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एमएसपी व्यवस्था को मज़बूत बनाने की ज़रूरत

कृषि सुधारों से संबंधित विमर्शों में एमएसपी व्यवस्था लंबे वक़्त से केंद्रीय मुद्दा रही है।
एमएसपी व्यवस्था को मज़बूत बनाने की ज़रूरत

कृषि सुधारों के विमर्श में एमएसपी व्यवस्था लंबे वक़्त से केंद्रीय मुद्दा रहा है। इसका नफ़ा-नुकसान बताते हुए प्रोफ़ेसर एमएस श्रीराम बता रहे हैं कि हमें इस व्यवस्था से क्या सीखना होगा और हम कैसे एमएसपी को एक प्रभावी तंत्र के तौर पर ढाल सकते हैं, जिससे किसान सशक्त हो सकें।

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संवैधानिक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के खिलाफ़ तर्क इन आधारों पर गढ़े जाते हैं: 

एमएसपी से केवल भारत के किसानों के एक छोटे हिस्से को ही मुनाफ़ा होता है, जिसमें विशेषकर पंजाब और हरियाणा के किसान शामिल हैं और यह मुनाफ़ा मुख्यत: चावल और गेहूं के लिए होता है। सरकार एमएसपी जारी रखने का लिखित आश्वासन दे सकती है, लेकिन इसे कानून में बदलने से बाज़ार में भूचाल आ सकता है, जो खुद किसानों के ख़िलाफ़ भी जा सकता है।

एक और तर्क यह दिया जाता है कि राज्य द्वारा संचालित मंडी व्यवस्था का विकल्प बाज़ार को निजी खिलाड़ियों के लिए खोलना और "किसान उत्पादक संगठन (एफ़पीओs)", निजी क्षेत्र द्वारा होने वाले शोषण के खिलाफ़ सुरक्षा चक्र की तरह काम कर सकते है।

अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने यह दोनों तर्क हाल में एक अख़बार के संपादकीय में लिखे थे। 

हम इन मुद्दों को एक वैकल्पिक बिंदु से देखेंगे, जो किसानों और निजी खिलाड़ियों के बीच बुनियादी असंतुलन पर आधारित है।

कृषि व्यापार में ढांचागत विषमताओं की समझ

किसानों और खरीददारों के बीच सीधे समझौते भयावह विषमता से भरे होते हैं। कई तरह की अनिश्चित्ताओं की संभावना से जूझता किसान इस समझौते में संकटग्रस्त सिरे पर होता है। केवल एक ही चीज उनके हाथ में होती है, जो है, फ़सल उगाई जा सकने वाली भूमि और उसमें किसान द्वारा किया जाने वाला निवेश। वैज्ञानिक तरीकों, सिंचाई और दूसरी मदद के ज़रिए अनिश्चित्ता के केवल कुछ ही हिस्से का समाधान हो पाया है। लेकिन अंतत: फ़सल किसान के कौशल का ही नतीजा होती है। फ़सल के बाद, उत्पाद की मात्रा और आकार के चलते, जिसे किसान ज़्यादा दिनों तक भंडारित कर नहीं रख सकता, ऊपर से अगली फ़सल में लगने वाले निवेश के दबाव के चलते किसान तुरत-फुरत अपने उत्पाद के पैसे ले लेता है।

यहां एक और चीज है, जो किसान के पास नहीं है, लेकिन ख़रीददार के पास उपलब्ध है। खरीददारों के पास यह कानूनी विकल्प है कि वे नुकसान होने की दशा में किसी लेनदेन या बाज़ार से अपने मनमुताबिक निकल सकते हैं। लेकिन जैसे ही किसानों ने बुवाई की, वे इस लेनदेन में फंस चुके होंगे। अपनी फ़सल को छोड़ने के अलावा, उनके पास सिर्फ फ़सल में ज़्यादा से ज़्यादा निवेश करने और सफलता की आशा लगाए रखने का ही विकल्प होता है।

दूसरी तरफ भारी जेबों वाले खरीददारों के पास गोदामों में भंडारण की क्षमता के साथ वक़्त भी होता है। खरीददारों के पास फ़सल के इलाके, अलग-अलग बाज़ारों में फ़सलों के आगमन और अंतरराष्ट्रीय स्थिति की जानकारी होती है। इसलिए समझौते में खरीददार के पास बेतहाशा शक्ति होती है, जिसे किसान की संकटपूर्ण स्थिति से संतुलित करना जरूरी है।

यहां एक और चीज है, जो किसान के पास नहीं है, लेकिन खरीददार के पास उपलब्ध है। खरीददारों के पास यह कानूनी विकल्प है कि वे नुकसान होने की दशा में किसी लेनदेन या बाज़ार से अपने मनमुताबिक निकल सकते हैं। लेकिन जैसे ही किसानों ने बुवाई की, वे इस लेनदेन में फंस चुके होंगे। अपनी फ़सल को छोड़ने के अलावा, उनके पास सिर्फ फ़सल में ज़्यादा से ज़्यादा निवेश करने और सफलता की आशा लगाए रखने का ही विकल्प होता है।

क्या बाज़ारों को खोला जाना समाधान है?

एमएसपी की अहमियत "संकेतन प्रभावों" में होती है। लेकिन बिना बाज़ार हस्तक्षेप के संकेतक काम नहीं करेंगे। पंजाब-हरियाणा और गेहूं-चावल में एमएसपी व्यवस्था की अहमियत दोनों (संकेतन और हस्तक्षेप) के मेल से है। इन दोनों राज्यों में सक्रिय ऊपार्जन कार्यक्रम और "ऊपार्जन मूल्य की गारंटी" कीमतों का एक पैमाना तय करती हैं, जो दूसरी जगह बहुत ज़्यादा नीचे नहीं हो सकता। हमने बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों को एमएसपी का लाभ लेने के लिए माल पंजाब लाते देखा है, ताकि बेहद कम स्थानीय कीमतों और एमएसपी के बीच की खाई को भरा जा सके। एमएसपी व्यवस्था की यही सफलता है।

चीनी के लिए भी ऐसी ही स्थिति है। चीनी की खरीद के लिए भी न्यूनतम कीमतें तय की गई हैं, जिनका आधार चीनी मिलों द्वारा किया जाने वाला ऊपार्जन है। दूसरी फ़सलों में एमएसपी की असफलता राज्य द्वारा इनके बाज़ारों में पर्याप्त मात्रा में हस्तक्षेप ना करने की वज़ह से है। जब संकेतन और हस्तक्षेप एकसाथ काम करते हैं, तो किसानों को भरोसा होता है कि उनकी फ़सलों का सही दाम मिलेगा और वे इसमें कम डर के साथ ज़्यादा निवेश कर सकते हैं।

खाद्य सुरक्षा कानून में जितनी बाध्यता है, सरकार उसके परे जाकर अतिरिक्त उत्पाद को अच्छी कीमत दिलवाने में नाकाम रही है। कोई भी संतुलित कीमत, जो बाज़ार द्वारा खोजी गई होगी, उसका एमएसपी से नीचे जाना तय है।

राज्य की संस्थाओं को सारा कृषि उत्पाद खरीदने की जरूरत नहीं है। एक निश्चित जरूरी मात्रा में खरीद ही बाज़ार को संकेत देने और प्रभावित करने के लिए पर्याप्त होता है। इसके लिए सरकारी खरीद संस्थाओं को सक्रिय ढंग से व्यापक स्तर पर खरीद करनी चाहिए और उनके पास पर्याप्त मात्रा में भंडारण क्षमताएं होनी चाहिए। जब तक सरकार बाज़ार को प्रभावित करने के लिए खरीद करती है, तब तक सही है। 

खाद्यान्न अनाजों के भंडारण के आंकड़े इसकी वज़ह भी साफ़ कर देते हैं। खाद्य सुरक्षा कानून में जितनी बाध्यता है, सरकार उसके परे जाकर अतिरिक्त उत्पाद को अच्छी कीमत दिलवाने में नाकाम रही है। कोई भी संतुलित कीमत, जो बाज़ार द्वारा खोजी गई होगी, उसका एमएसपी से नीचे जाना तय है।

मौजूदा सुधार विमर्श में दो विरोधाभासी तर्क दिए जा रहे हैं। पहला तर्क मंडियों के बाहर मुक्त खरीद, मुक्त आवाजाही और "बाज़ार व्यापारियों के भंडारण" पर लागू होने वाली सीमा को हटाए जाने के बारे में है। कहा जा रहा है कि इससे बेहतर भंडारण क्षमताएं और प्रसंस्करण सुविधाएं विकसित होंगी, साथ ही मूल्य श्रंखला में भी सुधार आएगा और कुल मिलाकर कृषि लाभ का धंधा बनने की ओर बढ़ेगी। 

दूसरा तर्क यह है कि राज्य हस्तक्षेप के बावजूद भी अगर बाज़ार अपर्याप्त साबित हुए हैं, तो बाज़ारों को मुक्त करने से ही किसानों को बेहतर कीमतें मिलेंगी और यह उनके हित में होगा। इस तर्क में यह माना जा रहा है कि मौजूदा राज्य हस्तक्षेप के बावजूद किसानों को मिलने वाली कीमतें कम होती हैं। लेकिन ऐसा नहीं है।

क्या हम ऊपार्जन व्यवस्था को ख़त्म कर, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) की व्यवस्था की ओर मुड़ सकते हैं? बिलकुल ऐसा कर सकते हैं, लेकिन इसके गंभीर नती़ज़े होंगे। हम किसानों के दिवालिया होने की स्थिति और उनकी आत्महत्याओं के ऊपर एक कुशल बाज़ार व्यवस्था बनाने के लिए नहीं बढ़ सकते।

बड़े स्तर पर भंडारण वाले आज के दौर में बाज़ारों को खोलने से कीमतें बहुत नीचे जाएंगी और इससे किसानों में बहुत तनाव पैदा होगा। हमें यह याद रखना होगा कि "कृषि लागत और कीमत आयोग (CACP)" जिस एमएसपी पर पहुंचता है, वह "कुल कीमत+पारिवारिक श्रम (A2+FL)+मुनाफ़ा" होता है। अगर हम पूंजी पर ब्याज़ को भी तस्वीर में शामिल कर लें, तो यह मुनाफ़ा बेहद कम हो जाता है। इस तरह एमएसपी वह कम से कम कीमत होती है, जिस पर कोई किसान बिना नुकसान उठाए अपने उत्पाद को बेंच सकता है। जब तक हम इस तर्क से सहमत हैं, तब तक एमएसपी को वास्तविक न्यूनतम मूल्य होना ही चाहिए। 

इन चीजों का समाधान बाज़ार व्यवस्था में होने का तर्क दिया जाता है। कीमतों का संतुलन गेहूं और चावल के खुले ऊपार्जन को दबाएगा, जिससे अतिरिक्त मात्रा में उत्पादन हतोत्साहित होगा। परिणामस्वरूप किसान फ़सलों में विविधता लाने की तरफ प्रेरित होगा। इससे राज्य पर ऊपार्जन करने का दबाव ख़त्म हो जाएगा (अंतत: ऊपार्जन कार्यक्रम को ही ख़त्म कर दिया जाएगा)।

क्या बाज़ार, व्यवस्था में कुशलता ला सकता है? बिलकुल ला सकता है, बशर्ते ग्राहक मूल्य स्थिरता पर कोई नियंत्रण और कोई बाध्यताएं ना हों। क्या हम ऊपार्जन व्यवस्था को ख़त्म कर, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) की व्यवस्था की ओर मुड़ सकते हैं? बिलकुल ऐसा कर सकते हैं, लेकिन इसके गंभीर नती़ज़े होंगे। हम किसानों के दिवालिया होने की स्थिति और उनकी आत्महत्याओं के ऊपर एक कुशल बाज़ार व्यवस्था बनाने के लिए नहीं बढ़ सकते।

एमएसपी के पर्यावरणीय प्रभाव

घोषित कीमतों और निश्तित ऊपार्जन व्यवस्था की सफलता ने चावल और गेहूं के उत्पादन को भंडारण और खपत की जरूरी मात्रा से कहीं ज़्यादा ऊपर पहुंच दिया है। यह फ़सलें बहुत ज़्यादा पानी की मांग करती हैं, इसके चलते यह पर्यावरणीय आपदा साबित हो रही हैं। यह एक सही तर्क है, जिसका समाधान किया जाना जरूरी है।

इस पृष्ठभूमि में हम राज्य की ज़्यादा सक्रिय भूमिका के लिए कह सकते हैं। इस समस्या को हल करने के लिए स्थिरता को बरकरार रखते हुए किसानों को बहुत ज़्यादा पानी सोखने वाली फ़सलों से विविध कृषि तक ले जाने वाली महीन प्रक्रिया की जरूरत है। 

एमएसपी की घोषणा फ़सल लगाने में भूमि इस्तेमाल को बदलता है। लेकिन अगर एमएसपी से नीचे कुछ भी हासिल होता है, तो वह आबादी के सबसे कमज़ोर तबके के खिलाफ़ जाता है, जो अर्थव्यवस्था में बेहद सक्रिय ढंग से योगदान दे रहा है। इस विरोधाभास का समाधान एमएसपी व्यवस्था का खात्मा नहीं बल्कि इसके फलक को व्यापक करना है। हमें पंजाब और हरियाणा में चावल और गेहूं के मामले से सीख लेना होगा और दूसरी फ़सलों के उत्पादन को बेहतर एमएसपी का संकेतन कर बढ़ावा देना होगा। 

इस पृष्ठभूमि में हम राज्य की ज़्यादा सक्रिय भूमिका के लिए कह सकते हैं। इस समस्या को हल करने के लिए स्थिरता को बरकरार रखते हुए किसानों को बहुत ज़्यादा पानी सोखने वाली फ़सलों से विविध कृषि तक ले जाने वाली महीन प्रक्रिया की जरूरत है। वैकल्पिक फ़सलों को प्रोत्साहन, बेहतर एमएसपी और प्रभावी ऊपार्जन व्यवस्था (चाहे सरकार द्वारा या फिर निजी क्षेत्र के साथ बाध्यता भरे समझौतों के ज़रिए) के ज़रिए इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। मूल्य श्रंखला से जुड़े ढांचे में बड़े स्तर का सार्वजनिक निवेश करना होगा, इसके लिए कृषि मंत्री द्वारा घोषित दस खरब रुपये के "एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड" की मदद ली जा सकती है। 

नीति निर्माण के क्रम में यह चीज जरूरी तौर पर याद रखी जाना होगी कि अस्थिरता और कृषिगत भेद्यता साथ नहीं चल सकतीं। कृषक समुदाय कई स्तरों पर भेद्य है। उन्हें स्थिरता और निश्चित्ता का भरोसा दिलवाना होगा। यह प्रभावी ऊपार्जन और फ़सलों के मूल्य संकेतन द्वारा आ सकता है। संकटग्रस्त तबके को अस्थिरता की तरफ बढ़ाकर हम खरीददारों और कृषकों की आपस में विषम स्थितियों को बढ़ावा दे रहे होंगे। इस तरह की स्थितियों को हम इस मोड़ पर तो कम से कम वहन नहीं कर सकते। 

राजकोषीय घाटे का क्या

इन कार्यक्रमों से बड़े सवाल पैदा होंगे। यह कार्यक्रम राजकोषीय घाटे को बढ़ाएंगे। क्या सरकार के पास संसाधन हैं? इस वक़्त इस सवाल का जवाब सिर्फ़ "ना" में ही हो सकता है। इसलिए सवाल है कि क्या कोई ऊपार्जन व्यवस्था सीमित होकर भी प्रभावी हो सकती है। सुधा नारायण, प्रांकुर गुप्ता और रीतिका खरे ने इसका एक समाधान पेश किया है। वे एक विकेंद्रीकृत ऊपार्जन व्यवस्था की वकालत करते हैं, इस व्यवस्था में हर किसान से ऊपार्जित उत्पाद की मात्रा सीमित होती है। इस तरह इस व्यवस्था में सबसे छोटे और हाशिए के किसानों को मदद मिलती है।

एफ़पीओ के ज़रिए रामबाण दागने की कोशिश

सरकार ने किसानों को मामले के अपने हाथ में लेते हुए किसान उत्पादक संगठन (एफ़पीओs) बनाने की सलाह दी है, जिसे सरकार का समर्थन हासिल होगा।

अगर व्यवहारिकता की कमी के चलते निजी क्षेत्र एमएसपी या उसके ऊपर फ़सल नहीं खरीद सकता, तो एफ़पीओ भी कतई नहीं खरीद पाएंगे। इस सवाल के जवाब के लिए किसानों के स्वामित्व वाले संगठन को बीच में लाकर सिर्फ़ अपनी नैतिकता से बचा जा रहा है। अगर किसानों का संगठन ही एमएसपी से नीचे मूल्य दे रहा है, तो इसका मतलब हुआ कि उत्पाद की यही कीमत है। 

किसानों द्वारा बनाए जाने वाले 10,000 एफ़पीओ का कार्य बाज़ार में मौजूद निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों से अलग नहीं होगा। केवल अंतर यह है कि एफ़पीओ की कमाई का एक बड़ा हिस्सा निजी निवेशकों के बजाए उत्पादक-किसानों को जाएगा। ऊपार्जन व्यवस्था और मूल्य श्रंखला पुरानी ही है।  अगर व्यवहारिकता की कमी के चलते निजी क्षेत्र एमएसपी या उसके ऊपर फ़सल नहीं खरीद सकता, तो एफ़पीओ भी कतई नहीं खरीद पाएंगे। इस सवाल के जवाब के लिए किसानों के स्वामित्व वाले एक संगठन को बीच में लाकर सिर्फ़ नैतिकता से बचा जा रहा है। अगर किसानों का संगठन ही एमएसपी से नीचे दे रहा है, तो इसका मतलब हुआ कि उत्पाद की यही कीमत है। 

खैर, रातों-रात एफ़पीओ को खड़ा भी नहीं किया जा सकता। एक तेजतर्रार संस्थान के तौर पर सावधानी से उनका गठन करना होगा। "अमूल फॉर इंडिया" को सदस्य आधारित डेयरी सहभागिता उपक्रम का राष्ट्रीय खाका विकसित करने के लिए 25 साल लगे हैं। फिर "ऑपरेशन फ्लड" के ज़रिए संदेश का प्रसार करने में 25 साल और लगे। यह कोऑपरेटिव्स बड़े स्तर पर कारगर होते हैं, लेकिन हम यह भी जानते हैं कि सभी राज्यों में यह सफल नहीं होते। किसानों को मूल्य श्रंखला की जिम्मेदारी खुद संभालने के लिए बोलकर हम सिर्फ़ समस्या को उनपर टाल रहे हैं और उनसे आत्मनिर्भर बनने के लिए कह रहे हैं।

क्षेत्रों में दोबारा संतुलन बैठाने की जरूरत

कृषि की अर्थव्यस्था और कृषि व्यापार की अर्थव्यवस्था में संतुलन बैठाने के लिए कुछ जगह मौजूद है। बता दें कृषि अर्थव्यवस्था लगातार तनाव में है, वहीं कृषि व्यापार अर्थव्यस्था सिर्फ़ मुनाफे में ही नहीं, बल्कि स्टॉक बाज़ार में भी अच्छा प्रदर्शन कर रही है। इनमें संतुलन कुछ विशेष करों और शुल्कों द्वारा बनाया जा सकता है, जिनके तहत कृषि व्यापार उद्यमों के मुनाफ़े पर कर-शुल्क लगाए जा सकते हैं। या फिर कानूनी तौर पर बाध्य ऊपार्जन व्यवस्था बनाकर, जहां निजी क्षेत्र से भी वसूली की जा सकती है, यह संतुलन बनाया जा सकता है। कॉरपोरेट के पास तकनीक और वित्तकोष दोनों मौजूद होती होती है, जिनके ज़रिए वे संभावित नुकसान की भरपाई भविष्य की स्थितियों और "हेजिंग (कीमतों में उतार-चढ़ाव से बचने का तरीका)" से कर सकते हैं। 

जरूरत यह है कि सरकार खुलकर पारदर्शी तरीके से कृषि व्यापार कंपनियों से न्यूनतम कीमतों और "फ़सल के मौसम से पहले उनके द्वारा खरीदी जा सकने वाली कृषि उत्पाद की मात्रा" पर बात करे। हमें किसानों के खरीददारों से जुड़ने के लिए निश्चित्ता का भरोसा देने वाले खरीद समझौते की जरूरत है। इसमें किसानों के लिए बाहर निकलने का विकल्प भी होना चाहिए। समझौते का मजबूत वैधानिक आधार हो और इसमें समस्या समाधान का मजबूत तंत्र भी मौजूद हो। अगर ऐसा हो सके तो किसानों और सरकार के बीच मौजूदा विवाद को ख़त्म किया जा सकता है।

(एमएस श्रीराम आईआईएम बैंगलोर में सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में फैकल्टी मेंबर हैं। यह लेख पहले इंडिया फ़ोरम पर प्रकाशित हुआ था।)

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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