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सुप्रीम कोर्ट द्वारा कृषि मुद्दों पर एक पैनल के गठन का निर्णय कोई निर्णायक कदम नहीं है!

यह बात पूरी तरह से समझ से बाहर है कि कैसे एक प्रधानमंत्री अपने कुछ चुनिन्दा कॉर्पोरेट मित्रों की खातिर अपनी ही जनता को बेवकूफ बना सकता है। 
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सर्वोच्च न्यायालय ने इस बीच मोदी सरकार को एक पैनल गठित करने का सुझाव दिया है, जिसमें केंद्र के साथ-साथ किसान यूनियनों के प्रतिनिधियों को इसमें शामिल कर इन तीन नए कृषि कानूनों को लेकर दोनों पक्षों के बीच बन चुके गतिरोध को खत्म किया जा सके।

अदालत की निगाह में “प्रदर्शनकारी किसानों के साथ आपकी बातचीत से अब तक कोई स्पष्ट नतीजा नहीं निकल सका है।” इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अदालत को जमीनी हकीकत के बारे में अंदाजा है। जाहिर तौर पर एक ऐसी पृष्ठभूमि में जहाँ सरकार अपनी जिद पर अड़ी हुई है, इस प्रकार की सलाह अपनी प्रासंगिकता खो सकती है।

न्यायालय को कम से कम सरकार से यह सवाल अवश्य पूछना चाहिए था कि वह उन तथ्यों और वजहों को पेश करे जिसके चलते किसी नतीजे पर पहुँचने में उसे बाधा उत्पन्न हो रही है।

किसान इन तीनों काले कानूनों के पूर्ण खात्मे को लेकर आंदोलनरत हैं। यदि वाकई में वे कुछ इक्का-दुक्का बदलावों और संशोधनों के पक्ष में होते तो अब तक यह मामला कब का सुलझ गया होता, और वे भी मोदी सरकार के मंत्रियों की तरह ही अपने घरों में बैठकर इस सर्दी का आनंद ले रहे होते, ना कि दिसंबर की इस हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड में दिल्ली की सड़कों पर बैठकर कष्ट सह रहे होते।

न्यायलय को कम से कम सरकार से यह सवाल अवश्य पूछना चाहिए कि वह उन तथ्यों और वजहों को उनके सामने पेश करे, जिसके चलते किसी नतीजे तक पहुँचने में उसे बाधा उत्पन्न हो रही है।

न्यायालय से इस बात की अपेक्षा की जा रही थी कि वह इस स्थिति से उबरने के लिए किसी न किसी प्रकार के आदेश के साथ आएगी। लेकिन ऐसा कुछ भी देखने में नहीं आया है। इसने कष्ट में पड़े हुए किसानों को खुद के भरोसे पर छोड़ दिया है।

सुप्रीमकोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ को इन तीन कानूनों को व्यापक दृष्टिकोण के तहत देखना चाहिए था। इस मामले के अपने व्यापक निहितार्थ हैं; क्या किसानों को भी भारत में जिन्दा रहने और अपने लिए सम्मानपूर्ण जीवन जीने का बुनियादी अधिकार हासिल है? या उनसे कॉर्पोरेट जगत के मातहत में ही जीवनयापन की अपेक्षा की जाती है जो उनके उपर राज करेंगे और उनकी जिंदगियों की दशा-दिशा को तय करेंगे?

उदहारण के लिए मान लेते हैं कि यदि यह पैनल किसी सौहार्दपूर्ण समाधान की पेशकश कर पाने में विफल रहता है तो उस स्थिति में अदालत क्या करने जा रही है? क्या उस स्थिति में यह किसानों को मोदी सरकार के हुक्म का पालन करने का निर्देश देगी? गौरतलब है कि अदलात ने इसके बारे में कोई तय समय-सीमा निर्धारित नहीं की है कि कब तक सरकार को इस मुद्दे का हल निकाल लेना चाहिए।

वार्ता की विफलता और सरकार के उपर भरोसे का अभाव 

अभी तक नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल के सहयोगियों ने किसानों के साथ पांच दौर की वार्ता पूरी कर ली है, किंतु गतिरोध कायम है। किसानों के साथ वार्ता में शामिल होने वाले कैबिनेट मंत्रियों की मोदी की मर्जी के खिलाफ कदम उठाने की हिम्मत नहीं है।

वहीँ सरकार इस मुद्दे का हल निकालने को लेकर कहीं से भी इच्छुक नजर नहीं आ रही है, जिसे सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता द्वारा की गई तिरस्कारपूर्ण टिप्पणी से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है, जिन्होंने पीठ के समक्ष कहा “कई मंत्रियों ने इनसे बातचीत का प्रयास किया है। लेकिन इन्होने अपनी कुर्सियां पीछे खींच ली और उनसे बात नहीं की।” आखिर वे कैसे इस प्रकार की प्रकृति वाले निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, जब कृषि मंत्री के बुलावे की पहल पर किसानों ने उनसे पाँच मौकों पर मुलाक़ात की? उल्टा यह मंत्री महोदय थे जिन्होंने किसानों के दृष्टिकोण को स्वीकार करने का काम नहीं किया था।

यदि वे कुछ इक्का-दुक्का बदलावों और संशोधनों के पक्ष में होते तो अभी तक यह मसला कब का सुलझ गया होता और वे बजाय दिल्ल्ली की सड़कों पर इस दिसंबर की कड़ाके की सर्दी में कष्ट सहने के बजाय मोदी सरकार के मंत्रियों की तरह ही अपने-अपने घरों में बैठकर इस सर्दी का आनंद ले रहे होते।

किसानों के लिए यह वास्तव में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि उनके खिलाफ शुरू किये गए इस गाली-गलौज वाले अभियान ने अदालत का ध्यान अपनी ओर नहीं खींचा।

21 दिनों से चल रहे इस आंदोलन के प्रति मोदी की हताशा तब देखने को मिली जब वे किसानों के बीच में फूट डालने की कोशिश में उन किसानों के लिए प्रगतिशील शब्द का इस्तेमाल करते दिखे, जिन्होंने उनके प्रति अपनी वफादारी का इजहार किया।

किसानों के खिलाफ नए सिरे से दुष्प्रचार फैलाने के लिए मोदी ने रविवार को अपने गृह राज्य गुजरात को सबसे उत्तम स्थान के रूप में चुना। उन्होंने कृषि कानूनों एवं सुधारों पर बातचीत के लिए अपने दिल्ली स्थित घर के समीप भूख हड़ताल पर बैठे किसानों को आमंत्रित करने के बजाय कच्छ की उड़ान भरना पसंद किया। यह वाकई बेहद पेचीदा मसला है कि मोदी जहाँ विपक्ष पर किसानों को गुमराह करने का आरोप लगा रहे हैं, वहीँ वे यह बता पाने की जहमत नहीं उठा पा रहे हैं कि आखिर किसानों को क्यों उनपर भरोसा नहीं बन पा रहा है।

यह शुद्ध रूप से मोदी और उनकी सरकार पर भरोसा खत्म हो जाने वाला मामला है, जिसके चलते किसान अब एमएसपी को क़ानूनी रूप दिए जाने पर अड़े हुए हैं। वे उनकी बातों पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं हैं।

सरकार का नैरेटिव साबित करता है कि कृषि कानून कॉर्पोरेट-समर्थक हैं 

यदि एमएसपी के खात्मे को लेकर सरकार की कभी कोई मंशा नहीं थी तो क्यों मोदी और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी इसे अपनी प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाये हुए हैं? क्यों किसानों के खिलाफ घृणास्पद अभियान को शुरू किया गया? इस तिरस्कारपूर्ण अभियान को चलाकर आखिर वे किसके हितों की सेवा करने का काम करने की जुगत में हैं?

किसानों द्वारा लगाए जा रहे आरोप कि मोदी कॉर्पोरेट सेक्टर के इशारे पर काम कर रहे हैं, को पहली बार फिक्की के पूर्व अध्यक्ष और भारती एंटरप्राइज के वाईस-चेयरमैन राजन भारती मित्तल के बयान से समझा जा सकता है। फिक्की के मेम्बरानों को संबोधित करते हुए उन्होंने किसानों के खिलाफ लड़ाई में सरकार को सभी प्रकार से मदद देने का वादा किया और यह आश्वासन भी दिया कि “कृपया कदम पीछे न खींचियेगा। उद्योग आपकी हर संभव मदद के लिए तैयार है।”

उदाहरण के लिए यदि मान लेते हैं कि यह पैनल किसी सौहार्दपूर्ण समाधान की पेशकश कर पाने में विफल रहता है तो उस स्थिति में अदलात क्या करेगी? क्या यह किसानों को मोदी सरकार के आदेशों को मानने का निर्देश देगी? गौरतलब है कि कोर्ट ने इसको लेकर कोई निश्चित समय सीमा नहीं तय की है कि इतने समय के भीतर सरकार को इसका समाधान तलाश लेना चाहिए।

कल ही मोदी के सबसे चहेते मंत्री पीयूष गोयल ने सार्वजनिक तौर पर इस बात को कबूला कि नए कृषि कानून कृषक-समर्थक के बजाय कॉर्पोरेट-समर्थक हैं, जब उन्होंने कहा कि खाद्यान्न के मामले में व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए इन बिलों को अधिनियमित किया गया था।

यह बेहद गंभीर चिंता का विषय है कि दिल्ली की सड़कों पर इस आंदोलन में भाग लेते हुए करीब 20 किसानों ने अपनी जानें गवां दी हैं। जबकि मोदी विपक्ष के उपर किसानों को बहकाने का आरोप लगा रहे हैं, वहीँ उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी पीयूष गोयल ने आरोप लगाते हुए कहा है कि इस आंदोलन में “वामपंथी और माओवादी तत्वों एवं राष्ट्र-विरोधी तत्वों ने अपनी घुसपैठ बना ली है।” उनका यह बयान साबित करता है कि इस आंदोलन को खत्म करने की पूर्व-पीठिका के तौर पर इसके लिए जमीन तैयार की जा रही है।

किसानों के लिहाज से यह वास्तव में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था कि उनके खिलाफ जिस प्रकार का दुष्प्रचार अभियान शुरू किया गया है, उसने अदलात का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं किया है।

लेकिन सबसे अजीबोगरीब बात यह देखने को मिली है कि नरेंद्र मोदी ने विरोध की असल वजहों को लेकर अपनी अनभिज्ञता जाहिर की है। क्या वे वास्तव में विरोध की वजहों से अंजान हैं? वास्तव में देखें तो उनकी यह भोलेपन की अभिव्यक्ति एक प्रकार का तंत्र है, जिसके वशीभूत होकर उनके अनुयायियों में किसानों और उनके आंदोलन के खिलाफ घृणा फ़ैलाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। उनकी ओर से आमतौर पर जो जुमलेबाजी की जा रही है, उसमें दिखाया जाता है वे इस बात को समझ पाने में असमर्थ हैं कि किसानों ने आखिर आंदोलन का रास्ता क्यों अपनाया हुआ है। क्योंकि उनके हिसाब से तो ये कानून उन्हें गरीबी से मुक्त करने के लिए बनाए गए हैं और उनका भविष्य इससे समृद्ध होने जा रहा है। जाहिर सी बात है ऐसे में एक किसान को उन कानूनों को स्वीकार करने से क्यों इंकार करना चाहिए जो उसके लिए उज्ज्वल भविष्य का वादा करने जा रहा है?

लेकिन किसानों द्वारा लगातार अपने आंदोलन को जारी रखना इस बात का द्योतक है कि कुछ तो गंभीर रूप से गलत है, और यही वजह है कि किसान उनकी इस पहल से सहमत होने के लिए तैयार नहीं हैं। देश का सर्वप्रमुख नेता होने के नाते मोदी की यह परम कर्तव्य बन जाता है कि वे किसानों के साथ बैठें और इन मुद्दों को सुलझाएं।

जबकि हो यह रहा है कि जहाँ एक तरफ मोदी और उनके मंत्री गणों ने उन्हें राष्ट्र-विरोधी के तौर पर बताना शुरू कर दिया है वहीँ कुछ कैबिनेट मंत्रियों ने तो दिमागी खेल में भी खेलना शुरू कर दिया है।

कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का दावा है कि वे आजकल प्रतिदिन एक किसान यूनियन के साथ बैठक कर रहे हैं।

फिक्की के सदस्यों को संबोधित करते हुए उन्होंने किसानों के खिलाफ उनकी लड़ाई में हर संभव मदद का वादा करते हुए यह आश्वासन भी दिया “कृपया कदम पीछे न खींचें। उद्योग जगत आपके समर्थन में पीछे खड़ा रहेगा।”

इस प्रकार के कार्य-कलाप इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल के दिनों में अपनाई जाने वाली रणनीति की याद दिलाती है, जब औसतन रोजाना ही किसी न किसी संगठन का नेता आकर उनसे मुलाक़ात किया करता था और अपने समर्थन की कसम खाया करता था।

इसी प्रकार से कुछ किसानों के संगठन भी इन तीन कृषि कानूनों के समर्थन करने की बात कर रहे हैं और सरकार के इशारे पर अपना समर्थन व्यक्त कर रहे हैं। रोचक तथ्य यह है कि इनमें से एक भी किसान संगठन उन 40 किसानों के समूहों में से नहीं है, जिन्होंने इस आंदोलन को खड़ा किया है, या जिसने केंद्र के साथ अभी तक बेनतीजा रही हालिया दौर की बैठकों में हिस्सा लिया हो। सूत्रों की यदि मानें तो सरकार इनके लैटर हेड तक को छापने की व्यवस्था में लगी है और उन्हें पहचान पत्र बनवाकर देने का काम कर रही है।

क्या मोदी को वास्तव में लगता है कि किसान भोले-भाले और मूर्ख हैं?

उन्होंने कांग्रेस की पिछली सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने इन कानूनों और कृषि सुधारों को लागू नहीं किया। इसकी वजह बेहद आसान है। उनके समान यूपीए सरकारें हड़बड़ी में नहीं थीं, और उन्होंने इन सुधारों को मानवीय शक्ल दिए जाने हेतु कुछ और वक्त तक इंतजार करना बेहतर समझा था। इसके साथ ही उनका इरादा एक समानांतर बाजार खड़ा करने का नहीं था, जो किसानों को बर्बाद कर दे। लेकिन मोदी ने एक समानांतर बाजार को खड़ा किया ताकि अपने कॉर्पोरेट मित्रों के निहित स्वार्थों की हितपूर्ति की जा सके।

यह वास्तव में बेहद हास्यास्पद है कि मोदी एक ऐसे कानून की वकालत में लगे हुए हैं जो एपीएमसी मण्डियों को पूरी तरह से खत्म कर देने वाला साबित होने जा रहा है, भले ही वे इसे इतने स्पष्ट तौर पर न कह पा रहे हों। 

सबसे अजीबोगरीब बात यह देखने को मिली है कि नरेंद्र मोदी ने विरोध की असल वजहों को लेकर अपनी अनभिज्ञता जाहिर की है। क्या वाकई में उन्हें विरोध के कारणों का कोई अता-पता नहीं है? वास्तव में देखें तो उनकी भोलेपन की अभिव्यक्ति असल में एक प्रकार का तंत्र है, जिसके वशीभूत होकर उनके समर्थकों को किसानों और उनके आन्दोलन के खिलाफ घृणा फ़ैलाने के लिए इसमें प्रोत्साहन मिलता है।

यदि आंकड़ों पर निगाह दौडाएं तो भारत में सिर्फ 6 प्रतिशत किसान ही हैं जो पूरी तरह से एमसपी के दायरे में आते हैं और इनमें से 84 प्रतिशत पंजाब और हरियाणा में पाए जाते हैं। यह तथ्य भी सर्वविदित है कि पंजाब और हरियाणा के किसान सबसे संपन्न किसान हैं।

यह बात पूरी तरह से समझ से बाहर है कि कैसे एक प्रधानमंत्री अपने चंद कॉर्पोरेट मित्रों की खातिर अपनी ही जनता को मूर्ख बना सकता है।

इस बीच दृढ सत्याग्रहियों ने अपने रुख को सख्त करते हुए घोषणा कर दी है “सरकार का कहना है कि ‘हम इन कानूनों को रद्द नहीं करेंगे’; जबकि हमारा कहना है कि हम आपको ऐसा करने के लिए मजबूर करके रहेंगे। लड़ाई अब एक ऐसे मुकाम पर पहुँच चुकी है जहाँ भले ही कुछ भी हो जाए, हम इसे जीतने के लिए दृढ निश्चय कर चुके हैं।” (आईपीए)

मूल रूप से यह लेख द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।

https://www.newsclick.in/Supreme-Court-Move-Form-Panel-Farm-Issues-Is-Not-Breakthrough

(अरुण श्रीवास्तव एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

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