना चाहते हैं, ताकि वे दुनिया पर अपनी पकड़ को दोबारा मजबूत कर सकें।

 हाल ही में म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस और उसके पहले NATO कॉन्फ्रेंस में, NATO के पुनर्गठन और विस्तार, साथ में यूरोपियन यूनियन की फौजी ताकत बढ़ाने जैसी बातें कही गईं। दक्षिणपंथियों का कोई दावा सिर्फ संकीर्ण ही नहीं होता, बल्कि इसमें एकाधिकार की भी भावना होती है। अब भारत सरकार का NATO और EU की विस्तारवादी नीतियों पर क्या कहना है? क्या रूस और चीन के प्रति आक्रामक रुख रखने वाला NATO, भारत के लिए कुछ जगह रखता है? या चीन और रूस को ठिकाने लगाने के बाद यह भारत की ओर मुड़ेगा, तब भारत को इनके हिसाब से चलना होगा या नतीजे भुगतने को तैयार रहना होगा। क्योंकि साम्राज्यवाद सही वक्त पर हमला करने का इंतजार करता है।इसलिए रक्षा श्वेत पत्र जारी किए जाने की बहुत जरूरत है।

हर तरह की तैयारी रखने के उद्देश्य से हमारे देश ने चीन के प्रति ''विरोधी सैन्य मुद्रा'' अपना रखी है। लेकिन अगर सैन्य उपकरण खरीदने और अपनी इस मुद्रा को बनाए रखने के लिए पैसे की कमी हो गई, तो इसकी वजह धन का कम आवंटन नहीं, बल्कि मंहगी होती श्रमशक्ति (खासकर सैन्य पेंशन का बढ़ता दबाव) होगी।

नीचे की तालिका में सेना पर श्रमशक्ति के दबाव को बताया गया है। इसमें वायुसेना या नौसेना शामिल नहीं है, क्योंकि उनके पास पर्याप्त मात्रा में पैसा है।भारत में 26 लाख रिटायर सैन्यकर्मियों के लिए ''सैन्य पेंशन'' पर 1,33,825 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। जबकि 40 लाख अन्य सरकारी कर्मचारियों के लिए ''नागरिक पेंशन'' खर्च 61,169 करोड़ रुपये है।
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यह सही बात है कि नागरिक पेंशन की सैन्य पेंशन से तुलना नहीं की जा सकती। क्योंकि सैन्य पेंशन का पूरा भार सरकार उठाती है। जबकि नागरिक पेंशन का एक हिस्सा खुद नागरिक देते हैं। ऊपर से सैन्य और अर्द्धसैनिक बलों की सेवाओं की अवधि में भी अंतर होता है।

अर्धसैनिक बलों के लोग उम्र के छठवें दशक के आखिर में रिटायर होते हैं। वहीं सेना के जवानों (अधिकारी नहीं) को 17 साल की सर्विस देनी होती है। लेकिन पेंशन के तौर पर जो धन खर्च होता है, वहीं हमारा ध्यानाकर्षण करता है।

यह माना हुआ तर्क है कि सैन्य पेंशन के बढ़ने भार को रोकने और सैन्य उपकरणों पर खर्च को बढ़ाने के लिए श्रम सुधार किए जाने जरूरी हैं। सवाल उठता है कि इन सुधारों में क्या शामिल होगा? एक आसान उपाय यह होगा कि कुछ लॉजिस्टिक्स और प्रबंधन की जिम्मेदारियां नागरिकों को दे दी जाएं, क्योंकि नागरिक श्रमशक्ति, सैन्य श्रमशक्ति से सस्ती होती है। इससे कुछ हजार करोड़ रुपये बच सकते हैं। लेकिन असल समस्या का समाधान नहीं होगा।

कटौती वहां की जाए, जहां मायने रखती है

अपने खुद के लोगों से जंग लड़ने के लिए, भारतीय सेना और अर्द्धसैनिक बलों की श्रमशक्ति में जो इज़ाफा हुआ है, उस पर शायद ही कभी सवाल उठाया गया हो। राष्ट्रीय राइफल्स का गठन 1990 में किया गया था। इसमें 75,000 सुरक्षाबल हैं। वहीं औपनिवेशिक दौर में हमारे अपने लोगों के खिलाफ लड़ने के लिए बनाई गई असम राइफल्स में 64,000 सुरक्षाबल हैं। हमारे लिए दोनों ही असंगत हैं। अगर इन दोनों को खत्म कर दिया जाता है, तो सुरक्षाबलों की संख्या में 1,40,000 लोगों की कमी आ जाएगी।

भारत न केवल ''विरासत के हथियारों'' का भार ढो रहा है, बल्कि यह ''क्षेत्रीय-वर्चस्व'' वाली एक पुरानी परंपरा का भी ख़ामियाजा उठा रहा है। इसके तहत, विप्लव से निपटने के लिए बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती की जाती है। इसके चलते सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी, एसएसबी और दूसरे अर्द्धसैनिक बल तस्वीर में आते हैं। इन्हें अफस्पा से लैस कर 'अशांत क्षेत्रों' में तैनात किया जा रहा है। इन इलाकों में सेना की तैनाती भी चिंताजनक बात है। चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ ने हाल ही में जम्मू-कश्मीर के लिए अलग ''थिएटर कमांड'' के गठन की बात कही है। इसके बाद आंतरिक मामलों में सेना का हस्तक्षेप तेज होगा और इसे वैधता मिलेगी।

कुछ विश्लेषकों ने आंतरिक सुरक्षा मामलों में सेना के बढ़ते इस्तेमाल पर सवाल उठाए हैं। लेकिन शायद ही किसी रणनीतिक विशेषज्ञ ने दशकों से अपने ही लोगों को दबाने वाली सैन्य नीति पर सवाल उठाए हों। यह नीति 1970 से चालू है और इसकी वजह से अर्द्धसैनिक बलों की संख्या में बढ़ोत्तरी की लगातार जरूरत पड़ती रही है।

हालांकि जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में तैनात सैनिकों की सही संख्या का तो ब्योरा नहीं दिया जा सकता, लेकिन इसका एक अंदाजा लगाया जा सकता है।

उत्तरी कमांड ने अपने दो कॉर्प्स को जम्मू कश्मीर में तैनात किया है। वहीं पूर्वोत्तर में आर्मी के तीसरे और चौथे कॉर्प्स की तैनाती है। इसका मतलब है कि आंतरिक सुरक्षा के लिए करीब तीन से चार लाख सैनिकों की मौजूदगी है। ऊपर से चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ ने जम्मू-कश्मीर के लिए अलग मिलिट्री कमांड की बात कही है। इसका मतलब है कि कश्मीर में सेना इस औपनिवेशिक कार्यक्रम को अपनाएगी। हजारों-लाखों सैनिकों की तैनाती होगी। जबकि सेना के जवानों के लिए इस तरह की तैनाती दोयम दर्जे की होती है।

वेतन, भत्तों, पेंशन के अलावा सेना की आवाजाही पर भी बहुत खर्च होता है। क्योंकि अशांत क्षेत्रों में इन्हें लगातार एक से दूसरी जगह स्थानांतरित किया जाता रहता है। ऊपर से जम्मू-कश्मीर में पुलवामा के बाद सैनिकों को अब हवाई मार्ग से पहुंचाया-लाया जाता है। इससे परिवहन खर्च और बढ़ गया है।

दूसरे शब्दों में, जब तक सेना को अपने लोगों से लड़ने वाले दूसरे दर्जे के काम से नहीं हटाया जाता और उन्हें सीमा रक्षा के उनके मुख्य काम पर वापस नहीं लगाया जाता, तबतक इस अतिरिक्त खर्च में कटौती नहीं की जा सकती। यह सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है कि वो अपने ही लोगों को दबाने की नीति से अलग हटे और समस्याओं का राजनीतिक-लोकतांत्रिक हल निकाले। अब जब जम्मू-कश्मीर का औपनिवेशीकरण हो चुका है तो कहा जा सकता है कि भारतीय सेना को यह भद्दा काम अगले कुछ दशकों तक जारी रखना होगा।

दुर्भाग्य है कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ, आतंकवाद को मुख्य खतरा बता रहे हैं और ''हायब्रिड वारफेयर'' जैसी उधारी की शब्दावली का इस्तेमाल कर समाधान की बात कर रहे हैं। ऐसे में हमारी आंतरिक समस्याओं का लोकतांत्रिक हल अब सरकार के सपने से बहुत दूर की बात है। इस स्थिति में कुछ छोटी कटौतियों से अतिरिक्त खर्च को छांटकर पैसे को बचाया जा सकता है। लेकिन कुछ बहुत खास हासिल नहीं होगा।

पैसे कैसे इकट्ठे किए जाएं

क्या इसका मतलब यह है कि घरेलू जंग पर खर्च होने वाले पैसे को बचाया नहीं जा सकता? ताकि इसका उपयोग सेना के आधुनिकीकरण में किया जा सके।

अब भारत में हमें सरकार द्वारा किए जाने वाले धूर्त उपायों के लिए तैयार रहना चाहिए।15वें वित्त आयोग को सरकार की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा जिम्मेदारियों के लिए रास्ते खोजने का काम दिया गया था। आयोग द्वारा एक अहम सुझाव दिया गया। इसके तहत किसी निधि को तय वक्त में खर्च न होने की स्थिति में, ख़ारिज न होने के प्रावधान के साथ आवंटित किया जाए। यह सुझाव ऐसे वक्त में दिया गया था, जब पूंजी पूरी तरह खर्च नहीं हो पाती थी। लेकिन अब तो पुरानी खरीद के खर्च को ही चुकाने के बाद, नई चीजें खरीदने के लिए ही बहुत कम पैसा बचता है।

अनु्च्छेद 266(1) भारत की संचित निधि के बारे में बात करता है। इस निधि से निकलने वाले हर पैसे को संसद द्वारा अनुमति देनी होती है। इस अनुच्छेद में संवैधानिक संशोधन के बिना ''गैर-व्यपगत कोष'' का प्रावधान नहीं किया जा सकता। लेकिन बड़ा सवाल यह है इस नए कोष के लिए भी पैसा कहां से आएगा? इसके लिए 'डिफेंस सेक्टर यूनिट' की अतिरिक्त ज़मीन या लंबी अवधि के 'डिफेंस बांड' की चर्चा है।

अतिरिक्त ज़मीन को बेचना सुनने में एक अच्छा विचार लगता है। वहीं स्पेशल डिफेंस बांड भी एक दूसरा तरीका है। लेकिन रक्षा मंत्रालय का यह सुझाव कि मौजूदा आयकर पर दो-तीन फ़ीसदी का सेस (CESS) लगाने वाला सुझाव चिंताजनक है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने अर्थव्यवस्था का प्रबंधन खराब तरीके से किया है। सार्वजनिक पैसे के प्रबंधन क्षेत्र में तो यह सरकार और भी खराब है। सरकार ने दबाव डालकर नवरत्न कंपनियों से उनकी अधिशेष पूंजी ले ली। ताकि ''राजस्व खर्च'' की पूर्ति की जा सके। इतना ही नहीं, सरकार ने उन्हें पूंजी बाजार से लोन या इक्विटी के ज़रिए पैसा लेने के लिए भी मजबूर किया है।

किसी भी तरीके से देखें, तो यह फ़ैसले पीएसयू के निजीकरण की ओर बढ़ते कदम समझ आते हैं। याद करिए, मोटी पूंजी वाले अमीर लोगों के लिए इस सरकार की कर नीति क्या है। दूसरी तरफ यही सरकार अप्रत्यक्ष कर बढ़ाकर दैनिक मजदूरी करने वालों से पाई-पाई वसूल रही है। इसलिए आयकर पर दो-तीन फ़ीसदी का सेस लगाकर, सरकार की लंपटई के खामियाजे को पूरा किया जा रहा है। ध्यान रहे इस सरकार ने बददिमाग योजनाओं पर सार्वजनिक धन की बर्बादी की है। अगर बीजेपी के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकता है, तो सरकार ने अमीरों पर कर को कम नहीं किया होता और इस पैसे को सेना की जरूरतें पूरी करने के लिए इस्तेमाल किया होता। यह विकल्प सरकार के पास हमेशा से मौजूद था।

लेकिन यह तय कैसे किया जाए कि किसी भी तरीके से जो पैसा इकट्ठा होगा, उसे सैन्य जरूरतों के लिए ही इस्तेमाल किया जाएगा। अगर रक्षा क्षेत्र की ज़मीन बेचकर या डिफेंस बांड या सेस लगाकर जो पैसा इकट्ठा किया गया और उसे सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में नहीं लगाया, मसलन उसे राजस्व खर्च को पूरा करने या निजी लोगों को हस्तांतरित कर दिया, तो हम मौजूदा समस्या से भी बड़ी दिक्कत में फंस जाएँगे। जैसे- आज बांड के ज़रिए जो पैसा इकट्ठा किया जाएगा, वो कल भारत के आम लोगों पर कर्ज चढ़ाएगा। ऊपर से यह सैन्य क्षेत्र में कॉरपोरेट के दख़ल को बढ़ाएगा, जहां वे विदेशी हथियार बनाने वाली कंपनियों (Original Equipment Manufacturers/OEMs) के छोटे साझेदार रहेंगे।

दरअसल दो वजहों से सरकार की योजना पर शक करने की गुंजाइश है। पहला, मोदी सरकार सैन्य क्षेत्र में कॉरपोरेट को दाखिल करने और उन्हें विदेशी OEMs की जूनियर पार्टनर बनाने की कोशिश कर रही है। दिक्कत यह है कि न तो भारतीय, न ही विदेशी OEMs बिना बड़े ऑर्डर के इस क्षेत्र में निवेश करेंगी। उन्हें लगातार ऐसे आर्डर की जरूरत भी होगी। लार्सन एंड टर्बो को होवित्जर सप्लाई करने के ठेके में तो हमारा यही अनुभव रहा है। ''वज्र 9'' के नाम से मशहूर इस होवित्जर को एल एंड टी और साउथ कोरियन कंपनी हानवा टेकविन को मिलकर बनाना था।

एल एंड टी ने कहा कि अगर सरकार ने अगले 6 महीने में एक और बड़ा ऑर्डर नहीं दिया तो कंपनी को गुजरात में अपनी यूनिट बंद करनी होगी और इसे स्थानांतरित करना होगा। सरकार ने प्रतिक्रिया में निजी क्षेत्र को बताया कि उन्हें बहुत कम काम मिलेगा। अपनी यूनिट को चलाने के लिए उन्हें अपने रक्षा उत्पादों को विदेश निर्यात करते रहना होगा। क्या यह वास्तविक भी है?

बड़ा मजाक यह है कि सरकार रक्षा निर्यात में एयरोस्पेस पार्ट्स को भी शामिल करती है। इससे 2,000 करोड़ रुपये का रक्षा उत्पादों का निर्यात पांच गुना बढ़कर 10,700 करोड़ रुपये पहुंच जाता है। दरअसल सैन्य उत्पादों के निर्यात की कहानी काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई नज़र आती है। आखिर OEM के साथ काम करने वाली भारतीय निजी कंपनियां अपने लिए बाज़ार कहां से खोजेंगी। इतना हो सकता है कि भारतीय निजी कंपनियां कुछ उत्पादों को अपनी साथी OEM को दे सकती हैं, जिनका इस्तेमाल यह OEM अपने निर्यात में कर सकती हैं। लेकिन भारतीय निजी कंपनियों द्वारा खुद के बाजार का निर्माण अभी दूर की बात नज़र आती है।

ऊपर से सरकार की नीतियों में भ्रम भी है। उदाहरण के लिए, संसाधनों की कमी के चलते चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ को यह कहने पर मजबूर होना पड़ा कि भारत 114 फाइटर जेट का अर्जन करेगा और तीसरे ''एयरक्रॉफ्ट कैरियर का निर्माण रोक देगा'', क्योंकि यह ''बहुत महंगा'' है।
 
हालांकि यह स्पष्ट हो गया है कि भारत अब राफेल फाइटर जेट की खरीद करेगा। उन 114 फाइटर जेट की खरीद प्रक्रिया को रोक दिया गया है। यह भी बेहद दिलचस्प है कि हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) को एक बार धक्का मारने के बाद, फ्रेंच कंपनी दसां, HAL के साथ एक बार फिर नए ''वर्क-शेयर एग्रीमेंट'' पर काम कर रही है। एक नौसिखिया निजी भारतीय कंपनी को दसां के साथ ''ऑफसेट इंवेस्टमेंट'' में हिस्सेदार बनाकर भारत सरकार ने हमारे खर्च पर दसां को पूरा नियंत्रण दे दिया। अब सरकार उन 114 जेट के लिए निविदा प्रक्रियाओं को भी खारिज कर रही है और HAL के पास वापस लौट रही है।

इस बीच सरकार विदेशी OEM कंपनियों के ज़रिए भारत में निवेश को बढ़ाने की कोशिश कर रही है। लेकिन अब भारत सरकार द्वारा पलटी खाने से यह कंपनियां भी हिल गई हैं। अगर राफेल जेट का अर्जन किया जा रहा है, तो इन 114 फाइटर जेट का नाच क्यों किया? अगर यह गलती थी, तो इसका मतलब यह नहीं हुआ कि 2012 के राफेल समझौते को खारिज करना भी एक गलती थी? राफेल पर अब वापस लौटने का मतलब है कि अब इनमें जो ''घरेलू उत्पादित सामग्री'' का इस्तेमाल होगा, वो 2012 में हुए समझौते के सामान से कमजोर स्तर की होगी।

कुलमिलाकर मोदी सरकार अब अपने ही बनाए मकड़जाल में उलझ गई है। लगातार नियमों, सामान खरीदने के फ़ैसलों और सेना के लिए नीतिगत ढ़ांचों को बदलने से हमें पता चलता है कि सरकार 6 साल बाद भी उलझनों को समझने में सहज नहीं है।स्वदेशीकरण का मतलब होता है कि घरेलू तकनीक और वैज्ञानिकता को बढ़ावा देना। स्थानीय उत्पादनकर्ताओं की क्षमता को बढ़ाना। फिलहाल इन क्षमताओं का विस्तार इतना ही है कि घरेलू उत्पादक सैन्य उत्पादों का भारत में उत्पादन कर पाते हैं, लेकिन इनकी तकनीक विदेशी OEM के पास ही होती है। अहम हिस्सों और कलपुर्जों की आपूर्ति के लिए विदेशी कंपनियों पर निर्भरता दुखदायी है। ''मेक इन इंडिया'' किस्म के देशीकरण का मतलब है कि जरूरी धन की उपलब्धता के बावजूद, भारत को सैन्य कलपुर्जों के लिए विदेशी सरकारों और OEMs पर निर्भर रहना होगा।

इसलिए पैसा हो या ना हो, भारत की सेना के पुनर्गठन और स्वदेशीकरण पर उलझन बरकरार है। इस बीच अपने ही इलाकों के सैन्यकरण से लोगों को दबाने की नीति जारी रहेगी। ऊपर से जनता को अब आर्थिक मंदी की मार भी झेलनी होगी।

(लेखक एक एक्टिविस्ट हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Runaway Military Ambition of a Shrinking Economy

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