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आर्थिक रिकवरी का पाखण्ड

आंकड़ों के भ्रम से दूर, नए जीडीपी अनुमानों से ज़ाहिर होता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था आज भी एक गहरे संकट से गुज़र रही है।
Indian Economy

एक गहरे गड्ढे की गहराई से देखें तो ज़मीन एक खड़ी चढ़ाई नज़र आती है। यह वह भ्रम है जिसे नॉर्थ ब्लॉक के मंदारिन मीडिया के अंध-समर्थन से यह दावा करते हुए नज़र आते हैं कि अर्थव्यवस्था "रिबाउंड" यानि वापसी पर है। चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही (यानि जून-सितंबर 2021) के लिए राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का जो नवीनतम डेटा 30 नवंबर को जारी किया गया था, उसे इस बात का सबूत माना जा रहा है कि अर्थव्यवस्था महामारी की तबाही के रास्ते से अब सुधार की तरफ है जो तबाही अप्रैल 2020 से छह तिमाहियों से थोड़ा अधिक समय तक चली थी।

सांख्यिकी यानि आंकड़े, विशेष रूप से आधिकारिक आर्थिक आंकड़ों को संदेह के साथ देखने की जरूरत है। जोकि उन समस्याओं में से एक है जिसने महामारी में अर्थशास्त्रियों, विश्लेषकों और टिप्पणीकारों को भ्रमित कर दिया है - लेकिन एक ऐसी समस्या जो उस व्यक्ति के लिए नई नहीं है जो इस समस्या से परिचित हैं जो कि आर्थिक वास्तविकता की विशेषता है – जिसे आंकड़ों की समस्या के "आधार प्रभाव" के नाम से जाना जाता है। 

सीधे शब्दों में कहें तो, जब उत्पादन - जो कि सकल घरेलू उत्पाद है - एक समय सीमा (एक तिमाही या एक वर्ष में) के दौरान एक निश्चित प्रतिशत की गिरावट आती है, तो यह सुनिश्चित करने के लिए कि उत्पादन का स्तर अपने पिछले स्तर पर वापस आ जाए, उसमें काफी ऊंची वृद्धि की जरूरत होती है। या, इसे अलग तरह से कहें तो, यदि 2020-21 में भारतीय अर्थव्यवस्था में 7.25 प्रतिशत की गिरावट आई है, तो इसे अपने पूर्व-महामारी उत्पादन स्तर तक पहुंचने के लिए 8.4 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज़ करनी होगी।

कुछ महत्वपूर्ण चेतावनियां

लेकिन सबसे पहले, तिमाही जीडीपी आंकड़ों की विश्वसनीयता के बारे में कुछ महत्वपूर्ण चेतावनी की बात करते हैं। कई कारणों से, विशेष रूप से मैक्रोइकॉनॉमिक्स में विशेषज्ञता प्राप्त अर्थशास्त्री त्रैमासिक संख्या की बहुत अधिक परवाह नहीं करते हैं। वास्तव में, त्रैमासिक संख्या जारी करना तिमाही परिणामों के एक बुत को दर्शाता है, जो कॉर्पोरेट संस्थाओं की प्रथाओं को दर्शाता है, जिनकी आँखें स्टॉक मार्केट से चिपकी हुई होती हैं।

भारत ने 1990 के दशक के मध्य से तिमाही आंकड़ों की रिपोर्टिंग करनी शुरू की थी। जाहिर है, यह बाजारों के बढ़ते महत्व को दर्शाता है; बहुत कुछ की तरह, यह प्रथा भी, शायद उदारीकरण युग की संस्कृति का एक बच्चा है, भले ही इसकी प्रामाणिकता और इसकी निष्ठा पेशेवर अर्थशास्त्रियों के बीच अत्यधिक संदिग्ध बनी हुई हो।

सबसे पहली बात ये केवल "प्रारंभिक" अनुमान हैं, जिन्हें उच्च आवृत्ति डेटा बिंदु कहा जाता है। वास्तव में, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी किए गए जीडीपी आंकड़ों के अंतिम पृष्ठ पर 23 "मुख्य संकेतकों" की एक सूची है, संभवतः जिनका इस्तेमाल जीडीपी अनुमानों की गणना के लिए किया गया था। अर्थव्यवस्था इन तथ्यों से कहीं अधिक है या बड़ी है।

दूसरा, इन प्रारंभिक अनुमानों को "अंतिम" घोषित करने से पहले इसे कम से कम दो दौर के संशोधनों से गुजरना होता है और तब तक लगभग दो साल बीत चुके होते हैं। फिर दो साल बाद 2021-22 की दूसरी तिमाही के नतीजों पर कौन ध्यान देगा, जबकि दुनिया का ध्यान इस से हट गया होगा? दरअसल, इसमें एक विकृत तर्क निहित है; मौजूदा संख्याओं को बेहतर रोशनी में दिखाने के लिए अधिकारियों द्वारा पहले की संख्या को कम करना कोई असामान्य बात नहीं है।

तीसरा, इन अनुमानों में असंगठित और छोटे पैमाने के आर्थिक गतिविधि वाले क्षेत्रों के एक बड़े हिस्से को आसानी से दरकिनार कर दिया जाता है। यह, इस तथ्य के बावजूद है कि ठीक ये ही वे क्षेत्र हैं जिन्हे न केवल चल रही महामारी ने, बल्कि 2016 की विनाशकारी नोटबंदी और उसके अगले वर्ष लागू किए गए माल और सेवा कर ने तबाह कर दिया था। इन चेतावनियों के बावजूद, नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जारी किए गए नवीनतम आंकड़ों पर करीब से नज़र डालने से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था काफी गहरे संकट में है।

आधार-प्रभाव भ्रम पर क़ाबू पाना

आधार प्रभाव के भ्रम से बचने के लिए, सभी वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के स्तर की तुलना करना से सब समझ में आ जाता है – जिससे वास्तव में जीडीपी को मापा जाना चाहिए। आर्थिक रिकवरी के दावों के आकलन का मूल उद्देश्य सवाल करना है: जैसे कि क्या उत्पादन का स्तर अपने पूर्व-महामारी के स्तर तक पहुंच गया है? या, इस दावे की जांच करने का एक और तरीका यह पूछना है कि: भारत उस उत्पादन के स्तर पर पहुँचने से कितनी दूर है, जिसे यदि कोई महामारी नहीं होती तो उत्पादित किया जा सकता था? इन दावों का मूल्यांकन करने के लिए, आइए वर्तमान वित्तीय वर्ष (अप्रैल-सितंबर) की पहली छमाही (H1) पर विचार करें, न कि केवल 30 सितंबर को समाप्त होने वाली तीन महीने की अवधि का जिससे भर्म पैदा होता है। 

डेटा स्रोत: सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय

व्यय या ख़र्च की तीन मुख्य श्रेणियों के संदर्भ को विभाजित करने पर भारत के सकल घरेलू उत्पाद के तीन मुख्य घटक मिलते हैं। पहला, और सबसे महत्वपूर्ण, कुल सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 55 प्रतिशत, निजी अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई) है। यह अर्थव्यवस्था में सभी किस्म की निजी खपत का गठन करता है, और गंभीर और व्यापक असमानताओं के बावजूद, जो महामारी में और अधिक बढ़ गई हैं, अर्थव्यवस्था में कुल उपभोग मांग का एक मार्कर या चिन्ह है।

जीडीपी का दूसरा हिस्सा सरकारी अंतिम उपभोग व्यय (जीएफसीई) से आता है, जो न केवल सरकार द्वारा अपने स्वयं के कामकाज के लिए खर्च को दर्शाता है बल्कि सामाजिक सुरक्षा जैसे अन्य कार्यक्रमों से जुड़े भुगतानों के हस्तांतरण को भी दर्शाता है। महामारी के पैमाने को देखते हुए, और यह देखते हुए कि कोई भी यह उम्मीद करेगा कि एक सरकार जो अपने लोगों के कल्याण की परवाह करती है, उसने महामारी में आय सहायता कार्यक्रमों के माध्यम से अधिक खर्च किया होगा, इस मद में अधिक खर्च की उम्मीद करना तर्कसंगत होगा।

सकल घरेलू उत्पाद का तीसरा और अत्यंत महत्वपूर्ण घटक, सकल स्थायी पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) है, जो पूंजीगत स्टॉक में निवेश का सूचक होता है। सकल घरेलू उत्पाद के ये तीन घटक लगभग सभी राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद का लेखा-जोखा होता है; शुद्ध निर्यात (उसमें आयात का मूल्य निकालने के बाद) वह समग्र सकल घरेलू उत्पाद का एक बहुत छोटा अनुपात है। नवीनतम डेटा हमें इन तीन घटकों के बारे में क्या बताता है?

दयनीय विकास, हर तरफ़ दुख ही दुख 

हमें यहां क्या देखने को मिलता है: एच1 2021-22 में समग्र सकल घरेलू उत्पाद 68.11 लाख करोड़ रुपये का था, वित्तीय वर्ष 2019-20 में महामारी से पहले के उत्पादन के स्तर से 4.4 प्रतिशत कम (सभी कीमतें 2011-12 के स्तर पर मानकीकृत हैं)। लेकिन जीडीपी के तीन मुख्य घटकों का प्रदर्शन बहुत खराब रहा है (देखें चार्ट 1)। पीएफसीई द्वारा इंगित खपत के स्तर में 7.72 की गिरावट आई है। जीएफसीई द्वारा परिलक्षित सरकारी व्यय में 5.32 प्रतिशत की गिरावट आई है। सबसे महत्वपूर्ण, पूंजीगत स्टॉक में निवेश, जिसमें अपने गुणक प्रभाव के माध्यम से आर्थिक गतिविधि को आगे बढ़ाने की क्षमता है, में 8 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है।

विनिवेश के मामले में मोदी निज़ाम की आक्रामक प्रतिबद्धता का मतलब है कि वह निवेश को किकस्टार्ट करने के लिए सार्वजनिक उपक्रमों के इस्तेमाल के विकल्प को बंद कर देता है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की हाल ही में उद्योगपतियों से यह दलील थी कि वे जोखिम उठाते हैं, यह कुछ और नहीं बल्कि सरकार की हताशा को दर्शाता है। इस प्रकार, राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद के सभी तीन मुख्य घटकों का उत्पादन स्तर पूर्व-महामारी स्तरों की तुलना में एच1 2021-22 में काफी कम रहा था। इसे रिकवरी कहना सकारात्मक रूप से हंसने की बात होगी, यह देखते हुए कि इसने न सिर्फ गंभीर दुख दिए हैं बल्कि इसकी दयनीयता को ये संख्याएं खुद ही ब्यान करती हैं।

वास्तव में, समग्र सकल घरेलू उत्पाद की स्पष्ट रूप से अधिक सम्मानजनक गिरावट – जोकि अधिक मामूली यानि 4.4 प्रतिशत कहा जा रहा है - फिर से एक सांख्यिकीय/आंकड़ों के भ्रम का परिणाम है। भारतीय निर्यात ने चालू वर्ष की पहली छमाही में 2019-20 की तुलना में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की है जोकि लगभग 13 प्रतिशत है। लेकिन, इस तथ्य को देखते हुए कि भारतीय निर्यात अभी भी प्राथमिक वस्तुओं - परिष्कृत पेट्रोलियम, हीरे, आभूषण, खनिज, आदि और यहां तक ​​कि खाद्यान्न पर बहुत अधिक निर्भर है - एक संदेह है कि निर्यात का उच्च मूल्य अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी कीमतों में जारी उछाल से उत्पन्न हो सकता है। .

दूसरे शब्दों में, इस वृद्धि में मात्रा प्रभाव के बजाय कीमत का प्रभाव अधिक है, जो उच्च निर्यात का भ्रम पैदा करने में भूमिका निभा सकता है। वास्तव में, यह तथ्य कि आयात बहुत धीमी गति से बढ़ा - 2019-20 के बाद से 5 प्रतिशत कम हुआ है और जोकि भारतीय उद्योग के कमजोर विकास का एक संकेत है, जिसे अधिक आयात पर काफी निर्भर होने के लिए जाना जाता है। यह मान लेना तर्कसंगत होगा कि जब औद्योगिक गतिविधि में सुधार होगा या  आयात में वृद्धि होगी, जो अंतत समग्र सकल घरेलू उत्पाद में निर्यात के सकारात्मक योगदान को बेअसर कर देगा।

बढ़ता आउटपुट गैप

रिकवरी के दावों की जांच करने का एक और तरीका यह है कि महामारी से पहले के वर्षों में अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति की तुलना में राष्ट्रीय उत्पादन अब कहां खड़ा है। तालिका 1 में प्रस्तुत आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में उत्पादक क्षमता किस हद तक सिकुड़ गई है; महत्वपूर्ण रूप से, वे महामारी की शुरुआत से पहले की भविष्यवाणी करते हैं।

डेटा स्रोत: सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय

देशों/क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता के तुलनात्मक आकलन में इस्तेमाल की जाने वाली एक विधि बेंचमार्क स्तरों के सापेक्ष उत्पादन को मापना है। यह महामारी से पहले की तुलना में अब भारत में उत्पादन "अंतर" या गैप का अनुमान लगाने में उपयोगी है। इस प्रकार, 5.5 प्रतिशत की रूढ़िवादी वार्षिक वृद्धि दर को मानकर, उत्पादन अंतराल का अनुमान लगाना संभव है - सकल घरेलू उत्पाद में कमी, 5.5 प्रतिशत के बेंचमार्क की तुलना में, जो कि महामारी से पहले की विकास दर के करीब है। 

इस अभ्यास के परिणाम राष्ट्रीय उत्पादक क्षमता के इस्तेमाल और उत्पाद के उत्पादन में स्थिरता की सीमा को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करती है। एच1 2021-22 में वास्तविक उत्पादन संभावित उत्पादन से लगभग 10 लाख करोड़ रुपये कम है, जिसका कि महामारी नहीं होने पर अर्थव्यवस्था में उत्पादन हो सकता था। पूरे एक साल में, यह कहीं न कहीं 20 लाख करोड़ रुपये के करीब बैठेगा। इसे और अधिक स्पष्ट रूप से कहें तो चालू वर्ष में उत्पादन का अंतर 15 प्रतिशत का है। इसे और अधिक उत्तेजनापूर्ण या उत्साहपुर्ण तरीके से कहें तो, एच1 2021-22 में उत्पादन का स्तर तीन साल पहले की तुलना में सिर्फ 0.32 प्रतिशत अधिक है। असल में भारतीय अर्थव्यवस्था तीन साल से उसी जगह रहने का संघर्ष कर रही है!

यह घिनौनी सांख्यिकीय या आंकड़ों की कहानी उस संकट को भी नहीं पकड़ पाती है, जिसने पिछले कुछ वर्षों में अधिकांश भारतीयों के जीवन को अपनी चपेट में ले लिया है। फिर भी, वे रिकवरी के दावों को एक क्रूर मजाक के रूप में बेनकाब करते हैं, जो कि अधिकांश भारतीयों के लिए रोजमर्रा की जिंदगी की विशेषता वाली सामान्य वास्तविकता की अवहेलना करता है।

लेखक 'फ़्रंटलाइन' के पूर्व में सहयोगी संपादक रहे हैं, और उन्होंने द हिंदू ग्रुप के लिए तीन दशकों से अधिक समय तक काम किया है। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

The Humbug of an Economic Recovery

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