Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

सेबी की स्वायत्तता में भी सेंध

“सरकार सेबी पर नियंत्रण करना चाहती है। जो पैसा सेबी को अपने कर्मचारियों के वेतन भुगतान और अपनी संस्था चलाने के लिए ब्रोकरेज चार्ज, ट्रांजेक्शन चार्ज आदि के तौर पर मिलता है, उसे सरकार हथियाना चाहती है।”
SEBI

मौजूदा सरकार अब सेबी यानी भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (Securities and Exchange Board of India) के नकद आधिक्य (cash surplus) का इस्तेमाल करना चाहती है। सरकार ने आरबीआई के रिज़र्व फण्ड का इस्तेमाल करने का फैसला पहले ही ले लिया है। यहां यह समझने वाली बात है कि सेबी और आरबीआई कोई सरकार के अधीन ऐसी कंपनी नहीं हैजिसके पैसे का इस्तेमाल सरकार जैसे मर्जी वैसे कर सके, बल्कि ये वित्तीय क्षेत्र की स्वायत्त नियामक संस्थाएं (regulatory institution) हैं। यानी ये वो संस्थाएं हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था और वित्तीय क्षेत्र पर निगरानी रखती हैं। 
अब सेबी से जुड़े मसले को देखते हैं। सेबी निवेशकों (investors) के सुरक्षा के लिए काम करती है। समय-समय पर उन्हें अपने निवेश से जुडीकंपनियों की स्थिति से जुड़ी जानकारी मुहैया करवाती रहती है। प्रतिभूतियों (securities) यानी शेयर, बांड और डिबेंचर आदि से जुड़े बाजार को रेगुलेट करती है। यानी कंपनियों में पैसे इन्वेस्ट करने वाले लोगों की हितों की सुरक्षा के लिए काम करती है और कंपनियों के वित्तीय स्थिति की निगरानी करती रहती है ताकि वित्तीय बजार में होने वाली गड़बड़ियों को दूर किया जा सके। सरकारी नियंत्रण से आजाद इस वैधानिक संस्था की स्थापना साल 1992 में सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया कानून बनाकर की गयी थी। कहने का मतलब यह है कि सरकार को यह अधिकार नहीं हासिल है कि कानून में फेरबदल किये बिना इन संस्थाओं दखलअंदाजी करे। 
लेकिन सरकार ने इसमें दखलअंदाजी करने का मन बना लिया है। बजट सत्र के दौरान पेश किये फाइनेंस बिल के दौरान सरकार ने सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड एक्ट में बदलाव को प्रस्तावित कर दिया। जिसके अनुसार हर साल सेबी के पास मौजूद नकद अधिकता (cash surplus) को दो हिस्सों में बाँटा जाएगा। नकद आधिक्य का 25 फीसदी हिस्सा सेबी का रिज़र्व फण्ड बन जाएगा और 75 फीसदी हिस्सा सरकार के खाते में चला जाएगा। सेबी एक्ट में होने वाले इस बदलाव को लेकर सेबी के अधिकारियों ने विरोध दर्ज किया। उन्होंने कहा कि ऐसे बदलाव से सेबी की वित्तीय स्वायत्तता  कमजोर होगी। सरकार ने इस विरोध को इसी शुक्रवार को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया।  
इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि सेबी के पैसों का इस्तेमाल सरकार अपने राजकोषीय खर्चें में सहयोग के तौर पर करेगी। लेकिन यह पैसा बहुत कम है। केवल31 हजार करोड़। यह इतना कम है कि इससे राजकोषीय घाटे में थोड़ा बहुत ही अंतर आएगा। इसलिए जानकारों  कहना है कि ऐसा करने के पीछे सबसे मजबूत तर्क यह लग रहा है कि सरकार सेबी के वित्तीय और प्रशासनिक आज़ादी पर काबू हासिल करना चाहती है। ऐसा होने पर सेबी को अपने पूंजीगत खर्चों से जुड़े योजनाएं बनाने से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी।
वरिष्ठ पत्रकर अभीक बर्मन कहते हैं कि सरकार सेबी पर नियंत्रण करना चाहती है। जो पैसा सेबी को अपने कर्मचारियों के वेतन भुगतान और अपनी संस्था चलाने के लिए ब्रोकरेज चार्जट्रांजेक्शन चार्ज आदि के तौर पर मिलता हैउसे सरकार हथियाना चाहती है। इससे सेबी के कामकाज पर तो फर्क पड़ेगा। सेबी वह काम करने से पीछे हटेगी जो भारत के वित्तीय बाजार को मजबूत  करने के लिए जरूरी होगा। सेबी द्वारा किये जाने वाले इन्वेस्टमेंट पर प्रभाव पड़ेगा। किसी भी तरह का इन्वेस्टमेंट करने से पहले सरकार से पूछना होगा। और ऐसा होना सेबी की स्वायत्तता में सेंध लगाने की तरह है।  
इस विषय पर न्यूज़क्लिक के वरिष्ठ पत्रकर सुबोध वर्मा कहते हैं कि सैद्धांतिक तौर पर इसमें कोई गलत बात नहीं है कि सरकार जनकल्याण के उन सारी जगहों से पैसों का इंतज़ाम करेंजिसपर वह अपना अधिकार जता सकती है। और यह अधिकार केवल सरकार को ही हासिल हैं क्योंकि जनता द्वारा चुनी जाती है। इस समय यह भी साफ़ दिख रहा है कि सरकार की कमाई कम हो रही है। लेकिन सरकार राजस्व की भरपाई  करने के लिए जिन संस्थाओं के ढांचे से छेड़छाड़ कर रही हैवह संस्थाएं अर्थव्यवस्था से जुड़ी हैं। अर्थव्यवस्था पांच साल के दायरे में काम नहीं करती है। इसका लम्बा प्रभाव पड़ता है,  अर्थव्यवस्था के नियामकों में छेड़छाड़ करने से पूरा वित्तीय बाजार चरमरा सकता है। इसलिए जनकल्याण जरूरी है लेकिन ऐसा बदलाव नहीं होना चाहिए कि अर्थव्यस्था को उबारा ही न जा सका।  

भारत के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम लगातार कह रहे हैं कि जीडीपी के आंकड़ें को तकरीबन 2.5 की दर से से बढ़ाचढ़ाकर दिखाया जा रहा है। आंकड़ों के लिहाज से सरकार दूसरी जगहों पर लीपापोती कर अर्थव्यवस्था को चमकदार दिखाने की कोशश कर रही है। वहीं पर बजट में 1.7 लाख करोड़ रूपये का हिसाब किताब नहीं मिलता है। बाजार मांग की कमी से जूझ रहा है। सरकार के पास पैसा नहीं है। और वह जिस तरह से पैसे का इंतज़ाम किया जा रहा हैउससे यह लगता है कि अर्थव्यस्था और अधिक रसातल में चलती चली जायेगी। 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest