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राजद्रोह पर सुप्रीम कोर्ट: घोर अंधकार में रौशनी की किरण

सुप्रीम कोर्ट का आज का आदेश और न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ का हाल का बयान, जिसमें उन्होंने कहा था कि नागरिकों के असंतोष या उत्पीड़न को दबाने के लिए आपराधिक क़ानून का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए, एक आशा की किरण तो ज़रूर दिखाता है।
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उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने आज बुधवार को राजद्रोह के मामलों में सभी कार्यवाहियों पर रोक लगा दी और केंद्र एवं राज्यों को निर्देश दिया कि जब तक केंद्र सरकार इस औपनिवेशिक युग के कानून पर फिर से गौर नहीं कर लेती, तब तक राजद्रोह के आरोप में कोई भी नई प्राथमिकी दर्ज नहीं की जायेगी।  

प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमण, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की एक पीठ ने कहा कि राजद्रोह के आरोप से संबंधित सभी लंबित मामले, अपील और कार्यवाही को स्थगित रखा जाना चाहिए।

पीठ ने यह भी आदेश दिया कि अदालतों द्वारा आरोपियों को दी गई राहत जारी रहेगी। उसने कहा कि प्रावधान की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर जुलाई के तीसरे सप्ताह में सुनवाई होगी और तब तक केंद्र के पास प्रावधान पर फिर से गौर करने का समय होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, मेजर जनरल( रिटायर्ड) एसजी वोमबातकेरे व अन्य याचिकाओं की सुनवाई के दौरान दिया। याचिका में कहा गया है कि धारा 124 A अभिव्यक्ति की आजादी पर एक अनुचित प्रतिबंध है।

सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वकील काबिल सिब्बल ने अदालत को बताया कि पूरे भारत में देशद्रोह (राजद्रोह) के 800 से अधिक मामले दर्ज हैं और करीब 13,000 लोग जेल में हैं।

आपको बता दें कि पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि, पत्रकार सिद्दीकी कप्पन, छात्र नेता उमर खालिद, कन्हैया कुमार, शरजील इमाम आदि पर भी राजद्रोह का आरोप है। इनके अलावा कई अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकील व अन्य सामाजिक कार्यकर्ता भी इसी तरह के आरोप और मुकदमे झेल रहे हैं।

कोर्ट इस कानून की समीक्षा को लेकर सख्त हुआ है हालांकि सरकार का इस कानून को लेकर रवैया नरम होता दिखाई नहीं दे रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तुरंत बाद ही, केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कोर्ट को चेतावनी देते हुए यहाँ तक कह दिया कि वह "अदालत और इसकी स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं", लेकिन एक "लक्ष्मण रेखा" है जिसे पार नहीं किया जा सकता है।"

 

भारत में क़ानून व्यवस्था
 
भारत में कानून व्यवस्था व प्रक्रिया के तीन आधार हैं।
 
इनमें पहली भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) है, जिसे 1860 में अधिनियमित किया गया था।
 
दूसरी, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) जो पहली बार 1861 में अधिनियमित की गई थी (1973 में वर्तमान संस्करण द्वारा प्रतिस्थापित किए जाने से पहले)। और
 
तीसरी, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, जिसे 1872 में अधिनियमित किया गया था।
 
यह स्पष्ट है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के ख़िलाफ़ जनता के विद्रोहों को दबाने, 1857 की क्रांति से निपटने, और अपने अत्याचारों और शासन को बाकायदा कायम रखने के उद्देश्य से इन्हें अंग्रेज़ों द्वारा अस्तित्व में लाया गया था।

राजद्रोह जिसे आजकल आम चलन में देशद्रोह भी कहा जाने लगा है, का प्रावधान मूल आईपीसी में शामिल नहीं था। इसे धारा 124 ए के तहत 1870 में  दंड संहिता के अध्याय VI, जो राज्य के खिलाफ अपराधों से संबंधित है, का हिस्सा बनाया गया।

आर्टिकल 14 के राजद्रोह के डेटाबेस के मुताबिक 2010-2021 के बीच 13,000 लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगा। हाल ही में सार्वजनिक विरोध, असंतोष, सोशल मीडिया पोस्ट, सरकार की आलोचना और यहां तक कि क्रिकेट के परिणामों के खिलाफ लिखने पर भी इसका उपयोग पिछले एक दशक में तेजी से बढ़ा है।

आर्टिकल 14 का डेटाबेस आगे बताता है कि 2010 और 2021 के बीच राजनेताओं और सरकारों की आलोचना करने के लिए 405 भारतीयों के खिलाफ दर्ज किए गए राजद्रोह के 96% मामले 2014 के बाद दर्ज किए गए थे। इनमें 149 पर प्रधान नरेंद्र मोदी के खिलाफ "आलोचनात्मक" और / या "अपमानजनक" टिप्पणी करने का आरोप लगाया गया था। इसके अलावा 144 मामले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ लिखने/बोलने के लिए दर्ज किए गए थे। इसके मुताबिक सबसे अधिक राजद्रोह के मामले बिहार, यूपी, कर्नाटक और झारखंड में भाजपा के शासन में दर्ज किए गए।

हाल के वर्षों में, खासकर मोदी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से, राजद्रोह/देशद्रोह और यूएपीए को अपने बचाव के लिए हथियार बनाया गया है और आलोचकों के खिलाफ नियमित रूप से इस्तेमाल किया गया है।

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 ए, जो राजद्रोह को यूं परिभाषित करती है, "ऐसे किसी भी संकेत, दृश्य, या बोले या लिखे गए ऐसे शब्द, जो सरकार के प्रति "घृणा या अवमानना, या उत्तेजना या असंतोष को पैदा करने का प्रयास" कर सकते हैं।"

ब्रिटिश प्रशासन के आलोचकों के खिलाफ अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाला यह कानून, जो हमारी औपनिवेशिक विरासत का हिस्सा है, अब स्वतंत्र भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का एक हथियार बन गया है।

राजद्रोह की संवैधानिकता पर सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण फैसला सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ का केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य है, जो एक तरह से निराशाजनक भी है। इस फैसले में न्यायालय ने संविधान के मौलिक अधिकार अध्याय का उल्लंघन करने के लिए राजद्रोह को रद्द करने के बजाय बीच का रास्ता अख्तियार किया और कहा कि "सरकार की आलोचना" भी राजद्रोह हो सकती है, लेकिन यह तभी होगा जब इसके लिए हिंसा या ऐसी कार्रवाई जिससे हिंसा होने की प्रवृति झलकती है, का सहारा लिया जाए।

हालांकि, तमाम खामियों के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट का यह प्रसिद्ध फैसला, जिसमें कोर्ट साफ तौर पर कहता है कि जब तक आरोपी व्यक्ति कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने के इरादे से लोगों को हिंसा के लिए नहीं उकसाता है, तब तक राजद्रोह का अपराध नहीं बनता है, शायद भारत की पुलिसिया संस्थानों के कानों तक नहीं पहुँच पाया। या शायद उन्हें इसे अनदेखा करने का कहीं से आदेश प्राप्त है। तभी तो, इसका इस्तेमाल आँख मूँद कर लोगों पर स्कूली नाटक का मंचन करने के लिए, प्रधानमंत्री की आलोचना करने के लिए, "पाकिस्तान नरक नहीं है" कहने पर, मॉब लिंचिंग के खिलाफ खुला पत्र लिखने जैसे मामलों में किया गया है।

भले ही वास्तविक हिंसा या हिंसा करने की प्रवृत्ति को राजद्रोह के लिए एक पूर्ववर्ती शर्त के तौर पर देखा जाता है, लेकिन पिछले कुछ सालों में हमने राजद्रोह के ऐसे मामले दर्ज होते देखे हैं जहां हिंसा और भाषण में कोई दूर-दूर तक संबंध नहीं था।

राजद्रोह पर न्यायालय का रुख बँटा हुआ है। एक तरफ़ 9 फरवरी, 2021 को, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की खंडपीठ ने कुछ वकीलों द्वारा दायर एक जनहित याचिका (PIL), जिसमें धारा 124A की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी, को इस आधार पर खारिज कर दिया कि उसके समक्ष कोई ठोस मामला नहीं लाया गया।

तो दूसरी तरफ़ राजद्रोह पर हाल के कुछ फैसले, जैसे विनोद दुआ बनाम भारत संघ और अन्य स्वागत योग्य हैं। इस फैसले में कोर्ट ने, हालांकि केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य में धारा 124A की परिभाषा और सिद्धांतों को दोहराया, और दुआ के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द किया।

मौजूदा न्यायधीशों की राजद्रोह की संवैधानिकता पर राय को लेकर कोई भी पूर्वानुमान जल्दबाजी होगी। लेकिन आज का आदेश और न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ का हाल का बयान, जिसमें उन्होंने कहा था कि नागरिकों के असंतोष या उत्पीड़न को दबाने के लिए आपराधिक कानून का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए, एक आशा की किरण तो ज़रूर दिखाता है।

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